जब श्री हनुमानजी लंका में सीता माता से मिले तो उन्होंने कहा, मैं रामदूत हूँ। क्रोधोन्मत होकर अशोक-वाटिका को उजाड़ दिया, रावण पुत्र अ...
जब श्री हनुमानजी लंका में सीता माता से मिले तो उन्होंने कहा, मैं रामदूत हूँ।
क्रोधोन्मत होकर अशोक-वाटिका को उजाड़ दिया, रावण पुत्र अक्षय कुमार को मार दिया। मेघनाद ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया तो ब्रह्मास्त्र की महिमा को ध्यान में रखा, मूर्छित हुए, नागपाश में बंधे। जब इन्हें रावण के सामने उपस्थित किया गया तो इन्होंने अपना परिचय कुछ इस तरह दिया ।
जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम चोरी से हर लाये हो मैं उन्हीं का दूत हूँ।
राम दूत अतुलित बल धामा ।
अंजनि पुत्र पवनसुत नामा॥
हनुमानजी ने रावण को अपना परिचय पवनसुत, अंजनिपुत्र, केसरीनन्दन कह कर नहीं दिया। अहंकार रहित , अभिमान रहित हनुमानजी ने रावण को अपना परिचय अपने आराध्य श्रीराम का वर्णन करते हुए ही दिया।
क्योंकि ये मन, क्रम, वचन से श्रीहरि के दास हैं और दास्य भक्ति में दास का अलग से अस्तित्व नहीं रहता है।
अतुलित बल के धाम हनुमान जी ने रावण को अपने स्वामी की श्रेष्ठता का आभास कराया और कहा -
दासोऽहं कौसलेन्द्रस्य।
मैं अयोध्यापति श्रीराम का दास हूँ।
ईश्वर को मन से स्वामी स्वीकार कर स्वयं को उनका दास समझना दास्य भक्ति है । ईश्वर की सेवा कर प्रसन्न होना । भगवान को अपना सर्वस्व मान लेना 'दास्य भक्ति' कहलाता है । हनुमानजी और लक्ष्मणजी दास्य भाव के भक्त हैं ।
दास्य -
ईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना। सख्य: ईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना। आत्मनिवेदन: अपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना।
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि: ।।
तुलसी दास जी कहते हैं कि-
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
हनुमानजी विद्या, बुद्धि, विवेक के आगार, सर्वसमर्थ, सर्वशक्तिमान, अजेय-बल पौरुष के भंडार हैं श्रीराम के चरण-कमलों के मधुकर श्री हनुमान।
श्री हनुमानजी कुशाग्र बुद्धि हैं, अच्छे नीति निर्धारक हैं, बलवान हैं, शूरवीर हैं, पराक्रमी हैं, धैर्यवान हैं। धैर्यवान होना अपने आप में एक बहुत बड़ा गुण है। इनकी विवेकशक्ति, निर्णय लेने की क्षमता, वाक्-पटुता, मन के भावों को पढ़ लेने की क्षमता जैसे विशेष गुण अनुकरणीय हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इन्हें अपने जीवन में अपनाने का प्रयास अवश्य करना चाहिये।
बुद्धिर्बलं यशो धैर्यं निर्भयत्वमरोगता।
सुदार्ढ्यं वाक् स्फरत्वं च हनुमत्स्मरणाद्भवते्।।
जो व्यक्ति निरन्तर हनुमानजी की आराधना करता है वह बुद्धि, बल, सुकीर्ति, धैर्य, साहस, निर्भयता, स्थिरता, स्वस्थता एवं शब्द चातुर्य का प्रसाद बहुत ही सहजता से प्राप्त कर लेता है।
हनुमानजी संस्कृत भाषा, चारों वेद व छः वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, तिरुक्त, छंद, ज्योतिष) के ज्ञाता हैं। ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य को भली-भाँति समझने वाले हैं। ये ज्ञान के सागर हैं, क्योंकि प्रभु श्रीराम द्वारा दिया हुआ वास्तविक ज्ञान इन्हें ही प्राप्त हुआ है। हनुमान जी ने ज्ञान, कर्म, धर्म एवं भक्ति की पूर्ण शिक्षा प्राप्त की और उसे जीवन में अपनाया।
विद्या हमें ब्रह्म की प्राप्ति कराती है। हनुमानजी "बुद्धिमतां वरिष्ठ" भी हैं। इसलिये गोस्वामी तुलसीदास जी इनसे कह रहे हैं, मुझे बल, बुद्धि और विद्या प्रदान कीजिये। क्योंकि बुद्धि तो ईश्वर की कृपा से ही मिलती है। हे नाथ! मेरे क्लेश और इस देह के छः विकारों को दूर करें।
अज्ञान की पाँच वृत्तियाँ -
अविद्या (तम), अस्मिता (मोह), राग (महामोह), द्वेष (तमिस्त्र) और अभिनिवेश (अंध तामिस्त्र) क्लेश कहलाती हैं। जन्मना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट होना, मनुष्य देह के छः विकार हैं।
क्लेशः -
(1) अविद्या -
यह मेरा है, यह शरीर मेरा है, यह सम्पत्ति मरेी है, विनाशशील वस्तुओं के प्रति अपनत्व।
(2) अस्मिता -
संसार की समस्त भोग्य वस्तुओं के प्रति अपनत्व। ये वस्तुएँ मुझसे नहीं छूटनी चाहिये।
(3) राग -
रुप, रस, गंध, स्पर्श आदि के प्रति विशेष आकर्षण एवं आसक्ति।
(4) द्वेष -
सुख प्रदान करने वाली वस्तु की प्राप्ति में बाधा।
(5) अभिनिवेश -
यही वस्तु मुझे सुख प्रदान करेगी। सुख पहुँचाने वाली वस्तु दूर न हो जाय। ऐसी वस्तु को व्यक्ति खोना नहीं चाहता।
शरीर के छः विकार -
हाड़मांस का बना यह शरीर ही निम्न छः विकारों का निवास स्थान है।
(1) अस्तित्व का अभिमान -
बच्चा माँ के गर्भ में दुःखी है। मुझे इस गर्भ से कब छुटकारा मिलेगा?
(2) अपनत्त्व -
गर्भ से बाहर आने के बाद तीसरे दिन पिछले जन्म को भूल जाना, जिस माता ने जन्म दिया है उसके प्रति अस्तित्व व जन्म के छठे दिन से पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति अपनत्व भाव उत्पन्न होना।
(3) वृद्धत्व -
उम्र बढ़ने के साथ ही अपने को बड़ा समझना, कार्यक्षमता विकसित होते ही अपने आपको कार्यकुशल समझना।
(4) प्रौढ़ -
युवावस्था समाप्त होते ही अपने को बुद्धिमान समझना एवं स्वयं की क्षमता का अभिमान होना। अपने को क्षमतावान समझ कर कार्य सम्पादन करना।
(5) क्षीण -
धीरे धीरे वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होते हुए चिन्ताओं से घिरे रहना, शारीरिक रोगों की पीड़ा, पराधीनता का भाव उत्पन्न होना और अन्ततः अपने आप को क्षीण समझना।
(6) चिन्तामग्न -
बुढ़ापे में अपने भाग्य को कोसते रहना, जवानी को याद करना, मैंने ये किया, वो किया का अहंकार व्यक्त करना, अपने को सामर्थ्यहीन मान कर चिन्तामग्न होना और अन्ततः तड़प-तड़प कर मर जाना। कितना कष्टप्रद होता है यह विकार।
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