धन्य जनमु जगतीतल तासू।पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू॥ चारि पदारथ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 धन्य जनमु जगतीतल तासू । पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू ॥ 
  चारि पदारथ करतल ताकें । प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें॥ 

  उस का जन्म धन्य है इस धरा पर, जिसके चरित्र को सुन कर पिता को आनंद हो, उसके हाथ में चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) है जिसे माता पिता प्राण के समान प्रिय है।

पित्रोश्च पूजनम कृत्वा प्रक्रान्तिम च करोति य:।
 तस्य   वै  पृथिवीजन्यम  फलं भवति निश्चितम्॥

  पितरों (माता पिता ) की पूजा करने कर उनकी जो परिक्रमा करता है उसको पृथिवी की परिक्रमा करने का फल प्राप्त होता है।

   यह संवाद गणेश जी और भगवान के बीच का है जब पृथिवी परिक्रमा की प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था उस समय कार्तिकेय तो पृथिवी परिक्रमा पर चले गये परन्तु गणेश जी ने घर में ही माता पिता की परिक्रमा कर ली और वही पुण्य अर्जित किया।

अपि स्वर्णमयी लङ्का न मे लक्ष्मण रोचते ।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥

    हे लक्ष्मण ! ये सोने की लंका तो क्या, जननी और जन्म भूमि से प्रिय तो मुझे स्वर्ग भी नहीं है।

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।
 ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥

     देवता, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानी का पूजन, पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा ये शरीर के तप कहे जाते है। 

यहां माता पिता को देवता एवं गुरु की श्रेणी में रखा जाता है -

सुनु  जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी॥
तनय   मातु   पितु  तोषनिहारा । दुर्लभ  जननि सकल संसारा॥

 हे माता सुनो वो पुत्र बडभागी है तो माता पिता की आज्ञा का पालन करता है उस कारण से उन्हें संतुष्ट करता है और ऐसा पुत्र, हे माता सारे संसार में दुर्लभ है।

वर्तमान समय में जब वृद्धाश्रमों की संख्या दिन प्रतिदिन बढती जा रही है।

   एक बार हम मुम्बई में एक वृद्धाश्रम में गए थे तो। वहां का दृश्य कुछ अजीब ही था। काफी बुजुर्ग महिला पुरुष वहीं रोज की दिनचर्या, उनकी आंखों में एक अजीब सी उदासी, जैसे किसी के इंतजार कर रही हों, एक अजीब विवशता की झलक दिखाई देती है।

  तो हमने वहां के प्रबंधक से पूछा कि एक आदमी की महीने की फीस क्या होती है आप के यहां, तो दस हजार प्रति व्यक्ति हमें बताया गया, यह वाक्या करीब आठ से दस साल पहले का है।

  उस समय हम खुद अपनी सैलरी से दस हजार महीने की बचत करना हमारे लिए काफी मुश्किल होता था।

मैंने जिज्ञासा बस पूछ लिया कि कि इनकी फीस देने वाले इनके बच्चे कभी यहां आते हैं क्या ? जबाव मिला कि इन के बच्चे ज्यादातर विदेशों में ही रहते हैं। शायद कभी आते भी हैं, नहीं भी।

 आज यह एक प्रकार से सोच का विषय बन चुका है की वर्तमान पीढ़ी क्यों अपने बड़े बुजुर्ग का आदर नही करती है कई बार यह स्थिति और भी दयनीय हो जाती है जब उनकी संतान विवाह करती है और घर की बहु उन की सेवा करने के स्थान पर अत्याचार करती है युवाओ में भी बड़े बुजुर्ग के प्रति अशब्दों के प्रयोग की प्रवृति पाई जाती है।

 युवा वर्ग अपने आजीविका को कमाने के लिए एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाते है और फिर वही पर रहने लगते है और साथ ही साथ उनका संपर्क अपने माता पिता से टूट भी जाता है और फिर कोई रूचि नहीं दिखाते है।

   अजीब विडम्बना है -

मातृ देवो भव। पितृ देवो भव। आचार्य देवो भव। अतिथि देवो भव।

  लेकिन आज के परिवेश में पहले माता के रिश्ते गुस्सा प्यार और समझ पर बनते थे आज कल केवल स्वार्थ घमंड और इर्ष्या पर बनते है आज यदि पुत्र स्वाभाविक अच्छा है तो पिता उसे नहीं समझता पिता अच्छे है तो पुत्र उसका फायदा उठाता है आज और अब सिर्फ स्वार्थ के रिश्ते है ।

पितुरप्यधिका   माता  गर्भधारणपोषणात् ।
अतो हि त्रिषु लोकेषु नास्ति मातृसमो गुरुः॥

   गर्भ को धारण करने और पालनपोषण करने के कारण माता का स्थान पिता से भी बढकर है। इसलिए तीनों लोकों में माता के समान कोई गुरु नहीं अर्थात् माता परमगुरु है!

तुलसी’ काया खेत है, मनसा भयौ किसान।
पाप-पुन्य दोउ बीज हैं, बुवै सो लुनै निदान॥

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