जो सत्य है वहीं सनातन है

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।

स्वपच किरात कोल कलवारा।। 

नारि मुई गृह संपत्ति नासी।

मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।।

ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं। 

उभय लोक निज हाथ नसावहिं।। 

   वस्तुतः ये उपरोक्त चौपाईयां जातिगत आक्षेप नहीं है बल्कि ये उसी प्रकार अनिवार्य है जैसे रोगी को कुपथ्य का त्याग।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।

   गुण और कर्मों के विभागपूर्वक चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मैंने रचे हैं । 

   मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभाग पूर्वक चारों वर्णों की रचना की गयी है। उस(सृष्टिरचना आदि) का कर्ता होने पर भी मुझ अव्यय परमेश्वर को तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्व से जान लेता है वह भी कर्मों से नहीं बँधता।

   निषाद राज गुह भी तो चारों वर्णों (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र) में से नहीं अर्थात् वर्णाधम थे कि नहीं?

लेकिन क्या नहीं मिला? उसने  लोक परलोक (उभय लोग) दोनों  सेवा के बल पर बना लिया। भरत जी ही नहीं बल्कि स्वयं ब्रह्मा जी के मानस पुत्र वशिष्ठ जी ने दौड़कर अपने गले से लगाया।

   वर्णाश्रम धर्म मनुष्य के सामाजिक, व्यक्तिगत, आर्थिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार की उन्नति का आवश्यक अङ्ग है। चारों वर्णों की व्यवस्था भगवान् ने ही की है -

गृहस्थो ब्रह्मचारी च वानप्रस्थोऽथभिक्षुकः ।

चत्वार आश्रमाः प्रोक्ताः सर्वे गार्हस्थ्यमूलका : ।।

   गृहस्थाश्रम के उचित रूप से पालन करने से ही अन्य तीनों आश्रमों को सब प्रकार की सुविधा प्राप्त होती है और गृहस्थ को भी लौकिक उन्नति के साथ इसी से परमार्थ भी प्राप्त हो सकता है। रामराज्य में सब प्रकार के सुख लोगों को वर्णाश्रमधर्म के पालन करने से ही उपलब्ध थे।

  तो फिर मारीच की भांति मजबूरी में सन्यासी बनने से क्या लाभ?पत्नी मर गई और धन संपत्ति आदि नहीं है तो सेवा मार्ग न अपनाकर सीधे संन्यास मार्ग पकड़ लेना उसी प्रकार है जैसे विपरीत पटरी पर दौड़ेने वाली ट्रेन जो स्वयं तो दुर्घटना के शिकार होगी ही और जो सही मार्ग पर थी उसे भी दुर्घटना ग्रस्त कर देना।

   ध्यान रहे कि वर्ण व्यवस्था कार्य बंटवारा है न कि किसी को भगवत्प्राति से रोकने वाला ।

  फल पर सभी वर्णों का अधिकार प्राप्त है , अतः कर्म बंटा है फल नहीं।

बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग

परिणाम?

चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय सोक न रोग।।

   इसलिए मानस के पंक्तियों के मूल भाव समझे बिना अर्थ का अनर्थ नहीं करना चाहिए ।

   हमारे देश मे ढेर सारे सम्प्रदाय एवं पंथ हैं  । और हर पंथ में जाति व्यवस्था है लेकिन कोई भी अपने सम्प्रदाय के बारे में अनाब सनाब टिप्पणी नहीं करना।

   लेकिन सनातन धर्म में कुछ असमाजिक तत्व है जो अपनी निजी स्वार्थ के लिए जिस पेड़ की डाल पर बैठे हुए हैं उसे ही काटते हैं। उनकी मानसिकता उनकी बातों से स्पष्ट झलकती है।

  इनमें हिम्मत भी नहीं है कि किसी दूसरे समुदाय पर टिप्पणी कर दें।यह सब क्षणिक सत्ता कि राजनीति एवं गंदी मानसिकता का परिचायक है।

   हमारे यहां आजकल जितने संन्यासी एवं बाबा एवं गुरु हैं क्या आप ने कभी जानने की कोशिश की वे किस जाति से सम्बन्ध रखते हैं, जैसे जय गुरुदेव, बाबा रामदेव, आसाराम बापू, साध्वी उमा भारती, आदि ऐसे ढेर सारे नाम है, शायद जिनका ब्राह्मण होने से कोई संबंध नहीं है, भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड वर्णाश्रम धर्म है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र- यह चार वर्ण हैं और ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास ये चार आश्रम, जो परस्पर क्रमबद्ध हैं।

 देवसंस्कृति के अनुयायियों को इस विभाजन को समुचित महत्त्व देना चाहिए और उनकी उपयोगिता आवश्यकता एवं गरिमा पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए। 

   वर्णों का विभाजन गुण-कर्म-स्वाभाव के आधार पर होता है। यह वर्गीकरण जन्मजात रूप से महत्त्वपूर्ण नहीं है। महर्षि वाल्मीकि इसके उदाहरण हैं, महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय थे, इन्हें कर्म- कौशल के अनुरूप समझा जाना चाहिए। यदि जनम से किसी वर्ण में है पर कर्म तदनुकूल नहीं है। तो वह बाँझ- वृक्ष के समान है।

 समाज व्यवस्था को सुनियोजित रखने के लिए इन चारों को ही महत्त्व मिलना चाहिए। इन सभी वर्णों के लोगों को समान श्रेय- सम्मान मिलना चाहिए। इनमें छोटे बड़े या ऊँच नीच जैसे भेद भाव नहीं बरतने चाहिए ।

   आज कल ढेर सारे मामा मारीच हमारे बीच में घूम रहे हैं, उनसे होशियार रहने की जरूरत है । जो सत्य है वहीं सनातन है । 


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