MOST RECENT

भगवान श्रीकृष्ण की गोवर्धन लीला, भागवत पुराण, दशम स्कंध

भगवान श्रीकृष्ण की गोवर्धन लीला का यह  यह चित्र जिसमें भगवान श्रीकृष्ण को स्पष्ट रूप से गोवर्धन पर्वत को उनके सर के ऊपर उठाए हुए दिखाता है, ...

प्रीतिः मंजरीषु इव, वसन्त महिमा, वसन्त पञ्चमी माहात्म्य

SHARE:

  वसंत आया है। वैसे ही आया है, जैसे प्रतिवर्ष आता है – प्रत्येक हृदय को सुमन सम प्रफुल्लित करता हुआ, आशाओं को पत्र इव पल्लवित ...

  वसंत आया है। वैसे ही आया है, जैसे प्रतिवर्ष आता है – प्रत्येक हृदय को सुमन सम प्रफुल्लित करता हुआ, आशाओं को पत्र इव पल्लवित करता हुआ! मन मधुप हुये जा रहे हैं तथा सुधियों की अमराइयों में कोकिलों की तान उठ रही है। जिनकी काया निरी ठूँठ होकर रह गयी थी, उनके भी मन में उमंग के लाल-लाल टूसे उमग आये हैं। वसंत आ गया है।

  लग तो रहा होगा अटपटा सा! पहले सुमन, तब पत्र, तब मधुप और फिर कोकिल? कुछ व्यतिक्रम है।

   नहीं है अटपटा! कालिदास का वसंत वर्णन इसी प्रकार प्रारम्भ होता है – ‘कुसुमजन्म ततो नवपल्लवास्तदनुषट्पदकोकिल कूजितं।‘ अर्थात प्रथम पुष्प आते हैं, तब पल्लव आते हैं, तब भ्रमर आते हैं और तब कोकिल कूकता है। जब पुष्प खिलते हैं तब वृक्ष पत्रहीन हो कर, अपनी पुरातनता को त्याग कर, पुष्पों के अनुरूप नवीन कलेवर धारण करने को उत्सुक होता है। सिद्धांत कोई भी हो – प्रथम उसकी कीर्ति प्रस्फुटित होती है, फिर उसमें नवीन विचारों की कोंपलें निकलती हैं, फिर उसके रस-गंध से जन-समुदाय आकर्षित होता है, और तब यशगान करता है।

  विद्यापति ने इसी ऋतु में ‘नव वृन्दावन, नव-नव तरुगन, नव-नव विकसित फूल’ लिखा होगा। प्रीति की रीति, सामाजिक, आर्थिक तथा वैयक्तिक, सभी प्रकार के मर्यादाओं एवं बाधाओं को नकार कर, एक हूक के साथ आमंत्रण के स्वरों में टेर रही है। कोई चूकना नहीं चाहता। सभी विस्मय-विमुग्ध हैं। यह ऋतुराज, नवीन संग, नवीन समाज और नवीन साज ले कर आ उपस्थित हुआ है। कवि द्विजदेव के विस्मय-विमुग्ध छंद की ही भांति चहुँ ओर एक विस्मय-विमुग्धता है: 

‘फूले घने-घने कुंजन माँहि,

नये छविपुंज के बीज बये हैं।

त्यों तरु-जूहन में ‘द्विजदेव’,

प्रसून नये, ई नये, उ नये हैं॥

साँची किंधौ सपनौ करतार,

विचारत हूँ, नहीं ठीक ठये हैं।

संग नये, त्यों समाज नये,

सब साज नये, ऋतुराज नये हैं॥’

    वसंत आ गया है! प्रतिदिन दिया-बाती के समय लक्ष्मी-आवाहन मन्त्र के स्थान पर “जीने दो जालिम बनाओ न दीवाना, कहीं पे निगाहें, कही पे निशाना!” गा रहे परमेस्सर पांडेय को आज कोई बूढ़ा कह कर देखे! ठूंठ मन में नव–किसलय उगना और कैसा होता है? अमलतास और पलाश अरुणिम से रक्तिम हो चले परिधानों में सजे–धजे, झुक और झूम रहे हैं। पर कुछ मन ऐसे भी हैं जिनमें अब भी बस माघ ही माघ बसता है। ‘एहि फागुन नहिं आये पिया, अकुलाय जिया, कस धीर धरूं री?’ – “भक्तों के भावलोक – वृन्दावन” में अपने मोहन के साथ चिर-संयुक्त राधिका, “विरहाकुल-प्रेमियों के भावलोक – गोकुल” में अब भी चिर-वियुक्त है तथा यह मदिर-मधुर वायु भी उसे विषाक्त लगती है। उसे यही पीड़ा है कि कोई यह जानने का प्रयत्न क्यों नहीं करता कि कोयल कराह क्यों रही है तथा इन पलाशों में आग किसने लगायी है? 

‘झूरिसे कौने लये वन-बाग,

ऐ कौने जु आँवल की हरियायी?

कोइलि काहें कराहति है,

वन कौन चहूँ दिसि धूरि उड़ाई?

कैसी ‘नरेस’ बयारि बहे,

यह कौन धों कौन सों माहुर नाई?

हाय! न कोऊ तलास करे,

ये पलासनि कौन दवारि लगाई?’

    इस वसंत ऋतु को मधु-ऋतु भी कहा गया। मधु अर्थात् ममाक्षिकों के लार से प्राप्त शहद। मधु अर्थात् मधूक (महुआ) वृक्ष से प्राप्त पुष्पों से खचित माध्वी। मधु अर्थात् जिसका परिपाक मधुर हो। वैसे तो ‘मधुर’ तथा ‘माहुर (विष)’ दोनों बहुत ही निकट – सम्बंधी हैं, और मधु, मधुप, तथा माध्वी का जितना निकटतम सम्बन्ध ‘मधुआ’ अर्थात महुआ से है उतना अन्य से नहीं। यह ऋतु मधूक वृक्षों के पुष्पित होने का है, तथा पुरानी ‘आर्य उक्ति’ है कि जिस परिक्षेत्र में मधूक – वृक्ष न उगते हों वहाँ निवास नहीं करना चाहिये। कारण बताने की आवश्यकता नहीं। जहाँ मधूक न हों वहाँ मधु, मधुप तथा माध्वी कैसे होंगे? हाल अपनी ‘गाथा सप्तशती’ में मधूक का अनेक स्थानों पर वर्णन करता है। एक स्थान पर वह मधु-पुष्प की उपमा ‘जाया’ (जिसने जन्म दे दिया हो, पत्नी किन्तु नववधू नहीं) से देते हुये लिखता है: 

अग्घाइ, छिवइ, चुम्बइ, ठेवइ हियअम्मि जणिय रोमंचो।

जाआ कपोल सरिसं पेच्छइ पहिओ महुअपुफ्फम॥

[पथिक जाया के कपोल सदृश मधूक पुष्पों को कभी सूंघ रहा है, कभी छू रहा है, कभी चूम रहा है, तो कभी अपने रोमांचित वक्ष से लगा रहा है।]

   इस मधूक-पुष्प – महुये के फूल का स्वाद ही वास्तविक मधुर कहे जाने योग्य मीठा होता है, तथा इसका उदास-पीला रंग प्रसविनी जाया के उदास-पीत कपोल के ही रंग की भाँति होता है। मधूक-वृक्षों के मधु-कुञ्ज ‘महुआबारी’ में सबेरे सबेरे अकसर बड़े ही रूमानी क्षण आ जुटा करते हैं, आज से नहीं, सदियों से, और कभी कभी तो बहुत ही मोहक – मनरंजक कार-बार हो जाता है। ‘गाथा सप्तशती’ में ही एक वधू मधूक-कुञ्ज से निवेदन करती है: 

बहु पुप्फभरो नामिअभूमिग, असाह सुअणु विण्णत्तिम्।

गोला तइ विअइ कुडंग महुअ स्रणिय गलिज्जासु॥

[हे गोदावरी तट के मधूक-कुञ्ज! तुम्हारी शाखायें तो पुष्प-भार से धरा-पर्यंत झुक आयी हैं, किन्तु तुम धीरे-धीरे ही विगलित-पुष्प होना! (जिससे मुझे अधिक दिनों तक यहाँ मुंह-अँधेरे आने का तथा अपने प्रेमी – जार से मिल सकने का अवसर प्राप्त होता रहे!)]

  एक अन्य आर्या में एक सरल-मन मूर्ख पति का वर्णन करते हुये ‘हाल’ लिखता है,”एक ईर्ष्यालु पति अपनी वधू को इतनी सुबह महुआ बीनने से इस लिये मना करता है कि कहीं वह वहाँ अपने जार से भेंट न करे, किन्तु उसकी सरलता तो देखो! वह उसे घर में अकेला छोड़ स्वयं महुआ बीनने चला गया!”

ईसालुओ पई सेरत्तिम् महुअ ण देइ उच्चे उ।

उच्चेइ अप्पण च्चिअ माए अइ उज्जु असुआहो॥ 

   किन्तु ये पलाश, ये मधु-कुञ्ज, वसंत के बाह्य-प्रतीक हैं। वसंत का अंतर्वेद तो है सहकार! सहकार अर्थात् आम हमारी भारत-भूमि का सर्वाधिक रसमय फल है और साथ ही हमारे ग्राम्य-उपांत का सर्वश्रेष्ठ श्रृंगार भी। हमारी लोक- कल्पना में यह मांगल्य के साथ साफल्य के प्रतीक रूप में गृहीत है। स्वप्न में आम की घौध देखने पर पुत्रोत्पत्ति के फलादेश का विधान है। आम्र-पल्लवों के बन्दनवारों से सजे बिना मण्डप की शोभा अपूर्ण है, आम्र-पल्लवों से आच्छादित हुये बिना मंगल-कलश की मंगल-वारि असुरक्षित है, आम्र-मंजरियों के बिना कामदेव के पञ्च-शर प्रभाव-हीन हैं, और इन रसाल-द्रुमों के वर्णन के बिना वसंत का वर्णन भी अधूरा है।

    बचपन में पूज्य पिता जी ने एक साथ दो महान विभूतियों से परिचय कराया। दोनों की महानता इतनी कि यदि वे व्यक्ति न हो कर कोई स्थापत्य-प्रतीक होते तो उनकी चोटी देखने में पीछे लुढ़कने का भय था। एक तो रसिक-शिरोमणि श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, और दूसरे जो उनके माध्यम से ही पधारे थे स्वनामधन्य बाणभट्ट। श्री द्विवेदी जी को तो मैं परमपूज्य मान सका, किन्तु बाणभट्ट के सन्दर्भ में मेरी मानसिकता पूज्यभाव स्वीकार न कर सकी। बाण का व्यक्तित्व तो प्रेम करने योग्य, मित्रता करने योग्य, धौल-धप्पा करने योग्य था। ‘बाण अपने गये, नौ हाथ पगहा भी ले गये’ का मुहावरा एकदम मुझ पर सटीक बैठता है, अब एक और स-धर्मा मिला। मैंने तो ठान लिया – बाण के गुण मैं पा तथा अपना सकूं यह मेरी क्षमता के बाहर है, किन्तु उनके अवगुण तो अपना कर रहूँगा! जब भी जी किया – पूर्व दिशा को जाते – जाते दक्षिण मुड़ जाना, जी करे तो अच्छा-भला चलता काम छोड़ कर कुछ और करने लगना, पूर्ण तो कुछ भी न करना! सार्वराट्! मन की मौज ही सर्वोपरि! कहा करे कोई ‘पूँछ कटा बैल’- बंड! द्विवेदी जी को मैंने आदर के साथ पढ़ा, किन्तु बाण को प्रेम के साथ!

   बाण, संस्कृत के उन गिने-चुने लेखकों में से एक हैं जिनके जीवन एवं काल के विषय में निश्चित रूप से ज्ञात है। कादम्बरी की भूमिका में तथा हर्षचरितम् के प्रथम दो उच्छ्वासों में बाण ने अपने वंश के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक सूचना दी है। विशेषणबहुल वाक्य रचना में, श्लेषमय अर्थों में तथा शब्दों के अप्रयुक्त अर्थों के प्रयोग में ही बाण का वैशिष्ट्य है। उनके गद्य में लालित्य है और लम्बे समासों में बल प्रदान करने की शक्ति है। वे श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, सहोक्ति, परिसंख्या और विशेषतः विरोधाभास का बहुलता से प्रयोग करते हैं। उनका प्रकृति वर्णन पर विशेष अधिकार है। कादम्बरी में शुकनास तथा हर्षचरितम् के प्रभाकरवर्धन की शिक्षाओं से बाण का मानव प्रकृति का गहन अध्ययन भी सुस्पष्ट है। बाण ने किसी भी कथनीय बात को छोड़ा नहीं जिसके कारण कोई भी पश्चाद्वर्ती लेखक अथवा कवि बाण को अतिक्रांत न कर सका। “बाणोच्छिष्टं जगत सर्वम्।” कह कर जिस कवि की प्रशंसा की जाती है, विडम्बना है कि उसकी कोई भी कृति पूर्ण नहीं!

   उस बाण ने, कालिदास के प्रति जब अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहा तो उन्हें सहकार-मंजरी का स्मरण हुआ।

निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु?

प्रीतिर्मधुर्सान्द्रासु मंजरीषु इव जायते!

(हर्षचरित, प्रथम उच्छवास, श्लोक १६)

[कालिदास की लेखनी से निकले काव्योक्तियों में किस सहृदय की प्रीति नहीं जागेगी? क्योंकि उनमें सहकार – मंजरी की मधुरता तथा सांद्रता दोनों, एक साथ है!]

   बाण प्रकृति के बड़े पारखियों में गिने जाते हैं, सहृदयता तथा रस-मर्मज्ञता में भी वे अनुपम हैं, किन्तु उन्होंने आम्र-मंजरी को मधुर क्यों कहा? वैसे तो अब वसंत – पंचमी तथा होलिका के अवसर पर आम्र-मंजरियों के प्राशन की परम्परा लुप्त हो चुकी है तथा होलिकोत्सव ही नहीं हमारे हर पर्व पर व्यावसायिकता का अधिकार अधिक है, परम्परा का कम, फिर भी जिन्होंने कभी आम्र-मंजरी का प्राशन किया हो वे जानते हैं कि इसका स्वाद कषाय होता है, मधुर नहीं! नारी के अधरोष्ठों का प्रगाढ़ चुम्बन तथा आम्र-मंजरी, दोनों का स्वाद जिह्वा पर कषाय स्वाद ही देता है, फिर भी हमारे साहित्य में दोनों ही मधुर की संज्ञा से अभिषिक्त हैं! सांद्रता तो उचित है, क्यों कि आम्र-मंजरी एक पुष्प न होकर पुष्प-स्तबक होती है जिसके किंजल्क एक दूसरे से अनुस्यूत होते हैं, किन्तु मधुर कहने का क्या तात्पर्य रहा होगा? यह भी सत्य है, चूंकि यह कथन कालिदास से सम्बंधित है, कि कालिदास के काव्य में सौन्दर्य किंजल्क-सम अनुस्यूत समष्टि-रूप में है, व्यष्टि-रूप में नहीं, तथा उनके काव्य में सहकार-मंजरी की ही भांति बसन्ती-पवन का संस्पर्श भी सर्वत्र है तथा जिस प्रकार आम्र-मंजरी नव आम्र-पल्लवों से पूर्व ही आ जाती है उसी प्रकार कालिदास की उक्तियों में अर्थ-सौरभ शब्दों के पल्लवों की प्रतीक्षा नहीं करता, किन्तु मधुर क्यों?

   क्यों कि कालिदास के उक्तियों की ही भांति नारी के चुम्बन और आम्र-मंजरी के स्वाद का परिपाक मधुर है! यह स्वाद जिह्वा से नहीं, आत्मा से ग्रहण होता है। जिह्वा से भी आम्र-मंजरी का स्वाद मधुर प्रतीत होगा यदि प्राशन उपरान्त आप जल का पान करें। वह जल मधुर – मीठा लगता है। नागरी परिवेश में अब कहाँ आम के वृक्ष तथा कहाँ आम्र-मंजरी? आलों में यत्न-संचित कालिदास की वसंत की सुषमा से आपूरित पोथियाँ हैं, उन्हीं का आमोद है, और वहीं से आम्र-मंजरियों को चुनना भी है!

   काव्य-परम्परा में काम के पञ्चशरों के जो नाम प्राप्त होते हैं वे हैं – सम्मोहन, मारण, उच्चाटन, वशीकरण, तथा वाजीकरण। इन्हें आम्र-मंजरी, नवमल्लिका, अशोक, नीलकमल तथा कर्णिकार इन पांच पुष्पों में तथा शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गंध इन पांच विषयों में आरोपित माना जाता है। कुछ विद्वान् इन्हें नीलकमल, मल्लिका, आम्रमौर, चम्पक और शिरीष पुष्पों में आरोपित करते हैं किन्तु मुझे यह कुछ जंचता नहीं है, क्यों कि इन में आम्र-मंजरी का उल्लेख प्रथम स्थान पर नहीं है और कालिदास स्पष्टतया आम्र-मंजरी को कामदेव के बाणों में ‘सम्मोहन’ के प्रतीक रूप में प्रमुख स्थान देते हैं: 

सद्यः प्रवालोद्गमचारुपत्रे नीते समाप्तिम् नवचूतबाणे।

निवेशयामास मधुद्विरेफान्नामाक्षराणीव मनोभवस्य॥

(कुमारसम्भवम् ३/२७)

  [नवीन आम्र-बौर अब “कामदेव का बाण” बन कर, तैयार हो चुका है। नवीन रक्तिम किसलय ही उस बाण के पुच्छ हैं तथा उन पर बैठे भ्रमर ही कामदेव के नाम को उस बाण पर उत्कीर्ण कर रहे काले अक्षर हैं। (मानों यह घोषणा कर रहे हों कि यह कामदेव का ही बाण है, अर्थात् उसकी आयत्त संपत्ति है।)]

प्रतिर्ग्रहीतुं प्रणयीर्प्रियत्वात् त्रिलोचनस्तामुप चक्रमे च।

सम्मोहनं नाम च पुष्पधन्वा धनुष्यमोघं समधत्त बाणं॥

(कुमारसम्भवम् ३/६६)

   [पार्वती की दी हुई (कमल-बीजों की) माला ग्रहण करने हेतु त्रिलोचन (शिव) ने ज्यों ही अपने कर बढ़ाये, त्यों ही कामदेव ने अपने धनुष्य पर उस सम्मोहन नामक (आम्र-मंजरी के) बाण को चढ़ा लिया जो अमोघ (कभी नहीं चूकता) था।]

   काम की अर्धांगिनी रति तो काम–दहन के उपरांत विलाप करते हुये स्पष्ट कहती है:-

हरितारुणचारुबन्धनः कलपुंस्कोकिलशब्द्सूचितः।

वद सम्प्रति कस्य बाणतां नवचूतप्रसवो गमिष्यति॥

(कुमारसम्भवम् ४/१४)

  [हे कुसुमायुध! नर कोकिल के शब्दों द्वारा जिसके उदय का अनुमान किया जाता है, वह हरित-अरुण रंग का सुन्दर बंधनों से युक्त नवीन आम्र-कुसुम (मंजरी) तुम्हारे न रहने पर अब किसका बाण बनेगा?]

   तो वसंत जो कामदेव का अनुचर–सामंत है (धनु: पौष्प, मौर्वी मधुकरमयी, पञ्च-विशिखाः, वसन्तः सामंतो, मलयमरुदायोधनरथः – आनंद-लहरी श्लोक ६, सौन्दर्य-लहरी का पूर्वार्ध, भगवत्पाद श्री आदि शंकराचार्य) वह कामदेव के लिये सम्मोहन के प्रतीक आम्र-मंजरी का बाण सर्वप्रथम तैयार करता है। सम्मोहन तथा रूप-आकर्षण ही तो “काम” की प्रक्रिया का उदय है। यह उन्मेष है – प्रारम्भ! अतः आम्र-मंजरी का स्वाद इस नवोन्मेषित प्रणय का कषाय रस वाला स्वाद है। इसे कालिदास भी मानते हैं कि यह स्वाद कषाय ही है, फिर भी नव-प्रणय तथा आम्र-मंजरी दोनों का आस्वादन आपाततः भले कषाय हो, अंततः मधुर है। इसी प्रथम-प्रणय की स्मृति को वाणी दे कर पुंस्कोकिल, मानिनियों के मान खण्ड–खण्ड कर देता है। नर कोयल ही कूकता है, कोकिला नहीं, यह वैज्ञानिक सत्य है, कालिदास का श्लोक तो प्रमाण है ही!

चूताङ्कुरास्वादकषायकण्ठः पुंस्कोकिलो यन्मधुरं चुकूजः।

मनस्विनीमानविघातदक्षं तदेव जातं वचनं स्मरस्य॥ 

(कुमारसम्भवम् ३/३२)

   [आम्र-मंजरियों को खा लेने से कषाय-कंठ वाले नर कोकिल की मधुर कूक, मानिनी नायिकाओं का मानभंग कराने में निपुण कामदेव की वाणी के समान प्रतीत हो रही है।]

   सहकार का इतिहास मात्र रागात्मकता हेतु ही विम्ब-ग्रहण के उपयोग में आये, ऐसी बात नहीं है। आम्र-वृक्ष तो निखिल मांगलिकता का प्रतीक है। साथ ही, वसंत के अन्य सभी प्रतीक अधूरे हैं क्यों कि उनमें रंग है, गंध है, रूप है, किन्तु साफल्य नहीं है। प्रत्येक गहगहा कर उमगने वाला टहटह गुलनार वासंती प्रतीक सहकार का आश्रय खोजता लगता है। भ्रमर-पंक्तियाँ एक बार सहकार-मंजरी के स्तबकों तक पहुँच कर पुनः अन्यत्र नहीं जातीं। नव-ज्योत्सना हो या नव-मल्लिका, आम्र-वृक्ष से संश्लिष्ट हुये बिना उनकी शोभा अपूर्ण है। रागात्मकता का उत्कर्ष, प्रणय की आकांक्षा तथा कौमार्य की परिसमाप्ति, तृप्ति के नहीं बल्कि आह्लाद के सोपान हैं। तृप्ति तो फलकारिता में है, और मंजरियों से लदा आम्र-वृक्ष तृप्ति-कोष है। आम्र-मंजरी अपने प्रथम क्षण से ही फल-गर्भिणी है। काम की भावना रति में आश्रय अवश्य खोजती है, किन्तु उसका प्रयोजन ‘प्रजायै गृहमेधिताम’ ही होना चाहिये। यही भारतीय आदर्श है। पार्वती हो, इंदुमती हो, अथवा शकुन्तला, शिव, अज और दुष्यंत जैसे “सहकार” की सहकारिता उसे इसी लिये काम्य है।

   आज, जब आसेतु – हिमाचल, मेरे भारतवर्ष नामक गाँव में हर ओर घृणा का साम्राज्य है, छल-छद्म का वातावरण है, अपसंस्कृति की दुन्दुभि से कर्ण-पटह आकुल-व्याकुल है; जहां प्रत्येक ग्रामीण नव-युवक के मन में एक छोटा सा मुंबई और प्रत्येक नगरीय युवक के मन में एक छोटा सा अमेरिका जन्म ले चुका है; जहाँ व्यावसायिक शक्तियां हमारे पर्वों को नये ढंग से परिभाषित करने में सफल हैं; जहां वात्स्यायन ‘अश्लील’ है तथा फ्रायड ‘प्रगतिशील’ है; जहाँ प्रत्येक श्रेष्ठ से श्रेष्ठ शब्द, भाव, विचार मात्र इस लिये नकार दिये जाते हैं क्योंकि वे हमारी सुविधा के खाँचे में नहीं समा पाते; जहाँ बौद्धिकता का अर्थ ‘नकार’ तथा प्रगति का अर्थ ‘नग्नता’ है; जहाँ जौ की मदिरा के पात्र के साथ प्रेमिका का आलिंगन-चुम्बन प्रदर्शन की वस्तु है; जहां भोग पर बलात्कार आरोपित है; वहाँ वसंत-पंचमी से लेकर होलिकोत्सव तक के चालीस दिन अपना ‘चालीसवाँ’ गिन रहे हैं।

   वह आनंद-बोध ही क्या जिससे हम स्वयं भी रिक्त रहें तथा हमारा परिसर भी रिक्त रह जाये? जो गगन को आपूरित नहीं कर सकता वह गीत तथा जो मन को आपूरित नहीं कर सकता वह उत्सव व्यर्थ है! यह आपूरण विधि-निषेधों से परे है। यह न आदेश देने पर आता है, न रोकने पर रुक ही सकता है। यह तो जातीय-प्रवाह है! जिस “जाति” की शिराओं में गाढ़ा लाल रक्त प्रवाहमान रहे उस जाति के लिये आपूरण के क्षण आये बिना नहीं रह सकते। जिस जाति ने अनंगोत्सव तथा रंगोत्सव की कल्पना की, योजना बनायी, परम्परा चलायी, वह तपश्चर्या से, संयम से तथा चिंतन से सामाजिक मर्यादा का वास्तविक मूल्य भली-भाँति जानती थी; किन्तु वह लोक-धर्म भी पहचानती थी, इसीलिये वसंतोत्सव को उसने लोकोत्सव का रूप दिया। कलियों ने जब अपने बंध उन्मुक्त कर दिये तो सामान्य-जीवन की नीरसता के बंध भी खुलने चाहिये! किन्तु इसके लिये उन्होंने काम को विहित किया, वासना को नहीं! यह हमारी स्वभावगत प्रक्रिया है जिसे केंचुली की भाँति उतारा नहीं जा सकता। हमारा धर्म पोथी-धर्म नहीं, लोक-धर्म है तथा यह न तो जीवन से विलग है, न पार्थिव-जगत से विलग है, न ही मानवीयता से।

   वसंत का रूप मात्र उन्मादक नहीं, यह प्रकृति के गर्भाधान तथा सृजन का हेतु है। यह रागात्मकता के ऐन्द्रिय-व्यापार के विश्व के साथ समरस होने की ऋतु है। यह गार्हस्थ की ऋतु है, जिसमें विलास साध्य नहीं साधन है। साध्य तो है तप! और तप के माध्यम से ओजस्वी परम्परा तथा ओजस्वी संतति की अभिवृद्धि! यही कारण है कि प्रेम में आम्र-मंजरी की सांद्रता तथा मधुरता चाहिये जिससे वह रंध्र-हीन रहे, चिर-स्थायी रहे, फलवती हो। विलगाव तथा एकांतिकता या गर्व की अतिशयता से ग्रस्त न हो। तभी उसका परिणाम मधुर होगा। तभी उसका रस चेतन-अचेतन में माधुरी भर सकेगा। तभी वह मनुष्य को वाणी तथा कोकिल को काकली दे सकेगा।

   वसंत का यह ‘मंजरीषु इव’ सान्द्र-स्पर्श, मालविकाग्निमित्र के नायक की भाँति हम सबके रोम-रोम में व्याप्त हो। 

  बसंत पंचमी केवल उत्सव का ही नहीं बल्कि भक्ति, शक्ति और बलिदान का प्रतीक भी है जिनको शायद हमने इस दिन छतों पर बजने वाले डीजे की कानफोड़ आवाज में भूला-सा दिया है। इसी दिन माता शबरी ने अपने भगवान श्रीराम के अमृततुल्य जूठे बेरों का रसास्वादन किया।

    ऋतुराज बसंत, नाम लेते ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है। मन को शीतल करती मंद-मंद हवा, गर्म रजाई-सी धूप, पेड़ों पर दिखाई देती नई-नई कोपलें, कभी फूलों पर बैठती तो कभी आसमान में दौड़ लगाती तितलियां, भंवरों का गुंजन और भी न जाने कैसे-कैसे दृश्य जो कामदेव की मादकता को भी नई ऊंचाईयां देते जान पड़ते हैं। मानो प्रकृति सब कुछ लुटा देने को व्याकुल हो उठती है। लेकिन बसंत में विस्मृति नहीं होनी चाहिए उन अंधेरियों की जो सब कुछ उड़ा देने को व्याकुल थीं, उस चिलचिलाती धूप की जिसने चराचर जगत को झुलसने को मजबूर किया, उन घमंडी बिजलियों की जिसने समय-समय पर वज्राघात कर इसी धरती के सीने को छलनी किया, कफन की बर्फीली चादर की जिसने कभी शिराओं के रक्त को भी जमा दिया था।

    आज राष्ट्रजीवन में जब हम बसंत का अनुभव कर रहे हैं तो उन आत्माओं का स्मरण करना भी बनता है जिन्होंने इतिहास की षट ऋतुओं के आघात को सहा। बसंत पंचमी केवल उत्सव का ही नहीं बल्कि भक्ति, शक्ति और बलिदान का प्रतीक भी है जिनको शायद हमने इस दिन छतों पर बजने वाले डीजे की कानफोड़ आवाज में भुला-सा दिया है। इसी दिन माता शबरी ने अपने भगवान श्रीराम के अमृततुल्य जूठे बेरों का रसास्वादन किया तो पृथ्वीराज चौहान व वीर हकीकत राय ने अपने जीवन का बलिदान दे कर आज के राष्ट्रजीवन में बसंत की नींव रखी। सद्गुरु राम सिंह जी का जन्म भी इसी दिन हुआ जिन्होंने गौरक्षा के लिए बलिदान की परंपरा को नई ऊंचाई दी।

   बसंत पंचमी हमें त्रेता युग से जोड़ती है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े। इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी जिसको उनके गुरु मतंग ऋषि ने वरदान दिया था कि किसी दिन भगवान खुद चल कर तेरी कुटिया पर आएंगे। जब श्रीराम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्य प्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है जहां शबरी मां का आश्रम था। वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं, जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि श्रीराम आकर यहीं बैठे थे। वहां शबरी माता का मंदिर भी है।

   वसंत पंचमी का दिन हमें पृथ्वीराज चौहान की भी याद दिलाता है। उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को १६ बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं। गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा। पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया। तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया।

चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान।

ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान।।

   पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की। उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा। इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया। ११९२ ई. में यह घटना भी वसंत पंचमी वाले दिन ही हुई थी।

   वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि में तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया। परिणामत: उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया।

   कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा। वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया। यह घटना वसंत पंचमी (२३ फरवरी १७३४) को ही हुई थी। पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती हैं। हकीकत लाहौर का निवासी था। अत: पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है।

   वसंत पंचमी हमें गुरु रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म १८१६ ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था। कुछ समय वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया। गुरु रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था। १८७२ में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरु रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी। अत: युद्ध का पासा पलट गया। इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और ६८ पकड़ लिये गये। इनमें से ५० को १७ जनवरी १८७२ को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष १८ को अगले दिन फांसी दी गयी। दो दिन बाद गुरु रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। १४ साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर १८८५ ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

   इस पर्व का संदेश है कि हर बसंत कठोर संघर्ष, बलिदान, भक्ति के मार्ग से होकर निकलता है। बसंत के पीले चावल खाने का अधिकार उन्हें ही है जो देश व समाज के लिए विषपान करना जानता हो। बसंत की शीतलता पर पहला अधिकार गुरु तेगबहादुर व उनके शिष्यों जैसी महानात्माओं को है जो धर्म की रक्षा के लिए कड़ाहे में उबलना और रुई में लिपट कर जलने की कला में पारंगत हैं। हमारे राष्ट्रजीवन में आया बसंत कभी वापिस न हो इसके लिए हमें हर परिस्थितियों का मुकाबला करने, हर तरह के बलिदान करने को तत्पर रहना होगा। यही इस बसंत का संदेश है।

COMMENTS

BLOGGER

नये अपडेट्स पाने के लिए कृपया आप सब इस ब्लॉग को फॉलो करें

लोकप्रिय पोस्ट

ब्लॉग आर्काइव

नाम

अध्यात्म,200,अनुसन्धान,19,अन्तर्राष्ट्रीय दिवस,2,अभिज्ञान-शाकुन्तलम्,5,अष्टाध्यायी,1,आओ भागवत सीखें,15,आज का समाचार,15,आधुनिक विज्ञान,19,आधुनिक समाज,147,आयुर्वेद,45,आरती,8,ईशावास्योपनिषद्,21,उत्तररामचरितम्,35,उपनिषद्,34,उपन्यासकार,1,ऋग्वेद,16,ऐतिहासिक कहानियां,4,ऐतिहासिक घटनाएं,13,कथा,6,कबीर दास के दोहे,1,करवा चौथ,1,कर्मकाण्ड,119,कादंबरी श्लोक वाचन,1,कादम्बरी,2,काव्य प्रकाश,1,काव्यशास्त्र,32,किरातार्जुनीयम्,3,कृष्ण लीला,2,केनोपनिषद्,10,क्रिसमस डेः इतिहास और परम्परा,9,गजेन्द्र मोक्ष,1,गीता रहस्य,1,ग्रन्थ संग्रह,1,चाणक्य नीति,1,चार्वाक दर्शन,3,चालीसा,6,जन्मदिन,1,जन्मदिन गीत,1,जीमूतवाहन,1,जैन दर्शन,3,जोक,6,जोक्स संग्रह,5,ज्योतिष,49,तन्त्र साधना,2,दर्शन,35,देवी देवताओं के सहस्रनाम,1,देवी रहस्य,1,धर्मान्तरण,5,धार्मिक स्थल,48,नवग्रह शान्ति,3,नीतिशतक,27,नीतिशतक के श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित,7,नीतिशतक संस्कृत पाठ,7,न्याय दर्शन,18,परमहंस वन्दना,3,परमहंस स्वामी,2,पारिभाषिक शब्दावली,1,पाश्चात्य विद्वान,1,पुराण,1,पूजन सामग्री,7,पौराणिक कथाएँ,64,प्रश्नोत्तरी,28,प्राचीन भारतीय विद्वान्,100,बर्थडे विशेज,5,बाणभट्ट,1,बौद्ध दर्शन,1,भगवान के अवतार,4,भजन कीर्तन,38,भर्तृहरि,18,भविष्य में होने वाले परिवर्तन,11,भागवत,1,भागवत : गहन अनुसंधान,27,भागवत अष्टम स्कन्ध,28,भागवत एकादश स्कन्ध,31,भागवत कथा,129,भागवत कथा में गाए जाने वाले गीत और भजन,7,भागवत की स्तुतियाँ,3,भागवत के पांच प्रमुख गीत,2,भागवत के श्लोकों का छन्दों में रूपांतरण,1,भागवत चतुर्थ स्कन्ध,31,भागवत तृतीय स्कन्ध,33,भागवत दशम स्कन्ध,91,भागवत द्वादश स्कन्ध,13,भागवत द्वितीय स्कन्ध,10,भागवत नवम स्कन्ध,33,भागवत पञ्चम स्कन्ध,26,भागवत पाठ,58,भागवत प्रथम स्कन्ध,21,भागवत महात्म्य,3,भागवत माहात्म्य,12,भागवत माहात्म्य(हिन्दी),7,भागवत मूल श्लोक वाचन,55,भागवत रहस्य,53,भागवत श्लोक,7,भागवत षष्टम स्कन्ध,19,भागवत सप्तम स्कन्ध,15,भागवत साप्ताहिक कथा,9,भागवत सार,34,भारतीय अर्थव्यवस्था,5,भारतीय इतिहास,21,भारतीय दर्शन,4,भारतीय देवी-देवता,6,भारतीय नारियां,2,भारतीय पर्व,41,भारतीय योग,3,भारतीय विज्ञान,35,भारतीय वैज्ञानिक,2,भारतीय संगीत,2,भारतीय संविधान,1,भारतीय सम्राट,1,भाषा विज्ञान,15,मनोविज्ञान,1,मन्त्र-पाठ,7,महापुरुष,43,महाभारत रहस्य,34,मार्कण्डेय पुराण,1,मुक्तक काव्य,19,यजुर्वेद,3,युगल गीत,1,योग दर्शन,1,रघुवंश-महाकाव्यम्,5,राघवयादवीयम्,1,रामचरितमानस,4,रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण,124,रामायण के चित्र,19,रामायण रहस्य,65,राष्ट्रीयगीत,1,रुद्राभिषेक,1,रोचक कहानियाँ,150,लघुकथा,38,लेख,168,वास्तु शास्त्र,14,वीरसावरकर,1,वेद,3,वेदान्त दर्शन,10,वैदिक कथाएँ,38,वैदिक गणित,2,वैदिक विज्ञान,2,वैदिक संवाद,23,वैदिक संस्कृति,32,वैशेषिक दर्शन,13,वैश्विक पर्व,9,व्रत एवं उपवास,35,शायरी संग्रह,3,शिक्षाप्रद कहानियाँ,119,शिव रहस्य,1,शिव रहस्य.,5,शिवमहापुराण,14,शिशुपालवधम्,2,शुभकामना संदेश,7,श्राद्ध,1,श्रीमद्भगवद्गीता,23,श्रीमद्भागवत महापुराण,17,संस्कृत,10,संस्कृत गीतानि,36,संस्कृत बोलना सीखें,13,संस्कृत में अवसर और सम्भावनाएँ,6,संस्कृत व्याकरण,26,संस्कृत साहित्य,13,संस्कृत: एक वैज्ञानिक भाषा,1,संस्कृत:वर्तमान और भविष्य,6,संस्कृतलेखः,2,सनातन धर्म,2,सरकारी नौकरी,1,सरस्वती वन्दना,1,सांख्य दर्शन,6,साहित्यदर्पण,23,सुभाषितानि,8,सुविचार,5,सूरज कृष्ण शास्त्री,455,सूरदास,1,स्तोत्र पाठ,60,स्वास्थ्य और देखभाल,1,हँसना मना है,6,हमारी प्राचीन धरोहर,1,हमारी विरासत,1,हमारी संस्कृति,94,हिन्दी रचना,32,हिन्दी साहित्य,5,हिन्दू तीर्थ,3,हिन्दू धर्म,2,about us,2,Best Gazzal,1,bhagwat darshan,3,bhagwatdarshan,2,birthday song,1,computer,37,Computer Science,38,contact us,1,darshan,17,Download,3,General Knowledge,29,Learn Sanskrit,3,medical Science,1,Motivational speach,1,poojan samagri,4,Privacy policy,1,psychology,1,Research techniques,38,solved question paper,3,sooraj krishna shastri,6,Sooraj krishna Shastri's Videos,60,
ltr
item
भागवत दर्शन: प्रीतिः मंजरीषु इव, वसन्त महिमा, वसन्त पञ्चमी माहात्म्य
प्रीतिः मंजरीषु इव, वसन्त महिमा, वसन्त पञ्चमी माहात्म्य
भागवत दर्शन
https://www.bhagwatdarshan.com/2023/01/blog-post_85.html
https://www.bhagwatdarshan.com/
https://www.bhagwatdarshan.com/
https://www.bhagwatdarshan.com/2023/01/blog-post_85.html
true
1742123354984581855
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content