मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥ काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है। 

  कहते हैं सभी व्याधियों के मूल में मोह है चाहे वह शारीरिक हो, मानसिक हो, बौद्धिक या आध्यात्मिक हो। जब हम सब जानते हैं कि इस विश्व में हमारा कुछ भी नहीं है, न कुछ लेकर आये थे न कुछ लेकर जायेंगे फिर मोह कैसा। हमें बचपन से यह सिखाया जाता है यह हमारा है, यह उसका है तो उस वस्तु या व्यक्ति से लगाव हो जाता है जो धीरे-धीरे मोह में परिणीत हो जाता है फिर मोह अपना प्रभाव डालता है।

 अब जीवन के प्रारंभ से तो आदमी अनासक्त नहीं हो सकता। यह बड़ी धीमी प्रक्रिया है धीरे-धीरे साधना करनी पड़ती है वर्ना मैं मेरा में जीवन उलझ जाता है। सबसे पहले मोह होता है शरीर से। वही सभी व्याधियों का कारण है मतलब शारीरिक व्याधियो  का ।

बचपन में सिखाया गया धरा धाम सत्य है। 

जवानी में बताया गया अर्थ काम सत्य है। 

बुढ़ापे में बताया गया मोक्ष धाम सत्य है।। 

पिंजड़े का पक्षी जब पिंजड़े को छोड़ चला। 

तो अन्त में बताया गया राम नाम सत्य है ।। 

  मोह जब सफल होता है तो दुख मिलता है और जब असफल होता है तब भी दुख ही मिलता है। भगवान कहते हैं कि मनुष्य जब को मोह त्याग देता है तो उसे मेरी कृपा मिल जाती है। मोह रहित व्यक्ति परम आनंद प्राप्त करता है। इसीलिए मोह का त्याग करना चाहिए और जो हमारे पास है, उसी में संतुष्ट रहना चाहिए।

  श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जब ज्ञान की धारा जब बहती है तो सबसे पहले मोह को नष्ट करती है, मोह को इसलिए नष्ट करती है क्योंकि मोह अज्ञान है।

  दुखों का एक कारण मोह भी है। मोह से अज्ञान बढ़ता है और जीवन में समस्याएं शुरू होने लगती हैं। महाभारत में धृतराष्ट्र को दुर्योधन से इतना मोह था कि वह अपने पुत्र को गलत काम करने से भी रोक नहीं सके। धृतराष्ट्र को पुत्र मोह की वजह से धर्म-अधर्म ज्ञान ही नहीं रहा था। अंत में सबकुछ बर्बाद हो गया।

 यूनान का सम्राट सिकंदर पूरी दुनिया का जीत लेना चाहता था। एक दिन एक नागा साधु ने सिकंदर से कहा कि तू ये पूरी दुनिया जीत लेगा, उसके बाद क्या करेगा? क्योंकि, इसके अलावा दूसरी कोई दुनिया है ही नहीं। इतना कहकर संत जोर-जोर से हंसने लगा।

 संत की बातें सुनकर सिकंदर निराश हो गया था। सिकंदर ने संत से कहा कि आप मुझ हंसिए मत। ये बात सच ही है, लेकिन मैंने आज तक ये बात सोची ही नहीं थी। सिकंदर ने अभी दुनिया जीती नहीं थी, लेकिन जीतने के विचार से ही वह निराश हो गया था। क्योंकि, दुनिया जीतने के बाद कोई और मोह नहीं बचेगा।

  सिकंदर ने संत से कहा कि आप हंस क्यों रहे हैं? संत ने जवाब दिया कि तू पूरी दुनिया जीत लेगा, तब भी तुझे निराशा ही मिलेगी। क्योंकि, तू दुनिया को जीतने के मोह में बंधा है। जबकि मेरे पास कुछ नहीं है, लेकिन मैं हमेशा खुश रहूंगा। क्योंकि, मुझे किसी चीज का मोह नहीं है।

 मोह की वजह से जीवन में दुख ही आते हैं। मोह घर-परिवार से हो सकता है, सफलता का मोह हो सकता है, सुख-सुविधा और मान-सम्मान का मोह का हो सकता है। जहां मोह रहेगा, वहां दुख तो आएगा ही। मोह जब सफल होता है तो दुख मिलता है और जब असफल होता है तब भी दुख ही मिलता है।

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

  विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होनेपर मनुष्य का पतन हो जाता है।

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा

अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञै

र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।।

 भारत में दर्शनशास्त्र आचार के लिये है ? प्रचारमात्र के लिए नहीं।  इस ज्ञान की पूर्णता साक्षात् अनुभव करने में है। यही कारण है कि हमारे धर्मशास्त्रों तथा अध्यात्म के प्रकरण ग्रन्थों में जीवन के लक्ष्य का तथा उसकी प्राप्ति के उपायों का अत्यन्त विस्तृत विवेचन मिलता है। किसी भी लक्ष्य को पाने के लिए कुछ आवश्यक योग्यताएं होती हैं? जिनके बिना मनुष्य उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता है। अत आत्मज्ञान भी कुछ विशिष्ट गुणों के से सम्पन्न अधिकारी को ही पूर्णत प्राप्त हो सकता है। उन गुणों का निर्देश इस श्लोक में किया गया है। उत्साही और साहसी साधकों को इन गुणों का सम्पादन करना चाहिये। भगवान् श्रीकृष्ण आश्वासन देते हैं कि साधन सम्पन्न साधकों को अव्यय पद की प्राप्ति अवश्य होगी। वही कृत्कृत्यता और वही परम पुरुषार्थ है। 

  जो मान और मोह से रहित है मान का अर्थ है स्वयं को पूजनीय व्यक्ति मानना। अपने महत्व का त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन मान अथवा गर्व कहलाता है। ऐसा मानी व्यक्ति अपने ऊपर मान को बनाये रखने का अनावश्यक भार या उत्तरदायित्व ले लेता है। तत्पश्चात् उसके पास कभी समय ही नहीं होता कि वह वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सके और अपने अवगुणों का त्याग कर सुसंस्कृत बन सके। इसी प्रकार मोह का अर्थ है अविवेक।

  बाह्य जगत् की वस्तुओं ? व्यक्तियों ? घटनाओं आदि को यथार्थत न समझ पाना मोह है। इसके कारण हम वास्तविक जीवन की तात्कालिक समस्याओं का सामना करने के स्थान पर अपने ही काल्पनिक जगत् में विचरण करते रहते हैं। 

  जब आदमी के जीवन में अस्त व्यस्तता रहती है तो सब बिगड़ जाता है। हर चीज को संवारें, सजायें, विचारों को, कर्मों को, भावनाओं को, संवेदनाओं को, चरित्र को तो जीवन अपने आप खूबसूरत हो जायेगा पर उससे मोह एक अलग चीज है। उसी में डूब जाना लिप्त हो जाना मोह पैदा करता है। कोई हमारी चीज को हाथ न लगायें, नुकसान न पहुंचाये, बदसूरत न बना दे। इसी चिंता में आदमी घुलता है। जब ऐसा कुछ हो जाता है तो चिंतित, भयभीत हो जाता है। कहते हैं शरीर मन के नियंत्रण में है। यदि मन नियंत्रण में है तो शरीर का स्वस्थ रहना निश्चित है। शरीर आपके बस में होगा आपका कहना मानने लगेगा। पर गड़बड़ यहीं से होती है मन स्थिर, स्वस्थ, दृढ़, निश्चित, निर्भय, अनासक्त नहीं हो पाता और शरीर कष्ट पाता है। लोगों ने शारीरिक कष्ट भोगे पर मन को नियंत्रण में रखा। 

  स्वामी रामकृष्ण परमहंस को पेट का कैंसर था पर मन बिलकुल दुरुस्त। मीरा ने जहर पी लिया और उसे कुछ नहीं हुआ। मन भगवान में इतना लीन था कि जहर का असर शरीर पर बिल्कुल नहीं हुआ। इन सब घटनाओं के पीछे मोह का बिलकुल न होना भी एक प्रमुख कारण था। आज भी यह सत्य है। मोह और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, एक के बिना दूसरा नहीं रह सकता। सांप से डर क्यों लगता है क्योंकि शरीर से मोह रहता है। संपेरे उन्हें खिलाते रहते हैं खेलते हैं। एक से एक कारनामे दिखाते हैं। कहते हैं यदि आदमी में भय न हो तो शेर भी ठिठक कर खड़ा हो जाता है लोग उसे भी पालतू बना लेते हैं। मोह क्यों होता है क्योंकि लगता है कि यह चीज कहीं हमसे अलग न हो जाये या हम उससे अलग न हो जायें। यह अलगाव का डर ही हमें डराता है। मोहग्रस्त करके परेशान करता है।

 मोह छोडऩे के लिए अनासक्त और वैराग्य भाव विकसित करना पड़ता है। यह धीरे-धीरे ही होगा बस कोशिश चलती रहनी चाहिए। मंजिल तक पहुंच जायेंगे। शांति प्राप्त होगी, निर्भयता से जियेंगे निशंक होकर। कोशिश करते रहिए।

तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक ।

साहस सुकृति सुसत्यव्रत राम भरोसे एक ।।

 तुलसीदास जी कहते हैं कि विपत्ति में अर्थात मुश्किल वक्त में ये चीजें मनुष्य का साथ देती है. ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, आपका सत्य और राम (भगवान) का नाम ।

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