भगवान के ‘नाम’ का महत्व भगवान से भी अधिक होता है। भगवान को भी अपने ‘नाम’ के आगे झुकना पड़ता है। यही कारण है कि भक्त ‘नाम’ जप के द्वारा भ...
भगवान के ‘नाम’ का महत्व भगवान से भी अधिक होता है। भगवान को भी अपने ‘नाम’ के आगे झुकना पड़ता है। यही कारण है कि भक्त ‘नाम’ जप के द्वारा भगवान को वश में कर लेते हैं।
जब हनुमानजी संकट में थे, तब सबसे पहले ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ मन्त्र नारदजी ने हनुमानजी को दिया था। इसलिए संकट-नाश के लिए इस मन्त्र का जप मनुष्य को अवश्य करना चाहिए। यह मन्त्र ‘मन्त्रराज’ भी कहलाता है क्योंकि-
यह उच्चारण करने में बहुत सरल है। इसमें देश, काल व पात्र का कोई बंधन नहीं है अर्थात् हर कहीं, हर समय व हर किसी के द्वारा यह मन्त्र जपा जा सकता है।
सत् गुण के रूप में (निष्काम भाव से) इस मन्त्र के जप से साधक अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है।
रजोगुण के रूप में (कामनापूर्ति के लिए) इस महामन्त्र के जप से मनुष्य दरिद्रता, दु:खों और सभी आपत्तियों पर विजयप्राप्त कर लेता है।
तमोगुण के रूप में (शत्रु बाधा, मुकदमें में जीत आदि के लिए) इस मन्त्र का जप साधक को संसार में विजयी बनाता है और अपने विजय-मन्त्र नाम को सार्थक करता है।
सच्चे साधक (गुणातीत जिसे गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है) को यह विजय-मन्त्र परब्रह्म परमात्मा का दर्शन कराता है। इसी विजय-मन्त्र के कारण बजरंगबली हनुमान को श्रीराम का सांनिध्य और कृपा मिली। समर्थ गुरु रामदासजी ने इस मन्त्र का तेरह करोड़ जप किया और भगवान श्रीराम ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए थे।
इस मन्त्र में तेरह अक्षर हैं और तेरह लाख जप का एक पुरश्चरण माना गया है। इस मन्त्र का जप कर सकते हैं और कीर्तन के रूप में जोर से गा भी सकते हैं।
इस मन्त्र को सच्ची श्रद्धा से जीवन में उतारने पर यह साधक के जीवन का सहारा, रक्षक और सच्चा पथ-प्रदर्शक बन जाता है।
लंका-विजय के बाद एक बार अयोध्या में भगवान श्रीराम देवर्षि नारद, विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि ऋषि-मुनियों के साथ बैठे थे। उस समय नारदजी ने ऋषियों से कहा कि यह बताएं- ‘नाम’ (भगवान का नाम) और ‘नामी’ (स्वयं भगवान) में श्रेष्ठ कौन है ?’
इस पर सभी ऋषियों में वाद-विवाद होने लगा किन्तु कोई भी इस प्रश्न का सही निर्णय नहीं कर पाया । तब नारदजी ने कहा- ‘निश्चय ही ‘भगवान का ‘नाम’ श्रेष्ठ है और इसको सिद्ध भी किया जा सकता है।’
इस बात को सिद्ध करने के लिए नारदजी ने एक युक्ति निकाली। उन्होंने हनुमानजी से कहा कि तुम दरबार में जाकर सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम करना किन्तु विश्वामित्रजी को प्रणाम मत करना क्योंकि वे राजर्षि (राजा से ऋषि बने) हैं, अत: वे अन्य ऋषियों के समान सम्मान के योग्य नहीं हैं।
हनुमानजी ने दरबार में जाकर नारदजी के बताए अनुसार ही किया। विश्वामित्रजी हनुमानजी के इस व्यवहार से रुष्ट हो गए। तब नारदजी विश्वामित्रजी के पास जाकर बोले- ‘हनुमान कितना उद्दण्ड और घमण्डी हो गया है, आपको छोड़कर उसने सभी को प्रणाम किया ?’ यह सुन विश्वामित्रजी आगबबूला हो गए और श्रीराम के पास जाकर बोले- ‘तुम्हारे सेवक हनुमान ने सभी ऋषियों के सामने मेरा घोर अपमान किया है, अत: कल सूर्यास्त से पहले उसे तुम्हारे हाथों मृत्युदण्ड मिलना चाहिए।’
विश्वामित्रजी श्रीराम के गुरु थे अत: श्रीराम को उनकी आज्ञा का पालन करना ही था। श्रीराम हनुमान को कल मृत्युदण्ड देंगे- यह बात सारे नगर में आग की तरह फैल गई। हनुमानजी नारदजी के पास जाकर बोले- ‘देवर्षि ! मेरी रक्षा कीजिए, प्रभु कल मेरा वध कर देंगे। मैंने आपके कहने से ही यह सब किया है।’
नारदजी ने हनुमानजी से कहा- ‘तुम निराश मत होओ, मैं जैसा बताऊं, वैसा ही करो। ब्रह्ममुहुर्त में उठकर सरयू नदी में स्नान करो और फिर नदी-तट पर ही खड़े होकर ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’- इस मन्त्र का जप करते रहना। तुम्हें कुछ नहीं होगा।
दूसरे दिन प्रात:काल हनुमानजी की कठिन परीक्षा देखने के लिए अयोध्यावासियों की भीड़ जमा हो गई। हनुमानजी सूर्योदय से पहले ही सरयू में स्नान कर बालुका तट पर हाथ जोड़कर जोर-जोर से ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का जप करने लगे।
भगवान श्रीराम हनुमानजी से थोड़ी दूर पर खड़े होकर अपने प्रिय सेवक पर अनिच्छापूर्वक बाणों की बौछार करने लगे। पूरे दिन श्रीराम बाणों की वर्षा करते रहे, पर हनुमानजी का बाल-बांका भी नहीं हुआ। अंत में श्रीराम ने ब्रह्मास्त्र उठाया। हनुमानजी पूर्ण आत्मसमर्पण किए हुए जोर-जोर से मुस्कराते हुए ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का जप करते रहे। सभी लोग आश्चर्य में डूब गए।
तब नारदजी विश्वामित्रजी के पास जाकर बोले- ‘मुने ! आप अपने क्रोध को समाप्त कीजिए। श्रीराम थक चुके हैं, उन्हें हनुमान के वध की गुरु-आज्ञा से मुक्त कीजिए। आपने श्रीराम के ‘नाम’ की महत्ता को तो प्रत्यक्ष देख ही लिया है। विभिन्न प्रकार के बाण हनुमान का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। अब आप श्रीराम को हनुमान को ब्रह्मास्त्र से न मारने की आज्ञा दें।’
विश्वामित्रजी ने वैसा ही किया। हनुमानजी आकर श्रीराम के चरणों पर गिर पड़े। विश्वामित्रजी ने हनुमानजी को आशीर्वाद देकर उनकी श्रीराम के प्रति अनन्य भक्ति की प्रशंसा की।
गोस्वामी तुलसीदासजी का कहना है- ‘राम-नाम’ राम से भी बड़ा है। राम ने तो केवल अहिल्या को तारा, किन्तु राम-नाम के जप ने करोड़ों दुर्जनों की बुद्धि सुधार दी। समुद्र पर सेतु बनाने के लिए राम को भालू-वानर इकट्ठे करने पड़े, बहुत परिश्रम करना पड़ा परन्तु राम-नाम से अपार भवसिन्धु ही सूख जाता है।
कहेउँ नाम बड़ ब्रह्म राम तें।
राम एक तापस तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।
राम भालु कपि कटकु बटोरा।
सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा।।
नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं।
करहु विचार सुजन मन माहीं।।
मन्त्र की व्याख्या, इस मन्त्र में-
‘श्रीराम’- यह भगवान राम के प्रति पुकार है।
‘जय राम’- यह उनकी स्तुति है
‘जय जय राम’- यह उनके प्रति पूर्ण समर्पण है।
संसार का मूल कारण सत्व, रज और तम- ये त्रिगुण हैं। ये तीनों ही भव-बंधन के कारण हैं। इन तीनों पर विजय पाने और संसार में सब कुछ ‘राम’ मानने की शिक्षा देने के लिए इस मन्त्र में तीन बार ‘राम’ और तीन ही बार ‘जय’ शब्द का प्रयोग हुआ है।
मन्त्र का जप करते समय मन में यह भाव रहे- ‘भगवान श्रीराम और सीताजी दोनों मिलकर पूर्ण ब्रह्म हैं। हे राम ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ और आपके शरण हूँ।’
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