आदि शंकराचार्य की तपःस्थली और नृ-सिंह की भूमि अथवा जोशीमठ

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 आदि शंकराचार्य की तपःस्थली और नृ-सिंह की भूमि अथवा जोशीमठ

और नृ-सिंह की भूमि कैसे बर्बाद हुई 

जानते हैं ...#डॉ_भगवती_प्रसाद_पुरोहित जी की कलम से आइये इसकी पड़ताल करते हैं-

जोशीमठ कोई शब्द नहीं है, शब्द है "योशी"  

योशी का अर्थ होता है, जो दो घरों को गयी हो। 


  पाण्डुकेश्वर_के_ताम्रपत्रों में जोशीमठ का नाम "योशिका" लिखा गया है। श्री बद्रीनाथ के ढट्टा-पट्टा (दान-पत्र) को मैंने पढा तो उसमें जोशीमठ शब्द 100 साल पहले तक कहीं नहीं लिखा मिला। जबकि इसकी जो सनदें मेरे पास हैं, (जो शायद श्री #बद्रीनाथ_मन्दिर समिति से अधिक सुरक्षित हैं) उसमें जोशीमठ के लिए जोसी या जूसी शब्द का प्रयोग किया गया है। जब मैंने बार-बार इस शब्द को पढा, तो मैं समझ नहीं पाया कि ये जोसी या जूसी क्या है, कौन है? अधिकांश जगह '#योशी' लिखा मिला तो मैंने विख्यात इतिहास व पुरातत्वविद यशवंत सिंह कठौच जी को फोन लगाया कि ये क्या गड़बड़ है? उंन्होने कहा आप पाण्डुकेश्वर के ताम्रपत्रों को देख लो, उसमें योशिका उत्कीर्ण है। 

  मैंने ताम्र पत्रों के छाया चित्र और अनुवाद निकाले तो "#योशिका" शब्द मिला।

  मुझे यह आभास हो गया कि यह ऐतिहासिक स्थल है। इसके नाम का अवश्य वैज्ञानिक आधार होगा। तब मैंने तमाम सँस्कृत के शब्दकोशों और ग्रन्थों को टटोलना शुरू किया तो शब्द "योशी" का अर्थ लिखा मिला- "जिसके दो घर हों या जो रास्ता दो घरों को जाता हो उस स्थान को योशी  (द्वघरया) कहते हैं।"

  मुझे लग गया यहां से एक घर श्री बद्रिकाश्रम और दूसरा घर कैलास को रास्ता जाता है। दोनों घरों का ये बेस कैंप है। इसलिए इसे योशी कहा जाता है। 

 सँस्कृत में य का ज उच्चारण विद्वान करते हैं। इसलिए यज्ञ को आपने जग्य कहते लोगों को सुना होगा। इसी तरह उच्चारण में "योशी" "जोशी" हो गया और आदि गुरु शंकराचार्य के मठ के कारण इसका नाम जोशीमठ पुकारा जाने लगा। 

  मुझे अफसोस है कि आज जोशीमठ ने अपने नाम तक को भुला दिया है और इस बात को भी कि वे कैलास मानसरोवर के भी मालिक रहे हैं। क्योंकि उत्तराखण्ड की यात्रा देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग,नन्दप्रयाग, विष्णुप्रयाग में स्नान, दान और यज्ञ-याग के बिना पूरी नहीं होती। प्रयागों पर स्नान और यज्ञ अनुष्ठान द्वारा प्रजापति ब्रह्मा की उपासना पूर्ण होती है। तब जाकर भगवान नारायण के दर्शन के लिए जोशीमठ से आगे बढ़ने की मर्यादा है। 

  श्री बद्रीनारायण में जाकर पहले बामणी के #उर्वसी मन्दिर में पूजा अर्चना कर पीठ की अधिष्ठात्री माता उर्वसी से भगवान नारायण के दर्शन की अनुमति लेनी पड़ती है। इसके लिए पहली रात्रि विश्राम बामणी में उर्वसी की पूजा के बाद करने की मर्यादा रही है। ध्यान रहे उर्वसी भगवान नारायण की वह माया है जिसको देखते ही मित्र और वरुण जैसे तपस्वी ऋषि भी स्खलित हो गये थे।

   प्रजापति ब्रह्मा जी ने जब सृष्टि सृजन हेतु भगवान की इस माया का आश्रय लिया तो वे खुद ही इस माया की अग्नि में भस्म हो गये।  यदि आपने विधि पूर्वक काम की अधिष्ठात्री उर्वसी की पूजा कर उन्हें प्रसन्न किया है और रात को आपके शरीर में काम विकार उतपन्न नहीं हुआ तो आप भगवान नारायण के दर्शन के पात्र हैं। परन्तु यदि आपके मन में काम विकार उतपन्न  हुआ है तो तब आप #ऋषि गङ्गा के पार नारायण पर्वत पर कदम रखने के भी अधिकारी नहीं हैं। दर्शन तो बहुत दूर की बात। यह थी मर्यादा। इसीलिए कहते हैं-

"बामणी का बुड़यान बदरी निदेखि।" क्योंकि मर्यादा की कसौटी पर कसते-कसते जिंदगी गुजर गयी, पर भगवान नारायण के दर्शन की पात्रता प्राप्त नहीं हुई। 

  यात्री को जब भगवान श्री बद्रीनारायण के दर्शन पूजन हो जाते थे तब सारे अनुष्ठानों को सम्पन्न कर कुछ यात्री माणा दर्रे से थोलिङ्गमठ होते हुए मानसरोवर निकल जाते थे, लेकिन अधिकांश यात्री वापस जोशीमठ आते और वहां से नीती के रास्ते कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए निकल जाते। यह रास्ता माणा की अपेक्षा आसान है। 

  क्योंकि मुक्ति के लिए प्रयागों में ब्रह्मा, श्री बद्रीनारायण में भगवान विष्णु और अंत में मृत्यु के देवता #कैलासवासी भगवान शिव का दर्शन पूजन आवश्यक है, तभी मोक्ष मिलता है। इसलिए कैलास-मानसरोवर उत्तराखण्ड तीर्थयात्रा का अभिन्न हिस्सा है। बिना कैलास परिक्रमा के उत्तराखण्ड यात्रा अधूरी है। 

  जोशीमठ इसलिए भी मुख्य पड़ाव था, क्योंकि यहां से श्री बद्रीनाथ और श्री कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए यात्रियों को गुमाश्ते (यात्रा गाइड/समान ढोने वाला) मिल जाते थे। ये गुमाश्ते अधिकतर उत्तराखण्ड के खस नौजवान होते थे। खस बहुत ही मेहनती और शूर-वीर होते थे, जो केवल क्षत्रिय ही नहीं बल्कि ब्राह्मण खस भी होते थे। आपको पता होगा कि युधीष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उनके पुरोहित धौम्य जो खस ब्राह्मण थे, वे भेंट में पिपीलिका चूर्ण ले गए थे। इसलिए यहाँ के खस नागा, गारो, खासी वाले खस नहीं हैं ये ऋषियों के वंशज श्रेष्ठ आर्य हैं।

  530 ईसबी पूर्व जब बौद्ध लुटेरे श्री बद्रीनारायण से चोरी कर मन्दिर को नष्ट-भ्र्ष्ट कर सबकुछ लूट कर थोलिंगमठ ले गये तो अधर्म अनाचार से देश त्रस्त होगया। तब 497 ईसवी पूर्व आदि गुरु शंकराचार्य केरल से इसी योशी में आये और भगवान #श्रीमन्नारायन और #कैलासवासी की इसी योशी को उंन्होने अपनी साधना हेतु चुना।

  चूंकि आदि शंकराचार्य श्रीविद्या के उपासक थे और उंन्होने योशी में श्रीयंत्र की स्थापना की, इसकी साधना में वे आसन (मठ) लगा कर प्रवृत्त हुए। इसलिए इस स्थान का नाम उत्तरआम्नाय श्रीमठ हुआ।  श्री शंकराचार्य परम्परा की सनदों में  योशी की जगह उत्तरआम्नाय श्रीमठ ही लिखा हुआ है।

 इसलिए समस्त ऐतिहासिक दस्तावेजों में सर्वत्र उत्तर आम्नाय श्रीमठ ही लिखा मिलता है।

लेकिन वर्तमान में ज्यादा पढ़े-लिखे स्वंयम्भू शंकराचार्य और उनके धनपशु गालीबाज चेले सत्ता के धृतराष्ट्रों के साथ मिल कर जोशीमठ का नाम ज्योतिर्मठ कर इतिहास, सँस्कृति, परम्परा और कैलास मानसरोवर पर दावों के पुख्ता प्रमाणों को दफ़्न करने की साजिश करें तो हम जैसे क़लमकार क्या कर सकते हैं? सच बोलने और लिखने पर जेल होती है यह तो हम भोग कर आये हैं। और भोगने को तैयार बैठे हैं, क्योंकि सत्य ही नारायण हैं। सारी दुनियां मेरे विरुद्ध हो तो भी अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक श्रीमन नारायण से बड़ी ताकत नहीं है।

  शंकराचार्य महाराज द्वारा श्री बद्रिकाश्रम की पुनर्प्रतिष्ठा और इसका मठ योशी में स्थापित करने के बाद योशी उत्तर भारत जोशीमठ क्षेत्रान्तर्गत #नेपाल, #तक्षशिला, #गांधार तक के राजाओं का प्रमुख तीर्थ स्थल होगया। सभी राजे-महाराजे यहां आकर शंकराचार्य और उनके 20 पीढ़ी तक के शिष्यों से आशीर्वाद ग्रहण करते रहे। ये सारे शिष्य पारगामी थे इनमें से किसी की भी मृत्यु नहीं हुई। सोचिए जहाँ ऐसे दिव्य तपस्वी होंगे उस स्थान की कितनी अधिक कीर्ति होगी।

  लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि सातवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में इस क्षेत्र में महाविनाशकारी भूकम्प, भूस्खलन और हूणों के विनाशकारी लूट व आक्रमण हुए होंगे, जिससे इस क्षेत्र में श्री बद्रीनारायण/उत्तर आम्नाय श्रीमठ की आचार्य परम्परा खंडित हुई होगी।

   आठवीं शताब्दी में एक अभिनव #शंकराचार्य हुए जो इस निर्जन में आये।(कुछ विद्वानों का मानना है कि ये वही अभिनव हैं जो आदि शंकराचार्य के समय अभिनव गुप्त के नाम से जाने जाते थे, ये शंकराचार्य के घोर विरोधी बौद्ध थे, जो शंकराचार्य को मारने के लिए मांत्रिक अभिचार कर रहे थे) उस समय बताया जाता है कि शंकराचार्य द्वारा स्थापित मन्दिरों के श्रीयंत्र के नजदीक जो भी  जाता वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता था। यह अस्वाभाविक या काल्पनिक भी नहीं है। क्योंकि साधना युक्त #श्रीयंत्रों से गामा किरणें निकलने लगती हैं। यदि उसी स्तर का साधक न हुआ तो इन किरणों से सामान्य आदमी की हड्डियां गल जाने का खतरा रहता है, जबकि दिव्य योगी इनका प्रयोग ब्रह्माण्ड के दर्शन के लिए करता है। अगर श्रीयंत्र की पूजा खंडित हो गयी तो माता की योगिनियाँ क्रुद्ध हो जाती हैं और इंसानों की बलि लेने लगती है। यही कारण है कि आज के दौर में गृहस्थ लोग श्रीयंत्र की स्थापना व श्रीविद्या की उपासना से बचते हैं।

 अभिनव शंकराचार्य जन्म-जन्मांतर से तांत्रिक थे।

  उंन्होने उत्तराखण्ड में आते ही सबसे पहले इन डरावने हो चुके श्रीमन्दिरों में जाकर श्री यंत्रों को उलट कर दफ़्न कर दिया और उनके ऊपर सामान्य देवी की मूर्ति स्थापित कर दी, जिससे इन आदमखोर मन्दिरों से लोगों का भय खत्म हुआ। पर इसी कृत्य से देवभूमि में उस श्रीविद्या परम्परा का अंत हुआ जिससे साधक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर अमरत्व को प्राप्त करते थे।

   इसी बीच छटवीं से सातवीं शताब्दी के मध्य इस मठ की रक्षा के लिए यहां कत्यूरी राजा को दायित्व सौंपा गया। जिसने अपनी राजधानी जोशीमठ बनाया। ये राजा लोग कार्तिकेय के उपासक थे, इसलिए कत्यूरी कहलाये। बाद में इन्होंने यहाँ नृ-सिंह की स्थापना की। कुछ इतिहासकारों के अनुसार कश्मीर के शासक #ललितादित्य ने यहां हूण आक्रांताओं से रक्षा के लिए #नरसिंह मन्दिर की स्थापना की।

  अब जिसने भी इस मंदिर की स्थापना की हो, लेकिन इतना तो तय है कि यह मन्दिर उत्तराखण्ड में उस नारसिंही शक्ति का पुनराभिमुखीकरण कर गया जो हिरण्यकशिपु का वध कर भगवान नारायण के पास आकर नरसिंह शिला के रूप में श्री बद्रिकाश्रम में अवस्थित हुई!

  यही कारण है कि जोशीमठ का नृसिंह आज भी पूरे उत्तराखण्ड वासियों जा ईस्ट देवता है। चाहे कुमायूं हो या गढ़वाल जब नौखण्डी नरसिंह की पूजा की जाती है तो सारे नरसिंह का स्थान जोशीमठ ही बतलाया जाता है। इस दृष्टि से भी जोशीमठ के नरसिंह और जोशीमठ के बारे में विचार करना हर उत्तराखण्डवासी और देश के हर नृसिंह भक्त वैष्णव का कर्तव्य है।

  लेकिन जोशीमठ की वर्तमान आपदा के पीछे असली कारण है क्या पहले ये जान लीजिए-

  जोशीमठ जिस दिव्य पर्वत पर स्थित है, उसके बारे में अभी तक कोई प्रकाश नहीं डाला गया और न धर्म ग्रंथों से इसके संदर्भ संग्रहित कर प्रकाशित किए गए हैं। यहां इस पर्वत पर पृथक से प्रकाश डालना या इसकी महिमा का वर्णन करना विषयान्तर हो जाएगा। इसलिए सिर्फ इतना संकेत काफी है कि भगवान शंकर के अवतार शंकराचार्य ने इस विष्णुपदी-धौली के संगम विष्णु प्रयाग से प्रारम्भ गौरसों-औली पर्वत शिखर जिसके सम्मुख ब्रह्म यजनगिरी और पार्श्व में देवांगन सप्तकुण्ड हैं, सम्मुख सप्तश्रृंग, कालजयी कागभुशुण्डि के साथ देवताओं का नन्दन वन है, जीसकी अनन्त ऊर्जा और दैवीय महिमा अवर्णनीय है, उसको अपनी साधना स्थली के रूप में चुना।

 कल्प के आरम्भ में महा प्रलय के समय मनु ने अपनी नाव का लंगर इसी स्थान पर डाला था। इससे आप स्थान के महत्व और पवित्रता का अनुमान लगा सकते हैं।

  यह पर्वत ही अपने आप में देवता है। इस पर्वत के गोद में है शंकराचार्य तपस्थली और नरसिंह मन्दिर। गौरसों इसकी शिखा है और औली मस्तक!

  अब जरा देखिए  आज जोशीमठ तीर्थ का हाल क्या है- नरसिंह मन्दिर के ऊपर भारी बस्ती बस गयी है। होटलों का मलमूत्र गन्दगी सब मन्दिर के ऊपर है। उसके ऊपर सैन्य छावनियाँ हैं। वहाँ दारू की सरकारी कैंटीन। सरकारी ठेकों की और कच्ची की तो बात ही क्या करनी। मुर्गे, सूअर पलने कटने, बकरा ईद में नालियों को खून से रक्त रंजित करना दूधाधारी नरसिंह की बस्ती में आम बात हो गयी है।

  इस शंकराचार्य और नरसिंह पर्वत का औली मस्तक है, लेकिन औली स्कीइंग ही नहीं सितारा होटलों से अय्यासी का अड्डा बना है। सरकार को तीर्थों से और तीर्थ यात्रियों से चिढ़ है, टूरिस्टों और अय्याशियों से नहीं। इसलिए टूरिस्ट स्पॉट गौरसों और औली का टूरिज्म इस दिव्य पिरामिडीय पर्वत के मस्तक पर कलंक है, जिसको सरकार मिटाने के लिए नहीं, बल्कि बढाने के लिए तैयार है।  

  यह पूरा ही पर्वत श्रीयंत्र के आकार का है, जो दिव्य शक्तियों का केंद्र है, पर वर्तमान समय में फौजियों के बूटों से रौंदा जा रहा है। क्या इस श्री पर्वत को फौजियों के बूटों से मुक्त किया जा सकता है? क्या इस श्रीपर्वत को अय्यासी के होटलों और टूरिस्टों से मुक्त किया जा सकता है?

  क्या शंकराचार्य की इस पवित्र तपस्थली में मां अन्नपूर्णा के प्रसाद के रूप में यात्रियों को भोजन और निःशुल्क आश्रय/आवास दिया जा सकता है? 

  ये केवल सवाल नहीं हैं बल्कि पुण्य के मार्ग हैं। 

  इन सवालों का उत्तर है- नहीं। 

  जब शंकराचार्य के नाम पर बने आश्रम होटलों को मात दे रहे हों तो औरों से आप क्या अपेक्षा कर सकते हैं?

  आदमी भले ही अभी मर जाए, लेकिन उसकी वृत्ति अधर्म छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। 

  आप कह रहे हैं जोशीमठ में कुदरत का कहर है। मैं तो कह रहा हूँ यह जोशीमठ में अधर्म का कहर है। असुरों का कहर है। भगवान की गलती कहाँ है?

  अभी जो हुआ यह "विनाश काले विपरीत बुद्धि" के अलावा कुछ नहीं है।

   पहले तो सरकार को देवभूमि के पारिस्थितिकीय तंत्र को छेड़ना नहीं चाहिए था। हम लोग पहले बुग्यालों में जाते तो ऊंची आवाज में बात तक नहीं करते, कहते थे ऐड़ी आन्छरी लग जायेगी। दरअसल हिमालय में दिव्य तपस्वी अदृश्य रूप में तप करते रहते हैं, उनके तप में बाधा न पहुंचे, वे क्रुद्ध न हों, इसलिए चुप रहने के लिए दिव्य शक्ति की योगनियों ऐड़ी आन्छरी का भय दिखाया जाता था, लेकिन आज तो इन नाजुक पर्वतों पर हलीकेप्टर उड़ाये जा रहे हैं, तब विकास होना है या महा विनाश आप खुद तय कर लें!

  इस महा विनाश का वर्तमान में कारण बनी है तपोवन से  अनिमठ वृद्ध बदरी के बीच बन रही जल विद्युत परियोजना की 12 किलोमीटर लम्बी टर्नल।

  सुना है आज से बीस-पच्चीस साल पहले जब इस टर्नल का काम शुरू हुआ तो कुछ किलोमीटर अंदर जाकर अचानक खुदाई कर रही टर्नल की खुदाई में धरती के अंदर का विशाल जल भण्डार फूट गया। पानी इतना अधिक निकला कि मजदूर मुश्किल से जान बचा कर टर्नल से बाहर आये यह पानी महीनों क्या सालों तक बन्द नहीं हुआ। नतीजतन आठ-दस साल तक काम बंद रहा। NTPC ने बहुत पैसा खर्च कर दिया था, इसलिए कुछ साल पूर्व NTPC ने फिर काम शुरू किया। बताया जाता है कि टर्नल में वर्षों पूर्व फंसी मशीन को टर्नल से बाहर निकालने में कम्पनी फेल हो गयी तो कम्पनी ने बगल से दूसरी टर्नल खोद डाली। इधर तकनीक में परिवर्तन हुआ। अब रेलवे सुरंगों की तरह एक तरफ से सुरंग खुदती है तो पीछे से साथ साथ  RCC से चारों तरफ टर्नल की पैकिंग भी पूरी होती है। अब चाहे पानी निकले या पत्थर, मिट्टी गिरे, इंजीनियरिंग ने इतनी प्रगति की है कि यह सब पैक हो जाता है। 

  यही पैकिंग जोशीमठ के विनाश की इबारत लिख गयी। इस पैकिंग से एक तरफ तो धरती के अंदर बने बड़े-बड़े रिजर्व वायर से पानी रिसना बन्द हुआ, दूसरी तरफ इन रिजर्व वायरों से निकसित होने वाले पानी  का रास्ता बंद हो गया। दूसरे शब्दों में पानी की नसबन्दी हुई।

  मेरा यह लिखने का आंखों देखा आधार है- 25 साल पहले जोशीमठ नृसिंह मन्दिर के दण्ड धारा में लगभग 3 से चार इंच पानी निकलता था । जब NTPC की टर्नल बनी तो पानी 5 प्रतिशत रहा। लेकिन पिछले चार साल से जब से टर्नल की पैकिंग हुई अनादिकाल से प्रवाहमान नृ- सिंह मन्दिर का दंड धारा जिस पर पीतल का गौ मुख मढ़ा गया है वह सूख गया।

  अब NTPC वाले कह रहे हैं कि यह टर्नल की वजह से नहीं हुआ तो कोई इनसे पूछे कि तपोवन तप्तकुंड की खौलती गर्म जल धारा कहाँ गायब हो गयी? अरे गधो! हमारी मीडिया तक पहुंच नहीं है, टीवी पर हमारे बयान नहीं आते हैं तो हम अनपढ़ हैं क्या? औऱ झूठे बयानबीर ज्यादा जानकार हैं क्या?

  हुआ यह कि धरती के अंदर बने रिजर्व वायर से प्राकृतिक निकास बन्द होने के कारण धरती पेट पानी से फूलता गया- फूलता गया और यह पानी जोशीमठ की उस चट्टान पर फैल गया जिसके मलवे पर वर्तमान जोशीमठ स्थित है। ऊपर से मलवा, बीच में फैला हुआ पानी और नीचे पक्की चट्टान अब भूस्खलन की मिट्टी और पक्की चट्टान के बीच फैले पानी से जोशीमठ की वह भूमि खिसकने लगी है, जिसमें जोशीमठ बसा है। 

  जहाँ-जहाँ अंडर ग्राउंड वाटर के सीपेज फैले हैं, वहां धरती फट कर दरार पड़ गयी है और मकान बुरी तरह फट कर रहने लायक नहीं रह गये हैं। यह दरारें नदी के तट से लेकर औली और गौरसों पर्वत के शिखर तक है। अब धरती के अंदर का यह पानी जगह-जगह से नये स्रोतों के रूप में फूट रहा है।

  खतरा इसलिए बढ़ गया है कि- इस पानी में पर्वत के चट्टान के मलवे की मिट्टी बहकर आ रही है। जिस कारण जमीन अंदर खोखली हो रही है तथा मकानों में दरार पड़ने और जमीन खिसकने की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं।

  चित्र में आप देखें तपोवन के निकट से बन रही यह टर्नल जोशीमठ पर्वत के दूसरे छोर अनिमठ-वृद्ध बदरी में पॉवर हाउस पर खुलेगी। 12 किलोमीटर के लगभग इस टर्नल ने जोशीमठ ही नहीं बल्कि पूरे क्षेत्र के पारिस्थितिकीय तंत्र को बुरी तरह प्रभावित किया है।

   ध्यान देने वाली बात यह भी है कि उत्तराखण्ड के सीमांत नीती और माणा दर्रों तक पहुंचने का रास्ता केवल और केवल जोशीमठ से होकर गुजरता है। आप विज्ञ होंगे कि इस क्षेत्र में चीन भारत की सीमा में घुसा पड़ा है और लाइन ऑफ़ कंट्रोल का अक्सर उलंघन करता है। ऐसी स्थिति में जोशीमठ में भूस्खलन से सड़क बन्द तो, भारत चीन सीमा से एकदम सम्पर्क खत्म। वैसे भी जोशीमठ की संकरी सड़क से गुजरना सैन्य वाहनों के लिए किसी युद्ध जीतने से कम कठिन नहीं है। सिविल गाड़ियां खासकर श्रीबद्रीनाथ जाने वाले यात्री तो वर्षों से भगवान के नाम पर जाम के जलालत की इस त्रासदी को वर्षों से भुगत रहे हैं।

  इस स्थिति से बचने के लिए सरकार ने अनिमठ-वृद्ध बदरी से विष्णुप्रयाग बाई पास ऑल वेदर रोड़ बनाने के प्रयास किये, लेकिन जोशीमठ की होटल लॉबी इसका विरोध करती रही । इसके लिए आन्दोलन प्रायोजित करवाये जाते रहे। जबकि प्रस्तावित बाई पास से 30 किलोमीटर का सफर मात्र 3 किलोमीटर रह जायेगा। लेकिन प्रायोजित आन्दोलनों ने देश की सीमाओं तक पहुंचने वाले सम्पर्क सड़क को रोककर देश की सुरक्षा को ही बन्धक बना रखा है। इस लॉबी की दिल्ली दरबार तक पकड़ है। जहाँ भगवान बद्री विशाल का वास्ता देकर नीति नियंताओं को गुमराह किया जाता है।

 आवश्यकता जोशीमठ बाई पास को तत्काल तैयार करने की है ताकि जोशीमठ पर जन दबाव कम हो सके। जोशीमठ पर ज्योंहि दबाव कम होगा त्योंही जोशीमठ की समस्या खत्म हो जायेगी।

  लेकिन असली सवाल तो यह है कि भगवान नृ-सिंह के दण्डधारा को सुखाने के लिए जोशीमठ को जो दण्ड भगवान नृसिंह ने दिया है क्या वह पर्याप्त है? भगवान नृ-सिंह का दण्ड धारा सूखा तो किसी को पीड़ा नहीं हुई। जब तुम्हारे दिल इतने निष्ठुर हैं तो भगवान भी तुम पर दया क्यों करें?

  करे कोई भरे कोई ! निर्दोष लोगों के भी घर टूट गए जो दोषी हैं शायद इस जन्म में उनका कुछ न बिगड़े लेकिन आगे क्या होगा भगवान जाने।

  मेरा यह कहना है कि भगवान नृसिंह के दण्ड धारा के जल को पुनः बहाल किया जाय चाहे तुम कुछ करो। वर्षों से प्यासे नृसिंह कितने क्रुद्ध होंगे इसका मूर्खों को अंदाज नहीं है। अभी ये टेलर है। वरना पिक्चर शुरू हो जायेगी जो सम्भालने से नहीं सम्भलेगी।

भगवान नृ-सिंह सम्बन्धितों को सद्बुद्धि दे!

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