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कंजूस ओर साधु

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    एक समृद्ध नगर में एक बहुत ही बड़ा कंजूस रहता था उसकी कंजूसी का यह आलम था कि यदि वह खाना खाने बैठता था तो अपना दरवाजा इसलिए बंद कर लेता थ...

   एक समृद्ध नगर में एक बहुत ही बड़ा कंजूस रहता था उसकी कंजूसी का यह आलम था कि यदि वह खाना खाने बैठता था तो अपना दरवाजा इसलिए बंद कर लेता था कि कहीं उसके खाते समय कोई आ गया तो उसे भी खाना खिलाना ना पड़ जाये ।

   दुर्भाग्यवश एक दिन जिस समय वह खाना खाने के लिए बैठा तो दरवाजा बंद करना भूल गया। अभी वह कंजूस खाना खाने के लिए बैठा ही था कि तभी एक साधु भिक्षा मांगने आ गया। उसने कहा- बेटा ! भगवान के नाम पर एक रोटी तो दो।

  कंजूस तुरंत खाना छोड़कर उठा और उसने साधु को वहां से टालने की कोशिश की। मगर साधु अड़ियल था वह वहीं खड़ा रहा साधु को टलता न देख कंजूस ने सोचा- यह साधु तो बड़ा अडियल है इसे तो कुछ देकर ही टालना होगा उसने आधी रोटी साधु को देनी चाही मगर साधु ने आधी रोटी लेने से मना कर दिया और कहा- मैं तो पूरी एक रोटी ही लूंगा लेकिन कंजूस ने उसे पूरी रोटी नहीं दी और साधु ने आधी रोटी नहीं पकड़ी फिर वह कंजूस खाना खाकर अपने काम पर चला गया। शाम को जब वह लौटकर अपने घर पर आया तो उसने साधु को अपने दरवाजे पर ही बैठा पाया । तब उस कंजूस ने साधु की अडिगता देखकर उसे पूरी एक रोटी देनी चाही- लो बाबा तुम पूरी एक रोटी ही लो ।

  अब एक नहीं मुझे दो रोटी चाहिए क्योंकि अब खाने का दूसरा समय आ गया है ।  एक रोटी अपनी और बढ़ता देखकर साधु महाराज ने तुरंत कहा।

  ऐ….ऐ….. तुझे एक रोटी लेनी है तो ले "" कंजूस ने अकड़कर साधु को धिक्कारा ।

   मगर साधु ने उससे वह एक रोटी भी नहीं ली और कंजूस ने साधु के कहने पर उसे दो रोटी नहीं दी। कंजूस अपने घर में घुसा दरवाजा बंद किया, खाना खाया और सो गया । वह सुबह उठा तो उसने साधु को अपने दरवाजे पर ही बैठा पाया । उसे देखकर कंजूस घबरा गया वह सोचने लगा- यदि साधु मेरे दरवाजे पर भूखा मर गया, तो मैं खाम-खां फस जाऊंगा ।

   तब उसने साधु को दो रोटियां देनी चाही मगर फिर साधु ने कहा- अब तो खाने का तीसरा समय आ गया है, अब मुझे तीन रोटियां चाहिए ।

   लेकिन इस बार भी कंजूस ने उसे तीन रोटियां नहीं दी। और साधु ने उससे दो रोटियां नहीं ली इस प्रकार चार दिन बीत गये। साधु चार दिनों तक भूखा रहा, तो उसके शरीर में परिवर्तन आना स्वाभाविक ही था। वह मरने हाल में दिखाई देने लगा। न खाने के कारण वह अत्यधिक कमजोर हो गया। साधु की यह हालत देखकर कंजूस बहुत घबराने लगा फिर उसने साधु के सामने हाथ जोड़कर कहा- महाराज ! आपको जितनी भी रोटियां चाहिए, ले लीजिए मगर आप यहां से चले जाइए। साधु महाराज बोले- बच्चे ! अब रोटी से काम नहीं चलेगा । अब मैं तो यहां से तभी हटूगा जब तुम मेरे साथ मिलकर एक कुआं खुदवाओगे ।

   साधु महाराज की यह बात सुनकर कंजूस का दम खुशक हो गया वह बोला- यह आप क्या कह रहे हैं ? महाराज ! मैं कुआँ नहीं खुदवा सकता। अच्छा फिर ठीक है, मैं भी यहां से नहीं हटूंगा ।

   साधु की बात कंजूस ने सुनी अवश्य थी लेकिन वह उसकी बात को टालकर अपने काम पर चला गया। मगर फिर उसकी बुद्धि रह-रहकर साधु की ओर जा रही थी। उसका मन काम में नहीं लग रहा था और फिर वह बीच में ही अपना काम छोड़कर चला आया ।

   साधु को वहीं पाकर उसने कहा- महाराज ! मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है अब तो तुम रोटी खा लो। फिर साधु ने कहा बच्चे ! अब एक कुएँ से काम नहीं चलेगा। अब तो तुम्हें दो कुऐ खुदवाने पड़ेंगे, एक मेरे लिए और दूसरा अपने लिए । कंजूस ने फिर साधु की बात को अस्वीकार करनी चाही मगर तभी उसने सोचा कि यदि उसने साधु की बात को अस्वीकार कर दिया तो जितनी बार भी उसने उसकी बात को अस्वीकार कर दिया उतनी बार ही साधु कुएं की संख्या में वृद्धि कर देगा। नहीं मुझे “हां” कर देनी चाहिए ।

   फिर उसने दो कुएँ खुदवाने के लिए साधु से “हां” कर ली और कुछ दिन बाद दोनों को यह तैयार हो गये। तब साधु ने कहा- हे मानव ! मैं एक वर्ष बाद फिर आऊंगा। तब यदि मेरे कुएँ का पानी तुम्हारे कुएँ के पानी से कम रहा तो मैं तीसरा कुआँ खुदवा लूँगा। इतना कहकर वह साधु वहां से चला गया। उसके जाने के बाद कंजूस ने सोचा- साधु जिद्दी किस्म का व्यक्ति है। मुझे एक काम करना चाहिए मैं अपना कुआं खुला छोड़ देता हूं और साधु के कुएँ को बंद कर देता हूं लोग मेरे कुए से पानी निकालेंगे और साधु का कुआँ सुरक्षित रहेगा इससे निश्चित ही मेरे कुए का पानी कम होगा और साधु के कुएँ का पानी ज्यों का त्यों बना रहेगा। फिर कंजूस ने ऐसा ही किया, उसने अपना कुआँ खुला छोड़कर, साधु महाराज का कुआँ ढक दिया। एक वर्ष बाद साधु अपने कहे अनुसार पुन: आया ।

   साधु को देखते ही कंजूस ने गर्व से कहा- महाराज ! आप अपने और मेरे कुएं का पानी नाप लीजिए। मेरे कुए मैं आपके कुए से पानी कम है । साधु कंजूस के साथ कुएं के पास गया और बोला- तुम नापो। फिर कंजूस ने दोनों कुओं का पानी नापा। नापते ही वह हड़बड़ा गया । उसे साधु की शर्त याद आ गई। उसने कहा- महाराज ! आप मुझसे कैसी भी कसम ले लें । मैंने आपके कुएँ से किसी को भी पानी नहीं लेने दिया जबकि मैंने अपने कुएँ को लोगों को पानी भरने के लिए खुला छोड़ दिया था। लोग केवल मेरे ही कुएं से पानी भरकर ले जाते थे मगर फिर भी मेरे कुए में पानी ज्यादा कैसे हो गया, यह मेरी समझ में नहीं आया ।

   कंजूस की बात सुनकर साधु मुस्कुराया फिर बोला- अरे बुद्धू ! थोड़ी गहराई से सोचो तो सब कुछ समझ जाओगे । कंजूस ने अपने दिमाग पर बहुत जोर दिया लेकिन उसकी समझ में कुछ नहीं आया।  फिर साधु महाराज ने उसे समझाया - अरे बेवकूफ आदमी ! तूने मेरे कुएँ से किसी को पानी भरने नहीं दिया और अपना कुआँ लोगों के लिए खुला छोड़ दिया। तू नहीं जानता अक्ल के अंधे आदमी ! कि दान देने से धन कभी नहीं घटता। तिजोरी में रखने से वह घट जाता है। इसलिए मेरे कुएँ से तुमने पानी नहीं निकलने दिया और अपने कुए से खूब पानी भरवाया। तभी तो तुम्हारे कुएँ का पानी मेरे कुएँ से ज्यादा रहा ।

   साधु की बात सुनकर कंजूस की आंखें खुल गई और फिर वह उस दिन से दान करने लगा। अब वह जान गया कि दान करने से धन कभी नहीं घटता। कंजूसी एक हद तक तो ठीक होती है, परंतु यदि ज्यादा पड़ जाए तो वह हानिकारक सिद्ध होती है। दान देने में तो किसी प्रकार की कंजूसी नहीं बरतनी चाहिए । बड़े-बड़े ग्रंथों में लिखा है कि दान देने से धन में वृद्धि होती है। अत: मनुष्य को ऐसा होना चाहिए कि वह दान देता रहे। दान देने से ईश्वर प्रसन्न होते हैं ।

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