बच्चों की सही परवरिश

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   शहर से कुछ दूरी पर बसे एक मोहल्ले में रुचिका अपने हस्बैंड के साथ रहती थी. उसके ठीक बगल में एक बुजर्ग व्यक्ति अकेले ही रहा करते थे, जिन्हें सभी “दादा जी” कह कर बुलाते थे।

  एक बार मोहल्ले में एक पौधे वाला आया. उसके पास कई किस्म के खूबसूरत, हरे-भरे पौधे थे।

  रुचिका और दादाजी ने बिलकुल एक तरह का पौधा खरीदा और अपनी-अपनी क्यारी में लगा दिया. रुचिका पौधे का बहुत ध्यान रखती थी. दिन में तीन बार पानी डालना, समय-समय पर खाद देना और हर तरह के कीटनाशक का प्रयोग कर वह कोशश करती की उसका पौधा ही सबसे अच्छा ढंग से बड़ा हो।

   दूसरी तरफ दादा जी भी अपने पौधे का ख़याल रख रहे थे, पर रुचिका के तुलना में वे थोड़े बेपरवाह थे… दिन में बस एक या दो बार ही पानी डालते, खाद डालने और कीटनाशक के प्रयोग में भी वे ढीले थे।

  समय बीता. दोनों पौधे बड़े हुए।  रुचिका का पौधा हरा-भरा और बेहद खूबसूरत था. दूसरी तरफ दादा जी का पौधा अभी भी अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में नहीं आ पाया था।

  यह देखकर रुचिका मन ही मन पौधों के विषय में अपनी जानकारी और देखभाल करने की लगन को लेकर गर्व महसूस करती थी।

  फिर एक रात अचानक ही मौसम बिगड़ गया. हवाएं तूफ़ान का रूप लेने लगीं…बादल गरजने लगे… और रात भर आंधी-तूफ़ान और बारिश का खेल चलता रहा।

सुबह जब मौसम शांत हुआ तो रुचिका और दादा जी लगभग एक साथ ही अपने अपने पौधों के पास पहुंचे. पर ये क्या ? रुचिका का पौधा जमीन से उखड़ चुका था, जबकि दादा जी का पौधा बस एक ओर जरा सा झुका भर था।

“ऐसा क्यों हुआ दादाजी, हम दोनों के पौधे बिलकुल एक तरह के थे, बल्कि आपसे अधिक तो मैंने अपने पौधे की देख-भाल की थी… फिर आपका पौधा प्रकृति की इस चोट को झेल कैसे गया जबकि मेरा पौधा धराशायी हो गया?”, रुचिका ने घबराहट और दुःख भरे शब्दों में प्रश्न किया।

  इस पर दादाजी बोले, “देखो बेटा, तुमने पौधे को उसके ज़रुरत की हर एक चीज प्रचुरता में दी… इसलिए उसे अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए कभी खुद कुछ नहीं करना पड़ा… न उसे पानी तलाशने के लिए अपनी जड़ें जमीन में भीतर तक गाड़नी पड़ीं, ना कीट-पतंगों से बचने के लिए अपनी प्रतिरोधक क्षमता पैदा करनी पड़ी…नतीजा ये हुआ कि तुम्हारा पौदा बाहर से खूबसूरत, हरा-भरा दिखाई पड़ रहा था पर वह अन्दर से कमजोर था और इसी वजह से वह कल रात के तूफ़ान को झेल नहीं पाया और उखड़ कर एक तरफ गिर गया।

  जबकि मैंने अपने पौधे की बस इतनी देख-भाल की कि वह जीवित रहे इसलिए मेरे पौधे ने खुद को ज़िंदा रखने के लिए अपनी जडें गहरी जमा लीं और अपनी प्रतिरोधक क्षमता को भी विकसित कर लिया और आसानी से प्रकृति के इस प्रहार को झेल गया।”

  रुचिका अब अपनी गलती समझ चुकी थी पर अब वह पछताने के सिवा और कुछ नहीं कर सकती थी। 

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