सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती । सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीती । 
सहज कृपन सन सुंदर नीती ॥

 मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कंजूस से सुंदर नीति, ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, की उम्मीद नहीं करनी चाहिए ।

ममता रत सन ग्यान कहानी ।

अति लोभी सन बिरति बखानी ॥

क्रोधिहि सम कामिहि हरि कथा। 

ऊसर बीज बएँ फल जथा ॥

 अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शांति की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है।

  आज समाज में समाज के ही सेवक नफ़रत फैलाने का कार्य करते हैं, हम बात कर रहे हैं बिहार के शिक्षा मंत्री की, जो मानस को ही धर्म जाति बिरोधी बता दिया है। 

  ये मान्यवर प्रोफेसर भी हैं सब सार्वजनिक मंच पर यह हाल है तो बच्चों को शिक्षा के नाम पर जहर ही उगलते होंगे,। आप खुद सोचिए क्या शिक्षा देते होंगे, अपने बच्चों को।

एक तो लौकी दूसरे तितलौकी तीसरे चढ़ी नीम की डार ।

एक तो प्रोफेसर दूसरे शिक्षा मंत्री, ये क्या शिक्षा का विकास करेंगे,, समाज कहा जायेगा, खैर मान्यवर की कुर्सी सही सलामत रहे, क्या यही विवाद दूसरे समुदाय या संप्रदाय के खिलाफ दिए होते तो शायद आज देश में राजनीतिक तूफान आया होता, वैसे भी हम सनातनी लोग हमेशा की तरह आज भी आंख बंद करके बैठे हैं।

  अब मंत्री जी के बयान पर ध्यान देते हैं, शायद उनको भी समझ में आ जाय।  हां एक करवद्व प्रार्थना जरूर करेंगे कि मान्यवर एक बार मानस एवं गीता का पूरा अध्ययन आप कर लेते तो शायद ऐसा बयान नहीं देते।

जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी

 समाज तोड़क लोग, गाहे बगाहे ऐसे बयान देने लगते हैं, जिनका न कोई सिर होता है न पैर । 

 मान्यवर कहते हैं कि तुलसी दास जी के लिखे ग्रन्थ श्री राम चरित्र मानस मे शुद्रों को नीचा दिखाया गया है। और वो कई चौपाइयों को विवाद मे घसीट कर ये जताना चाहते हैं वो जाति पोषक थे । 

 अधम जाति मै विद्या पाएँ।

 भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ॥ 

   ये चौपाई, काक भुसुंडि जी कह रहे कि जब गुरु जी ने शिव जी को हरि का सेवक कहा तो मेरा हृदय जल उठा। जैसे कोई नीच अयोग्य श्रेणि का व्यक्ति विद्या ( गुण ) पाकर ऐसा हो जाता है, जैसे दूध पिलाने से साँप। 

  मै उस मंत्री या उस जैसी सोच रखने वाले हर एक से पूछना चाहता हूँ कि इसमें वर्ण ( जाति) पर प्रहार कैसे हो गया? 

  तुलसी जी ने तो जाति के लिये जाति शब्द का प्रयोग ही नहीं किया बल्कि वर्ण शब्द का प्रयोग किया, जाति शब्द को प्रकार या तरह के लिए प्रयोग किया। या श्रेणि के लिए प्रयोग किया। 

   जनक दरबार मे भी जब बड़ों छोटों मे भेद करना था तो वहाँ लिखा। 

  उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥ 

  या सीधा सीधा नाउ, भाट, कोल, भील, कुम्हार आदि का नाम लिया। 

  ऊपर अधम जाति वाली चौपाई वर्ण के लिए कही ही नहीं गई। क्योंकि खुद काग भुसुंडि जी इसकी व्याख्या खुद कर रहे हैं, इसी प्रसंग मे। वो कह रहे हैं कि मै शूद्र शरीर मे था और

सिव सेवक मन क्रम अरु बानी।

  आन देव निंदक अभिमानी॥ 

धन मद मत्त परम वाचाला । 

उग्र बुद्धि उर दंभ बिसाला ॥ 

अर्थात मै मन वचन और कर्म से शिव भगवान का सेवक रहा, लेकिन अन्य सभी देवों की अभिमान वश सदा निंदा करता था। 

     मै धन के मद से मतवाला, बहुत ही बक बक करने वाला और उग्र बुद्धि वाला था। मेरे हृदय मे बड़ा भारी दम्भ था। 

  निष्कर्ष, ये निकल कर आता है कि जो इन,काग भुसुंडि जी के बताये अवगुणों से युक्त हो, चाहे शिव भक्त भी हो तो भी निम्न स्तर का ही कहा जायेगा। ऐसे अयोग्य व्यक्ति को ज्ञान बताना, साँप को दूध पिलाने जैसा ही है। 

  रावण भी तो शिव भक्त था, लेकिन बाकी सब दुर्गुण उसमें मौजूद थे, तो जब उस ब्राह्मण कुलीय रावण को निम्न कहा गया, नीच कहा गया, तो फिर अन्य वर्णों की बात करना बेमानी ही है। 

  आज कल के भी कुछ बुद्धि जीवी, जो केवल ग्रन्थ का एक दो शब्द पढ़ कर नतीजा निकाल कर बैठ जाते हैं, अल्प ज्ञानी हैं वो निम्न स्तर के ही कहे जायेंगे। मंत्री या राजा बन जाने से वो धरती की धुरी नहीं हो जाते। 

   एक तरफ तो ये नीच बुद्धि, वाले लोग ये कहते नहीं थकते कि शुद्रों को पूजा का अधिकार था ही नही, वो मंदिर नहीं जा सकते थे, वो दीन हीन अवस्था मे रहते थे, दब्बू का जीवन गुजारते थे, आदि आदि।

   लेकिन यहाँ तो सब उल्टा हुआ पड़ा है, वह पूजा भी कर रहा है, अत्यन्त धनवान भी है, हरि के सेवकों की प्रताड़ना आदि भी कर रहा है, अत्यन्त अभिमानी भी है, जबकि बाबा तुलसी जी मे लिख रहे हैं। 

बरसहिं जलद भूमि नीयराएँ।

 जथा नवहिं बुध विद्या पाएँ॥ 

 अर्थात बादल पानी से भर कर या पानी पाकर इतने झुक जाते हैं और धरती पर बरसते हैं जैसे बुद्धि मान व्यक्ति विद्या पाकर नम्र हो जाता है यानि झुक जाता है। 

  साफ तो दिख रहा है कि उस जन्म मे काग भुसुंडि जी निम्न श्रेणि के जीव थे नकि अधम जाति यानि निम्न वर्ण के।

   मानस मे अधम शब्द भी कई जगह विनय के रूप मे प्रयुक्त किया गया है, जैसे हनुमान जी खुद अपने को अधम कह रहे हैं, पढ़िये, खास कर उस मंत्री की सोच के लोग। 

अस मै अधम सखा सुनु, मोउ पर रघुबीर।

 कीन्ही कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर॥ 

   इससे भी बढ़ कर वो हनुमान जी जिनको बाबा तुलसी ने जगह जगह विप्र कहा वो अपने मुख से खुद को कह रहे हैं

कहहु कवन मै परम कुलीना।

कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥ 

यानि अपने को निम्न से भी निम्न तर बता रहे हैं। मानस एक काव्य ग्रन्थ है, कवि इसमें ऐसे ऐसे शब्द भर देता है कि जिनके अर्थ विभिन्न होते हैं। आप ये आरोप कर ही नहीं सकते कि ये अर्थ क्यों लिखा? 

  मेरी आपसे सविनय प्रार्थना है कि विवाद करने की जगह इस ग्रन्थ को पहले अच्छी तरह से समझें तब उंगली उठाएं। 

   जाति का भूत तो आप लोग ही छोड़ना नहीं चाहते और दोष बाबा तुलसी और मानस ग्रन्थ को देने लगते हो। आप अगर इतने ही वर्ण व्यवस्था के खिलाफ हो तो कागजों मे अपनी जाति लिखना बन्द क्यों नहीं कर देते, 

  अरे बिहार सरकार, एक कदम आगे बढ़ कर अब जाति जन गणना कराने पर तुली है, और खुद ही सवाल खड़े कर रहे हो। ऐसे काम नहीं चलने वाला। खैर भगवान सबको सद्वुद्वि दें।

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