रक्त संक्रान्ति......!

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 रक्त संक्रान्ति......!


        14 जनवरी 1761 की पौ नही फूटी थी । पानीपत की कडकडाती ठंड मे सूती धोती पहने मराठा सैनिको ने यमुना नदी मे स्नान किया । 

      महीने भर से पेट मे अन्न का एक दाना नही गया था । उनके काठियावाडी घोडे सूखकर कंकाल बन चुके थे । अंतत: सैनिको के अनुरोध पर भाऊसाहेब ने युद्ध की अनुमति दे दी थी , उनके सैनिक चाहते थे कि भूख से मरने से बेहतर है कि मैदान ए जंग मे मर मिटे । 

          मराठो की मशहूर #धोप यानि फिरंगा ,तलवारो का स्वाद अब्दाली के सैनिक पहले ही चख चुके थे । पानीपत का युद्ध शुरू होने और घेराबंदी से कुछ ही दिनो पहले करनाल के #कुंजपुरा गैरीसन मे तैनात अब्दाली की अफगान सेना के दस हजार सिपाही मराठो की लपलपाती तलवारो के नीचे से निकले थे । शायद ही किसी के धड पर सिर बचा था । 

         कुंजपुरा मे अफगान फौज की दुर्गति से अफगान फौज मे दहशत थी । 

      अब्दाली ने बागपत के पास यमुना नदी पार की , और दिल्ली से मराठा फौज की सप्लाई काट दी । आत्मविश्वास मे भरकर अब्दाली ने पानीपत की तरफ बढना चाहा , तो मराठा फौज से पहली झडप मुरथल के पास #गन्नौर मे हुई । कुछ ही घंटो की झडप मे 2000 अफगान सिपाही कटे फटे जमीन सूंघ रहे थे। 

       अब्दाली जैसे काबिल सेनापति की समझ मे आ चुका था , कि इन तपे हुए योद्धाओ से सीधी जंग मे पार पाना संभव नही है । 

      उसने मराठो को मिलने वाली रसद के रास्ते मजबूती से बंद कर दिये । रसद जुटाने के प्रयास किये गये , मगर मराठा कैंप को रसद नही मिल सकी । जब रसद एकदम समाप्त हो गई तो राशन और घास की कमी से सिपाही और घोडे मरने लगे । 

        अब्दाली एक इंच भी आगे नही बढ रहा था। अंतत: सैनिक ही भाऊ के पास गये और दरख्वास्त की , कि हमे भूख से मरने के बजाय , मैदान ए जंग मे मरने दे। 

     14 जनवरी की भोर मे ही मराठो ने सिर पर कफन बाँध लिया । 11 किमी की चौडाई मे फैलकर मराठा सेना ने आक्रमण कर दिया।

        मगर ये क्या , उनके जर्जर हो चुके घोडे बेहोश होकर गिरने लगे , भूखे जवान भूख और कमजोरी से थकने लगे । दोपहर के दो बजते बजते जंग का पलडा मराठो के पक्ष मे पूरी तरह झुक चुका था । 

      अफगान सेना के पैर उखडने लगे , तभी पेशवा के पुत्र विश्वास राव , सिर मे गोली लगने से वीरगति को प्राप्त हो गये । भाऊ हाथी से उतरकर विश्वास राव को संभालने पहुँचे , और नेतृत्वविहीन हो चुकी मराठा सेना मे अफवाह फैल गई कि भाऊ और विश्वासराव दोनो ही वीरगति को प्राप्त हो चुके है । 

       ठीक इसी वक्त मल्हार राव होल्कर की टुकडी भी मैदान छोडकर चली गई । दामाजी गायकवाड, और विट्ठल विंचूरकर की टुकडियां जिन्हे रिजर्व के तौर पर रखा गया था । वो उत्साह मे ऐतिहासिक जीत का श्रेय लेने के लिए पहले ही युद्ध मे कूद पडे थे । कोई रिजर्व टुकडी बची ही नही थी । 

     भाऊ साहेब और विश्वासराव ने युद्ध के मैदान मे ही वीरगति पाई, जानकोजी सिंधिया घायल थे और कैद कर लिये गये । बाद मे उनकी हत्या की गई। महादजी सिंधिया और शमशेर बहादुर को मरणासन्न स्थिति मे युद्ध के मैदान से निकाला गया । बाद मे महादजी किसी तरह बच गये मगर शमशेर बहादुर ने भरतपुर मे दम तोड दिया । 

    इब्राहिम गार्दी की तोपे , अँधेरा होने तक आग उगलती रही । मगर कुछ गलतियों की वजह से जो एक ऐतिहासिक जीत होने वाली थी । वो हार मे बदल चुकी थी । इब्राहिम खाँ गार्दी के टुकडे टुकडे काट कर मार डाला गया । 

           मानव इतिहास की इतनी बडी जंग , जिसमे लगभग दोनो पक्षो को मिलाकर, एक ही दिन मे एक लाख लोग मारे गये थे, मगर मराठो ने वीरता का इतिहास रच दिया था । उन दिन इतना रक्त बहा था कि वो #मकर_संक्रान्ति का दिन "रक्त संक्रान्ति " बन गया था । 

      पानीपत की हार , शर्म का नही बल्कि शौर्य का विषय होना चाहिये । 

      दुनिया का कौन सा महान सेनापति नही हारा । 

जंगो के फैसले केवल वीरता तय नही करती । और भी कई कारण होते है । बदकिस्मती थी मराठा सेना की , कि वो भूखे और उतावले थे । वही किस्मत ने अब्दाली का साथ दिया था । 

     जंग मे क्या नेपोलियन नही हारा । 

   क्या जनरल डगलस मैकआर्थर फिलीपींस मे नही हारा था । 

   क्या जनरल रोमेल की जनरल मांटगुमरी के हाथो हार नही हुई थी ।

     क्या मांटगुमरी ,फ्रांस मे जर्मन सेना से पराजित नही हुआ था ।

 क्या जनरल आर्थर पर्सीवेल सिंगापुर मे पूरी ब्रिटिश इंडियन डिवीजन के साथ हार के बाद कैद नही हुआ था । 

   क्या ब्रिटिश इंडियन आर्मी मे मिलिट्री क्राॅस जीतने वाले आमिर अबदुल्ला नियाजी ने जिसे उसकी वीरता के कारण "टाईगर नियाजी" के नाम से जाना जाता था । उसकी ढाका मे हार नही हुई थी । 

      जंग मे वीरता , श्रेष्ठता , संचालन क्षमता , आपूर्ति , बैकअप , कम्युनिकेशन , व्यूह रचना अहम चीजे जरूर है । मगर इनके अलावा भैगोलिक , मौसम परिस्थितियो के अलावा तकदीर और किस्मत भी फैसला करती है । 

      इतने बडे पैमाने पर लडे जा रहे युद्ध मे ऊँट किसी भी करवट बैठ जाता है । बडे से बडे धुरंधर सेनापतियों ने मैदान ए जंग मे धूल चाटी है । 

          पानीपत मे मराठो की हार कोई शर्म की विषयवस्तु कदापि नही । यदि मराठा फौज की तरह अफगान फौज सप्लाई कटने के कारण महीनो भूखी रही होती , तो निश्चित तौर पर लडाई मे उतरने के बजाय उन्होने सरेंडर कर दिया होता । मगर मराठो ने उन परिस्थियो मे भी युद्ध को चुना था। 

       जिंदा कौमे कभी हार से नही टूटती । पानीपत मे सब कुछ न्यौछावर करने के मात्र दस वर्षो के भीतर , मराठा योद्धाओ की एक नई पीढी सर पे कफन बाँधकर उठ खडी हुई थी । विधवा स्त्रियो ने अपने बच्चो के हाथ मे एक बार फिर तलवारे थमाकर , उनका विजयतिलक करके युद्ध मे भेजा । 

           दस वर्ष बाद ही पेशवा "माधवराव" के नेतृत्व मे वो फिर से दिल्ली पर चढ आये । और एक एक देशद्रोही का चुन चुनकर फन कुचला । नजीब के रूहेलखंड की ईंट से ईंट बजाई । अवध को रौंदा , और राजपूताना से चौथ वसूली । 

      "रक्त संक्रान्ति" के इस पावन दिन को पराजय का दिन मानने के बजाय , "शौर्य दिवस" के तौर पर याद रखना चाहिये । भले ही वो मतवाले योद्धा युद्धभूमि मे खेत रहे , मगर वो स्वाभिमान , समर्पण , शौर्य और वीरता को परिभाषित गये । नमन है उन वीरो को । 

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