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भारतीय मध्यम वर्ग पर बढ़ते टैक्स और खर्च का बोझ

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भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस और वर्तमान

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  भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस को अपने शरीर को जिलाए रखने के लिए अन— रस की तृष्णा का आधार लेना पड़ा था। क्या ऐसे किसी रस के आधार के बिना भी उच्...

  भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस को अपने शरीर को जिलाए रखने के लिए अन— रस की तृष्णा का आधार लेना पड़ा था। क्या ऐसे किसी रस के आधार के बिना भी उच्च शरीर का टिकना संभव नहीं है? किस शरीर में ऐसे आधार की आवश्यकता पड़ती है? क्या पांचवें या छठवें या सातवें शरीर की उच्च भूमिकाओं में भी शरीर को टिकाए रखने के लिए किसी रस के आधार की आवश्यकता पड़ती है?

    रामकृष्ण को भोजन का बहुत शौक था। जरूरत से ज्यादा, कहना चाहिए, दीवाने थे। ब्रह्म —चर्चा भी चलती रहती और बीच —बीच में उठकर वे चौके में जाकर शारदा को पूछ भी आते कि क्या बना है? फिर लौटकर ब्रह्म —चर्चा शुरू कर देते। इससे शारदा तो परेशान थी ही, जो भक्त उनके निकट थे, वे भी परेशान थे कि किसी को पता चले तो बड़ी बदनामी हो। असल में गुरुओं की चिंता शिष्यों को बहुत ज्यादा होती है। भारी चिंता उनको होती है कि गुरु की कहीं बदनामी न हो जाए, कि कहीं गुरु को कोई ऐसा न कह दे, कि कहीं वैसा न कह दे। आखिर रामकृष्ण से पूछा ही गया कि यह जरा शोभादायक नहीं है कि आप बीच में ब्रह्म—चर्चा छोड्कर और भोजन—चर्चा में पड़े। यह उचित नहीं मालूम होता और आप जैसी भूमिका के आदमी को क्या भोजन? तो रामकृष्ण ने जो कहा, वह बहुत हैरानी का था।

  रामकृष्ण ने कहा कि शायद तुम्हें पता नहीं और तुम्हें पता भी कैसे होगा! मेरी नाव के सभी लंगर खुल चुके हैं। और मेरी नाव ने सारी खूंटियां उखाड़ ली हैं। और मेरी नाव के पाल हवाओं से भर गए हैं। और मैं जाने को खडा हूं। एक खूंटी मैंने संभाल कर गाड़ रखी है ताकि नाव अभी छूट न जाए। और जिस दिन मैं भोजन में रस न लूं? तुम समझ लेना कि मेरी मौत को अब तीन दिन बाकी रह गए। उस दिन मैं मर जाऊंगा, क्योंकि मेरा और कोई कारण नहीं रह गया है। लेकिन तुमसे मुझे कुछ कहना है और तुम तक मुझे कुछ पहुंचाना है और कुछ है मेरे पास जो तुम्हें मैं देने के लिए आतुर हूं? इसलिए मेरा रुकना जरूरी है। नाव तो मेरी जाने के लिए तैयार है लेकिन मेरी नाव में कुछ संपदा है, जो मैं किनारे के लोगों को दे जाना चाहता हूं। लेकिन किनारे के लोग सोए हुए हैं। उनको जगाऊं और उनको संपदा लेने को राजी करूं। और उनको यह भी समझाने के लिए राजी करूं कि यह संपदा है। क्योंकि वे किनारे के लोग नहीं जानते हैं कि संपदा है, वे समझते हैं कि यह कचरा है। वे कहते हैं कि कहां की बातों में हमें उलझा रहे हैं, हमें सोने दें, हमें अपने बिस्तर पर बहुत आनंद आ रहा है। तो मैं किनारे के लोगों को राजी कर लूं और यह संपदा जो मेरी नाव में भरी है उनको बांट दूं, क्योंकि मेरा तो जाने का वक्त आ गया है। इसलिए एक खूंटी ठोंक कर रखी है। इसलिए मैं भोजन में रस लिये ही चला जा रहा हूं। यह भोजन मेरी खूंटी है। और जिस दिन मैं भोजन में रस न लूं, तुम समझ लेना कि तीन दिन बाद मैं मर जाऊंगा।

  उस दिन किसी ने बहुत गंभीरता से यह बात नहीं ली। अक्सर ऐसा होता है। अक्सर ऐसा होता है कि बहुत —सी बातें गंभीरता से नहीं ली जातीं। रामकृष्ण, बुद्ध या महावीर, इनकी जिंदगी में, सभी की जिंदगी में ऐसे मामले हैं जो कि गंभीरता से लिये गए होते, तो दुनिया का बहुत लाभ हो सकता था। लेकिन वे कभी गंभीरता से नहीं लिये गए। शायद समझा गया कि रामकृष्ण एक एक्सप्लेनेशन दे रहे हैं, एक व्याख्या दे रहे हैं, कोई बात समझाने के लिए कर दी। भक्तों के मन में शक तो रहा ही होगा कि ये सिर्फ भोजन करना चाहते हैं और एक तरकीब निकाल ली है कि हमको समझा भी दें और कोई दिक्कत भी नहीं रही और कठिनाई भी नहीं रही। लेकिन यही हुआ।

   एक दिन शारदा भोजन की थाली लेकर गई, रामकृष्ण लेटे थे कमरे में, उन्होंने करवट ले ली। रोज थाली आती थी, तो वे उठकर खड़े हो जाते थे। थाली देखने लगते थे कि क्या—क्या है। उनका करवट लेना और शारदा को खयाल आई वह बात कि उन्होंने कभी कहा था कि तीन दिन बाद फिर मैं नहीं बचूंगा। उसके हाथ से थाली छूटकर गिर पड़ी। वह चिल्लाने, रोने लगी। लेकिन रामकृष्ण ने कहा, अब क्या होगा? अब खूंटी उखाड़ ली। आखिर कब तक मैं खूंटी को गड़ाये पड़ा रहूंगा। ठीक तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो गई।

  तुम पूछ रहे हो कि क्या बिना रस के ऐसी कोई आत्मा इस पृथ्वी पर रुक सकती है?

   पांचवें शरीर तक इस पृथ्वी का ही कोई रस चाहिए, नहीं तो नहीं रुक सकती। पांचवें शरीर तक इस पृथ्वी पर कोई खूंटी चाहिए, नहीं तो नहीं रुक सकती। पांचवें शरीर तक पांच इंद्रियों में से किसी एक रस को पकड़ कर, उसे ठोंक कर रखना पड़ेगा। लेकिन पांचवें शरीर के बाद रुक सकती है। उस रुकने की हालत में कुछ दूसरी बातें काम करेंगी। तब शरीर के किसी रस को बचाए रखने की कोई जरूरत नहीं है। उस हालत में अब यह जरा दूसरी बात है, जो थोड़ी लंबी करनी पड़ेगी। लेकिन थोड़े में इसे समझ लें।

   पांचवें शरीर के बाद अगर किसी आदमी को रुकना हो। जैसे महावीर रुकते हैं या बुद्ध रुकते हैं या कृष्ण रुकते हैं, तो उनके लिए इस जगत से मुक्त हुई आत्माओं का दबाव काम करता है, इस जगत से मुक्त हुई चेतनाओं का दवाब काम करता है। इन पर ऊपर से आग्रह और दबाव है। थियॉसोफी ने इस संबंध में बड़ी खोज की थी और बड़ी महत्वपूर्ण खोज की थी। वह खोज यह है कि बहुत आत्माएं जो मुक्त हो गई हैं, जो लीन हो गई हैं, जो पहुंच गई हैं जहां पहुंचना होता है, उनका दबाव किसी ऐसे आदमी को थोड़ी देर रोकने के लिए काम करता है।

   उदाहरण के लिए ऐसा समझें—एक नाव छूटने के करीब है। अब इसमें कोई खूंटी नहीं रह गई है, लेकिन उस किनारे के लोग चिल्ला रहे हैं कि थोड़ी देर और रुक जाओ। उस किनारे के लोग कह रहे हैं कि थोड़ी देर और रुक जाओ, इतनी जल्दी मत करो। उस किनारे की आवाजें रोकने का कारण बन सकती हैं। लेकिन महावीर और बुद्ध और कृष्ण को इस तरह की आवाजें काम कर सकीं। रामकृष्ण के समय तक आते— आते हालतें बहुत बदल गईं और बहुत मुश्किल भी हो गई। असल में उस किनारे के लोग इतने दूर पड़ गए हैं हमारी सदी से, जिसका कोई हिसाब नहीं। उनकी आवाजें पहुंचना मुश्किल हो गया है। किनारे फैलते चले गए हैं, और फासला बड़ा होता चला गया है, एक सातत्य नहीं रहा।

   जैसे समझें कि महावीर की जिंदगी में एक सातत्य है। उनके पहले तेईस तीर्थंकर हो गए उस परंपरा के, उस व्यवस्था के, जिसके महावीर चौबीसवें हैं। उनके पास तेईस कड़ियां हैं आगे। और जो तेईसवा आदमी है, वह बहुत करीब है। महावीर से ढाई सौ वर्ष पहले गुजरा है। जो पहला आदमी है वह तो बहुत दूर है, लेकिन तेईस आदमी हैं बीच में, और वे सब एक—दूसरे के पास हैं। और महावीर के पहले जो आदमी गया है उस किनारे..।

   अब तुम्हें यह जानकर हैरानी होगी कि तीर्थंकर का क्या मतलब होता है। तीर्थ का मतलब होता है घाट। और तीर्थंकर का मतलब होता है जो इसी घाट से पहले उतरा, और कोई मतलब नहीं होता। तीर्थ का मतलब होता है घाट। इसी घाट से जो इसके पहले उतरा है.. इस घाट से तेईस तीर्थंकर पहले उतर चुके। उनकी एक सुसंबद्ध व्यवस्था है। उस लोक में बोली जाने वाली भाषा और प्रतीक और सूचनाएं और संकेत सब सुरक्षित हैं। यह चौबीसवा आदमी किनारे पर खडे होकर उन तेईस के द्वारा आए हुए संदेश को सुन पाता है, समझ पाता है, पकड़ पाता है।

   आज जैनों में एक आदमी भी नहीं है जो उस परंपरा के एक शब्द को भी पकड़ ले। आज महावीर को मरे हुए पच्चीस सौ साल हो गए। इन पच्चीस सौ साल में एक गैप है भारी कि अगर महावीर चिल्लाएं वहां से, तो भी इस किनारे पर कोई आदमी उस भाषा को समझने को नहीं है। पच्चीस सौ साल में सारी भाषा बदल गई, संकेत बदल गए। और उस जगत के संकेतों का कोई सिलसिला नहीं रहा। किताबें हैं, जिनको जैन साधु बैठकर पढ़ते रहते हैं और उन्हें कुछ पता नहीं कि और क्या हो सकता है। और उनकी पच्चीस सौवीं जन्म—तिथि मनाने की तैयारी करेंगे, शोरगुल मचाएंगे, झंडे निकालेंगे, जय महावीर करेंगे। तो महावीर की आवाज को पकडने की उनके पास अब कोई व्यवस्था नहीं रह गई है। और एक भी आदमी तैयार नहीं है जो पकड़ ले। जैनों के पास नहीं है, इतर जैनियों के पास हो भी सकता है।

   ठीक ऐसे ही हिंदुओं के पास एक व्यवस्था थी, ठीक ऐसे ही बौद्धों के पास भी एक व्यवस्था थी। लेकिन रामकृष्ण के वक्त तक कोई व्यवस्था नहीं रही। और रामकृष्ण के पास कोई सूत्र नहीं था कि उस पार की आवाज के कारण किनारे पर वे रुके। इसलिए एक ही उपाय था कि इसी किनारे पर खीली ठोंककर रुक जाएं, और तो कोई उपाय नहीं था। उस तरफ से किसी दबाव का पता नहीं चलता था।

   इस दुनिया में दो तरह के लोगों ने काम किया है अध्यात्म का। एक तो वे लोग हैं जिन्होंने श्रृंखलाबद्ध काम किया। वह हजारों साल तक उनकी श्रृंखला काम करती रही। जैसे बुद्ध का चौबीसवा व्यक्ति अभी भी पैदा होने को है। अभी बुद्ध का एक व्यक्तित्व और पैदा होने को है। अभी भी बौद्ध भिक्षु सारी दुनिया में उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, अनंत— अनंत रूपों में उसकी आकांक्षा और प्रतीक्षा की जा रही है कि एक बार और पकड़ा जा सके। लेकिन जैनों के पास नहीं है।

   हिंदुओं के पास भी एक खयाल है कल्कि का। वह अभी उतरने को है एक व्यक्ति। मगर फिर भी साफ—सूत्र नहीं हैं कि उसे कैसे बुलाया जाए, कैसे पकड़ा जाए, कैसे पहचाना जाए। उसके पहचानने का भी उपाय नहीं है।

   अब यह जानकर तुम हैरान होगे कि जैनों के तेईस तीर्थंकर सारे सूत्र छोड़ गए थे कि जब चौबीसवा आए, तो तुम कैसे पहचानोगे। सब सूत्र थे उपलब्ध। उस चौबीसवें में क्या—क्या लक्षण होंगे, उसके हाथ की रेखाएं कैसी होंगी, उसके पैर का चक्र क्या होगा, उसकी आंखें कैसी होंगी, उसके हृदय पर क्या चिह्न होगा, उसकी ऊंचाई कितनी होगी, उसकी उम्र कितनी होगी। चुकता बातें तय थीं। उस आदमी को पहचानने में दिक्कत नहीं लगी।

   महावीर के वक्त में आठ आदमियों ने दावा किया था कि हम तीर्थंकर हैं, क्योंकि वक्त आ गया था, घड़ी आ गई थी और दावेदार आठ हैं। अंततः महावीर स्वीकृत हो गए, वे सात लोग छोड़ दिए गए। क्योंकि प्रतीक सिर्फ इस आदमी पर पूरे हुए। लेकिन रामकृष्ण तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी, न कोई पहचानने का उपाय था।

  अब बडी कनफ्यूज्‍ड हालत है। आध्यात्मिक अर्थों में आज दुनिया की हालत बहुत अजीब है। और इस अजीब हालत में अब इसके सिवा कोई उपाय नहीं है आज कि इसी किनारे पर कोई खूंटी ठोंक कर रुका रहे। उस तरफ से कोई आवाज नहीं आती, आती भी है तो समझ में नहीं पड़ती, समझ में भी पड़ जाती है तो भी उसका राज खोजना मुश्किल हो जाता है कि उसका राज क्या है। अब सारी कठिनाई क्या है कि उस लोक से इस लोक तक खबर पहुंचाना सिबालिक ही हो सकता है, सांकेतिक ही हो सकता है।

   अब शायद तुम्हें पता न हो कि पिछले सौ वर्षों से इस बात का वैज्ञानिकों को पता है कि कम से कम पचास हजार पृथ्वियां होनी चाहिए सारे विश्व में जहां जीवन होगा, और जहां मनुष्य या मनुष्य से भी ज्यादा विकसित चेतना के प्राणी होंगे। लेकिन उनसे चर्चा कैसे की जाए? उनको संकेत कैसे भेजे जाएं? और कौन—सा संकेत वे समझ सकेंगे। बड़ी कठिन बात है न! कैसे समझेंगे। तिरंगा झंडा देखकर हिंदुस्तानी समझ लेता है कि अपना झंडा फहराया जा रहा है। लेकिन तिरंगा झंडा देखकर वे तो कुछ न समझेंगे। और तिरंगा झंडा भी उन तक कैसे फहराया जाए कि उन्हें दिखाई पड़ जाए। तो इस संबंध में इतने अजीब— अजीब प्रयोग किए गए, जो कि कल्पना के भी बाहर हैं।

   एक आदमी ने कई मील लंबा त्रिकोण बनाया साइबेरिया में, ट्रायंगल बनाया। और उसमें पीले फूल बोए मीलों लंबे। और उसको विशेष प्रकाशों से प्रकाशित किया। क्योंकि ट्रायंगल किसी भी पृथ्वी पर होगा, तो ट्रायंगल ही होगा। ट्रायंगल के तीन ही कोण होंगे। कहीं भी आदमी हो या आदमी से ऊंचा प्राणी हो, कुछ भी हो, ज्यामेट्री के जो फिगर हैं, उनमें भेद नहीं पड़ेगा। इसलिए ज्यामेट्री के द्वारा शायद हमारा कोई संबंध बन जाए। शायद इतने बड़े ट्रायंगल को देख सके किसी ग्रह से कोई और सोच सके कि जरूर इतना बड़ा ट्रायंगल अपने आप नहीं बन सकता—स्व। और ट्रायंगल है, तो ज्यामेट्री का पता करने वाले लोग होंगे—दो। ऐसा अंदाज करके बड़ी मेहनत की गई बहुत दिनों तक। पर कोई सूचना न मिल सकी, कोई खबर न आई कि कोई समझा कि नहीं समझा। फिर अब बहुत—से राडार लगाकर रखे गए हैं कि शायद वे कोई संकेत भेजते हों, तो हम संकेत पकड़ लें। कुछ संकेत कभी—कभी पकड़ में भी आते हैं, लेकिन उनका राज नहीं खुलता।

    जैसे, फ्लाइंग साँसर की बात सुनी होगी। पृथ्वी पर बहुत जगह, बहुत लोगों ने उसे देखा है कि कोई चीज विद्युत की चमक की तरह घूमती हुई, छोटी तश्तरी की भांति चक्कर लेती हुई दिखाई पड़ती है और विदा हो जाती है। वह बहुत जगह, बहुत क्षणों में देखी गई है। और कभी—कभी तो एक ही रात में पृथ्वी पर बहुत जगह देखी गई है। लेकिन अभी तक उसका राज नहीं खुल पाया कि वह क्या है? कौन उसे भेजता है? क्यों वह आती है? क्यों विदा हो जाती है?

   इस बात की बहुत संभावना है कि किसी दूसरे ग्रह के लोग भी पृथ्वी तक संकेत भेजने की कोशिश कर रहे हैं जिनको हम नहीं समझ पा रहे हैं। जब नहीं समझ पाते, तो हममें से कुछ हैं जो कहते हैं कि झूठी है यह बात। यह फ्लाइंग सॉसर वगैरह सब गप—शप है। कुछ हैं, जो कहते हैं कि आंखों का भ्रम हो गया होगा। कुछ हैं, जो कहते हैं कि कुछ और नहीं हुआ होगा, कुछ प्राकृतिक घटना होगी। लेकिन अभी क्या होगा, यह कुछ साफ नहीं हो पाता। बहुत थोड़े लोग हैं, जिनको इतना भी खयाल है, जो कहते हैं कि किसी दूसरे ग्रह के वासियों का निमंत्रण है, कोई सूचना, कोई खबर होगी।

   मगर यह तो फिर भी आसान है। क्योंकि दूसरे ग्रह पर जो जीवन है और इस ग्रह का जो जीवन है, इन जीवन के बीच उतना फासला नहीं है, जितना फासला उस लोक में गई आत्मा और इस लोक की आत्माओं के बीच हो जाता है। वह फासला और भी बड़ा है। वहां से भेजे गए संकेत पकड़ में नहीं आते। आ जाएं तो समझ में नहीं आते, राज नहीं खुलता।

   तो रामकृष्ण जैसे व्यक्तियों को इस सदी में.. इस सदी में पूरी पृथ्वी पर इन पिछले दो सौ वर्षों में, दो सौ वर्ष भी कहना ठीक नहीं, असल में मुहम्मद के बाद बड़ी कठिनाई हो गई है। बड़ी कठिनाई हो गई है चौदह सौ वर्षों से। नानक ने इस कठिनाई को देखकर एक नया ही इंतजाम किया फिर से। बात ही छोड़ दी पिछली परंपराओं की और एक नई दस आदमियों की परंपरा खडी की। लेकिन वह भी खो गई। और बहुत जल्दी खो गई, वह ज्यादा देर चल नहीं पाई।

   अब तो व्यक्तिगत साधक रह गए हैं जगत में, जिनके पास श्रृंखलाबद्ध व्यवस्था नहीं है। तो व्यक्तिगत साधक को तो शरीर की ही खूंटी से उपाय करना पडे। और पांचवें शरीर के पहले तो शरीर की खूंटी के सिवाय कोई उपाय नहीं होता। पांचवें शरीर के बाद बाहर के संकेत काम कर सकते हैं, बाहर का दबाव काम कर सकता है। लेकिन अगर बाहर से संकेत न मिलता हो, तो सातवें शरीर के व्यक्ति को भी पांच शरीर के नीचे की खूंटी का ही काम करना पड़ेगा, उसका ही उपयोग करना पड़ेगा, उसके सिवाय कोई उपाय नहीं रह जाता । 

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