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रंभा और श्री शुकदेव जी का संवाद

यहाँ पर तपस्वी "शुकदेव जी" के सामने विश्व सुंदरी रंभा को दर्शाते हुए एक कलात्मक चित्रण प्रस्तुत किया गया है।  रंभा और "श्री श...

मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना । राम रूप देखहिं किमि दीना।।

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   जिनका मन रूपी दर्पण मैला है, उस पर धूल जम गई है, काई है और उपर से देखने वाला नेत्रहीन भी है तो वो बेचारा दीन श्रीराम जी के रूप कैसे देख...

   जिनका मन रूपी दर्पण मैला है, उस पर धूल जम गई है, काई है और उपर से देखने वाला नेत्रहीन भी है तो वो बेचारा दीन श्रीराम जी के रूप कैसे देख सकता है?

   विचार करें कि यदि गोस्वामी जी यहां सामान्य दर्पण (आइना) के बात करते और नेत्र का अर्थ इस शरीर स्थित मष्तक के दोनों नेत्रों की बात होती तो क्या केवल इनके सहारे हम राम जी के रूप देख सकते हैं क्या?

  सोचों यदि दर्पण भी अच्छी हो और देखने वाले के नेत्र भी यदि सही हो पर यदि वहां अंधकार हो तो स्वयं के रूप भी देख सकते हैं क्या?

  यहां गोस्वामी जी द्वारा "दीना" शब्द का प्रयोग करने का तात्पर्य है कि हमारे अंदर के ज्ञान के प्रकाश नहीं है इसलिए तो दीनता है -

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ।।

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।

कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।

   जैसे धुएं से अग्नि और मल से दर्पण ढंक जाता है (तथा) जैसे स्निग्ध झिल्ली से गर्भ ढंका हुआ है, वैसे ही उस काम के द्वारा यह ज्ञान ढंका हुआ है, और हे अर्जुन! इस अग्नि (सदृश) न पूर्ण होने वाले कामरूप ज्ञानियों के नित्य वैरी से ज्ञान ढंका हुआ है।

  कृष्ण ने कहा है, जैसे धुएं से अग्नि ढंकी हो, ऐसे ही काम से ज्ञान ढंका है। जैसे बीज अपनी खोल से ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की चेतना उसकी वासना से ढंकी होती है। जैसे गर्भ झिल्ली में बंद और ढंका होता है, ऐसे ही मनुष्य की आत्मा उसकी कामना से ढंकी होती है। इस सूत्र को ठीक से समझ लेना उपयोगी है। आज राम और रामचरितमानस पर एक विवाद छिड़ा हुआ है, भाई जिनकी आंखों में जैसा चश्मा लगा है उसे वैसा ही दिखाई दे रहा है। लेकिन यहां तो कुछ ने गांधारी की तरह आंखों में पट्टी बांध कर रखीं हैं। उसे तो कुछ भी नहीं दिखाई देगा और कुछ को विषाद रुपी मोतियाबिंद हो गया है, उसका उपचार तो शल्यचिकित्सा ही कर सकती हैं, यदि समय पर उपचार नहीं मिला तो भविष्य अंधकारमय हो सकता हैं। ये उस पर टिप्पणी कर रहे हैं जो कि -

परम प्रकास रूप दिन राती।

नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।। 

मोह दरिद्र निकट नहिं आवा।

लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥

   वह दिन-रात (अपने आप ही) परम प्रकाश रूप रहता है। उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिए। (इस प्रकार मणि का एक तो स्वाभाविक प्रकाश रहता है) फिर मोह रूपी दरिद्रता समीप नहीं आती (क्योंकि मणि स्वयं धनरूप है) और (तीसरे) लोभ रूपी हवा उस मणिमय दीप को बुझा नहीं सकती (क्योंकि मणि स्वयं प्रकाश रूप है, वह किसी दूसरे की सहायता से प्रकाश नहीं करती।

 प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई।

 हारहिं सकल सलभ समुदाई॥

  (उसके प्रकाश से) अविद्या का प्रबल अंधकार मिट जाता है। मदादि पतंगों का सारा समूह हार जाता है। 

खल कामादि निकट नहिं जाहीं।

बसइ भगति जाके उर माहीं॥

   जिसके हृदय में भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते। एक दीनता विनम्रता होती है जो श्रीराम कृपा प्राप्त करने में सहायक होती है, परन्तु एक जो मुख्य है वह अविद्या,‌अज्ञानता है जिसके कारण सन्मुख खड़े राम जी को भी देख नहीं सकता। हमारे मन रूपी दर्पण पर विषय वासना रूपी मैल जम गई है, विषय वासना रूपी काई जम गई है -

"ग्यान बिराग नयन उरगारी।" 

  ज्ञान और वैराज्ञ रूपी नेत्र नहीं हैं। हम इस नेत्र के रहते भी अंधे हैं।  हमारे चारों ओर अज्ञानता के अंधकार है तो फिर लाख प्रयास करने पर भी राम जी के रूप और रामचरितमानस को कैसे देख एवं समझ सकते हैं?

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।

   तथा वश में किया हुआ है शरीर जिसके, ऐसा जितेंद्रिय और विशुद्ध अंतःकरण वाला, एवं संपूर्ण प्राणियों के आत्मरूप परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्काम कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिपायमान नहीं होता।

   शरीर वश में किया हुआ है जिसका! इस बात को सबसे पहले ठीक से समझ लें। साधारणतः हमें पता ही नहीं होता कि शरीर के अतिरिक्त भी हमारा कोई होना है। वश में करेगा कौन? वश में होगा कौन? हम तो स्वयं को शरीर मानकर ही जीते हैं। और जब तक कोई व्यक्ति स्वयं को शरीर मानकर जीता है, तब तक शरीर वश में नहीं हो सकता, क्योंकि वश में करने वाले की हमें कोई खबर ही नहीं है।

काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान। 

तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान।। 

  तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि गुस्सा , क्रोध, लोभ और मोह व्यक्ति के भीतर उतपन्न होते ऐसे नकारात्मक भाव है जिसके कारण एक बुद्धिमान और मूर्ख व्यक्ति में कोई अंतर नहीं रहता। तो इसका उपाय क्या है? क्योंकि मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं अपने राम जी के दर्शन करूं? रामचरितमानस को समझने का प्रयास करुँ तो गोस्वामी जी उपाय बताए कि -

"श्री गुरु चरन सरोज रज निज मन मुकुरू सुधारि"

  सर्वप्रथम सद्गुरु के चरणों के धूलि प्राप्त करने के प्रयास करें और उस गुरु चरण रज (धुलि)के माध्यम से अपने मन रूपी दर्पण को साफ करें। 

  उस चरण रज को अपने नेत्रों में लगाएं तो दृष्टि दोष दूर होगी।

श्री गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। 

नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन।।

ये नयन विहीन के लिए भी अचूक औषधि है।

  सद्गुरु के कृपा से हमारे अंदर के अविद्या ‌अज्ञानता रूपी अंधकार दूर होगी तब जाकर राम जी के रूप दिखाई देगा और रामचरितमानस समझ में आयेगा।

श्री गुरु चरन सरोज रज निज मन मुकुरू सुधारि।

बरनउं रघुबर बिमल जसु जो दायक फल चारि।।

  रे मूर्ख मन! सर्वप्रथम तुम अपने उपर लगे विषय वासना की आसक्ति रूपी काई को,मैल को तो हटाओ तभी राम जी और रामचरितमानस दोनों दिखाई देंगें। ओर समझ मे आयेंगे। अंत में इतना ही कहना है -

एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना।

रघुपति भगति केर पंथाना॥

अति हरि कृपा जाहि पर होई।

पाउँ देइ एहिं मारग सोई ।। 

  इसमें सात सुंदर सीढ़ियाँ हैं, जो श्री रघुनाथजी की भक्ति को प्राप्त करने के मार्ग हैं। जिस पर श्री हरि की अत्यंत कृपा होती है, वही इस मार्ग पर पैर रखता है॥

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भागवत दर्शन: मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना । राम रूप देखहिं किमि दीना।।
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना । राम रूप देखहिं किमि दीना।।
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