सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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    कितना ही धन कमा लो कितना ही भोग भोगो, कैसा ही शरीर प्राप्त कर लो, सब-का-सब छूटने वाला है। इसमें कोई शंका है क्या? 

  फिर इनके के लिए उद्योग करते हैं और इनके मिलने पर बड़े राजी होते हैं, कितनी मूर्खता है! परमात्मा से हम अपनी तरफ से विमुख हुए हैं इसीलिए वे नहीं मिल रहे हैं।

 आप केवल भगवान् को अपना मान लें कि भगवान् ही हमारे हैं और यह वस्तुएँ हमारी नहीं हैं। इतनी ही तो बात है, कठिन नहीं है। 

 जब तक आप पक्का विचार नहीं करते, तब तक बड़ा कठिन है। पक्का विचार करने पर कोई कठिन नहीं है। स्वीकार कर लें कि दुःख, संताप, जलन, अपमान, निंदा, रोग, मृत्यु कुछ भी आ जाए, हम तो भगवान् की तरफ ही चलेंगे। फिर हमें कोई नहीं हटा सकता।

गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत्|

प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥

  परमात्मा से ही यह जगत और जगत का कण-कण पैदा हुआ है। ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ भी नहीं, जो परमात्मा के अलावा हो। इसलिए भगवान कह रहे हैं कि सब प्राणियों की परम गति मैं ही हूं। सबका लालन-पालन करने वाला, सबका प्रभु और सबका साक्षी भी मैं ही हूं।

सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो

मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।

वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो

वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥ 

चर और अचर कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है ? जो मेरे से रहित हो अर्थात् चराचर सब प्राणी मेरे ही स्वरूप हैं।,इसी प्रकार इस पन्द्रहवें अध्याय में भी अपनी विभूतियों के वर्णनका उपसंहार करते हुए भगवान् कहते हैं

 "सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टः"

  मैं सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थित हूँ। तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण प्राणी ? पदार्थ परमात्मा की सत्ता से ही सत्तावान् हो रहे हैं। परमात्मा से अलग किसी की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। प्रकाश के अभाव(अन्धकार) में कोई वस्तु दिखायी नहीं देती। आँखों से किसी वस्तु को देखने पर पहले प्रकाश दीखता है ? उसके बाद वस्तु दीखती है अर्थात् हरेक वस्तु प्रकाश के अन्तर्गत ही दीखती है किन्तु हमारी दृष्टि प्रकाश पर न जाकर प्रकाशित होने वाली वस्तु पर जाती है। इसी प्रकार यावन्मात्र वस्तु ? क्रिया ? भाव ? आदिका ज्ञान एक विलक्षण और अलुप्त प्रकाश -- ज्ञान के अन्तर्गत होता है ? जो सबका प्रकाशक और आधार है। प्रत्येक वस्तु से पहले ज्ञान (स्वयंप्रकाश परमात्मतत्त्व) रहता है। अतः संसार में परमात्मा को व्याप्त कहने पर भी वस्तुतः संसार बाद में है और उसका अधिष्ठान परमात्मतत्त्व पहले है अर्थात् पहले परमात्मतत्त्व दीखता है ? बाद में संसार। परन्तु संसार में राग होने के के कारण मनुष्य की दृष्टि उसके प्रकाशक (परमात्मतत्त्व) पर नहीं जाती। मेरे से बढ़कर इस जगत्का दूसरा कोई भी महान् कारण नहीं है।

"सदसच्चाहमर्जुन"

 सत् और असत् -- सब कुछ मैं ही हूँ।,

"अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते"

 मैं ही सबकी उत्पत्तिका कारण हूँ और मेरेसे ही सब जगत् चेष्टा करता है।,

"न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्"

   सब मुझमें ही निवास करते हैं और मेरी ही शरण लेने योग्य है। सबको प्रेम करने वाला, सबकी उत्पत्ति और प्रलय का कारण तथा सबका आधार मैं ही हूं। निधान सभी जीवात्मा मुझमें ही सूक्ष्म रूप से वास करती हैं और कभी भी नाश न होने वाला बीज अर्थात सबका आत्मा में ही हूं।

  जब सब कुछ ईश्वर का ही है, मै भी तो उसका ही हूँ तो चिंता किस बात की।

ता पर मैं रघुबीर दोहाई।

जानउँ नहिं कछु भजन उपाई

सेवक सुत पति मातु भरोसें।

रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ॥ 

  उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥

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