सो परत्र दु:ख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ मनुष्य परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म ...
सो परत्र दु:ख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ
मनुष्य परलोक में दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल पर, कर्म पर और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है॥
वह परलोकमें दुःख पावेगा, सिर धुन-धुनकर पछतायेगा और रोवेगा । परन्तु उसके रोने का फल रोना ही निकलेगा भाई, और कुछ होना नहीं है । अभी सचेत हो जाय तो बहुत बड़ा भारी यह काम कर सकता है । अभी नहीं करेगा तो पीछे रोवेगा ।
कालहि कर्महि इस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥
काल-कर्म-ईश्वरको झूठा दोष लगायेगा । इस वास्ते सच्चे हृदयसे भगवान् की तरफ चलो ।
भगवान कभी नहीं कहते कि सब घर द्वार छोड़ कर हमारे पीछे घूमते रहो । यदि आप गृहस्थ आश्रम में है तो उसका पालन करते हुए प्रभु को याद कर लो, काम कर रहे हों नौकरी में हों तो रहो, नहीं तो आपका जीवनयापन कैसे होगा, लेकिन जिसने हमें जन्म दिया है, उसको भी याद कर लो, अच्छे कर्म कर लो । जिस प्रकार एक छोटा सा बच्चा रोता है तो हजारों के भीड़ में भी मां उसकी आवाज पहचान कर दौडती है उसी प्रकार से एक बार प्रभु को पुकार कर तो देखो, वह भी आपकी आवाज सुनने को व्याकुल है,
एक सीधी सरल बात‒ भगवान् मेरे हैं , ऐसे भगवान् को मेरा कह दिया तो बड़ा असर पड़ता है प्रभु पर । अनेक जन्मों से बिछड़ा हुआ और चौरासी लाख योनियाँ भुगतता हुआ, दुःख पाता हुआ जीव अगर कह दे‒‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ । हे प्रभु ! आप मेरे हो’ तो प्रभु को बड़ा सन्तोष होगा । बड़े ही राजी होंगे भगवान् । मानो भगवान् की खोयी हुई चीज भगवान् को मिल गयी । बड़ा उपकार होगा भगवान् पर । भगवान् के घाटे की पूर्ति कर दोगे आप । जीव विमुख हो गया, यह भगवान् को घाटा पड़ गया ।
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥
करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जायँ । क्योंकि पाप तो भगवान् से विमुख होने से ही हुए हैं । सब पापों की जड़ तो वहाँ से चली है । भगवान् के सम्मुख होते ही, वे बेचारे पाप टिक नहीं सकेंगे । इसलिए, ‘हे नाथ ! मैं आपका हूँ । आप मेरे हैं’, ऐसे भगवान् के साथ अपनापन है‒यह सबका सार है । क्रियाओं के द्वारा आप भगवान को नहीं पकड़ सकते, जितना प्रेम के द्वारा, अपनेपन के द्वारा पकड़ सकते हो । बड़े अच्छे-से-अच्छे काम करो, यज्ञ करो, दान करो, तीर्थ आदि करो, वेदाध्ययन करो । सब-की-सब लाभ की बात है । परन्तु स्वयं किया जाय यह बहुत लाभ की बात है ।
समझने का प्रयास करते हैं :-
एक करोड़पति के यहाँ एक नौकर रहता है, जो बीस हजार रुपये पाता है और करोड़पति का लड़का है, उसे सौ रुपये महीना भी कोई देता नहीं; क्योंकि वह अयोग्य है । परन्तु पिता मर जाता है, तो बीस हजार (रुपये) पाने वाला नौकर मालिक नहीं बन सकता, पर अयोग्य लड़का मालिक बन जाता है । वह योग्य तो नहीं है, पर उसका हक लगता है । इस प्रकार योग्यता से वह अधिकार नहीं मिलता, जो अपनेपन से मिलता है ।
‘प्रभु के हम हैं’‒यह बनाया हुआ अपनापन नहीं है । सेठ का अपनी तरफ से कोई बेटा बन जाय और कोई उसे पूछे कि तुम कहते हो या सेठ कहता है ? सेठ क्या कहे ? मैं कहता हूँ । तो उसे कोई मानेगा नहीं । सेठ यदि कह दे कि यह हमारा बेटा है । कोई काम पड़ जाय तो सेठ के नाम पर लाखों रुपये मिल जायँगे । सेठ का कहना जितना दामी है, उतना हमारा कहना दामी नहीं है । भगवान् तो मात्र जीव को अपना कहते हैं
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
इस जीव लोक में मेरा ही एक सनातन अंश जीव बना है। वह प्रकृति में स्थित हुआ (देहत्याग के समय) पाँचो इन्द्रियों तथा मन को अपनी ओर खींच लेता है अर्थात् उन्हें एकत्रित कर लेता है।
अब केवल आपकी सम्मति होने की जरूरत है । सम्मुख होने की आवश्यकता है कि ‘मैं भगवान्का हूँ’ । यह मानव तन कभी कभी मिलता है । भगवान दया करके , कृपा करके किसी जीव को मनुष्य तन दे देते हैं ।
कबहुंक क करि करूणा नर देही
पर जब मानुष तन एक दिन छीन जाता है तब दुःख पाता है जीव , अफसोस करता है , सिर पीट पीटकर पछताता है और अपना दोष न समझकर (वह उल्टे) काल पर, कर्म पर या ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है । काल को दोष ,यानि समय होगा तो खुद हो जाएगा भक्ति , भगवान करा लेगें , कर्मफल यानि भाग्य को दोष और ईश्वर पर दोष लगाना कि वो नहीं चाहते कि ऐसा हो , तो इन तीनों पर दोष लगाने वाला महान मूर्ख है , वह कृतघ्न, निंदनीय और मंदमति है। अपने दोष या दुर्भाग्य को काल (कि समय बुरा है), कर्म (कि पिछले जन्म का कर्मफल है) या ईश्वर (कि भगवान ने यह मुझसे बुरा काम करवाया है) पर लगाना बहुत बड़ी नासमझी है। ऐसे भ्रम में रहकर अकर्मण्य बने रहना अपने ही नाश का मार्ग है।
भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते है :-
तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन॥
तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषों के कुल में जन्म होने के बाद उस वैराग्यवान् साधक की क्या दशा होती है इस बात को बताने के लिये यहाँ तत्र पद आया है।
पौर्वदेहिकम् तथा बुद्धिसंयोगम् पदों का तात्पर्य है कि संसार से विरक्त उस साधक को स्वर्ग आदि लोकों में नहीं जाना पड़ता उसका तो सीधे योगियों के कुल में जन्म होता है। वहाँ उसको अनायास ही पूर्वजन्म की साधन सामग्री मिल जाती है। जैसे किसी को रास्ते पर चलते चलते नींद आने लगी और वह वहीं किनारे पर सो गया। अब जब वह सोकर उठेगा तो उतना रास्ता उसका तय किया हुआ ही रहेगा अथवा किसी ने व्याकरण का प्रकरण पढ़ा और बीच में कई वर्ष पढ़ना छूट गया। जब वह फिर से पढ़ने लगता है तो उसका पहले पढ़ा हुआ प्रकरण बहुत जल्दी तैयार हो जाता है याद हो जाता है। ऐसे ही पूर्वजन्म में उसका जितना साधन हो चुका है जितने अच्छे संस्कार पड़ चुके हैं वे सभी इस जन्म में प्राप्त हो जाते हैं जाग्रत् हो जाते हैं।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ अर्थात् एक तो वहाँ उसको पूर्व जन्मकृत बुद्धिसंयोग मिल जाता है और वहाँ का सङ्ग अच्छा होने से साधन की अच्छी बातें मिल जाती हैं साधनपक्ष की युक्तियाँ मिल जाती हैं। ज्यों-ज्यों नयी युक्तियाँ मिलती हैं त्यों-त्यों उसका साधन में उत्साह बढ़ता है। इस तरह वह सिद्धि के लिये विशेष तत्परता से यत्न करता है।अगर इस प्रकरण का अर्थ ऐसा लिया जाय कि ये दोनों ही प्रकार के योगभ्रष्ट पहले स्वर्गादि लोकों में जाते हैं। उनमें से जिसमें भोगों की वासना रही है वह तो शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है और जिसमें भोगों की वासना नहीं है वह योगियों के कुल में जन्म लेता है तो प्रकरण के पदों पर विचार करने से यह बात ठीक नहीं बैठती। कारण कि ऐसा अर्थ लेने से योगियों के कुल में जन्म लेने वाले को पौर्वदेहिक बुद्धिसंयोग अर्थात् पूर्वजन्म कृत साधन सामग्री मिल जाती है यह कहना नहीं बनेगा।
अमॄतं चैव मॄत्युश्च द्वयं देहप्रतिष्ठितम्।
मोहादापद्यते मॄत्यु: सत्येनापद्यतेऽमॄतम्॥
अमरता और मॄत्यु दोनों ही मानव शरीर में निवास करती हैं। मोह से पुनर्जन्म-मॄत्यु प्राप्त होती है और सत्य से मोक्ष-अमरत्व की प्रप्ति होती है।
बहुत ही उपयोगी पोस्ट 🙏🙏👌👌
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