अकबर और जहांगीर महाराणा प्रताप से लड़ते लड़ते थक चुके थे। अंत में जहांगीर ने ख़ुर्रम (शाहजहाँ) को मेवाड़ के पीछे लगाया। तब महाराणा प्रताप की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राणा अमर सिंह और राजकुमार करण सिंह जंगलों से संघर्ष कर रहे थे।
वहाँ की स्थानीय जनता को अपने राणा के प्रति अप्रतिम लगाव था। जब युद्ध, छापामार, षडयंत्र सब कुछ बेकार हो गया तो ख़ुर्रम ने दूसरा उपाय खोजा। उसने कायरता करते हुए मेवाड़ के बच्चों और औरतों को बंधक बना लिया। उसके बाद तमाम तरह के कष्ट दिए।
जनता को कष्ट में देखकर अमर सिंह ने संधि का प्रस्ताव भेज दिया पर इस शर्त के साथ बेटे के साथ वह बादशाह के पास मुजरा करने नहीं आएँगे, यह हमारे शान और परम्परा दोनो के ख़िलाफ़ है। ख़ुर्रम और जहांगीर इसी में खुश थे की तीन पीढ़ी तक चले इस झगड़े में कुछ तो हाथ आया सो उन्होंने अमर सिंह से कहा कि वह जैसा उचित समझें वह करें।
तीन पीढ़ी के संघर्ष के बाद राणा परिवार कंगाल हो गया था, उनके पास बादशाह को नज़र करने के लिए कोई बड़ा तोहफ़ा नही था, कुल मिलाकर एक उस जमाने में ४०,००० रुपए क़ीमत का एक लाल था जिसे लेकर करन सिंह ख़ुर्रम के पास पहुँचे जबकि अमर सिंह इन सब मसलों से खुद को दूर कर लिया। बादशाह के लिए न लाल की क़ीमत थी, न ४०,००० रुपए की पर जब ख़ुर्रम वह लाल लेकर आगरा पहुँचा तो जहांगीर ने उस लाल को अपने हाथ में पहनने का फ़ैसला किया क्यूँकि पहली बार उसने राणा की तरफ़ से राहत की साँस ली थी।
अंत में करन सिंह बादशाह के सामने मुजरा करने दिल्ली दरबार उपस्थित हुए। राष्ट्र भक्ति के लिए तन मन धन सब कुछ लूटा चुके राणा परिवार के पास उस दरबार में अब कुछ बचा था तो वह था सम्मान।
जहांगीर लिखता है की राणा का ख़ानदान हिन्दुस्तान का पुराना ख़ानदान है, उनसे युद्ध करने का मक़सद बिगाड़ करना या झुकाना नहीं था, मामला यह था की वह दिल्ली की सत्ता का सम्मान करें और उसे भी स्वीकार करते हुए अपनी सत्ता चलाएँ। मैं या मेरे पिता कोई भी हिन्दुस्तान के पुराने रजवाड़ों से बिगाड़ नहीं चाहते।
करन सिंह के बारे में बादशाह लिखता है की यह अपने पूरे जीवन जंगल में रहा है। इसने धन, ऐश्वर्य, वैभव नहीं देखा है। यह पशु प्रकृति का बालक है। इसका मन हमारे दरबार और राजकाज में लगे इसके लिए मैंने इस को हर प्रकार से प्रसन्न करने का प्रबंध किया है।
तब यह नियम था की जो भी दिल्ली दरबार जाता था, वह बादशाह को नज़र करने के लिए तमाम धन दौलत, हाथी घोड़े लेकर आता था, पर करन सिंह के मामले में उल्टा देखने को मिला। करन सिंह को जितने उपहार जहांगीर ने ३० दिन में रोज़ देता रहा, संभवतः उतना उपहार उसने अपने लड़कों खुसरो और ख़ुर्रम को भी कभी नहीं दिया था। उसने अपने ख़ज़ाने की लगभग हर दुर्लभ वस्तु करन सिंह को उपहार में दिया और उसके बाद ससम्मान विदा किया।
बाद में जब फिर करन सिंह दरबार में उपस्थित हुए और विवाह के लिए अनुमति लेकर जाने लगे तो ख़ानदान की प्रसंशा कर फिर से इसी प्रकार उपहार दिया।
उसके बाद जहांगीर ने तो हद ही कर दी। उसने अपने कारीगरों को आज्ञा देकर बड़े बड़े सफ़ेद संगमरमर के पत्थर मंगाए। उन पत्थरों से बड़ी बड़ी दो मूर्तियों का निर्माण कराया। एक मूर्ति राणा अमर सिंह की थी, जबकि दूसरी राजकुमार करन सिंह की थी। इस्लाम में मूर्ति विरोध है, सबको आशा थी की यह मूर्ति उपहार में दोनो लोगों को मेवाड़ अथवा चित्तौड़ में लगाने को दी जाएगी, पर बादशाह ने आज्ञा दी की इनकी मूर्तियों को आगरा के बादशाही बाग में सुसज्जित कर लगा दी जाय। बादशाह ने इन मूर्तियों की सुंदरता का खूब बखान किया है।
राणा प्रताप और उनके परिवार का ख़ौफ़ मुग़ल ख़ानदान पर इस क़दर था की जहांगीर और ख़ुर्रम (शाहजहाँ) ने इस परिवार को संधि के बाद खुश रखने का सारा जतन किया। बाद में जब ख़ुर्रम ने बादशाह जहांगीर से विद्रोह किया तो शरण भी राणा करन सिंह के यहाँ ही पाया।
लोगों का यह कहना की राणा युद्ध नहीं हारे थे, वह घास की रोटी नहीं खाए थे।
राणा का जीतना हारना, जंगल में रहना नहीं रहना, कोई मुद्दा ही नहीं है। बस राणा का प्रचंड संघर्ष और कर्म में, अपने क्षत्रियत्व धर्म में सम्पूर्ण विश्वास उनके सम्मान के लिए काफ़ी है।
Bahut acha 👌👌🙏🙏
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