देस काल दिसि बिदिसिहुँ माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 देस काल दिसि बिदिसिहुँ माहीं।
 कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं ॥

क्या आप ऐसा कोई स्थान जानते हैं कि जहां ईश्वर नहीं है।

   देश, काल , दिशा, विदिशा, में ऐसी जगह कहां है कि जहां प्रभु न हो। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं :-

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्।।

 मैं स्वयं सब प्राणियों के हृदय में विद्यमान हूँ। यद्यपि शरीर? इन्द्रियाँ? मन? बुद्धि आदि सभी स्थानों में भगवान् विद्यमान हैं? तथापि हृदय में वे विशेष रूप से विद्यमान हैं।

   हृदय शरीर का प्रधान अङ्ग है। सब प्रकारके भाव हृदय में ही होते हैं। समस्त कर्मों में भाव ही प्रधान होता है। भाव की शुद्धि से समस्त पदार्थ? क्रिया आदि की शुद्धि हो जाती है। अतः महत्त्व भाव का ही है? वस्तु? व्यक्ति? कर्म आदि का नहीं। वह भाव हृदय में होने से हृदय की बहुत महत्ता है। हृदय सत्त्वगुण का कार्य है? इसलिये भी भगवान् हृदय में विशेष रूप से रहते हैं।भगवान् कहते हैं कि मैं प्रत्येक मनुष्य के अत्यन्त नजदीक उसके हृदय में रहता हूँ अतः किसी भी साधक को (मेरे से दूरी अथवा वियोग का अनुभव करते हुए भी) मेरी प्राप्ति से निराश नहीं होना चाहिये। इसलिये पापी पुण्यात्मा? मूर्खपण्डित? निर्धन धनवान्? रोगी निरोगी आदि कोई भी स्त्री पुरुष किसी भी जाति? वर्ण? सम्प्रदाय? आश्रम? देश? काल? परिस्थिति आदि में क्यों न हो? भगवत्प्राप्ति का वह पूरा अधिकारी है। आवश्यकता केवल भगवत्प्राप्ति की ऐसी तीव्र अभिलाषा ? लगन ? व्याकुलताकी है ? जिसमें भगवत्प्राप्ति के बिना रहा न जाय।

  प्रायः लोग पूछा करते हैं कि क्या भगवत्प्रप्ति इसी जन्म में हो सकती है? ऐसा एक ही जन्म में हो सकता है या अनेक जन्मों में, इसका कोई नियम नहीं है, किन्तु जभी भगवान के प्रति प्रेम का गाढ़ उदय हो जाता है, भगवान तभी मिल जाते हैं-

हरि व्यापक सर्वत्र समाना

प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।

  अनेक जन्मों तक भी यदि प्रेम का संचार न हो, तो भगवान नहीं प्राप्त होते, प्रेम प्रकट हो जाने पर भगवान एक ही जन्म में मिल जाते हैं। जिस समय भक्त भगवान से मिलने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित होकर स्वाध्याय, ध्यान आदि को प्राप्त होता है, उस समय भगवान को अवश्य प्रकट होना पड़ता है। आप्तकाम, पूर्णकाम, आत्माराम, परम निष्काम भगवान परम स्वतन्त्र हैं, तथामि भक्त प्रेम में पराधीन होना उनका एक स्वभाव है। अनुभवी लोगों ने कहा है-

अहो चित्रमहो चित्रं वन्दे तत्प्रेमबन्धनम्‌।

यद्बद्धं मुक्तिदं ब्रह्म क्रीडामृगीकृतम्‌॥ 

  अहो, कोई निर्गुण, निराकार, निर्विकार ब्रह्म को, कोई सगुण-साकार ब्रह्म को भजते हैं, परन्तु मैं तो उस प्रेमबन्धन को भजता हूँ, जिससे बँधकर अनन्त प्राणियों को मुक्ति देने वाला, स्वयं नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ब्रह्म भक्तों का खिलौना बन जाता है। जिस समय भक्त भगवान के बिना न रह सके, उस समय भगवान भी भक्त के बिना नहीं रह सकते। जैसे पंख रहित पतंग-शावक अपनी माँ को पाने के लिए व्याकुल रहते हैं, जैसे क्षुधार्त्त वत्सतर (छोटे गोवत्स) माँ का दूध चाहते हैं, किंवा परदेश गये हुए प्रियतम से मिलने के लिए प्रेयसी विषण्ण होती है। एक कहानी के माध्यम से समझते हैं ।

  एक बार एक महात्मा जी के पास दो आदमी ज्ञान लेने के लिए आए। महात्मा बहुत पहुंचे हुए थे। उन्होंने दोनों को एक-एक चिडिया दे दी और कहा:- जाओ, इन चिडियाओं को ऐसी जगह मार कर लाओ जहाँ कोई और आपको देखें नहीं। उनमें से एक तो तुरंत ही पेड़ की ओट में जाकर उस चिडिया को मार कर ले आया। जो दूसरा व्यक्ति था वह किसी सुनसान जगह पर चला गया।

   जब वह उस चिडिया को मारने ही वाला था, वह अचानक रुक गया और सोचने लगा- जब मैं इसे मारता हूँ तो यह मुझे देखती है और मैं भी इसे देखता हूँ। तब तो हम दो हो गये और तीसरा ईश्वर भी यह सब कुछ देख रहा है। महात्मा जी का आदेश है कि इस चिडिया को वहाँ मारना जहाँ कोई और न देखें।

  आखिर यह सोचकर उस चिडिया को महात्मा जी के पास जीवित ही ले आया और बोला- "महात्मा जी! मुझे तो ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहां कोई नहीं देखता हो, क्योंकि ईश्वर हर जगह मौजूद है।"

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥ 

 जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझ में देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता।

मरन-मरन सब कोय कहे, मरन न जाने कोय।

एक बार ऐसे मरो, फ़ेर मरन ना होय॥



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