करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 करम प्रधान बिस्व करि राखा।

 जो जस करइ सो तस फलु चाखा ॥ 

   कर्म का सिद्धांत अकाट्य है। जैसे काँटे-से-काँटा निकलता है ऐसे ही अच्छे कर्मों से बुरे कर्मों का प्रायश्चित होता है। सबसे अच्छा कर्म है जीवनदाता परब्रह्म परमात्मा को सर्वथा समर्पित हो जाना। पूर्व काल में कैसे भी बुरे कर्म हो गये हों, उन कर्मों का प्रायश्चित करके फिर से ऐसी गलती न हो जाय ऐसा दृढ़ संकल्प करना चाहिए। जिसके प्रति बुरे कर्म हो गये हों उससे क्षमायाचना करके, अपना अंतःकरण उज्जवल करके मौत से पहले जीवनदाता से मुलाकात कर लेनी चाहिए।

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥

'यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।'

अपि चेदसी पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।

सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि॥

'यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, तो भी तू ज्ञानरूप नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा।'

कर्मफल -

यदाचरित कल्याणि शुभं वा यदि वाsशुभम्।   

तदेव लभते भद्रे!   कर्ता     कर्मजमात्मन: ॥ 

 मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है। हे सज्जन व्यक्ति! कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।

       मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार ही इस जीवन में खट्टा-मीठा फल खाने के लिए मिलता है। अपने कर्मफल के भोग से मनुष्य को किसी तरह छुटकारा नहीं मिल सकता। केवल उन्हें भोगकर ही वह उनसे मुक्त हो सकता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य के पास कोई ओर चारा नहीं है। मनुष्य यदि सोचे कि यहाँ उसकी प्रॉक्सी चल जाए और कोई अन्य कड़वा फल कहा ले, तो यह कदापि सम्भव नहीं है।

           कर्म सिर्फ शरीरिक क्रियाओं से ही सम्पन्न नहीं होता, बल्कि मन से, वचन से और कर्म से भी किए जाते हैं। 

जो आचार, व्यवहार मनुष्य अपने माता-पिता, बन्धु, मित्र, रिश्तेदार के साथ करता है, वह भी कर्म की श्रेणी में आता है। जब मनुष्य अच्छे कर्म करता है, तब उसका प्रतिफल भी अच्छा मिलता है और जब मनुष्य कुछ गलत करता है, तब परिणाम में कष्ट और परेशानियाँ मिलते है।

   इसीलिए मनीषी मनुष्य को सदा समझाते हुए कहते हैं-

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।

अर्थात् जो भी शुभ अथवा अशुभ कर्म मनुष्य करता है, उनके फल का भोग उसे करना ही पड़ता है। 

यहाँ उसकी इच्छा या अनिच्छा का कोई मूल्य नहीं होता और न ही उससे कुछ पूछा जाता है। अपने हिस्से के भोग चाहे वह हँसकर भोगे या रोते और कल्पते हुए भोगे।

 यह उस व्यक्ति विशेष पर ही निर्भर करता है। इन्हें भोगने के सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं होता।

येन येन शरीरेण यद्यत् कर्म करोति यः।

तेन तेन शरीरेण तत्फलं समुपाश्नुते॥ 

 प्राणी जिस जिस शरीर में जो जो कर्म करता है वह उसी शरीर से उस कर्म का फल भी भोगता है।

 दूसरे शब्दों में कहें तो बबूल का पेड़ बोकर कोई मनुष्य मीठे आम के फल खाने की कामना नहीं कर सकता।

    यह मनुष्य पर निर्भर करता है कि वह शुभ कर्म करना चाहता है या अशुभ। उसके फल के लिए फिर उसे तैयार रहना चाहिए। अपने किए गए कर्म के अनुसार उसे फल मिलना है, यह भी निश्चित है। इसलिए उसे समय की प्रतीक्षा करते रहना चाहिए। यथासमय उसे शुभ कर्मों का फल मिलता है, उसी प्रकार अशुभ कर्मों का भी फल मिलता है। मनुष्य शुभाशुभ कर्मों के फेर में सदा पड़ा रहता है।

मोद्यशा मोद्यकर्माणो मोद्यज्ञाना विचेतसः ।

 राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृति मोहिनीं श्रिताः ॥ 

अर्थात् व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म एव व्यर्थ-ज्ञान वाले विक्षिप्त-चित्त अज्ञानीजन राक्षसी और आसुरी स्वभाव से मोहित और आश्रित हो गये हैं या राक्षसी और आसुरी प्रवृत्ति को ही मोहवश धारण किये हैं ।

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