अन्तरात्मा का मैल तथा भक्ति जल

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।

   अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।।

 जय श्री राम प्रभु भक्तों ! 

   ईश्वर के प्रति अनन्य भक्ति और निश्छल प्रेम रुपी पानी के धोए बिना  अंतरात्मा का मैल (इंद्रियो का विषयो के प्रति आकर्षण और राग द्वेष क्रोध लोभ मान मोह दम्भ पाखण्ड आदि) नहीं  जाता है । 

सोइ सर्वग्य तग्य सोइ पंडित।

सोइ गुन गृह विग्यान अखंडित।।

वही सच्चा सर्वज्ञ है वही सच्चा तत्वज्ञ है  वही पण्डित है  वही सच्चा अखंड विज्ञानवान है 

दच्छ सकल लच्छन जुत सोई।

जाकें पद सरोज रति होई।।

 वही समस्त सद्गुणों को धारण करने वाला गुणों का भण्डार गृह है अर्थात वही मंनुष्य सभी सुलक्षणों से युक्त है जिसकी ईश्वर पर वैसी ही आशक्ति है जैसी रति क्रिया के समय एक कामाशक्त पुरूष की होती है जब तक ऐसा अनन्य प्रेम ईश्वर के प्रति नहीं होगा तब तक हमारी अन्तर्रात्मा मलिन राहेगीऔर हम विषयाशक्ति के दोषो से युक्त रहेंगे।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्

मम वर्तनानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।। 

जिस तरह से लोग मेरे प्रति समर्पण करते हैं, मैं उसी के अनुसार प्रतिफल देता हूं। हे पृथा के पुत्र, जाने या अनजाने में हर कोई मेरे मार्ग का अनुसरण करता है।

भगवान सभी के साथ उनके समर्पण के अनुसार आदान-प्रदान करते हैं। जो लोग भगवान के अस्तित्त्व को स्वीकार नहीं करते वे कर्म के नियमों के अंतर्गत उनसे व्यवहार करते हैं, वे उनके हृदय में बैठते हैं, उनके कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं और तदानुसार फल देते हैं किन्तु ऐसे नास्तिक लोग भी भगवान की दासता से बच नहीं सकते। भगवान की शक्ति माया उन्हें धन-संपत्ति, विलासिता, सगे संबंधी, प्रतिष्ठा आदि के मोह जाल में फंसा कर भगवान की दासता करने के लिए बाध्य करती है। माया उन्हें क्रोध, काम-वासना और लोभ के प्रभुत्व में ले आती है। दूसरी ओर जो लोग अपने मन से सांसारिक आकर्षणों को हटाकर भगवान को अपना लक्ष्य और आश्रय मानकर उनके सम्मुख होते हैं तब भगवान अपने बालक का पालन पोषण करने वाली एक माँ के समान उनकी देखभाल करते हैं। 

श्रीकृष्ण ने "भजामि" शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ 'सेवा करना' है। वे शरणागत जीवात्माओं के अनन्त पापों का नाश कर देते हैं, माया के बंधनों से मुक्त कर देते हैं, भौतिक संसार के अंधकार को मिटा देते हैं और दिव्य कृपा, दिव्य ज्ञान एवं दिव्य प्रेम प्रदान करते हैं। जब भक्त निष्काम भाव से उन्हें प्रेम करते हैं तब वे अपनी स्वेच्छा से उनके प्रेम के आगे दास बन जाते हैं। 

श्रीराम ने हनुमान से इस प्रकार से कहा :-

एकैकस्योपकारस्य प्राणान् दास्यास्मि ते कपे।

शेषस्येहोपकाराणां भवाम् ऋणिनो वयं ।।

"हे हनुमान! तुमने मेरी जो सेवा की है उसके ऋण से मुझे उऋण करो तब मैं तुम्हें अपना जीवन समर्पित कर दूंगा। तुम्हारी सभी प्रकार की श्रद्धा भक्ति के लिए मैं सदैव तुम्हारा ऋणी रहूँगा।" इस प्रकार भगवान सभी के साथ उनके समर्पण के आधार पर आदान-प्रदान करते हैं। 

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता: ।

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागता: ।। 

राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें पूरी तरह से लीन होकर, और मेरी शरण में आकर, अतीत में कई व्यक्ति मेरे ज्ञान से शुद्ध हो गए, और इस तरह मेरे दिव्य प्रेम को प्राप्त किया।

तुम्हें अपने हृदय रूपी मन्दिर को शुद्ध रखना चाहिए यदि तुम इसमें किसी मूर्त को रखना चाहते हो।" 

"शुद्ध हृदय वाले भाग्यशाली हैं जिसमें वह भगवान को देख सकते हैं।" 

अब मन को कैसे शुद्ध किया जाए? आसक्ति, भय और क्रोध को त्यागने से और मन को भगवान में अनुरक्त करने से अन्त:करण कैसे शुद्ध होता है?

शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते।

"भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की भक्ति में लीन हुए बिना मन शुद्ध नहीं होगा" 

शुद्ध मन से भगवान का स्मरण करते रहने से ही कल्याण संभव है।

भगवान आपसे कुछ नहीं चाहते हैं केवल अपने आप को अर्पित कर दो।

कि हे प्रभु अच्छा हूं या बुरा सब आपको भावपूर्ण समर्पण।

लोग भगवान के मंदिर में आरती करते हुए कहते हैं,

तन मन धन सुख सम्पति, सब कुछ है तेरा

तेरा तुझको अर्पण

लेकिन बाहर निकलते ही महाराज मन नहीं लगता किसी काम में।

अरे भाई मन तो थोड़ी देर पहले ईश्वर को अर्पित कर दिया तो अब तो मन तेरा हैं ही नहीं,। फिर सब दिखावा क्यों?

एक कहानी के माध्यम से समझते हैं :-

एक बार एक राजा राजकाज से ऊबकर अपने गुरु के पास पहुँचा और बोला- गुरुदेव, राजकाज के रोज-रोज के झंझटों, मुसीबतों से मैं दुःखी हो गया हूँ। एक को सुलझाओ तो दूसरी खड़ी हो जाती है। मैं तो तंग हो गया हूँ अपने जीवन से। क्या करूँ? गुरु- राजन, यदि ऐसा है तो इसे त्यागकर मुक्ति पा लें।

राजा- इसे त्याग देने से समस्याएँ तो सुलझेंगी नहीं। मैं पीठ दिखाकर कैसे भाग सकता हूँ। गुरु- तो राजपाट अपने पुत्र को सौंपकर निश्चिंत हो जाएँ। राजा- लेकिन वह तो अभी बहुत छोटा और अनुभवहीन है। 

गुरु- तो फिर मुझे सौंप दें। मैं चलाऊँगा तुम्हारा राज्य। राजा- हाँ, यह मुझे स्वीकार है। इसके बाद राजा ने संकल्प लेकर सारा राजपाट अपने गुरु को सौंप दिया और उन्हें प्रणाम कर वहाँ से जाने लगा। तभी गुरु ने उसे रोका- कहाँ जाते हो?

राजा- राजमहल। कुछ धन लेकर दूसरे राज्य में कोई व्यापार शुरू करँगा। 

गुरु- धन तो अब मेरा है, उस पर तुम्हारा क्या अधिकार? 

राजा- तो फिर मैं किसी की नौकरी करूँगा। गुरु- यदि नौकरी ही करना है तो मेरी कर लो। राजा- क्या करना होगा मुझे? गुरु- मुझे अपने राजकाज के कुशल संचालन के लिए एक योग्य संचालक की आवश्यकता है। क्या तुम यह काम करोगे

राजा- जब आपकी नौकरी ही करना है तो जो आप कराएँगे, करूँगा। राजा वापस जाकर राज्य चलाने लगा। कुछ समय बाद गुरु ने उसे बुलाकर पूछा- कैसा चल रहा है राजकाज? कोई समस्या तो नहीं? राजा- बहुत अच्छा चल रहा है, गुरुदेव।

अब मैं निश्चिंत होकर अपनी नौकरी कर रहा हूँ। पूरी लगन से अपनी जिम्मेदारी निभाता हूँ और रात में चैन से सोता हूँ, क्योंकि मेरा तो कुछ है नहीं। सब कुछ तो आपका है। उसकी चिंता तो आपको होगी।

दोस्तो, यही तरीका है अपनी परेशानियों से मुक्ति पाने का। सोच लो कि जो कुछ आप कर रहे हैं, वह किसी और का है। आप तो सिर्फ एक सेवक की भाँति अपनी भूमिका निभा रहे हैं, काम कर रहे हैं, नौकरी कर रहे हैं। यह एक भाव है, लेकिन इस भाव से आप उन बहुत-सी ऐसी चिंताओं से मुक्त रहकर काम कर सकते हैं, जो एक मालिक को होती हैं।

कहते हैं न कि किसी भी संस्था में नौकरी करने वाला ज्यादा फायदे में होता है। उसे तो बस ऑफिस जाकर अपनी जिम्मेदारी को ठीक से निभाना होता है। उसके बाद वह रात को निश्चिंत होकर सो जाता है। लेकिन मालिक के लिए तो दिन-रात एक जैसे ही होते हैं।

इसलिए सुखी होना चाहते हो तो सब प्रभु पर छोड़ दो, केवल कर्ता बनो, कर्म करो सब मालिक देख लेगा।


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