श्रीमद्भागवत में उद्धृत उद्धव चरित्र की सम्पूर्ण कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  संदीपनी ऋषि के आश्रम से आने के बाद भगवान के मित्र बने हैं उद्धव जी। ये बड़े ज्ञानी हैं।

वृष्णीनां प्रवरो मंत्री कृष्णस्य दयितः सखा । 
शिष्यो बृहस्पतेः साक्षाद् उद्धवो बुद्धिसत्तमः ॥



  उद्धवजी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात् ब्रहस्पतिजी के  शिष्य और परम बुद्धिमान थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे पढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे।

  उद्धव चरित्र श्रीमद भागवत का बड़ा ही मार्मिक प्रसंग है। प्रेम का दर्शन करवाता है उद्धव चरित्र । सूरदास जी महाराज ने भी उद्धव चरित्र का बहुत वर्णन किया है। आप दर्शन कीजिये।

  भगवान ने सोचा की ये उद्धव परम ज्ञानी है लेकिन अगर इस पर भक्ति रूपी रंग चढ़ जाये तो ज्ञान रूपी चादर बहुत अच्छी सुशोभित होगी। भगवान सोचते हैं की तो क्या मैं इस उद्धव को भक्ति का उपदेश दूँ?

  फिर भगवान सोचते हैं की नहीं-नहीं, भक्ति उपदेश देने से नहीं बल्कि भक्ति का क्रियात्मक रूप होना चाहिए। क्योंकि ज्ञान पुरुषार्थ (मेहनत ) का फल है और भक्ति कृपासाध्य है। बिना भगवान की कृपा के भक्ति नहीं मिलती है।

  भगवान ने सोचा की अगर कहीं भक्ति का दर्शन हो सकता है तो वह स्थान है वृन्दावन। मैं इस उद्धव को वृन्दावन भेजूंगा।

  भगवान प्रतिदिन सुबह उठकर यमुना का स्नान करने के लिए जाते थे। आज भगवान जब यमुना का स्नान करने के लिए गए तो यमुना जी, वृन्दावन से मथुरा बहती हुई आ रही है। भगवान ने यमुना में स्नान कर रहे थे तो एक कमल का फूल बहता हुआ आ रहा है। ये राधा रानी की प्रसादी थी। राधा रानी प्रतिदिन यमुना में भगवान के लिए फूल बहाती थी और फूल बहाते समय राधा जी के मन में ये बात आती थी की मेरे गोविन्द यमुना का स्नान करने के लिए आते होंगे और इस फूल को वो देखने तो उन्हें मेरी याद अवश्य आएगी।

  आज भगवान ने उस फूल को सुंघा और यमुना में मूर्छित होने लगे। पास में खड़े थे उद्धव जी । उद्धव जी ने जब ये देखा तो तुरंत दौड़कर गए और अपने हाथ का सहारा दिया भगवान को भगवान को महलों में लेकर आये हैं। भगवान जी की आँखों में आज आंसू हैं। क्योंकि उद्धव जी ने भगवान को कभी रोते हुए नहीं देखा था।

  उद्धव जी ने पूछा कृष्ण, आप भी किसी को याद करते हुए रोते हो क्या? भगवान उद्धव से कहते हैं- उद्धव मोहे ब्रज बिसरत नाही। मैं अपने ब्रज को भूल नही पा रहा हूँ।

  मैं एक क्षण के लिए भी ब्रज को भूल नहीं पा रहा हूँ। मैं अपनी माँ और पिता से कहकर आया था की मैं शीघ्र ही ब्रज आऊंगा। लेकिन मैं जा नहीं सका। मेरी गौएँ, मेरी गोपियाँ और मेरे ग्वाल बाल कितना स्मरण करते हैं। ऐसा कहते हुए भगवान के आंसू गिर रहे हैं। उद्धव ने भगवान ने आंसू पोंछे और कहा - " मैं जानता हूँ आप बहुत राज-काज में फंसे हैं और आपके ऊपर बहुत राज भर है। आपका कोई सन्देश हो तो आप मुझे दीजिये। भगवान कहते हैं उद्धव, तू आज ही ब्रज जा और मेरे माता पिता से मेरा सन्देश देना-

उधो मैया ते जा कहियो,
 उधो मेरी मैया ते सुनइयो।। 
 तेरो श्याम दुःख पावे, 
उधो मैया ते जा कहियो ।। 

उद्धव तू मेरी माँ से कहना की तेरा कृष्ण बहुत दुखी है तेरे बिना।

कोई ना ख्वावे मोहे माखन रोटी,
 जल अचरान करावे ।
माखन मिश्री नाम ना जानू 
कनुवा कही मोहे कोई ना पुकारे ॥

  उद्धव मेरी माँ से कहना की मुझे यहाँ खाने के लिए सब चीज मिल जाती है पर माखन रोटी कोई नही देता और माँ जैसे तू मुझे कनुवा कहकर बुलाती थी ऐसे मुझे कोई नही बुलाता। कोई कृष्ण कहता है, कोई गोविन्द कहता है। पर मेरे कान तो कनुवा सुनने के लिए तरस रहे हैं माँ।

बाबा नन्द अंगुरिया गहि गहि,
 पायन चलिबो सिखायो ।
थको जान कन्हिया मेरो, 
गोद उठावो और हिये सो लगावे।। 

 उद्धव जब मैं ब्रज में था तो मेरी माँ, मेरे नन्द बाबा मेरी ऊँगली पकड़कर चलना सीखते थे और जब में चलते-चलते थक जाता था, तो मेरे पिता मुझे उठाकर छाती से लगा लेते थे।

आवे गोपिन देन उल्हानो
 नेक ना चित पे लावे,
और नहात बाल खसे जो मेरो
 बार बार कुल देवी मनावे।

  मैं उन गोपियों के यहाँ माखन चोरी करने जाता तो गोपियाँ मेरी माँ से शिकायत करने आती थी। और कहती थी की ब्रजरानी यशोदा तेरा लाला चोर है। ये माखन चुरावे है और माखन का माखन खावे है और हमारी मटकी भी फोड़ देती देता है। लेकिन मेरी माँ उन पर यकीं नही करती थी ।

  स्नान करते वक्त मेरे सिर से एक बाल भी टूट जाता था तो मेरी माँ कहती थी हे देवी माँ ! मेरे बालक की रक्षा करना। क्योंकि मेरे लाला का आज एक बाल टूट गया है।

गहर जन लावो उधो, आज ही जावो ब्रज, 
आवत है याद गोप और गईया की ।
उठती उर पीर, मन आवे नही धीर
 होस करत अधीर, वांस वंसिवट छईया की ।
उन्हें समझइयो, आवेंगे दोउ भईया । 
और जईयो नन्द रईयन की
मेरो ले नाम उधो, कहिओ प्रणाम मेरी, 
मईया के पायन में उधमी कन्हिया की ॥

  उद्धव मेरी माँ के चरणों में प्रणाम करके कहना की मैया, तेरे लाला ने तेरे चरणों में प्रणाम भेजी है।

और अंत में एक प्रार्थना मेरी राधा रानी से भी करना -

हे वृषभानु सुते ललिते ! मम कौन कियो अपराध तिहारो। 
काढ दियो ब्रज मंडल ते, अब औरहु दंड दियो अति भारो।। 
सो कर ल्यो अपनों कर ल्यो, निकुंज कुटी यमुना तट प्यारो।
आप सो जान दया कि निधान, भई सो भई अब बेगी सम्हारो।। 

  हे वृषभानु सुता, श्री राधा रानी! मुझसे ऐसा क्या अपराध हो गया की आपने मुझे इस ब्रज से ही निकाल दिया है मेरी किशोरी जी कुछ ऐसी कृपा करो की मेरा ब्रज में फिर से आना हो जाये।

  उद्धव गोपियों मुझसे निष्काम प्रेम करती हैं। मैं उन गोपियों का परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आने से वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरह की व्यथा से विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं। मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्न से अपने जीवन की रक्षा कर रही होंगी। वह उनके जीवन का आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं ।

  श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कही, तब उद्धवजी बड़े आदर से अपने स्वामी का सन्देश लेकर रथ पर सवार हुए और नन्द गाँव के लिये चल पड़े।

  संधि काल को उद्धव जी महाराज वृन्दावन की सीमा पर पहुंचे तो ग्वाल बालों ने देखा की कृष्ण आ गए हैं। ये ग्वाल बाल प्रतिदिन गाँव की सीमा पर बैठ जाते थे और कृष्ण जी का इंतजार करते थे। जब कृष्ण जी नही आते थे तो ये शाम को नन्द बाबा के घर जाकर मैया यशोदा और नन्द बाबा से कहते थे- बाबा! मैया! कोई बात नहीं आज कृष्ण नही आये तो तू रोना मत, तू चिंता मत करना। क्योंकि आज कृष्ण नही आये हैं तो कोई बात नहीं कल आ जायेंगे। इस तरह से ये माता पिता को सांत्वना देते थे।

  उद्धव जी ने रथ में बैठे हुए ग्वाल बालों से पूछा की भैया! नन्द भवन कहाँ हैं? सभी ग्वाल बाल कहते हैं की आप कौन हैं। देखने में तो एकदम कृष्ण जी जैसे दिखाई पड़ते हो।

  उद्धव जी कहते हैं- भैया! मैं तुम्हारे कृष्ण का मित्र हूँ। और उन्होंने ही मुझे तुम्हारे पास भेजा है। अब मुझे नन्द भवन लेकर चलिए।

  सभी ग्वाल बाल उद्धव जी को लेकर नन्द भवन जाते हैं। जैसे ही नन्द भवन के द्वार पर पहुंचते हैं तो द्वार पर नन्द बाबा जी मूर्छित पड़े हुए हैं। उद्धव जी महाराज ने अपने हाथ का सहारा देकर नन्द बाबा जी को उठाया।

नन्द बाबा जी कहते हैं- लाला तू आ गयो ।

उद्धव जी कहते हैं- मैं आपका लाला नहीं हूँ आपके लाला का मित्र हूँ। मेरा नाम है उद्धव ।

नन्द बाबा कहते हैं- क्या हमारे कन्हैया नही आये? आज मेरे लाला नही आये?

  जब माँ यशोदा ने द्वार पर कन्हैया का नाम सुना तो लाठी टेकती हुई आई क्योंकि बूढ़ी हो गई थी 80 साल की और द्वार पर उद्धव को देखा तो उद्धव को कसकर पकड़कर झकजोर कर पूछा- मेरो कनुवा कहाँ हैं? मेरा लाला कहाँ है?

 उद्धव जी ने कहा की मैया! मैं तेरे लाला का मित्र हूँ उद्धव और उसका सन्देश लेकर आया हूँ।

जब माँ ने सुना तो हाथ पकड़कर उद्धव को अंदर लेकर गई और बिठाकर पूछा- बता उद्धव मेरे लाला ने क्या सन्देश भेजो है?

उद्धव ने कहा- माँ! तेरे लाला ने तेरे लिए प्रणाम भेजी है।

  जैसे ही माँ ने सुना तो हंसने लगी- की बस केवल प्रणाम भेजो है। ये तो मैं कितने दिन से प्रणाम सुन रही हूँ। क्या वो वहां से प्रणाम ही भेजता रहेगी। एक बार माँ से मिलने नही आयेगो देख उद्धव मैं अपने लाला के लिए दिन-रात रोती रहती हूँ और अगर रोते-रोते मैं अंधी हो गई तो इन आँखों से अपने लाल का दर्शन भी नही कर पाऊँगी। मेरे लाला से कहियो की एक बार अपनी माँ से आकर मिल ले।

  माँ उद्धव को अब वहां पर लेकर गई जहाँ भगवान श्री कृष्ण का पलना था। और उस पालने को दिखाकर माँ कहती है- उद्धव तू शोर मत करियो मेरो लाला सो रयो है। फिर कहती है- नहीं, नहीं वो तो मथुरा में गया हुआ है ना।

  फिर माँ उद्धव को उस ऊखल के पास लेकर जाती है जिस से माँ ने कन्हैया को एक बार माखन चोरी करने पर बाँध दिया था। माँ कहती है- देख उद्धव, ये वही ऊखल है, जिससे मैंने कान्हा को माखन की मटकी फोड़ने पर बाँध दिया था। तो क्या उस दिन की बात से नाराज होकर मेरा लाला, मेरा कनुवा मुझसे रूठ गया है जो मथुरा में जाकर बैठ गयो है।

  देख तू उद्धव मेरे लाला से जाकर कहना की एक बार मुझे माफ़ कर दे और बस एक बार ब्रज आ एक बार ब्रज आजा ।

  इस प्रकार से उद्धव ने माँ के आंसू पूंछे। रात्रि भर कृष्ण चर्चा चलती रही। कब रात बीत गई उद्धव को भी पता नहीं चला। प्रातः काल हो गई। सूर्य देव उदय हो गए। उद्धव ने नन्द बाबा से कहा की आप मुझे यमुना जी का स्नान करने की आज्ञा दो गोपियों ने आज नन्द भवन के द्वार पर एक रथ खड़ा देखा। गोपियों को लगा की क्या कृष्ण आ गए हैं?

  फिर सोचती हैं की नहीं - नहीं ! अगर श्यामसुंदर आते तो हमसे जरूर मिलकर जाते। पहले तो वो क्रूर अक्रूर आया था जो हमारे प्यारे को लेकर चला गया। अब तो केवल हमारे प्राण बचे हैं। तो क्या कोई हमारे प्राण लेने आया है। क्या कोई कंस का पिंड दान करने के लिए हमारे प्राण लेने आया है। ऐसा कहकर गोपियाँ राधा रानी को साथ लेकर यमुना के तट पर गई। है।

  उद्धव जी भी यमुना के तट पर आये हैं। एक और गोपियाँ खड़ी हैं और एक और उद्धव । उसी समय एक भ्रमर (भौंरा) आ गया है। और उस भ्रमर की आदत कभी तो उड़कर गोपियों की और जाये और कभी उद्धव जी की और जाये। जब गोपियों की और उड़कर भ्रमर आया तो गोपियों ने कहा भ्रमर गीत गाया।

  गोपी कहती हैं- भ्रमर तू उस धूर्त कृष्ण का धूर्त मित्र है ना। हमे तुझसे घृणा हो गई है। जैसे तू फूलों का रस लेने के बाद उनका त्याग करके चला जाता है ऐसे ही कृष्ण ने हमारा त्याग कर दिया। तू हमारा स्पर्श मत कर।

  कुछ संत कहते हैं की ये भ्रमर और कोई नही स्वयं श्री कृष्ण जी ही हैं।

  जब उद्धव जी ने भ्रमर गीत सुना तो उद्धव ने सोचा की यहाँ तो कोई दिखाई नहीं देता। तो ये गोपियाँ बातचीत किससे कर रही हैं।

  उद्धव जी महाराज गोपियों के पास गए हैं। और कहते हैं की गोपियों मैं तुम्हारे कृष्ण का मित्र हूँ। और तुम्हारे लिए कुछ सन्देश लेकर आया हूँ।

  गोपियाँ कहती हैं उद्धव! आपने बड़ी कृपा की जो कृष्ण जी का सन्देश लेकर आये। लेकिन आप पहले अपने मुख से ये बात बताओ की कृष्ण ने स्वयं आने के लिए कहा भी या नही। क्योंकि उनको देखे बिना हमारे एक- एक पल एक-एक युग की तरह बीतता है और ये भी बताइये की क्या सन्देश भेजा है। गोपियाँ उद्धव को घेरकर खड़ी हो गई।

   गोपियाँ कहती हैं उद्धव! आपने बड़ी कृपा की जो कृष्ण जी का सन्देश लेकर आये। लेकिन आप पहले अपने मुख से ये बात बताओ की कृष्ण ने स्वयं आने के लिए कहा भी या नही। क्योंकि उनको देखे बिना हमारे एक- एक पल एक-एक युग की तरह बीतता है। और ये भी बताइये की क्या सन्देश भेजा है।

  अपने ज्ञान का पिटारा गोपियों के आगे खोला और कहते है की भगवान ने आपके लिए कहा है -

भवतीनां वियोगो मे न हि सर्वात्मना क्वचित् । 
यथा भूतानि भूतेषु खं वाय्वग्निर्जलं मही ।। 
तथा च मनःप्राण भूतेन्द्रियगुणाश्रयः । 
आत्मन्येवात्मनात्मानं सृजे हन्म्यनुपालये।। 
आत्ममायानुभावेन भूतेन्द्रियगुणात्मना ॥
आत्मा ज्ञानमयः शुद्धो व्यतिरिक्तोऽगुणान्वयः । 
सुषुप्तिस्वप्नज ग्रद्भिः मायावृत्तिभिरीयते ॥

   मैं सबका उपादान कारण होने से सबका आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ; इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसार के सभी भौतिक पदार्थों में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये पाँच भूत व्याप्त हैं, इन्हीं से सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओं के रूप में हैं। वैसे ही मैं मन, प्राण, पंचभूत, इन्द्रिय और उनके विषयों का आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूप में प्रकट हो रहा हूँ ।

   मैं ही अपनी माया के द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेत लेता हूँ। आत्मा माया और माया के कार्यों से पृथक् है । वह विशुद्ध ज्ञानस्वरुप, जड़ प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवांतर भेदों से रही सर्वथा शुद्ध है।

  कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। माया की तीन वृत्तियाँ हैं- सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत् । इनके द्वारा वही अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप आत्मा कबी प्राज्ञ, तो कभी तैजस और कभी विश्वरूप से प्रतीत होता है।

   फिर उद्धव कहते हैं- गोपियों तुम अपनी नासिका के अगर भाग पर उस ब्रह्म का ध्यान करो तो तुम्हे अपने अंतः करण चतुष्ठः में श्री कृष्ण के दर्शन होंगे।

   गोपियों ने जब ये ज्ञान की बात सुनी तो हँसने लगी और कहती हैं अच्छा तो हमारे प्यारे ने ये योग की चिट्ठी ब्रज में भेजी है। इस पाती को लेकर हम क्या करेंगे।

सुनो उद्धव ! 

निसदिन बरसत नैन हमारे ।
सदा रहत पावस ऋतु हम पर जब ते स्याम सिधारे ॥
अंजन थिर न रहत अँखियन में कर कपोल भये कारे।। 
कन्चुकिपट सूखत नहिं कबहुँ उरबिच बहत पनारे ॥

  सूरदास के पदों में गोपियों का विरह भाव स्वष्ट झलकता है। इस प्रसिद्ध पद में कृष्ण के वियोग में गोपियों की क्या दशा हुई, उसी का वर्णन सूरदास ने किया है। कृष्ण को संबोधन देते हुए गोपियां कहती हैं कि हे कन्हाई! जब से तुम ब्रज को छोडकर मथुरा गए हो, तभी से हमारे नयन नित्य ही वर्षा के जल की भांति बरस रहे हैं अर्थात् तुम्हारे वियोग में हम दिन-रात रोती रहती हैं।

   रोते रहने के कारण इन नेत्रों में काजल भी नहीं रह पाता अर्थात् वह भी आंसुओं के साथ बहकर हमारे कपोलों (गालों) को भी श्यामवर्णी कर देता है। हे श्याम! हमारी कंचुकि (चोली या अंगिया) आंसुओं से इतनी अधिक भीग जाती है कि सूखने का कभी नाम ही नहीं लेती। फलत: वक्ष के मध्य से परनाला सा बहता रहता है।

  इन निरंतर बहने वाले आंसुओं के कारण हमारी यह देह जल का स्त्रोत बन गई है, जिसमें से जल सदैव रिसता रहता है। सूरदास के शब्दों में गोपियां कृष्ण से कहती हैं कि हे श्याम! तुम यह तो बताओ कि तुमने गोकुल को क्यों भुला दिया है।

फिर कृष्ण की लीला गोपियों को याद आने लगी हैं -

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं।
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।

 गोपाल के बिना हमें ये ब्रज की कुंजे अपनी बेरि लगती हैं। जो लता शीतलता प्रदान करती हैं उनमे से अब आग की लपटे निकल रही हैं।

  उद्धव हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म का उपदेश लेकर क्या करें! हमें तो वो शरद की पूर्णिमा की रात्रि याद आती है जब हमने भगवान के उस रसमय रूप का दर्शन किया था। और भगवान ने हमारे साथ रास रचाया था। वह पल हमे एक क्षण के लिए भी नही भूलता और ना ही हम उसे भूलना चाहती हैं। 

 तुम कहते हो की तुम कृष्ण के मित्र हो। यदि मित्र होते तो हमारी विरह दशा को समझ पाते। कैसे मित्र हो तुम कृष्ण के? तुम्हे हमारी दशा समझ नही आती।

  उद्धव कहते हैं - गोपियों तुम समाधि लगाकर भगवान का ध्यान करो। उस निर्गुण और निराकार ब्रह्म का ध्यान करो। भगवान ने ये सन्देश दिया है।

   फिर एक गोपी कहती हैं- उद्धव तुम यहाँ से चले जाओ। तुम गलती से ब्रज में आ गए हो। तुम योग की बात कर रहे हो तुम्हे जरा भी लज्जा नही आती। तुम इतने चतुर हो गए हो की उचित-अनुचित का तुम्हे ज्ञान ही नही। अपने निर्गुण ब्रह्म का राग अलापना बंद करो। अरे जो है ही नही वही निर्गुण है। जिसमे कोई गुण नहीं है जिसमे कोई रस नहीं है। वो क्या खाक दिखेगा।

   एक गोपी कहती है जैसे कुत्ते की पूंछ को करोड़ो भांति सीधा करने का प्रयास करो, लेकिन उसे कोई भी सीधा नही कर सकता। जैसे कौवा कितना भी प्रयत्न करे वो अभक्ष्य चीजे खाना नही छोड़ता। जैसे काले कम्बल को कितना भी धो लो लेकिन उसका रंग तो काला ही रहेगा ना। ऐसे ही उस काले (कृष्ण) का रंग हम पर चढ़ गया है तुम लाख कोशिश करलो वो रंग अब उतरने वाला नही है।

   एक गोपी कहती है- उद्धव! एक बात कहें! आज हम धन्य हो गई हैं। क्योंकि एक तो तुम्हे हमारे प्यारे कृष्ण ने हमारे लिए भेजा है। और दूसरा अपनी आँखों से तुम्हे हमारे प्यारे कृष्ण को देखा है। जिन नेत्रों से तुमने कृष्ण को देखा है उन नेत्रों से तुम मुझे झांक रही हो।

  उद्धव कहते हैं- हे गोपियों! तुम जान बूझकर बावली मत बनो। तत्व ( निर्गुण ब्रह्म) के भजन से तुम भी इसी प्रकार तत्वमय (निर्गुण ब्रह्म में रमण करने वाली) हो जाओगी। जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है। तुम सब सांसारिक मोह बंधन छोड़ दो।

   एक गोपी उद्धव का उपहास उड़ाकर कहती है- हे उद्धव ! तुम्हारी तो अच्छी-खासी सद्बुद्धि थी, किन्तु निर्गुण ब्रह्म के चक्कर में पड़कर तुमने उसे भी खो दिया है। तुम्हारे इस उपदेश के कारण तुम्हारी ब्रज में हंसी हो रही है। तुम इसे अपने अंदर ही छिपाकर रखो, किसी को मत दिखाओ। तुम्हारी उल्टी-सीधी बातें कौन सुनता रहेगा।

  यदि तुम ग्वालिनो को योग सीखने का काम करोगे तो लोग तुम्हे मूर्ख ही कहेंगे। तुम्हे एक बात बताएं उद्धव-

"अँखियाँ हरि दर्शन की भूखी।"
"अँखियाँ हरि दर्शन की प्यासी।"

  हमारी आँखे तो केवल श्रीहरि के दर्शनों के लिए ही अत्यधिक भूखी हैं, हमारी आँखें तो केवल हरि दर्शन की प्यासी हैं।

   जबसे श्यामसुंदर ब्रज से गए हैं ना उद्धव तभी से हमारा मन उनमे अटक गया है। हमने बहुत निकलने की कोशिश की लेकिन मन वहां से हट ही नही रहा है। उद्धव वैसे तो हमारे सारे अंग दुखी हैं लेकिन विशेष रूप से हमारी आँखें रात-दिन उनके जाने के कष्ट से दुखती रहती हैं। एक क्षण के लिए भी चैन से नही बैठती। बस उनके आने के मार्ग देखती रहती हैं। एक क्षण के लिए भी पालक नहीं झपकती की ना जाने कब श्यामसुंदर आ जाये और हम उनके दर्शन से वंचित रह जाएँ।

  फिर एक सखी कहते है - देखो, आओ सखियों! मथुरा से पांडे जी योग सीखने आये हैं। जो पांडे खा पीकर मस्त रहते है वो आज योग की चिट्ठी लेकर आये हैं।

  उद्धव जी कहते हैं- हे गोपियों ! (आत्म व निर्गुण) ज्ञान के बिना कहीं भी, कुछ भी सुख नहीं है। तुम लोग निर्गुण को छोड़कर सगुण के पीछे क्यों दौड़ती हो? अच्छा चलो, ये बताओ वो सगुण ब्रह्म किसके पास, और फिर तुम्हे उससे क्या मिल गया? (केवल विरह ही तो मिला जिसे तुम दिन रात भोग रही हो ) । 

  गोपियाँ कहती हैं- उद्धव तुमने बहुत बोल लिया। अब एक शब्द ना बोलना। कृष्ण की आराधना छोड़कर निर्गुण की बात कहने से हमारे प्राणों पर आघात होता हैं, फिर चाहे तुम्हारे लिए ये हंसी की बात हो। हमें हर पल मोहन का ध्यान रहता हैं। उनके दर्शनों के बिना तो जिन ही बेकार हैं। हमें तो रात-दिन श्याम का ही स्मरण रहता हैं, तुम्हारे योग की अग्नि में यहाँ कौन जलेगा।

   अरे उद्धव! तुम हरि को अंतर्यामी बताते हो, पर वे काहे के अंतर्यामी हैं, अगर अंतर्यामी होते तो कये वे यह न जानते की उनके बिना हम गोपियाँ किस प्रकार विरह में व्याकुल होकर एक-एक पल काट रही हैं? इतने दुखी होने पर भी वो एक बार हमसे मिलने नही आये।

  तुम निर्गुण ब्रह्म की बात कर रहे हो, यह बताओ वह निर्गुण ब्रह्म रहता कहाँ हैं? वो किस देश का वासी हैं। उसकी माँ कौन हैं? पिता कौन हैं? वह किस नारी का दास हैं। उसका रंग कैसा हैं? उसका वेश कैसा हैं? वह कैसा श्रृंगार करता हैं और उसकी रूचि किस चीज में हैं?

  गोपियाँ कहती हैं- उद्धव ! अब तुम्हारे पास हमारी इन बातों का कोई जवाब नही हैं। हमें तो लगता हैं एक ओर वो कृष्ण हैं जिसके दास ब्रह्मा हैं। दूसरी ओर वो कुब्जा हैं जो कंस की दासी हैं। वो कुब्जा से प्रेम करके मथुरा में रह रहे हैं। अब तो कृष्ण मथुरावासी हो गए हैं ना! अरे उस कन्हैया ने क्या सोचकर कुब्जा से प्रेम कर लिया। उन्हें हमारी जरा भी याद नही आई। उद्धव तुम एक बात कान खोलकर सुन लो।

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहै।
मूरि के पातिन के बदले, कौ मुक्ताहल देहै ।।

  तुम्हारा यह योग रूपी ठगी का सौदा ब्रज में नही बिकेगा। तुम्हे मूली के पत्तों के बदले कौन मोतियों का हार देगा।

यह ब्यापार तुम्हारो उधौ, ऐसे ही धरयो रहै।
जिन पें तैं लै आए उधी, तिनहीं के पेट स है ।।

  उद्धव तुम्हारा यह व्यापार ऐसे ही धरा का धरा रह जायेगा। ये तो उन्ही के पेट में समा सकता हैं जहाँ से तुम इसे लाये हो

दाख छाण्डि के कटुक निम्बौरी को अपने मुख देहे।
गुन किर मोहि सूर साँवरे, कौ निरगुन निरवेहै ॥

   ऐसा कौन मूर्ख होगा जो मीठी किश्मिश (दाख) को छोड़कर कड़वी नीम की निम्बोली को अपने मुह में लेगा। हमने कृष्ण से प्रेम किया हैं उद्धव ! उनके गुणों पर मोहित होकर प्रेम किया हैं, अब तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म का निर्वाह कौन करेगा।

   हे उद्धव ! जबसे यहाँ से गोपाल गए हैं ना तबसे यह पूरा व्रज विरह की अग्नि में जल रहा हैं। बस हम उन्ही को याद करती हैं।

उद्धव जी बोले- गोपियों! हरि का सन्देश सुनो! हम तुम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से मिलकर बने हैं। मैं जिस ब्रह्म की बात कर रहा हूँ ना, उसकी ना कोई माँ हैं, ना कोई पिता हैं। ना स्त्री हैं। ना उसका कोई नाम हैं और ना कोई रूप ठिकाना हैं।

  गोपियाँ कहती हैं- उद्धव ऐसी बात मत कहो। सुनो हमारे भगवान कैसे हैं। तुम्हारे नही दीखते होंगे ठीक हैं लेकिन हमारे भगवान को देखो। हमारे भगवान सुबह उठकर माखन चुराने के लिए गोपियों के घर चले जाते है। फिर वो गौए चराने जाते हैं। और जब श्याम को वो लौटते हैं ना तो उनकी शोभा देखकर हम अपना तन मन भूल जाती हैं।

  तू योग की बात करता हैं ना तेरा योग और निर्गुण ब्रह्म की बात हमें ऐसे कष्ट दे रही हैं जैसे जले पे नमक।

   योगी जिस ब्रह्म तक कभी पहुंचा नही होगा उसी भगवान को माँ मान के चुराने पर ऊखल से बाँध देती है।

  उद्धव काश हमारे पास दस-बीस मन होते। एक मन हम तुम्हारे उस निर्गुण ब्रह्म को भी दे देती।

उधौ मन ना भए दस बीस।
एक हुती सी गयौ स्याम संग को आराधे ईस ।।
इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यों देही बिनु सीस ।
आसा लागि रहित तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ।
तुम तौ सखा स्याम सुंदर के, सकल जोग के ईस । 
सूर हमारै नंद-नंदन बिनु, आर नहीं जगदीस ॥

   अब थक हार कर गोपियाँ व्यंग्य करना बंद कर उद्धव को अपने तन मन की दशा कहती हैं । उद्धव हतप्रभ हैं, भक्ति के इस अदभुत स्वरूप से। हे उद्धव हमारे मन दस बीस तो हैं नहीं, एक था वह भी श्याम के साथ चला गया। अब किस मन से ईश्वर की अराधना करें? उनके बिना हमारी इन्द्रियां शिथिल हैं, शरीर मानो बिना सिर का हो गया है, बस उनके दरशन की क्षीणसी आशा हमें करोड़ों वषर् जीवित रखेगी। तुम तो कान्ह के सखा हो, योग के पूणर् ज्ञाता हो। तुम कृष्ण के बिना भी योग के सहारे अपना उद्धार कर लोगे। हमारा तो नंद कुमार कृष्ण के सिवा कोई ईश्वर नहीं है।

  गोपियाँ कहती हैं उद्धव ! हम तुम्हारी बात केवल एक शर्त पर मान सकती हैं- यदि तुम अपने निर्गुण ब्रह्म को मोर मुकुट और पीताम्बर धारण किये हुए दिखा दो तो।

   उद्धव सच मानना हम तुम्हारी योग के योग्य नही हैं। हम कभी पढ़ने लिखने स्कूल नही गई तो हम ये सब बातें क्या जाने पर उद्धव जब हम आँख बंद करती हैं तो हमें अपने भगवान की मूरत सामने दिखाई पड़ती है। तुम्हे नही दीखता होगा लेकिन हमें तो दीखता है।

  एक गोपी परिहास करते हुए कहती है की उद्धव हम तुम्हारी योग को ले तो लें पर यह तो बताओ कि योग का करते क्या हैं? इसे ओढ़ा जाता है या बिछाया जाता है या किसी स्वादिष्ट भोज्य पदार्थ की तरह खाया जाता है या पिया जाता है। ये कोई खिलौना है क्या या कोई सुंदर आभूषण है? उद्धव हमें तो केवल नंदनंदन चाहिए जो हमारे मन को मोहने वाले और हमारे प्राणों के जीवन हैं।

  उद्धव हमारे कृष्ण गोवर्धन पर्वतधारी हैं। उनके हाथ में बांस की बंसी सदा रहती है। वो वृन्दावन की भूमि पर नंगे पैर रहते हैं। लेकिन उनके जाने के बाद बस हम उनकी प्रतीक्षा में बैठी रहती हैं। उन्ही को याद करती रहती हैं।

   एक गोपी श्री राधा रानी की विरह दशा का वर्णन करते हुए कहती हैं की- हे उद्धव ! अन्य गोपियाँ तो जैसी है वो तो ठीक हैं पर राधा की स्थिति सबसे खराब है। राधा जी बहुत दुखी और मलिन हैं। वे हमेशा नीचे की ओर मुख करके बैठी रहती हैं। आँखे उठकर भी नही देखती हैं। उनकी करुणामयी दशा उस दुखी जुआरी की भांति है जो जुए में अपनी सारी पूंजी हार गया हो।

   उनके बाल बिखरे हुए हैं। मुख इस प्रकार कुमलया हुआ है। जैसे तुषार की मारी हुई कमलिनी हो। और उद्धव तुम्हारी उपदेश सुनकर वो एकदम मृतप्राय हो गई है, क्योंकि एक तो विरह-व्यथा से पहले ही मरणासन्न थी, दूसरे उद्धव जी के इन उपदेश ने आकर जल दिया है। वे श्याम सुंदर के बिना कैसे जी पाएंगी ?

गोपियाँ कहती हैं-

योग को रमावें समाधि को लगावें इहाँ, 
सुख दुःख साधन सों निपट निवेरी हैं।। 
कह रत्नाकर ना जाने क्यों इते जो आज
सासन की सासना की बसना बिखेरी है।। 
हम यमराज की धरावत जमान कछु
 सुरपति सम्पति की चाहत ना ढेरी है।। 
चेरी हैं ना उधो काउ ब्रह्म के बाबा की हम, 
सूधो कह देत एक कान की कमेरी है।। 
उधो, हम एक बात जाने, जग दूजी पहचाने नाहिं,
हम हैं बिहारी के और बिहारी जी हमारे हैं।।

  हम केवल इतना जानती हैं की वो श्यामसुंदर हमारा हैं और हम उनकी हैं। 

यह तो प्रेम की बात है उधो, बंदगी तेरे बस की नहीं है।
यहाँ सर दे के होते सौदे, आशकी इतनी सस्ती नहीं है।। 

  और उद्धव एक बात और जान लेना की ऐसा नही है की बिछुड़ने से प्रेम काम हो जाता है ये तो व्यापारी के ब्याज की तरह बढ़ता रहता है। उधो! ये मत जानियो बिछुड़त प्रेम घटाए, व्यापारी के ब्याज सों बढ़त-बढ़त ही जाये।

श्याम तन श्याम मन श्याम ही हमारो धन, 
आठों याम उधो, हमें श्याम ही सो काम है।
श्याम हिये श्याम जिए, श्याम बिनु नाहीं पिए, 
आंधे की सी लाकडी आधार श्याम नाम है।। 
श्याम गति श्याम मति श्याम ही है प्राणपति, 
श्याम सुखधाम सो भलाई आठो याम है।
........................ यहाँ रोम-रोम श्याम है।।

   गोपियों की बात सुनकर उद्धव की आँखों से आज आंसू आ गए हैं। उद्धव अब जान गए हैं की प्रेम क्या होता है। भक्ति की महिमा क्या होती है।

   उद्धवजी गोपियों की विरह-व्यथा मिटाने के लिये कई महीनों तक वहीं रहे। वे भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुना सुनाकर व्रज- वासियों को आनन्दित करते रहते।

   नन्दबाबा के व्रज में जितने दिनों तक उद्धवजी रहे, उतने दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण की लीला की चर्चा होते रहने के कारण व्रजवासियों को ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो। 

   भगवान के परमप्रेमी भक्त उद्धवजी कभी नदी तट पर जाते, कभी वनों में विहरते और कभी गिरिराज की गातियों में विचरते। कभी रंग-बिरंगे फूलों से लदे हुए वृक्षों में ही रम जाते और यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियों को भगवान श्रीकृष्ण और लीला के स्मरण में तन्मय कर देते।

  गोपियों का प्रेम देखकर उद्धव जी गोपियों को नमस्कार करते हुए इस प्रकार गान करने लगे-

   'इस पृथ्वी पर केवल इन गोपियों का ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रेममय दिव्य महाभाव में स्थित हो गयी हैं। प्रेम की यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसार के भय से मुमुक्षुजनों के लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों-मुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनों के लिये भी अभी वांछनीय ही है। हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी। सत्य है, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण की लीला-कथा के रस का चस्का लग गया है, उन्हें कुलीनता की, द्विजाति समुचित संस्कार की और बड़े-बड़े यज्ञ-यागों में दीक्षित होने की क्या आवश्यकता है? अथवा यदि भगवान की कथा का रस नहीं मिला, उसमें रूचि नहीं हुई, तो अनेक महाकल्पों तक बार-बार ब्रम्हा होने से ही क्या लाभ ? कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानन्दघन भगवान श्रीकृष्ण में यह अनन्य प्रेम ! अहो, धन्य है! धन्य हैं! इससे सिद्ध होता है कि कोई भगवान के स्वरुप और रहस्य को न जानकर भी उनसे प्रेम करे, उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्ति से अपनी कृपा से उनका परम कल्याण कर देते हैं, ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजान में भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्ति ही पीने वाले को अमर बना देता है।

  भगवान श्रीकृष्ण ने रासोत्सव के समय इन व्रजांगनाओं के गले में बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किये। इन्हें भगवान ने जिस कृपा प्रसाद का वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेमदान किया, वैसा भगवान की परमप्रेमवती नित्यसंगिनी वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मीजी को भी नहीं प्राप्त हुआ। कमल की-सी सुगन्ध और कान्ति से युक्त देवांगनाओं को भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या करें ?

  मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाम में कोई झाड़ी, लता अथवा ओषधि जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ! अहा ! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझ इन व्रजांगनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करने के लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा।

   धन्य हैं ये गोपियाँ ! देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन सम्बन्धियों तथा लोक वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके इन्होने भगवान की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है औरों की तो बात की क्या भगवद्वाणी, उनकी निःस्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अबतक भगवान के परम प्रेममय स्वरुप को ढूँढती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं।

  स्वयं भगवती लक्ष्मीजी जिनकी पूजा करती रहती हैं, ब्रम्हा, शंकर आदि परम समर्थ देवता, पूर्णकाम आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने ह्रदय में जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के उन्हीं चरणारविन्दों को रास लीला के समय गोपियों ने अपने वक्षःस्थल पर रखा और उनका आलिंगन करके अपने ह्रदय की जलन, विरह व्यथा शान्त की।

  नन्दबाबा के व्रज में रहने वाली गोपांगनाओं की चरण-धूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ - उसे सिरपर चढ़ाता हूँ। अहा! इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाकथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोगों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा' ।

  इस प्रकार कई महीनों तक व्रज में रहकर उद्धवजी ने अब मथुरा जाने के लिये गोपियों से, नन्दबाबा और यशोदा मैया से आज्ञा प्राप्त की। ग्वालबालों से विदा लेकर वहाँ यात्रा करने के लिये वे रथ पर सवार हुए।

  जब उनका रथ व्रजसे बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण बहुत- सी भेंट की सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखों में आँसू भरकर उन्होंने बड़े प्रेम से कहा- 'उद्धवजी! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मन की एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ही आश्रित रहे।

  उन्हीं की सेवा के लिये उठे और उन्हीं में लगी भी रहे। हमारी वाणी नित्य- निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं की आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे ।

   उद्धवजी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिलकुल नहीं है। हम भगवान की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें- वह शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढती रहे। प्रिय परीक्षित्! नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया। अब वे भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरापुरी में लौट आये।

   नन्दबाबा के व्रज में रहने वाली गोपांगनाओं की चरण-धूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ- उसे सिर पर चढ़ाता हूँ। अहा! इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाकथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोगों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा। 

   इस प्रकार कई महीनों तक व्रज में रहकर उद्धवजी ने अब मथुरा जाने के लिये गोपियों से, नन्दबाबा और यशोदा मैया से आज्ञा प्राप्त की। ग्वालबालों से विदा लेकर वहाँ यात्रा करने के लिये वे रथ पर सवार हुए।

 अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढती रहें। प्रिय परीक्षित्! नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया। अब वे भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरापुरी में लौट आये।

उधो सूधी है चल्यो सुन गोपी के बोल। 
ज्ञान बजाये डुबडुबी और प्रेम बजाये ढोल ।।

  कृष्ण के पास जाकर उद्धव जी कहते हैं- हे कृष्ण तुम निष्ठुर हो गए हो। तुम अपने माता-पिता, ग्वाल बाल और प्रेमी गोपियों को भूलकर यहाँ बैठे हो । व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया।

  कृष्ण जी अब जान गए की मेरा उद्धव अब ज्ञानी ही नही रहा, प्रेमी भक्त भी बन गया हैं। कृष्ण जी कहते हैं-

 "ब्रजवासी वल्लभ सदा मेरे जीवन प्रान ।
 ताको निमिष न बिसरहों मोहे नंदराय की आन ।।"

   मुझे ब्रजवासी अपने प्राणों से भी प्यारे हैं। मुझे अपने पिता नन्द बाबा की सौगंध है यदि मैं इनको एक क्षण के लिए भी भूलता हूँ तो । इसके बाद नन्दबाबा ने भेंट की जो-जो सामग्री दी थी वह उनको, वसुदेवजी, बलरामजी और राजा उग्रसेन को दे दी।

   इस प्रकार हमने उद्धव चरित्र का सम्यक् रूप से वर्णन करने का प्रयास किया। 


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