सुख दुःख इस संसार में सब काहू को होय। ज्ञानी काटे ज्ञान से मूरख काटे रोय।।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  सुख और दुःख क्या हैं ? शरीर और मन के अनुरूप स्थितियां या उनकी अनुभूति सुख है और इनके प्रतिकूल स्थितियां दुख हैं।

  दुख-सुख हमारे भावों में बसते हैं।क्या जीवन में दुखों का आना जरूरी है? जी हां, दुख और सुख सृष्टि के परिवर्तन चक्र हैं। जिस प्रकार रात-दिन और धूप-छाया का आना -जाना लगा रहता है, इसी प्रकार जीवन में हानि-लाभ और दुख-सुख भी निर्बाध गति से आते-जाते रहते हैं। ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जिसके जीवन में कष्ट न आए हों।

दुःख सुख पाप पुन्य दिन राती। 

साधु असाधु सुजाति कुजाती।। 

दानव देव ऊँच अरु नीचू।

अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू।। 

माया ब्रह्म जीव जगदीसा।

लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा।। 

कासी मग सुरसरि क्रमनासा।

मरु मारव महिदेव गवासा॥

सरग नरक अनुराग बिरागा।

निगमागम गुन दोष बिभागा॥

   दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गंगा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है। 

सुख दुःख में समरस रहे जीवन वहीं महान। 

राजभवन या बन गमन दोनों एक समान।। 

  आज कल सुख दुःख की परिभाषा कुछ अलग ही है, हमारा पड़ोसी सुखी तो हम दुखी, और पड़ोसी दुःखी तो भले हमारे घर में खाने को न हो तो भी हम सुखी। जो सुख और दुःख में समरस बनाए है वह महान है।

तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए।

अनहोनी होनी नही, होनी हो सो होए।। 

  तुलसीदास कहते हैं, भगवान पर भरोसा करें और किसी भी भय के बिना शांति से सोइए। कुछ भी अनावश्यक नहीं होगा, और अगर कुछ अनिष्ट घटना ही है तो वो घटकर ही रहेगी इसलिए बेकार की चिंता और उलझन को छोड़कर मस्त रहना चाहिए।

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि -

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥

  कर्तव्यों पालन हेतु युद्ध करो, युद्ध से मिलने वाले सुख-दुख, लाभ-हानि को समान समझो। यदि तुम इस प्रकार अपने दायित्त्वों का निर्वहन करोगे तब तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।

  लौकिक स्तर पर अर्जुन को प्रेरित करने के पश्चात श्रीकृष्ण अब गहन कर्मयोग का ज्ञान प्रदान करने की ओर अग्रसर होते हैं। अर्जुन को यह भय था कि यदि वह युद्ध में अपने शत्रुओं का वध करता है तो उसे पाप लगेगा। श्रीकृष्ण उसके भय को दूर करते हैं। वे अर्जुन को उपदेश देते हैं कि वह फल की इच्छा किए बिना अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करें। इस प्रकार की मनोदृष्टि के साथ कर्त्तव्य का पालन करने से उसे पाप लगने के भय से मुक्ति मिलेगी। जब हम स्वार्थ की भावना के साथ कार्य करते हैं तब हम कर्म सृजित करते हैं जिसका बाद में प्रतिक्रियात्मक कार्मिक परिणाम मिलता है। माथर स्मृति में वर्णित है -

 पुण्येन पुण्य लोकं नयति पापेन

  पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्।

  "यदि तुम शुभ कर्म करते हो तब तुम स्वर्ग में जाओगे। यदि तुम अशुभ कर्म करोगे तब नरक में जाओगे और तुम शुभ और अशुभ दोनों कर्म करते हो तब तुम्हें पुनः मृत्यु लोक में वापस आना पड़ेगा।" इसलिए इन दोनों परिस्थितियों में हम अपने कर्मों के प्रतिफलों से बंधे हुए हैं। इसलिए शुभ लौकिक कर्म भी बंधन है और उनका फल भौतिक सुख है जिसके कारण हमारे कर्मों का संचयन बढ़ता है और हमारे इस भ्रम को और अधिक पुष्ट करता है कि इस संसार में सुख है। यदि हम स्वार्थ की कामना को त्याग देते हैं तब फिर हमारे कर्म प्रतिक्रियात्मक कार्मिक परिणाम उत्पन्न नहीं करते। 

  उदाहरणार्थ हत्या करना एक पाप है और सभी देशों की न्यायिक व्यवस्थाओं में इसे दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है। यदि पुलिस का कोई सिपाही अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए डाकुओं के दल के सरदार को मार देता है तब उसे इसके लिए दंड नहीं मिलता है अपितु उसे उसकी वीरता के लिए पुरस्कार मिल सकता है। इसका दण्ड न मिलने के कारण यह है कि यह कार्य दुर्भावना और स्वार्थ की भावना से प्रेरित नहीं है और इसका निर्वहन देश के प्रति कर्त्तव्यों के पालन की दृष्टि से किया गया है। भगवान का विधान भी एकदम समान है। यदि कोई सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग कर केवल कर्त्तव्य पालन के लिए कार्य करता है तब ऐसे कार्यों के प्रतिक्रियात्मक कार्मिक परिणाम उत्पन्न नहीं होते हैं। 

  इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को परामर्श देते हैं कि वह युद्ध के परिणामों से विरक्त होकर केवल अपने कर्तव्यों के पालन की ओर ध्यान दे। जब वह समान भावना की मनोदृष्टि से युद्ध करेगा, विजय और पराजय तथा सुख-दुख को एक समान समझेगा, तब अपने शत्रुओं का वध करने पर भी उसे पाप नहीं लगेगा। 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:। 

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।। 

 "जिस प्रकार कमल के पुष्प के पत्ते जल को स्पर्श नहीं करते-उसी प्रकार से जो मनुष्य अपने सभी कर्मों को भगवान के प्रति अर्पित करता है और सभी प्रकार के मोह का त्याग कर देता है तब वह पाप से अछूता रहता हैं।"

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