अथर्ववेद का चिकित्साशास्त्र : एक अध्ययन

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 अथर्ववेद का चिकित्साशास्त्र : एक अध्ययन

Medical science in the Atharva Veda: A Study
(सूरज कृष्ण शास्त्री)

Medical science in atharvveda
Atharvveda's medical science


   परमेश्वर और प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए नीरोग शरीर और प्रसन्न चित्त के साथ कर्म का पालन करते हुए दीर्घकाल तक सुख से जीने के विज्ञान का नाम आयुर्वेद है। मनुष्य का शरीर आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी इन पाँच तत्त्वों से बना है, और ये ही पाँच तत्त्व इसका पालनपोषण करने, इसे जीवित रखने, और दीर्घ आयु प्राप्त कराने में सहायक होते हैं। जब मनुष्य इनका दुरुपयोग करता है, तो अथर्ववेद के अनुसार वह पाप करता है। इस पाप के कारण ही वह विविध रोगों से ग्रस्त हो जाता है। पुनः स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिये उसे फिर से इन्वों की शरण में आना पड़ता है। वायु, अग्नि और अग्नि के महान् पिण्ड सूर्य, जल और पृथिवी तथा पृथिवी से उत्पन्न होने वाली ओषाधियों, अन्नों और खनिज पदार्थों का शास्त्रीय नियमों के अनुसार सेवन और उपयोग करना, ईश्वरस्तुति प्रार्थना, उपासना, स्वाध्याय, सत्य, अहिंसा, प्रेम, सत्संग, आसन, प्राणायाम, भ्रमण, स्नान, ध्यान, यज्ञ, हवन आदि ये सब स्वस्थ, सुखी और दीर्थ जीवन जीने के साधन है, और इसलिये आयुर्वेद के अन्तर्गत आते हैं। अथर्ववेद के सूक्तों और मन्त्रों में इन्हीं तथ्यों का प्रचुर वर्णन है। आयुर्वेद कोई पैथी (pathy) अर्थात् दवाएँ बनाने और रोगियों का इलाज करने की पद्धति नहीं है। यह तो सुखी, स्वस्थ और दीर्घ जीवन जीने की पद्धति है। ओषधियों और वनस्पतियों से औषध तैयार करना और धातुओं से भस्म आदि बनाना तो इसका एक छोटा सा विभाग है, और अथर्ववेद में तो इसका बहुत विस्तार से वर्णन भी नहीं हुआ है।

    मनुष्य स्वस्थ, सुखी और दीर्घ जीवन की कामना करता है। वह वेदमन्त्रों के द्वारा देवों से इसके लिये प्रार्थनाएँ भी करता है। हम सौ वर्ष तक जियें 'जीवेम शरदः शतम्' यह मन्त्रांश सामवेद को छोड़कर ऋग्वेद आदि की सभी संहिताओं, तैत्तिरीयारण्यक और चार गृह्यसूत्रों में आया है। 'मुझे सौ वर्ष की आयु वाला कर दो, मेरी आयु को लम्बी कर दो 'शतायुषं कृणुत दीर्घम् आयुः' यह मन्त्रांश भी कई ब्राह्मणग्रन्थों और गृह्यसूत्रों में मिलता है। '

शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्तान् छतम् उ वसन्तान्।' 

      ("सौ शरत्कालों, सौ हेमन्तों और सौ वसन्तों तक वृद्धि को प्राप्त होता हुआ जीवित रह")

                                                              - अथर्ववेद ३.११.४, ७.५५(५३).२२०.९६.९) आदि। ऋ. -१०.१६१.'४) 

सौ तक जीवें शरत्कालों तक लम्बे चलने वालों तक, छुपा देवें वे मृत्यु को पर्वत से। (शतं जीवन्त (ऋ. जीवन्तु शरदः पुरुचीर् अन्तर मृत्युं दधतां पर्वतन अ. (१२. २.२३), ऋ. (१०.१८.४) वासं. (३५.१५) आदि।) अथर्ववेद के काण्ड १९, सूक्त ६७ में आठ मन्त्र हैं जिन में प्रार्थना की गई है- 'हम सौ वर्षों तक देखते रहें, सौ वर्षों तक जीते रहें, सौ वर्षों तक बोध प्राप्त करते रहें, सौ वर्षों तक उन्नति करते रहें, सौ वर्षों तक पुष्ट होते रहें, सौ वर्षों तक बने रहें, सौ वर्षों तक निर्माण करते रहें। सौ वर्षों से अधिक भी इसी प्रकार जीते रहें।"(पश्येम शरदः शतम् ।। १।। जीवेम शरदः शतम्।। २।। बुध्येम शरदः शतम् ।। ३ ।। रोहेम शरदः शतम् ॥ ७॥ भूयसी शरदः शतात् ।। ८ ।। अ. १९.६७ । तु. 'पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतथं शृणुयाम शरदः शतं प्र ब्रवाम शरदः शतम्  अदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।' वा.सं. ३६.२४ ।) वाजसनेयिसंहिता के अन्तिम अध्याय के दूसरे मन्त्र में कहा है- 'यहाँ कर्म करता हुआ सौ वर्षों तक जीने की कामना करे।"('कुर्वनेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत समाः।' वा.सं. ४०.२।  )। अथर्ववेद के एक मन्त्र में प्रार्थना की गई है- 'हे अग्ने! तू जीवों की आयु को बढ़ा।(अ. १२.२.४५ ) ।अथर्ववेद के काण्ड १९, सूक्त ७० में पाँच मन्त्र है। इसका देवता जल है। इसके प्रत्येक मन्त्र के अन्त में कहा गया है मैं जीता रहूँ, पूर्ण आयु जीता रहूँ।"(अ. १९.७०) । इन कामनाओं और प्रार्थनाओं से पता चलता है कि आर्यों में स्वस्थ और सुखी जीवन जीने की कितनी प्रबल ललक थी। ऐसा उत्तम जीवन जीने के उपाय सभी वेदों में उपलब्ध हैं। परन्तु अथर्ववेद में ये प्रचुरता से मिलते हैं। इसीलिये आयुर्वेद को इसका मुख्य विषय माना गया है।

  आयुर्वेद अथर्ववेद का मुख्य विषय है। अथर्ववेद के ही एक मन्त्र में अथर्ववेद के लिये 'भेषजा' नाम का उल्लेख हुआ है।'(ऋचः सामानि भेषजा यजूंषि ।। अ. ११.७.२४) ।  गोपथब्राह्मण में भी अथर्ववेद के मन्त्रों को भेषज बताया गया है और कहा गया है कि जो भेषज है वह अमृत है और जो अमृत है वह ब्रह्म है। अर्थात् भेषज ही ब्रह्म अथवा ब्रह्मवेद है।(ये ऽथर्वाणस् तद् भेषजं यद् भेषजं तद् अमृतम्, यद् अमृतं तद् ब्रह्म।-गोपथ ब्राह्मण - १.३.४)   । ऐतरेयब्राह्मण में अथर्ववेद के ऋत्विक् ब्रह्मा को (जीवन) यज्ञ का भिषक् (वैद्य) कहा गया है'।(यज्ञस्य हैष भिषग् यद् ब्रह्मा ऐ.ब्रा. ५.३४)। सुश्रुतसंहिता में आयुर्वेद को अथर्ववेद का आठ अंगों वाला उपाङ्ग कहा गया है।'(आयुर्वेदम् अष्टाङ्गम् उपाङ्गम् अथर्ववेदस्य सुश्रुतसूत्र. १.६ । ५) । चरकसंहिता के अनुसार अथर्ववेद में आठ विषयों के मन्त्र हैं- दान स्वस्त्ययन, बलि, मङ्गल, होम, नियम, प्रायश्चित्त और उपवास।(वेदो हि अथर्ववेदो दानस्वस्त्ययन - चरकसूत्र. ३०.२१) ये विषय आयुर्वेद के हैं।

   उत्तम जीवनपद्धति से जीवन जीते हुए मनुष्य को रोगग्रस्त होने की सम्भावनाएँ बहुत कम रह जाती है। तथापि यदि वह रोगग्रस्त हो जाए तो अथर्ववेद में रोगमुक्त होने के लिये अनेक चिकित्साओं और उपायों का वर्णन है, जैसे प्राकृतिक चिकित्सा, ओषधिचिकित्सा, मनोवैज्ञानिक चिकित्सा, सत्यचिकित्सा, मणिबन्धन आदि। वस्तुतः आयुर्वेद चिकित्सापद्धति में दुआ (मन्त्रशक्ति), दवा और दया इन सबका समान योग है। रोगनिवारण में ईश्वर से प्रार्थना, जड़ी-बूटियों और ओषधियों का सेवन और बड़ों के आशीर्वाद एवं दया से अवश्य सहायता मिलती है।

(क). प्राकृतिक चिकित्सा  - 

   सूर्य, वायु, जल, अग्नि, मिट्टी आदि प्रकृति की अमूल्य उपदाएँ हैं। इनके सेवन से भी अनेक रोग दूर हो जाते हैं। एक मन्त्र में कहा है 'अन्तरिक्ष में बहने वाला वायु तुझे पवित्र करे। जल तुझ पर अमृत बरसाएँ। सूर्य तेरे शरीर को सुखदायक ताप प्रदान करे। मृत्यु भी तेरी रक्षा करेगा। तू नहीं मरेगा।(तुभ्यं वातः पवतां मातरिश्वा तुभ्यं वर्षन्त्वमृतान्यापः । सूर्यस् तन्वे शं तपाति त्वां मृत्युर् दयतां मा प्र मेष्ठाः ।। अ. ८.१.५) 

१. सूर्य-रश्मि-चिकित्सा - 

  सूर्य की किरणें शरीर को सुख देने वाली, शरीर को शक्ति प्रदान करके वृद्धि प्रदान करने वाली और रोगों को नष्ट करने वाली हैं। इसलिये अथर्ववेद काण्ड ८ सूक्त १ में कहा गया है- सूर्य के प्रकाश में रहना अमृत के लोक में रहने के समान है। इससे प्राणशक्ति की वृद्धि होती है।"(इहायम् अस्तु पुरुषः सहासुना सूर्यस्य भागे अमृतस्य लोके । अ. ८.१.१) ।   इसलिये हे मनुष्य तू इस लोक में अग्नि और सूर्य के दर्शन से स्वयं को विच्छिन्न मत कर। (मा च्छित्था अस्मालू लोकाद् अग्नेः सूर्यस्य संदृशः । अ. ८.१.४)। उदित होते हुए सूर्य की रश्मियों का सेवन करने से सिर का रोग और अंगों की टूटन नष्ट हो जाती है(उद्यन्नादित्य रश्मिभिः शीर्ष्णो रोगम् अनीनशोऽङ्गभेदम् अशीशमः - 9.13(8).22) । सूर्य अदृष्ट क्रिमियों और रोगाणुओं को नष्ट कर देता है। सबको दीखने वाला, न दीखने वाले कृमियों को नष्ट कर डालने वाला, द्युलोक का वासी सूर्य पूर्व में उदयाचल से कृमिरूपी राक्षसों को नष्ट करता हुआ उदित होता है(उत् सूर्यो दिव एति पुरो रक्षांसि निजूर्वन् । आदित्यः पर्वतेभ्यो विश्वदृष्टो अदृष्टहा ।। अ. ६.५२.१) ।अथर्ववेद में एक स्थान पर सूर्यकिरणों से स्नान और लाल गौओं के बीच में रहने से हृदय के ताप और पीलिया रोग के निवारण की बात कही गई है(अनु सूर्यम् उद् अयतां हृद्द्योतो हरिमा च ते। गो रोहितस्य वर्णेण तेन त्वा परि दध्मसि ।। अ. १.२२.१)। एक मन्त्र में सूर्य से प्रार्थना की गई है कि 'इस मनुष्य को सिरदर्द से, खांसी से, प्रत्येक जोड़ में प्रविष्ट वेदना से और मेघ तथा वायु से उत्पन्न होने वाले रोगों से मुक्त कर दे और शरीर में जो शुष्कता आ गई है वह सूखे पेड़ों और पर्वतों में चली जाए(मुञ्च शीर्षक्त्या उत कास एनं परुष्परुर् आविवेशा यो अस्य । यो अभ्रजा वातजा यश् च शुष्मो वनस्पतीन् त्सचतां पर्वतांश् च ।। अ. १.१२.३)। अथर्ववेद में सूर्यरश्मियों के सेवन से रोगशमन के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है।

२. वायु-चिकित्सा -

   शारीरिक और मानसिक सुख तथा शान्ति के लिये शुद्ध वायु का सेवन अत्यन्त आवश्यक है। प्रदूषित वातावरण से अनेक रोग पैदा होते हैं। अथर्ववेद में वायु से भी सुख, शान्ति और नीरोगता की प्राप्ति के लिये अनेकशः प्रार्थनाएँ की गई हैं। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं 'अन्तरिक्ष में वर्तमान वायु तुझे शान्ति और आयु प्रदान करे(शं ते वातो अन्तरिक्षे वयो धात्। अ. २.१०.३) । 'वायु मुझे प्राण प्रदान करे(वायुः प्राणान् दधातु मे । अ. १९.४३.२)। निम्न मन्त्रों में सूर्य और वायु दोनों से धन, पुष्टि और आरोग्यता के लिये प्रार्थना की गई है। 'सूर्य और वायु मुझे धन और पुष्टि प्रदान करें। वे उत्तम बल और सुख को मेरे शरीर में भर दें। इस शरीर में नीरोगता स्थापित करें और रोग से मुक्त कर दें(रयिं मे पोषं सवितोत वायुस् तनू दक्षम् आ सुवतां सुशेवम् । अयक्ष्मतातिं मह इह धतं तौ नो मुञ्चतम् अंहसः ।। अ. ४.२५.५) ।  निम्न मन्त्र में वायु से प्रार्थना की गई है कि वह इस ओर रोगनिवारक औषध बनकर आए और रोगों को परे उड़ा ले जाए - 

आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद् रपः । त्वं हि विश्वभेषज देवानां दूत ईयसे ।। अ. ४.१३.३ ऋ. १०.१३७.३

(इस ओर, हे वायो !, बह तू, रोगनिवारक औषध बनकर, परे, हे वायो!, बहा ले जा तू, जो रोग है। तू निश्चय से है, सब रोगों का औषध,देवों का दूत (बनकर), बह रहा है तू ॥)


३. जल-चिकित्सा - 

   जल का भी हमारे जीवन में विशेष महत्त्व है। इसके बिना जीवन सम्भव ही नहीं है। जल को जीवन कहा गया है। वेदों में जल की महिमा का विशेष वर्णन है। निघण्टु में जल के १०१ नाम दिये गए हैं। इसे घृत, मधु, क्षीरम्, रेतः, जन्म (जीवन), अक्षरम्, तृप्तिः, रस:, पय:, भेषजम्, ओजः, क्षत्रम्, अन्नम्, हविः, अमृतम्, तेजः, जलाषम् आदि नामों से भी पुकारा गया है(निघण्टु -  उदकनामानि १.१२)। अथर्ववेद में इसे वैद्यों में सर्वोत्तम वैद्य बताया गया है(आपः ... भिषजां सुभिषक्तमाः। अ. ६.२४.२ भिषग्भ्यो भिषग्तरा आपः । अ. १९.२.३) । जल को सब रोगों का औषध बताया गया है। यह रोगों को दूर करने वाला है। इससे वंशानुगत रोग भी नष्ट हो जाते हैं(आप इद् वा उ भेषजी आप अमीवचातनीः। आयो विश्वस्य भेषजीस् तास् त्वा मुञ्चन्तु क्षेत्रियात्।। अ. ३७५॥ ४. अ. ६.२४.११ ५. अ. १.४.४)। जलों से प्रार्थना की गई है कि वे दिव्य जल मुझे हृदयदाह का निवारण करने वाला औषध प्रदान करें(अ. ६.२४.११)।

   जलों में अमृत का वास है। उनमें रोगनिवारक शक्ति है। जलों का श्रद्धापूर्वक सेवन करने से पुरुष अश्वों के समान बलवान् और स्त्रियों गौओं के समान बच्चों को दूध पिलाने वाली अर्थात् वन्ध्यात्व से मुक्त होकर सन्तान उत्पन्न करने वाली हो जाती हैं(अ.१.४.४)। जल संजीवनी हैं। उनमें जीवन प्रदान करने की शक्ति है। चाहे मनुष्य हों, चाहे पशु-पक्षी हों और चाहे पेड़-पौधे, जल सबको जीवन प्रदान करते हैं(अ- १.५.३)। इसलिये उनसे बार-बार जीवन प्रदान करने की प्रार्थना की गई है। जल मनुष्यों की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। जल के बिना मनुष्य का जीवन चल नहीं सकता। जल रोगनिवारक औषध का काम भी करते हैं। उनसे अनेक रोग दूर हो जाते है इसलिये वे वरणीय सुखों के स्वामी हैं(ईशान वार्याणां क्षयन्तीश् चर्षणीनाम् । अपो याचामि भेषजम् ॥ अ. १.५.४)। 

   सोम ओषधियों का राजा है। जिस प्रकार सोम उत्तम औषधि है और उसमें रोग निवारण के सब गुण हैं, उसी प्रकार जलों में भी रोगनिवारक शक्तियाँ हैं(अप्सु मे सोम अब्रवीद अन्तर विश्वानि भेषजा अ. १.६.२)। एक अन्य मन्त्र में जलों की स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना की गई है कि हे जलों- तुम औषध के गुणों वाले हो तुम मेरे शरीर की रक्षा करने वाले हो तुम अपने औषधीय गुणों से मेरे शरीर को भर दो, ताकि मैं स्वस्थ, सुखी जीवन जीता हुआ सौ वर्षों तक सूर्य के दर्शन करता रहूँ(आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे मम । ज्योक् च सूर्यं दृशे ॥ अ. १.६.३) ।) अथर्ववेद के ऋषियों की जलों के प्रति श्रद्धा और आदरभाव देखते ही बनता है। वे उनके गुणों और महिमा का गान करते हुए थकते नहीं। एक मन्त्र में कहा है कि मरुभूमि में मिलने वाले जल हमें सुखकर होवें, अनूपों के जल हमें सुखकर हों, कूप आदि खोदकर निकाले हुए जल हमें सुखकर हों, घड़ों में भरकर लाए गए जल हमारे लिये सुखकर हों और वर्षा के द्वारा बरसाए हुए जल हमें सुख देने वाले हों(शं न आपो धन्वन्याः शम् उ सन्त्वनूप्याः । शं नः खनित्रिमा आपः शम् उ याः कुम्भ आभृताः शिवा नः सन्तु वार्षिकीः । अ. १.६.४)। एक अन्य मन्त्र में जल की महिमा का इस प्रकार वर्णन किया गया है। जल तो पूर्वकाल से ही दिव्य ओषधियाँ हैं। वे पाप से प्राप्त होने वाले यक्ष्मारोग को रोगी के प्रत्येक अंग से निकालकर बाहर कर देते हैं(आपो अग्रं दिव्या ओषधयः । तास् ते यक्ष्मम् एनस्यम् अङ्गादङ्गाद् अनीनशन्॥ अ. ८.७.३)। जल कल्याण करने वाले हैं। जल रोगों को दूर करने वाले हैं। हे देवो वैद्यों की तरह रोगों को दूर करने वाले इन जलों को तुम हमें प्रदान करते रहो(ता अपः शिवा अपो ऽयक्ष्मकरणीर् अपः । यथैव तृप्यते मयस् तास् त आ दत्त भेषजीः ॥ अ. १९.२.५)।

 ४. अग्नि-चिकित्सा -

   सूर्य, वायु और जल की तरह अग्नि भी जीवों को सुख देने वाला और उनके रोगों को दूर करने वाला है। अथर्ववेद में अनेक सूक्तों और मन्त्रों में कहा गया है कि अग्नि चाहना देने वाले (यातुधानान्), खा जाने वाले रोगों (अत्त्रिणः) को और रक्त पीने वाले क्रिमियों (पिशाचान्) को रुलाता और नष्ट करता है।(विलपन्तु यातुधानाः अत्त्रिणो ये किमीदिनः । अ. १.७.३) इन यातुधान, अत्रि, पिशाच, राक्षस आदि शब्दों का प्रयोग किन्हीं मानुषी जातियों के लिये नहीं अपितु मनुष्यों के शरीरों पर प्रहार करने और उनके अन्दर प्रवेश करके मांस और रक्त को खाने-पीने वाले विषैले और रोग उत्पन्न करने वाले क्रिमियों, जीवाणुओं एवं मच्छर, मक्खी, पिस्सू, जूं आदि कीटाणुओं के लिये हुआ है। अग्नि अपने प्रकाश और ताप से इन क्रिमियों को और इनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले रोगों को नष्ट कर देता है।(उप प्रागाद् देवो अग्नी रक्षोहामीवचातनः अ. १.२८.१) । अथर्ववेद में अग्नि में किये जाने वाले यज्ञ को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। अथर्ववेद के एक मन्त्र में वेग और बल की प्राप्ति के लिये अग्नि में समिधाओं और घृत के साथ हवि देने की बात कही गई है(इध्मेनाग्न इच्छमानो घृतेन जुहोमि हव्यं तरसे बलाय अ. ३.१५.३) । एक मन्त्र में प्रार्थना की गई है। जिस अग्नि के द्वारा देवों ने अमरत्व को प्राप्त किया, जिसके द्वारा ओषधियों को मिठास से भरपूर किया, जिससे देवों ने सुख का आहरण किया, वह अग्नि देव मुझे कष्ट और रोग से मुक्त कर देवे।(येन देवा अमृतम् अन्वविन्दन् येनौषधीर् मधुमतीर् अकृण्वन् । येन देवा स्वर् आभरन् त्स नो मुञ्चत्वंहसः अ. ४.२३.६) ।  एक अन्य मन्त्र में कहा गया है - हे स्त्री से उत्पन्न होने वाले राजयक्ष्मा नामक रोग, जहाँ से तू उत्पन्न होता है, हम तेरे उस जन्म को जानते हैं। जिस यजमान के घर में हम अग्नि में हवि देते हैं, वहाँ तू कैसे मारा जाता है, यह भी हम जानते हैं(विद्य वै ते जायान्य जानं यतो जायान्य जायसे)। अथर्ववेद ६.८३ में गण्डमाला रोग के निवारण का विषय है। अन्तिम मन्त्र में कहा गया है (हे अग्ने ) तू प्रसन्न होता हुआ अपनी आहुति का आनन्द ले, जिसे मैं बड़े मनोयोग से तुझे प्रदान कर रहा हूँ (वीहि स्वाम् स्वम् आहुतिं जुषाये मनसा यद् इदं जुहोमि । अ. ६.८३.४) ।  एक मन्त्र में कहा गया है कि ओषधियों का राजा सोम भी यह घोषणा करता है कि जिस प्रकार जलों में सब रोगनिवारक शक्तियाँ हैं उसी प्रकार अग्नि सब सुखों को उत्पन्न करने वाला है(अप्सु मे सोमो अब्रवीद् अन्तर् विश्वानि भेषजा अग्निं च विश्वशंभुवम् अ. १.६.२) । अग्नि लम्बी आयु प्रदान करने वाला और वार्द्धक्य तक के जीवन का वरण कराने वाला है।(आयुर्दा अग्ने ... जरसं वृणानः । अ. २.१३.१ ) । हे अग्ने, तू रक्त को चूसने वाले जीवाणुओं और गूंजने वाले कीट-पतंगों को दूर भगाने वाला है, तू हमें इन्हें दूर भगाने का सामर्थ्य प्रदान कर (पिशाचक्षयणम् असि पिशाचचातनं मे दाः स्वाहा।। सदान्वाक्षयणम् असि सदान्वाचातनं मे दाः स्वाहा ।। अ. २.१८.४-५) ।  अग्नि के द्वारा दी हुई यह दीप्ति मुझे प्राप्त होवे भून डालने वाला भर्ग, यश, पराभिभावुक तेज, ओज, नित्य यौवन, बल, और ३३ प्रकार के वीर्य, इन सबको अग्नि मुझे प्रदान करे(इदं वर्चो अग्निना दत्तम् आगन् भर्गो यशः सह ओजो वयो बलम् । त्रयस्त्रिंशद् यानि च वीर्याणि तान्यग्निः प्र ददातु मे ॥ अ. १९.३७.१ ) । अग्नि के बिना हमारा जीवन असम्भव है। वस्तुतः अग्नि हमारे प्राणों का आधार है(अग्निः प्राणान् सं दधाति । अ. ३.३१.६) ।


५. पृथिवी चिकित्सा - 

  मनुष्य को सुखी, स्वस्थ और दीर्घ जीवन प्रदान कराने में पृथिवी का भी महान् योगदान है। वेदों में जहाँ वर्षा रूपी वीर्य को सींचने वाले द्यौ को पिता कहा गया है, वहीं वर्षा के जल को अपने अन्दर ग्रहण करके असंख्य ओषधियों, वनस्पतियों को जन्म देने वाली और अपने वक्षस्थल में स्थित खनिज पदार्थों से हमारा पालन-पोषण करने वाली पृथिवी को माता कहकर पुकारा गया है। अथर्ववेद में एक स्थान पर कहा गया है: पृथिवी दुधारू गौ है। अग्नि उसका बछड़ा है। जिस प्रकार बछड़े की सहायता से गऊ को पौसाकर उससे दूध और दूध से अनेक प्रकार के खाद्य पदार्थ प्राप्त किये जाते हैं, उसी प्रकार यज्ञाग्नि से हम पृथिवी को प्रसन्न करके अन्न, ऊर्जा, दीर्घ आयु, सन्तान, पुष्टि और धन आदि कामनाओं की पूर्ति करते हैं(पृथिवी धेनुम् तस्या अग्निर् वत्सः स मे अग्निना वत्सेनेषम् ऊर्ज करणं दुहाम्। आयुः प्रथमं प्रजां पोषं रयिं स्वाहा ।। अ. ४.३९.२) । पृथिवी को जीवन प्रदान करने वाली कहा गया है( पृथिवी जीरदानुः अ. ७.१९.२) । इसी लिये भूमि सूक्त में आया है 'भूमि माता है। मैं उसका पुत्र हूँ।"(माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः । अ. १२.१.१२) । जिसमें अन्न और खेतियाँ उत्पन्न होती है, जिसमें प्राणवान् और गतिमान् जीव चलते-फिरते हैं वह भूमि हमें गौओं में और अन्न में स्थापित करे(यस्याम् अन्नं कृष्टयः संबभूवुः या विभर्ति बहुधा प्राणद् एजत्। सा नो भूमिर् गोष्वप्यन्ने दधातु ।। अ. १२.१.४) ।  उसे सबका भरण-पोषण करने वाली धनों को धारण करने वाली छाती में सुवर्ण आदि खनिजों को धारण करने वाली और जगत् को विश्राम देने वाली कहा है। मनुष्य भूमि में उत्पन्न अन्न- भोजन आदि से जीवित रहते हैं। भूमि ही हमें प्राण और वार्धक्य वाली दीर्घ आयु प्रदान करती है(भूम्यां मनुष्या जीवन्ति स्वधयान्नेन मर्त्याः । सा नो भूमिः प्राणम् आयुर्दधातु जरदष्टिं मा पृथिवी वृणोतु। अ. १२.१.२२) । अन्त में पृथिवी से प्रार्थना की गई है - हे पृथिवी! हम तेरी गोद में नीरोग और व्याधिरहित होकर रहें। तेरे ऊपर उत्पन्न सब पदार्थ हमारे लिये होवें। हमारी आयु लम्बी हो। हम सदा जागरूक और सावधान रहते हुए तुझे अपने उपहार श्रद्धापूर्वक समर्पित करते रहें(उपस्थास् ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूताः । दीर्घ न आयुः प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहतः स्याम । अ. १२.१.६२)


६. विश्राम और गाढनिद्रा -

   उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घ आयु की प्राप्ति के लिये काम के साथ विश्राम और गाढ़ निद्रा भी अत्यन्त आवश्यक है। परमेश्वर ने काम के लिये दिन और विश्राम के लिये रात्रि का निर्माण किया है। एक मन्त्र में कहा है कि जगत् में जो भी जङ्गम और प्राणवान् है, वह रात्रि में विश्राम करता है (विश्वम् अस्यां नि विशते यद् एजति अ. १९.४७.२) । एक अन्य मन्त्र में कहा है- हे रात्रि! तुझमें हम वास करते है. इसमें हम निद्रा अर्थात् विश्राम करते हैं तू उस समय जागती रहती है और हमारी रक्षा करती रहती है(त्वयि रात्रि वसामसि स्वपिष्यामसि जागृहि । १९.४७.९) । एक अन्य मन्त्र में कामना की गई है - हे रात्रि माता! तू हमें उषा को सौंप दे, उषा हमें दिन को सौंप दे और दिन हमें पुनः तुझे सौंप दे(रात्रि मातर् उषसे नः परि देहि । उषा नो अहे परि ददात्वहस् तुभ्यं विभावरि ।। अ. १९.४८.२) । भाव यह है कि तुझ रात्रि में हम विश्राम करें। तत्पश्चात् उषाकाल में हम ध्यान, चिन्तन-मनन, प्रभुभजन और यज्ञहवन करें। दिन में श्रम से कर्म करें और इस प्रकार थके हुए हम रात्रि में पुनः गहरी नींद में विश्राम करें। भला स्वस्थ और सुखी जीवन एवं दीर्घ आयु प्राप्त करने का इससे बढ़कर और उपाय कौन सा हो सकता है।


ख. औषधीय-चिकित्सा -

 प्रकृति के नियमों का पालन करने, सादा जीवन और उच्च विचारों को अपनाने से मनुष्य रोगमुक्त होकर स्वस्थ, सुखी और दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता है, तथापि अनेक ऐसे बाह्य कारण हैं, जिनसे मनुष्य रोगी हो सकता है। उदाहरण के लिये चोट लगना, शस्त्र से किसी अंग का कट जाना, सर्प, बिच्छू आदि विषैले जीवों द्वारा उसा जाना, जीवाणुओं, क्रिमियों आदि द्वारा रोगग्रस्त किया जाना, रोगी मनुष्य या पशु-पक्षी आदि के संसर्ग से रोग लग जाना, आनुवंशिक रोग से युक्त होना, आदि। अथर्ववेद में तीन कारणों से उत्पन्न होने वाले या तीन प्रकार के रोग माने गए हैं। एक अभ्रज अर्थात् वे जो मेघ, वर्षा के जल, ठंड आदि से उत्पन्न होते हैं, जैसे श्लेश्मा, बलगम, खांसी आदि। दूसरे वातज अर्थात् वे जो वायु के प्रकोप से उत्पन्न होते हैं, और तीसरे शुष्म अर्थात् पित्त के प्रकोप से उत्पन्न होने वाले(यो अभ्रजा वातजा यश् च शुष्मः अ. १.१२.३) । इस प्रकार रोग मुख्य रूप से तीन प्रकार के हैं- कफप्रधान, वातप्रधान और पित्तप्रधान ।

    

अथर्ववेद में असंख्य रोगों का उल्लेख -

 अथर्ववेद में असंख्य रोगों के नामों का उल्लेख है, जिनमें से कुछ मुख्य ये हैं-

  - शीर्षक्ति, शीर्षामय (सिरदर्द ) 

 - कर्णशूल (कानदर्द), 

 - विलोहित( मुख की निस्तेजता), 

 - तक्मन् (ज्वर), 

 - बलास (बलगम), 

 - हरिमा (पीलिया), 

 - यक्ष्मा, 

 - हृदयविधु (हृदयकम्पन), 

 - कास-(खांसी),- अ. १.१२.३, ५.२२.१० 

 - आस्राव-(पेचिस),- अ.१.२.४, २.३.३

 - उन्माद-(अ. ६.१११)।

 - क्लीवता'  (नपुंसकता)-  अ. ६.१३८ ।

 - अपचित्' (गण्डमाला)-  अ. ७.७८ ।

 - तक्मा (ज्वर),- अ. १.२५ ।

 - रक्तस्राव, - अ. १.१७। 

 - मूत्रकृच्छ -अ. १.३, आदि । 

   रोगों का निवारण करने वाली औषधियाँ जंगलों में, खेतों में, पहाड़ों में, नदियों, तालाबों और समुद्र के अन्दर उत्पन्न होती हैं। उन की जड़ों, छाल, पत्तों, फूलों और फलों का प्रयोग सीधे रूप में अथवा पीसकर और दूसरे पदार्थों के साथ मिलाकर औषध के रूप में होता है। वृक्षों की जड़ों, छाल, फल, फूल आदि का उपयोग भी औषध के रूप में होता है।


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