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महाराज भगीरथ की कथा, भागवत पुराण, नवम स्कंध, अध्याय 9 से 12

यह चित्र महाराज भगीरथ को तपस्वी के रूप में दर्शाता है। इसमें वे गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए गहन तपस्या करते हुए दिखाए गए हैं, उनके सिर पर ...

ता कहु प्रभु कछु अगम नहि जा पर तुम अनुकूल तव प्रभाव बडवानलहिं जारी सकहि खलु तूल।।

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    हे प्रभु! जिस पर आप कृपा करते हैं या जिस पर आप प्रसन्न होते हैं उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपकी कृपा से, साधारण कपास की बाती (जो इतनी...

    हे प्रभु! जिस पर आप कृपा करते हैं या जिस पर आप प्रसन्न होते हैं उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपकी कृपा से, साधारण कपास की बाती (जो इतनी जल्दी खुद को जला देती है) एक बड़ी आग लगा सकती है जो सब कुछ जला देती है (जब आपका आशीर्वाद मौजूद है तो कोई कार्य असंभव नहीं है)

जानिये जबहिं जीव जग जागा

जब सब विषय विलास विरागा। 

होई विवेक मोह भ्रम भागा

तब रघुनाथ चरन अनुरागा।। 

  विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है॥

स्वप्नेहु होय भिखारि नृप नाक रंकपति होय । 

जागे हानि न लाभ कछु तिमि प्रपंच जिमि सोय।। 

    मुक्ति होती नहीं है अपितु मुक्ति तो स्वत:सिद्ध है । उस मुक्ति को हमें पहिचानना है । जैसे हमने स्वप्न में देखा कि एक बूढा आदमी गाय को लेकर आया , गाय ने एक बछडे को जन्म दिया , तो साठ बर्ष का आदमी , आठ बर्ष की गाय और दो दिन का बछडा - तीनों एक साथ पैदा हुए , ऐसे ही यह सब संसार है ।

   जैसे स्वप्न हमारे अन्तर्गत था , ऐसे ही संसार हमारे अन्तर्गत है । आँख खुलते ही सब स्वप्न गायब । अत: हम सब मुक्त है , कोई बन्धन में नहीं है , केवल स्वप्नरूप , असतरूप जगत को महत्ता देने से नित्यप्राप्त परमात्मा की अप्राप्ति एवं भ्रमरूप , स्वप्नरूप जगत की प्राप्ति भासित होती है । केवल इस बात की तरफ ख्याल करना है । 

जाड़न मरौ सारी रात हम झिनवा ओढ़े

  तुम सारी रात जाड़े में, ठंड में मरते रहे, हम तो झीनी चादर ओढ़ कर मस्त चैन से रहे। आखिर इसका मतलब क्या है। सबसे पहले समझें कि यह कौन सी रात है? क्या सूरज के अस्त होने पर छाए अंधकार की चर्चा है? नहीं नहीं! यहाँ रात माने अज्ञान रूपी रात्रि, माया रूपी, मोह रूपी रात्रि।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।

  तामस स्वभाव के कारण सब पदार्थों का अविवेक कराने वाली रात्रि का नाम निशा है। सब भूतों की जो निशा अर्थात् रात्रि है। वह (निशा) क्या है ? परमार्थतत्त्व जो कि स्थित प्रज्ञ का विषय है ( ज्ञेय है )। जैसे उल्लू आदि रजनीचरों के लिये दूसरों का दिन भी रात होती है वैसे ही निशाचर स्थानीय जो सम्पूर्ण अज्ञानी मनुष्य हैं जिनमें परमार्थ तत्त्व विषयक बुद्धि नहीं है उन सब भूतों के लिये अज्ञात होने के कारण यह परमार्थतत्त्व रात्रि की भाँति रात्रि है।

   उस परमार्थ तत्त्वरूप रात्रि में अज्ञान निद्रा से जगा हुआ संयमी अर्थात् जितेन्द्रिय योगी जागता है। ग्राह्य ग्राहक भेदरूप जिस अविद्या रात्रि में सोते हुए भी सब प्राणी जागते हैं ऐसे कहा जाता है अर्थात् जिस रात्रि में सब प्राणी सोते हुए स्वप्न देखने वालों के सदृश जागते हैं। वह ( सारा दृश्य ) अविद्या रूप होने के कारण परमार्थ तत्त्व को जाननेवाले मुनि के लिये रात्रि है।

"मोह निशा सबु सोवनिहारा"

  आत्मज्ञानी को छोड़कर, कौन यहाँ जाग रहा है? यहाँ सब सो रहे हैं। मोह रूपी रात्रि में सोए सोए, संसार रूपी स्वप्न में खोए खोए, स्वप्न में ही पैदा होते हैं, स्वप्न में ही जीते और मर जाते हैं। और जाड़ा क्या है? 

   यह संतवाणी है, सामान्य अर्थ मत लगा लेना, चूक जाओगे। यहाँ विद्वानों की दाल नहीं गलती, यहाँ तो विद्वानों को मूढ़ों की कतार में खड़ा किया जाता है। जड़ता ही जाड़ा है। स्वयं चेतन होते हुए भी, इस जड़ देह को "मैं" मानने लगना, "मैं देह हूँ" ऐसा मानने लगना, जड़ से तादात्म्य कर लेना, देह से अध्यास कर लेना, स्वयं को, अपने असली स्वरूप को भूल जाना, यही जाड़ा है। इसी से फिर सब सुख दुख, मान अपमान, सर्दी गर्मी रूपी कष्ट झेलने ही पड़ते हैं।

  संत ने किसी का उपहास नहीं कर रहे, वे तो करुणा से कहते हैं कि तुम मोह रूपी रात्रि में, जड़ता के वशीभूत होकर, कष्ट से मरते रहे।मैंने इस जाड़े से बचने का उपाय कर लिया, मैंने झीनी सी चादर ओढ़ ली, रामनाम की चादर ओढ़ ली। रामनाम को ही ओढ़ लिया। फिर आराम से रहे। तुम भी रामनाम को चादर बनाकर ओढ़ लो, फिर तुम्हें जाड़ा नहीं लगेगा, तुम्हें कष्ट नहीं होगा।

  ध्यान दें, जगत विष है, इस में राम का नाम जोड़ लो, विष + राम = विश्राम हो जाएगा। राम में ही आराम है। इस माया रुपी अज्ञान में सभी फंसे हैं किसी को परिवार की,तो किसी को पद एवं प्रतिष्ठा की, किसी किसी को पैसे का, कोई अपने बैंक बैलेंस,मोटर बंगले की अज्ञानता। इस अज्ञानता रुपी माया से बचने का उपाय क्या हैं। संत जन कहते हैं कि -

संत मिलन को जाइये,तज माया अभिमान।

ज्यों ज्यों पग आगे धरे कोटि यज्ञ समान।।

    सन्तो की परख करने के बाद जब भी उन से मिलने के लिए जाइये ,अपनी माया और अभिमान दोनो को ही अपने घर पर छोड़ दीजिए। जब माया अभिमान को छोड़ कर घर से आगे जाते हैं ,तब प्रत्येक पग पग पर आगे बढ़ने पर करोड़ों यज्ञ के समान पुण्य की प्राप्ति होती है। 

एक घड़ी आधी घड़ी ,आधी की पुनि आध। 

तुलसी संगत साधु की ,काटे कोटि अपराध।। 

   सुसंगति के महत्त्व का बखान करते हुए कहा गया है कि साधू अर्थात् भले एवं सच्चे लोगों की अतिअल्प संगति भी हमारे जीवन से कई प्रकार के कल्मष एवम् पापों को हर लेती है।

 हमारी तो बस इतना ही प्रार्थना है कि हे प्रभु -

सो सब तव प्रताप रघुराई।

नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥

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भागवत दर्शन: ता कहु प्रभु कछु अगम नहि जा पर तुम अनुकूल तव प्रभाव बडवानलहिं जारी सकहि खलु तूल।।
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