श्रीराम चरित्र का रहस्य

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  अयोध्या हमारा शरीर है जो की सरयू नदी यानि हमारे मन के पास है,अयोध्या का एक नाम अवध भी है। अ + वध - अर्थात जहाँ कोई वध या अपराध न हों।
  जब इस शरीर का चंचल मन सरयू सा शांत हो जाता है और इससे कोई अपराध नहीं होता तो ये शरीर ही अयोध्या कहलाता है,शरीर का तत्व (जीव),इस अयोध्या का राजा दशरथ है।
दशरथ का अर्थ है--वह व्यक्ति जो इस शरीर रूपी रथ में जुटे हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५कर्मेन्द्रिय+५ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रख सके।
   तीन गुण---सतगुण, रजोगुण और तमोगुण।दशरथ की तीन रानियाँ कौशल्या, सुमित्रा और कैकेई है।कौशल्या धर्मपत्नी थी और सुमित्रा-कैकयी भोग-पत्नी।अपने इन्द्रिय रूपी अश्वों को नियंत्रित करके शरीर रथ को योग्य मार्ग पर चलाओगे तो रामचन्द्रजी पधारेंगे। 
  अपनी इन्द्रिय को वश में रखो,जितेन्द्रिय बनो।दस इन्द्रियरूपी अश्वो को नियंत्रित करके शरीर रथ को लेकर जो रामचन्द्रजीकी ओर जाता है,वो ही दशरथ है। ऐसे दशरथ के घर भगवान  पुत्र रूप से आते है। 
  दशानन रावण-विषयों के अमर्यादित भोक्ता है-तो उसके  घर भगवान कालरूप से आते है।
रामजन्म से सभी देवों को आनन्द हुआ,किन्तु एक चन्द्र को दुःख हुआ,रामजी के दर्शन से सूर्य नारायण आनंद से स्तब्ध होकर स्थिर हो गए, आगे बढ़ते ही नहीं थे। 
  सूर्यास्त के बिना चन्द्र राम के दर्शन कैसे करे? तो चन्द्र ने राम से प्रार्थना की -इस सूर्य को कहिए कि वह आगे बढे़, वह मुझे आपके दर्शन नहीं करने देता। 
  रामजी ने चन्द्र को आश्वासन देते हुए कहा कि आज से मै तेरा नाम धारण (राम-चन्द्र) करूँगा। फिर भी चन्द्र को सन्तोष नहीं हुआ। रामचन्द्रजी ने उससे कहा "तू धीरज धर, इस बार मैंने सूर्य को  लाभान्वित किया है किन्तु भविष्य में कृष्णावतार में सबसे पहले तुझे दर्शन दूँगा। मै रात्रि के बारह बजे जन्मूँगा। सो तुझे ही लाभ मिलेगा।" 
  कृष्ण जन्म के समय दो जीव ही जाग रहे थे- वासुदेव,देवकी और तीसरे थे चन्द्र,जो रात्रि के समय जागते है उन्हें ही कन्हैया मिलता है। 
जागने का अर्थ क्या है ?
"जानिय तबहि जीव जग जागा।
  जब सब विषय विलास विरागा।
  गीता में भी कहा गया है - उन सभी भूत प्राणियों के लिए जो रात्रि है,उसी समय में योगी जाग कर प्रभु स्मरण करते है। प्राणी जिस सांसारिक नाशवान क्षणिक सुखो में जागते है़,वह रात्रि के समान ही है। 
 जहाँ युद्ध,वैर,स्वार्थ,वासना,विषमता नहीं है,वही स्थान अयोध्या है,और राम भी वहीं अविरत होते है। 
 जब कैकेयी के मन में विषमता,स्वार्थ,वासना जन्मी तब राम ने अयोध्या का त्याग किया।वसिष्ठजी ने मोक्ष मंदिर के चार दरवाज़े बताये है -
(१) शुभेच्छा - शुभ परमात्मा को मिलने की इच्छा वह शुभेच्छा। 
(२) संतोष - जो कुछ मिला है उसमे संतोष। 
(३)स्वरुपानुसन्धान - अपने खुद के स्वरुप को भूलना नहीं। 
(४) सत्संग - से हमेशा शुभ सोच मिलती है। और हम हमेश प्रभु  की सानिध्यता में रहते है। वसिष्ठजी कहते है कि -यह चार याद रखो तो मोक्ष सुलभ है। रामजी को वसिष्ठजी ने ऐसा बोध दिया है की उसे श्रवण करने के लिए रामजी को तीन दिन तक समाधि लगी है। वसिष्ठ के उपदेश से रामजी का वैराग्य दूर हुआ है। रामजी के सोलह वर्ष पूरे हुए है। 
  विश्वामित्र सबसे आगे चलते है -उनके पीछे लक्ष्मण और लक्ष्मण के पीछे राम। विश्वामित्र अर्थात सारे  विश्व के मित्र। जगत का मित्र है जीव। मनुष्य अर्थात जीव मित्र (विश्वामित्र ) बनता है  तो शब्द-ब्रह्म (लक्ष्मण) उसके पीछे-पीछे आता है और उसके पीछे परब्रह्म (श्रीराम) भी  आता है। तुम जगत-मित्र बनोगे तो राम-लक्ष्मण तुम्हारे पीछे-पीछे आयेंगे। राम ही परब्रह्म है। शब्द ब्रह्म (लक्ष्मण) के बिना परब्रह्म (श्रीराम) प्रकट नहीं होता। 
 विश्वामित्र के पीछे-पीछे राम-लक्ष्मण चल दिए। रास्ते में ताड़का नाम राक्षसी मिली। विश्वामित्र ने कहा कि यह राक्षसी बच्चो की हिंसा करती है इसलिए इसे मारो। श्रीराम ने ताड़का का उद्धार किया। 
  विश्वामित्र ने फिर,राम-लक्ष्मण को बला और अतिबला विद्या दी-जिससे उन्हें भूख-प्यास नहीं लगती। शुद्ध चित्त ही चित्रकूट है। अंतःकरण परमात्मा का सदा ध्यान करे,तभी उसे चित्त कहते है। 
  वही अंतःकरण जब -संकल्प-विकल्प करे-तब उसे मन कहते है-निश्चय करे-तब उसे बुद्धि कहते है,-अभिमान करे-तब उसे अहंकार कहते है।
  चित्त,मन,बुद्धि और अहंकार ये  एक ही अंतःकरण के भेद है। पाप अज्ञान से होता है। अज्ञान चित्त में है। 
  अगर चित्त में ईश्वर आये तो जीव कृतार्थ होता है। परमात्मा के दर्शन होए तब “चित्त”चित्रकूट बनता है। 
 लक्ष्मण वैराग्य है,सीताजी पराभक्ति का स्वरुप है, राम परमात्मा है। जब भी संकल्प  करो,शुभ ही करो, हमेशा सोचो कि परमात्मा चित्त में बसते है। गोदावरी नदी के किनारे पंचवटी में मुकाम किया है। 
  पंचवटी का अर्थ है - पाँच प्राण, परमात्मा पाँच प्राण में विराजमान है। संसार-अरण्य में भटकने वाले को वासना-रूपी शूर्पणखा मिल जाती है। रामजी उनकी और देखते तक नहीं है। शूर्पणखा मोह का स्वरूप  है। वह रावण की बहन है। बनठन के रामजी के पास आई और बोली मै कुँवारी हूँ। 
  मेरा मन तुम्ही में खो गया है। मै तुमसे विवाह करना चाहती हूँ, शूर्पणखा काम-वासना है। 
  राम शब्द में र,आ और म तीन अक्षर है। 
       र- से पाप का नाश होता है।
      आ -से बुद्धि शुद्ध होती है।
       म- चन्द्र जैसी शीतलता मिलती है।
  राम-सुग्रीव की मैत्री हनुमान द्वारा होती है। जब तक जीव की मैत्री ईश्वर से नहीं होती तब तक जीवन सफल नहीं होता,और ऐसी मैत्री हनुमानजी अर्थात ब्रह्मचर्य के बिना नहीं हो पाती। 
   जीव यदि ईश्वर से मैत्री करे तो वे उसे अपना लेते है। वे उसे भी ईश्वर बना देते है। वे तो इतने उदार है कि  जब देते है तब सोचते नहीं है। जीव जब देता है तो अपने पास थोड़ा  रखकर फिर दूसरो को देता है। परमात्मा के साथ वही मैत्री कर सकता है जो काम को अपना शत्रु बनाता है। कृष्ण और काम,राम और रावण एक साथ नहीं रह सकते। 
   इंद्रजीत और लक्ष्मण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। लक्ष्मण “इन्द्रियजीत ”है। जो इन्द्रियजीत (लक्ष्मण) है वह इन्द्र से भी बड़ा है। लक्ष्मण ने इंद्रजीत का मस्तक उड़ा दिया।
रामायण की कथा करुण रस-प्रधान है। बालकांड के सिवा अन्य सभी कांड दर्द भरे हैं। रामायण समाप्त होने पर वाल्मीकि सोचने लगे इन सबमें तो तो करुण रस भरे है। अतः उन्होंने बाद में आनंद रामायण की रचना की। 
तत्व दर्शन करने पर हम पाते है कि धर्म स्वरूप भगवान् राम स्वयं ब्रह्म हैं।शेषनाग भगवान् लक्ष्मण वैराग्य है।माँ सीता शांति और भक्ति है ।बुद्धि का ज्ञान हनुमान जी है।रावण घमंड, कुभंकर्ण अहंकार, मारीच लालच, मेघनाद काम का प्रतीक है।मंथरा कुटिलता,शूर्पनखा काम,ताड़का क्रोध है। चूँकि काम, क्रोध, कुटिलता ने संसार को वश में कर रखा है। इसलिए प्रभु राम ने सबसे पहले क्रोध यानि ताड़का का वध ठीक वैसे ही किया जैसे भगवान कृष्ण ने पूतना का किया। नाक और कान वासना के उपादान माने गए हैं,इसलिए प्रभु ने शूपर्नखा के नाक और कान काटे। भगवान् ने अपनी प्राप्ति का मार्ग स्पष्ट रूप से दर्शाया है।
  उपरोक्त भाव से अगर हम देखे तो पाएंगे कि भगवान सबसे पहले वैराग्य (लक्ष्मण) को मिले,फिर वो भक्ति (माँ सीता) और सबसे बाद में ज्ञान (भक्त शिरोमणि हनुमान जी) के द्वारा हासिल किये गए थे।
  जब भक्ति (माँ सीता) ने लालच (मारीच) के छलावे में आ कर वैराग्य (लक्ष्मण) को अपने से दूर किया तो घमंड (रावण) ने आ कर भक्ति की शांति (माँ सीता की छाया) हर ली और उसे ब्रह्म (भगवान्) से दूर कर दिया।
   भगवान् ने चौदह वर्ष के वनवास के द्वारा ये समझाया कि अगर व्यक्ति जवानी में चौदह-  पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, नाक, आँख, जीभ, चमड़ी), पांच कर्मेन्द्रियाँ (वाक्, पाणी, पाद, पायु, उपस्थ), तथा मन, बुद्धि,चित और अहंकार को वनवास में रखेगा तभी प्रत्येक मनुष्य अपने अन्दर के घमंड या रावण को मार पायेगा।
  रामायण का प्रत्येक पात्र आदर्श है। श्रीराम जैसा कोई पुत्र नहीं हुआ, वसिष्ठ जैसा कोई गुरु नहीं हुआ। दशरथ जैसा कोई पिता नहीं हुआ। 
  कौशल्या जैसी कोई माता नहीं हुई। श्रीराम जैसा कोई पति नहीं हुआ,सीता जैसी कोई पत्नी नहीं हुई। 
  भरत जैसा कोई भाई नहीं हुआ। रावण जैसा कोई शत्रु नहीं हुआ। 
  उच्च प्रकार का मातृप्रेम, पुत्रप्रेम,भातृप्रेम,पतिप्रेम,पत्नीप्रेम कैसा होना चाहिए यह रामायण में बताया है। 
   रामायण रामजी का नाम स्वरूप है,रामायण का एक-एक काण्ड रामजी का अंग है। बालकांड चरण है। अयोध्याकांड जंघा है।अरण्यकांड उदर है। किष्किंधाकांड हृदय है।सुंदरकांड कंठ है। लंकाकांड मुख है। उत्तरकांड मस्तक है। 
   श्रीराम का नाम स्वरूप रामायण का जीव मात्र उद्धारक है। रामचन्द्रजी जब इस पृथ्वी पर साक्षात अवतरित होते है तब अनेक जीवों का उद्धार करते है। पर जब वे प्रत्यक्ष नहीं होते तो नामस्वरूप से जीवका उद्धार करते है। इसलिए राम से भी अधिक राम-नाम  श्रेष्ठ है ऐसा महात्मा लोग  कहते है। 
  रामचरित्र मार्गदर्शक है। रामायण में से सभी को सीख मिलती है। अपना मन कैसा है,यह जानना हो तो रामायण पढ़ना चाहिए। जिसका अधिकतर समय निद्रा और आलस में बीत  जाता है,वह कुम्भकर्ण है,पर स्त्री का कामभाव से चिंतन करे वह रावण है। रावण काम है,काम रुलाता है,दुःख देता है। जो रुलाता है वह रावण है। परमानन्द में रखने वाले राम है ।
तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस केवल एक काव्य ग्रन्थ ही नहीं अपितु एक कल्पवृक्ष है। 
  बालकाण्ड इस वृक्ष की सबसे गहरी और मजबूत जड़ है।अयोध्याकाण्ड इसका तना है।अरण्यकाण्ड इसकी टहनियां है। किष्किन्धा काण्ड इसके पत्ते है। सुन्दरकाण्ड इसका फूल है। लंकाकाण्ड इस वृक्ष का फल है। और उत्तरकाण्ड इसका रस है।
   फूल की एक विशिष्ट पहचान होती है और जो वृक्ष की सुन्दरता में चार चाँद लगता है और वृक्ष से अलग होकर भी अलग अलग तरीके से काम में लिया जाता है।
  फूल जहाँ भी खिलता है,वहां अपनी खुशबू फैला देता है, ठीक उसी प्रकार रामचरित मानस में सुन्दरकाण्ड की एक विशिष्ट पहचान है, इसके अन्दर में ज्ञान की खुशबू फैली हुई है और सुन्दरकाण्ड का पाठ रामचरित मानस के साथ साथ और अलग से भी किया जाता है।
जैसे फल खट्टे, मीठे और बीज वाले होते हैं वैसे ही लंकाकाण्ड खट्टा मीठा है और जिसमें युद्ध के विवरण का बीज है।
   जिस प्रकार रस फलों का निचोड़ है ठीक वैसे ही, ज्ञान और भक्ति मार्ग की अनुपम व्याख्या करता, उत्तरकाण्ड सम्पूर्ण रामचरित मानस का निचोड़ है।
 मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम समसामयिक है, भारतीय जनमानस के रोम-रोम में बसे श्रीराम की महिमा अपरंपार है।
  भगवान राम ने अपने सम्पूर्ण जीवन के द्वारा मनुष्य को उत्कृष्ट जीवन शैली जीने की कला दिखाई है।
 उन्होंने ये समझाया है कि "प्रत्येक मनुष्य "आम" (साधारण) से "राम" (असाधारण) कैसे बन सकता है।"
   भगवान राम ने एक आदर्श पुत्र, भाई, शिष्य, पति, मित्र और गुरु बन कर ये ही दर्शाया की व्यक्ति को रिश्तो का निर्वाह किस प्रकार करना चाहिए।

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