भगवान राम के राज्य की एक विचित्र घटना,कुत्ते का न्याय

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   भारतीय जनमानस आज भी रामराज्य को महानतम साम्राज्य और उपमा रहित मानता है। आज भी अगर कहीं सर्वत्र खुशहाली और चैन की बंशी बजाने की उपमा देनी हो तो उसकी तुलना रामराज्य से की जाती है। किसी राज्य से अथवा किसी ऐतिहासिक शासन काल से रामराज्य की तुलना करना व्यर्थ है।आखिर ऐसा क्या था रामराज्य में? 

  परमेश्वर के दस मुख्य अवतारों में से, बारह कलाओं के साथ जन्मे, प्रभु श्री राम भी हैं। रावण जैसे महाशक्तिशाली, अधर्मी और क्रूरकर्मा को उसके परिवार समेत नेस्तनाबूद करने वाले प्रभु श्री राम ने अयोध्या लौटने के बाद दस हज़ार वर्षों तक शासन किया था। उनके शासन काल को दुनिया ‘रामराज्य’ के नाम से जानती है।

  वाल्मीकि कृत रामायण के उत्तर काण्ड में रामराज्य से सम्बंधित कई घटनाएं दी हुई जो न केवल ऐतिहासिक बल्कि धार्मिक दृष्टी से भी महत्वपूर्ण हैं। उन्ही में से एक घटना का वर्णन यहाँ किया जा रहा है जो अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है।

  एक दिन, दिन के तीसरे पहर, राजसभा में बैठे हुए राजा राम ने अपने अनुज लक्ष्मण से कहा- “भाई लक्ष्मण! देखो, राज दरबार के बाहर कोई न्याय प्राप्त करने के लिए तो नहीं आया है?” लक्ष्मण जी बड़े भाई की आज्ञा पाते ही तुरंत बाहर गए और चारों ओर दृष्टि दौड़ा कर देखा, उनको वहां कोई दुखिया दिखाई नहीं पड़ा।

  लक्ष्मण जी राज महल में वापस आकर राम से बोले- “भैया ! बाहर तो ऐसा कोई भी मानव नहीं है, जो क्षुब्ध हो या दुखी हो और कुछ निवेदन करने के लिए आया हो।” लक्ष्मण जी के वचन से राजा राम को संतोष नहीं हुआ। उनकी बेचैनी लक्ष्मण जी समेत वहाँ दरबार में उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति महसूस कर रहा था।

  उन्होंने लक्ष्मण जी से पुनः कहा- “लक्ष्मण ! मुझे विश्वास है कि नीति और उचित न्याय पद्धति से शासन करने पर प्रजा सर्वदा सत्य के मार्ग पर अग्रसर रहती है और उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं मिलता। यह सब होते हुए, तुम प्रजा के हित चिंतन में सर्वदा सक्रिय रहना।

 अब एक बार पुनः बाहर जाकर किसी भी कार्यार्थी, अर्थार्थी या न्याययार्थी का पता लगाओ।कोई भी ऐसा प्राणी यहां से निराश हो कर ना जाए।”

  श्री राम जी की आज्ञा पाते ही लक्ष्मण पुनः बाहर गए लेकिन इस बार भी उन्हें राज भवन के बाहर कोई भी मनुष्य नहीं दिखाई दिया। लक्ष्मण जी ने फिर से अपनी पैनी निगाह चारो तरफ दौड़ाई और देखा कि एक कुत्ता दुखी मन वहां बैठा था। लक्ष्मण जी को देखते ही वह कुत्ता उठ बैठा और अपने दुखी मन की भावना को व्यक्त करते हुए जोर-जोर से रोने लगा।

  उन दिनों राजा, राजघराने के लोग, राजकाज देखने वाले अधिकारी तथा विद्वान लोग पशु और पक्षियों की भाषा जानते थे, वे उनसे बात भी कर सकते थे। पशुओं की भाषा के ज्ञाता लक्ष्मण जी ने उस कुत्ते से रोने का कारण पूछा- ‘हे सारमेय ! तुम क्यों दुखी हो? तुम्हे किसी ने प्रताड़ित किया है या तुम्हारा कौन सा कार्य नहीं हो पा रहा है? निर्भय होकर कहो।’

  लक्ष्मण जी का आश्वासन प्राप्त करके कुत्ता बोला- ‘प्रभु ! समस्त जीवों के रक्षक, प्रशस्त कर्म करने वाले राजाराम से मुझे कुछ निवेदन करना है।’ कुत्ते की बात सुनकर लक्ष्मण जी ने उस कुत्ते से कहा ‘आओ मेरे साथ’।

  राज्यसभा में प्रवेश करने के पहले लक्ष्मण जी ने कुत्ते से कहा कि ‘सारमेय ! राजाराम के सम्मुख जो कुछ कहना, सत्य सत्य कहना |’ लक्ष्मण जी की बात सुनकर कुत्ता ठिठका और उसने कहा- ‘नाथ ! देव मंदिर, राजभवन तथा ब्राह्मण, अग्नि, इंद्र, सूर्य आदि के निवास स्थान पर मेरे जैसे जीवो का जाना उचित नहीं होता।

  मैं राजा राम के महल में कैसे जा सकता हूं? राजा शरीरधारी स्वयं धर्म का अवतार माना जाता है। और फिर राजाराम तो सर्वोपरि हैं। प्रजा के रक्षक ,नीतिज्ञ और सत्यवादी, समदर्शी हैं। वही चंद्र, सूर्य, वरुण और अग्नि हैं। श्री लक्ष्मण ! आप तुरंत राजाराम से मेरे लिए आज्ञा प्राप्त कीजिए; बिना उनकी आज्ञा के मैं उनकी राज्यसभा में प्रवेश नहीं कर सकता।’

  लक्ष्मण तुरंत राजभवन में आये और राजा राम से बोले- “भैया ! राज भवन के बाहर एक कुत्ता है। वह आपसे कुछ निवेदन करना चाहता है। प्रतीक्षा कर रहा है। यदि आज्ञा हो तो उसे राजमहल में बुला लूं।”

  लक्ष्मण का कथन सुनकर राम ने तुरंत लक्ष्मण से कहा- “लक्ष्मण! तुरंत उस सारमेय को राजभवन के अन्दर ले आओ। उसे मुझसे न्याय प्राप्त करने का पूरा अधिकार है। राज्य का कोई भी जीव हो उसको मुझसे निवेदन करने और न्याय प्राप्त करने का मानव की ही भांति अधिकार है।” लक्ष्मण जी कुत्ते को लेकर राजभवन में पहुंचे।

  राजा राम के पास पहुंचते ही वह कुत्ता आश्वस्त हो गया। श्रीराम ने कुत्ते से पूछा- “सारमेय ! तुम्हे जो कुछ भी कहना है, निडर हो कर कहो। ” कुत्ते के सिर पर चोट थी। उसके सिर पर लगी चोट को देखकर राम का ध्यान उधर आकृष्ट हो गया।

  श्री राम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट देखकर कुत्ते ने उनसे निवेदन किया- ‘प्रभु! राजा ही समस्त प्राणियों का रक्षक और स्वामी होता है। प्रजा जब सोती है, तब राजा जाग कर प्रजा की रक्षा करता है। हे राघव ! आप तो समस्त प्राणियों के प्राण हैं। आप ही हमारे कर्ता-धर्ता और रक्षक हैं, त्राता हैं, विधाता हैं। आप श्रेष्ठ- जनों द्वारा आचरित कर्म करते हैं। आप धर्मात्मा और सद्गुणों के सागर हैं यदि मैंने कोई अनुचित बात यहां पर कह दी हो या आगे मेरी जिव्हा से निकल जाये तो आप उसे क्षमा कर दें। मैं सिर झुकाकर आपका अभिवादन करता हूं।’

  स्वान के मुख से यह वचन सुनकर श्री राम थोड़ा अधीर हो कर गम्भीर वाणी में स्वान से बोले- “हे सारमेय ! शीघ्र निडर होकर बोलो- तुम क्या चाहते हो।”

  कुत्ता बोला-‘हे राजन ! धर्म से ही राज्य की प्राप्ति होती है। धर्म से ही प्रजा का पालन होता है और धर्म से ही राजा प्रजावत्सल और शरणागत वत्सल बनता है। राजा प्रजा के समस्त भय को दूर करता है। इन सारी बातों को ध्यान में रख कर मेरा जो कार्य है, उसे आप समझ ले। सर्वार्थ सिद्ध नाम का एक ब्राह्मण है। वह भिक्षा वृत्ति करता है। उसने बिना अपराध मेरा सिर फोड़ डाला है।’

  कुत्ते की बात सुनकर राजा राम ने तत्काल उस ब्राह्मण को बुलाने के लिए राजकर्मचारी को भेजा, और वो तुरंत ही ब्राम्हण को बुला लाया। ब्राह्मण राजा राम की राज सभा में उपस्थित हुआ। राजा राम के पास पहुंचकर ब्राह्मण बोला- “राजन ! आपने मुझे किस कारण वश बुलाया है ?

  गंभीर वाणी में राम ने ब्राह्मण से पूछा- “ब्राह्मण देव ! आपने इस कुत्ते को क्यों मारा? जान पड़ता है कि आपने क्रोधावेश में ही ऐसा पाप किया है। क्रोध मानव को धर्म रहित बना देता है।”

  श्री राम की धर्म परक बात सुनकर वह ब्राह्मण बोला- “हे राम ! यह सत्य है कि मैंने क्रोधावेश में ही इस कुत्ते को मारा है। मै उस समय भिक्षा के लिए भ्रमण कर रहा था । यह कुत्ता बीच मार्ग में बैठा था। सुबह से भिक्षा उस समय तक नहीं मिली थी अतः मैं कुछ अन्यमनस्क (खिन्न) था। मुझे भूख भी लगी थी। मैंने इसे मार्ग में से हट जाने को कहा किंतु यह मार्ग से नहीं हटा।

 मैं भूखा तो था ही, क्रोध आ गया मुझे और उसी क्रोध में, मैं इसे मार बैठा। मैं अवश्य दोषी हूं और इसे स्वीकार करता हूँ। इस अपराध का आप जो भी दंड देंगे वो मुझे स्वीकार्य होगा। आपसे दंड पाने के बाद मुझे नर्कगामी होने का भय नहीं रहेगा।”

 ब्राह्मण की बात सुनकर राजा राम अपने सभी सभासदों से पूछने लगे- “इस ब्राह्मण को क्या दंड दिया जा सकता है?’ उस समय राम की सभा में कुलगुरु वशिष्ठ ऋषि, भृगु ऋषि, कुत्स, अङ्गिरा आदि श्रेष्ठ विद्वान उपस्थित थे। सबने अपना अपना निर्णय सुनाया।

 लगभग सभी का निर्णय यही था कि “राजन! ब्राह्मण अवध्य होता है किंतु आप यह भी जान लें कि राजा शासक तो होता ही है, सबका शिक्षक भी होता है। आप स्वयं परमात्मा के अंश हैं, शरणागत वत्सल है।” उस दिव्य सभा के सभासदों के मनोभाव को जानकर वो कुत्ता अचानक बीच में ही बोल उठा ‘हे राजन ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा करके आप मेरा मनोरथ सिद्ध करें।

  आप ने पहले ही मुझे आश्वस्त कर दिया है। हे प्रभु ! आप इस ब्राह्मण को कालिंजर के मठ का महंत बना दें।’ कुत्ते के मुख से ऐसी बात सुनकर राम मुस्कुराए। लेकिन बाकी सभा चकित थी। दंड के रूप में कालिंजर का मठाधीश बनाए जाने के अनुरोध का रहस्य वहां कोई नहीं जान सका।

 सभासदों के आश्चर्य के बीच अकेले राम के चेहरे पर मुस्कुराहट थी। कुत्ते की मांग को पूरा कर दिया गया। ब्राह्मण भी इस ‘दंड’ से प्रसन्न हुआ। नित्य की भिक्षावृत्ति से उसे छुटकारा मिला। ब्राह्मण को हाथी पर बैठा कर विदाई दी गई; क्योंकि उस काल की परंपरा में यही नियम था। ब्राह्मण की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा।

  वशिष्ठ आदि मुनि गंभीर हो कर बैठे थे। कुछ सभासद कुत्ते की मांग का परिहास उड़ा रहे थे। वे मुस्कराते हुए अपने राजा राम से पूछे –“महाराज ! ब्राह्मण को तो दंड के बदले वरदान मिल गया, ये कैसा न्याय था।

  श्री राम ने विनोदपूर्ण स्वर में कहा –“ प्रतीत होता है कि आप लोगों को यह रहस्य समझ में आया नहीं। अब आप लोग इस ज्ञानी श्वान से ही इस रहस्य को समझिये।”

  राम ने स्वयं उस कुत्ते से कालिंजर की महंती का रहस्य समझाने को कहा। कुत्ते ने बताना शुरू किया- "हे राजा राम ! पूर्व जन्म में मैं उसी कालिंजर के मठ में मठाधीश था। मैं मठ में स्वादिष्ट और सुगन्धित पदार्थ खाता और दूसरों को भी खिलाता था। मैं नित्य देवों का पूजन भी करता था। अपने अधीनस्थ जनों का पालन भी करता था। मैं समस्त कार्य में धर्म और नीति को महत्व भी देता था। इतना करने पर भी मुझे कुत्ते की योनि में जन्म लेना पड़ा।

  लेकिन, उन अच्छे आचरणों के कारण मेरे पूर्व जन्म का ज्ञान मुझे बना रहा। कुत्ता कहता ही गया- ‘हे महाराज! ब्राहमण तो क्षमाशील, जितेन्द्रिय और दयालू होते हैं किन्तु यह ब्राह्मण तो अत्यंत क्रोधी है। धर्म शून्य, अहितकर, हिंसक स्वभाव का और मुर्ख भी प्रतीत होता है।

  वहां का महंत बनकर तो ये अपने माता तथा पिता के कुलो को भी नर्क में ले जा सकता है। हे राजन ! चाहे कैसी भी स्थिति क्यों ना आ जाए, ज्ञानी मनुष्य को किसी भी स्थान की महंती स्वीकार नहीं करना चाहिए ! हे प्रभु ! जिसको बंधु- बान्धवों सहित नर्क में भेजना हो, उसे देव, गौ और ब्राह्मण के अधिष्ठान का महंत बना देना चाहिए।

  हे सर्वज्ञ ! जो देव, बालक, स्त्री तथा ब्राह्मण के लिए अर्पित धन को स्वयं भोगता है, वह निश्चय ही नर्क में जाता है या नर्कतुल्य कष्ट भोगता है।’ कुत्ते की बात सुनकर राजा राम गदगद हो गए और कुछ विस्मित भी हुए लेकिन सारी सभा स्तब्ध थी। इस रहस्य का उद्घाटन करने के बाद वह कुत्ता जहां से आया था, वहीँ चला गया। कुछ समय पहले कुत्ते के न्याय का परिहास करने वाले सभासद अब मौन थे।

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