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भगवान श्रीकृष्ण की गोवर्धन लीला, भागवत पुराण, दशम स्कंध

भगवान श्रीकृष्ण की गोवर्धन लीला का यह  यह चित्र जिसमें भगवान श्रीकृष्ण को स्पष्ट रूप से गोवर्धन पर्वत को उनके सर के ऊपर उठाए हुए दिखाता है, ...

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥

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  गुरु विश्वामित्र जी ने भगवान श्री राम से कहा कि गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की "...

  गुरु विश्वामित्र जी ने भगवान श्री राम से कहा कि गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बड़े धीरज से आपके चरणकमलों की "धूलि" चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए॥

परसत पद पावन सोकनसावन 

प्रगट भई तपपुंज सही।

देखत रघुनायक जन सुखदायक 

सनमुख होइ कर जोरि रही॥

अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा 

मुख नहिं आवइ बचन कही।

अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी 

जुगल नयन जलधार बही॥

  श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बड़भागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनंद के आँसुओं) की धारा बहने लगी। 

   रज का सीधा अर्थ होता है चरण धूल, पर यहां रज के कई भावार्थ होते हैं। रज जब आंखों में पड़ जाए तो वो काफी तकलीफदेह होता है। परन्तु, वही रज यदि गुरु के चरण का हो तो आंखों में पड़ने के बाद जन्म जन्मांतर के लिए आंखें खुल जाती है। रजोगुण शब्द का उच्चारण काम को पैदा करता है, लेकिन गुरु के चरण रज से भक्तों का उद्धार हो जाता है।

  चरणरज का बड़ा ही महत्व है । एक बार मोक्ष खुद भगवान श्री कृष्ण जी से पूछता है कि प्रभु

मुक्ति पूछे गोपाल से मेरी मुक्ति बताएं । 

एक बार मोक्ष ("मुक्ति") ने श्री कृष्ण से पूछा: मैं सभी को मोक्ष देता हूं लेकिन मेरा उद्धार क्या है?

ब्रज रज उह मस्तक लगे मुक्ति मुक्त हो जाए।

 तब श्री कृष्ण ने कहा कि ब्रज में जाओ और जब ब्रज (रेत) की धूल बहेगी, इसे ले लो और इसे लगाओ आपके माथे पर और फिर वह आपका उद्धार होगा -

न देव भूतानृणां पितॄणां 

न किंकरो नायमृणी च राजन् ।

सर्वात्मना वः शरणं शरण्यं 

गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥

  जो पुरुष अन्य समस्त कर्तव्यों को त्याग कर मुक्ति के दाता मुकुन्द के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है और इस पथ पर गम्भीरतापूर्वक चलता है वह देवताओं, मुनियों, सामान्य जीवों, स्वजनों, मनुष्यों या पितरों के प्रति अपने कर्तव्य या ऋण से मुक्त हो जाता है।" श्रीभगवान् की सेवा करने से ऐसे दायित्व अपने आप पूरे हो जाते हैं।

  तुलसी दास जी और रहीम समकालीन कवि थे, बराणसी गंगा जी के घाट पर तुलसीदास जी रामचरितमानस की रचना कर रहे थे। और उस पर रहीम रहते थे, तब आज की तरह गंगा जी के घाट पक्के नहीं थें, उन्होंने देखा कि एक हाथी अपने सर पर गंगा जी की रेत डाल रहे था, तो उन्होंने एक पत्र लिखकर रहीम से पूछा कि -

धूर धरत नित सीस पै, कहु ‘रहीम’ केहि काज ।

हाथी नित्य क्यों अपने सिर पर धूल को उछाल-उछालकर रखता है ? जरा पूछो तो

जेहि रज मुनि-पतनी तरी, सो ढूंढत गजराज

 उससे उत्तर है:- जिस धूल से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गयी थी, उसे ही गजराज ढूंढता है कि वह कभी तो मिलेगी।

एक कहानी भगवान श्री कृष्ण जी के बारे में मिलती है -

  पहले आइए गोपियों के प्रेम को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं और उस प्रेम की तुलना अन्य स्तरों से करते हैं।

   एक बार श्री कृष्ण ने सिर में असहनीय पीड़ा का अभिनय किया। वे दर्द से कराहने और तड़पने लगे। कई उपचार के बाद भी आराम नहीं मिला। तभी वहां नारद जी पहुंच गए तथा दर्द की औषधि कहाँ मिलेगी इसकी जानकारी श्रीकृष्ण से ही प्राप्त की। श्री कृष्ण ने कहा कि जो मुझे अत्यधिक प्रेम करता हो उसकी चरण धूलि ही इसकी औषधि है। मैं उसे सिर पर लगा लूंगा तो दर्द का निवारण होगा। 

  नारद जी सभी रानियों से चरण धूलि माँगी परंतु सबने नरक के भय से अपने पति को चरण धूलि देने से मना कर दिया।

 संत शिरोमणि नारद जी ने भी चरण धूलि नहीं दी ।

  संत शिरोमणि नारद जी ने भी चरण धूलि देने से मना कर दिया। "मैंने 60,000 वर्षो तक तपस्या गोपियों की चरण धूलि पाने के लिए की । 

  तो भी गोपियों की चरण धूलि प्राप्त नहीं कर सका ।"

 गोपियाँ निष्काम प्रेम का प्रतीक हैं।

  नारद जी प्रभु के सभी लोकों में सभी भक्तों के पास गए परंतु सभी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हम अपना प्राण उनको दे सकते हैं परंतु उनके सर पर लगाने के लिए चरण धूलि कदापि नहीं दे सकते। अंततः श्रीकृष्ण ने उनको ब्रज में गोपियों के पास जाने की सलाह दी।

  नारद जी गोपियों के पास गए और सारा वृतांत सुनाया ।

 सुनते ही गोपियों ने सारी गोपियों ने अपने चरण फैला दिये और बोलीं," नारद जी ! 

  एक क्षण भी नष्ट मत करिये। जल्दी से हमारी चरण धूलि लेकर जाइये" । 

  नारद जी आश्चर्यचकित थे। उन्होंने गोपियों से पूछा कि तुम जानती नहीं श्री कृष्ण कौन हैं और उनको सिर पर लगाने के लिए चरण धूलि देने का परिणाम क्या होगा ?

  गोपियों ने कहा, "नारद जी यह प्रश्न आप बाद में पूछियेगा अभी आप तुरंत जाइये और हम सब के प्रियतम की पीड़ा का निवारण कीजिये आप यही कहना चाहते हैं कि वे भगवान हैं और उन्हें चरण धूलि देने से हमें नरक की प्राप्ति होगी। यदि अपने प्रेमास्पद के सुख के लिये हमें नरक की यातनायें भोगनी पड़े तो हम भोग लेंगे लेकिन प्रियतम तो स्वस्थ हो जायेंगे।

  नारद जी गोपी प्रेम का प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर नतमस्तक हो गये।

  नारद जी गोपी प्रेम का प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर नतमस्तक हो गये। गोपियां इतनी निष्काम हैं , लोग नरक की यातनाओं से डरते हैं, परंतु गोपियां तो श्रीकृष्ण के सुख के लिए नरक स्वीकार करने को तत्पर हैं। नारद जी ने पहले उनकी चरण रज अपने माथे पर लगाई फिर द्वारिका पहुंचे। जब रानियों ने गोपियों के निष्काम प्रेम की कथा सुनी तब उन्हें गोपियों के प्रति श्री कृष्ण के असीम अनुराग का रहस्य ज्ञात हुआ ।

  शंकर जी गोपी बनकर इस प्रेम को प्राप्त करने आए। ब्रह्मा जी ने कहा-

  एक बार श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ गंगा जी में स्नान करने सिद्धाश्रम गए। संयोगवश वहाँ श्री राधा रानी भी उसी समय अपनी हजारों सखियों के साथ गंगा स्नान करने पहुंची। रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी के अद्भुत सौंदर्य के बारे में सुना था। जब उन्हें यह पता चला तो वे राधा रानी से मिलने के लिए उत्सुक होने लगीं। उन्होंने श्री राधा रानी को अपने परिसर में आमंत्रित किया जिसे श्री राधा रानी ने स्वीकार कर लिया।

   जैसे ही श्री राधा रानी ने रुक्मणी जी के परिसर में प्रवेश किया तो सभी रानियां उनके रूप माधुर्य तथा आभा को देखकर स्तब्ध रह गईं। उन्होंने सहर्ष श्री राधा रानी तथा सखियों का स्वागत किया। तब रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी से एक प्रश्न किया।

 सभी रानियां तथा गोपियां श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर प्रेम करती हैं। क्या तुम्हें उनसे ईर्ष्या नहीं होती ?

 श्री राधारानी मुस्कुराई तथा बड़ा ही सुंदर उत्तर दिया-

चन्द्रो यथैको बहवश्चकोराः

 सूर्यो यथैको बहवः दृशस्युः । 

श्रीकृष्ण चन्द्रो भगवाँस्थैको

भक्ता भगिन्यो बहवो वयं च ॥

  यदि एक चकोर चंद्रमा पर अपना अधिकार कर ले तो बाकी सभी चकोर तो मर जायेंगे । 

  मेरी प्यारी बहनों, चंद्रमा तो केवल एक ही है परंतु चकोर तो बहुत हैं। कल्पना कीजिए यदि एक चकोर चंद्रमा पर अपना अधिकार कर ले तो बाकी सभी चकोर तो मर जायेंगे। इसी प्रकार सूर्य एक है हम सभी उसी के प्रकाश से दृष्टि पाते हैं। यदि कोई एक सूर्य पर अधिकार कर ले तो बाकी सब नेत्रहीन हो जाएंगे। संक्षेप में कहें, श्री कृष्ण ही प्रेम तत्व हैं। यदि मैं उन पर अपना एकाधिकार कर लूंगी तो अन्य जीव उनके प्रेम से वंचित रह जायेंगे। दूसरी बात यह है कि मेरे श्याम सुंदर अन्य जीवों से प्रेम करके सुख प्राप्त करते हैं तो मुझे कोई आपत्ति क्यों होगी ?

अमिय मूरि मय चूरन चारू ।

 समन सकल भव रुज परिवारू।। 

 यह रज अमृत - मिश्रित जड़ी का सुन्दर चूर्ण है और सब भव - रोग - परिवार ( जन्म - मरणादि ) को नाश करनेवाली है । 

 चरण - रज में सार अमृत - रूप है । वह जन्म - मरणादि रोगों को धीरे - धीरे दूर करके सेवन करनेवाले को अमर करता है

 

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भागवत दर्शन: गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर। चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥
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