वेदान्त दर्शन (वेदान्तसार) प्रश्नोत्तरी (Important questions of vedanta darshan)

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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प्रश्न -  वेदान्त किसे कहते हैं ?

उ. उपनिषदों को प्रमाण मानने वाला दर्शन  वेदान्त कहा जाता है । यथा - वेदान्तो नामुपनिषत्प्रमाणम् । वेदान्त वेद के सिद्धान्त है। वेद के चार भाग हैं- मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक, और उपनिषद् । सर्वप्रथम वेदान्त का प्रयोग उपनिषद् के अर्थ में हुआ। उपनिषद् वेद के अन्तिम भाग हैं, इसलिए उनको वेदान्त कहा जाता है।

प्रश्न - अध्यात्मविद्या या ब्रह्मविद्या के नाम से जाने जाते हैं ? 

उ. उपनिषद् ।

प्रश्न - वेदान्त किसे प्रमाण रूप में स्वीकार करता है ? 

उ. उपनिषदों को ।

प्रश्न - वेदान्तदर्शन को सर्वप्रथम व्यवस्थितरूप देने का श्रेय किसको जाता है ? 

उ. आचार्य बादरायण को ।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र नामक ग्रन्थ की रचना किसने की ? 

उ. आचार्य बादरायण(व्यास) ने।

प्रश्न - वेदान्तदर्शन का संस्थापक अथवा प्रणेता कौन है ?

उ. आचार्य बादरायण ।

प्रश्न - आचार्य बादरायण का समय क्या है ? 

उ. 400 ई.पू. के लगभग ।

प्रश्न - व्यासजी को  बादरायण क्यों कहा जाता है ?

उ. महर्षि बदर का वंशज होने के कारण।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र का कलेवर कितना है ? 

उ. 4 अध्याय, 16 पाद, 192 अधिकरण तथा 555 सूत्र।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र को और किन नामों से जाना जाता है ?

उ.  उत्तरमीमांसा, बादरायणसूत्र, ब्रह्ममीमांसा, वेदान्तसूत्र, व्याससूत्र तथा शारीरकसूत्र के नाम से।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र में किन उपनिषदों के वाक्यों पर विचार किया गया है? 

उ.  बृहदारण्यक, छान्दोग्य, कौषीतकि, ऐतरेय, मुण्डक, प्रश्न, श्वेताश्वतर आदि उपनिषद् ग्रन्थों में प्राप्त वाक्यों पर ।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र के प्रथम अध्याय में क्या वर्णित है  ? 

उ. स्पष्ट, अस्पष्ट एवं संदिग्ध श्रुतियों का ब्रह्म में समन्वय 

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र के द्वितीय अध्याय  में किसका वर्णन है ?

उ. अन्य दार्शनिक मतों का दोष प्रदर्शन करके युक्तिपूर्वक वेदान्तमत की स्थापना का वर्णन।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र के तृतीय अध्याय का क्या विषय है ?

उ. जीव और ब्रह्म का लक्षण करते हुए उसे मुक्ति का बहिरङ्ग एवं अन्तरङ्ग साधन।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र के चतुर्थ अध्याय में किसका विवेचन है ?

उ. जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति तथा सगुण निर्गुण उपासना का दिग्दर्शन।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र के विभिन्न भाष्य एवं भाष्यकारों का उल्लेख कीजिए ?

उ. 

      भाष्य                                भाष्यकार

शारीरक भाष्य                        शङ्कराचार्य       

श्रीभाष्य                                  रामानुजाचार्य

पूर्णप्रज्ञभाष्य                           मध्वाचार्य

भास्करभाष्य                          भास्कराचार्य

वेदान्तपारिजातभाष्य                निम्बार्काचार्य

शैवभाष्य                                श्रीकण्ठ

अणुभाष्य                               वल्लभाचार्य

विज्ञानामृतभाष्य                      विज्ञानभिक्षु

गोविन्दभाष्य                          आचार्य बलदेव

प्रश्न - अद्वैतवेदान्त का प्रथम प्रवर्तक एवं प्रधान आचार्य कौन है ?

उ. गौडपाद ।

प्रश्न - गौडपाद का समय क्या है ?

उ. ईसापूर्व द्वितीय शताब्दी के पूर्वभाग।

प्रश्न - गौडपाद ने माण्डूक्योपनिषद् पर किस प्रसिद्ध कृति की रचना की ?

उ. माण्डूक्यकारिका।

प्रश्न - आचार्य गौडपाद के बीजरूप में प्रदर्शित सिद्धान्तों का सरस शैली में किसने प्रतिपादित किया ?

उ. आचार्य शङ्कराचार्य ने।

प्रश्न - आचार्य गौडपाद के शिष्य तथा शङ्कराचार्य के गुरु कौन हैं ?

उ. आचार्य गोविन्दपाद।

प्रश्न - गौडपाद कहाँ के निवासी थे ?

उ. नर्मदातट के पास

प्रश्न - अद्वैतवाद के प्रवर्तक आचार्य कौन हैं ?

उ. आचार्य शङ्कराचार्य ।

प्रश्न - अद्वैतमत को और किन नामों से जाना जाता है ?

उ. शाङ्करमत या शाङ्करदर्शन ।

प्रश्न - ब्रह्मसूत्र पर उपलब्ध भाष्यों में सर्वाधिक प्राचीन कौन सा भाष्य है ?

उ. शाङ्करभाष्य (शारीरिक भाष्य) ।

प्रश्न - शङ्कराचार्य जी का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?

उ. केरल प्रदेश की पूर्णा नदी के तटवर्ती ग्राम कलाडी में वैशाख शुक्ल 5 को 788 ई. को।

प्रश्न -  शङ्कराचार्य जी के माता-पिता का क्या नाम है ?

उ. पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम सुभद्रा ।

प्रश्न - शङ्कराचार्य के प्रथम शिष्य कौन थे ?

उ. पद्मपादाचार्य ।

प्रश्न - पद्मपादाचार्य का पूर्वनाम क्या था ?

उ. सइन्दन ।

प्रश्न - पद्मपादाचार्य का जन्म कहाँ हुआ ?

उ. दक्षिण के चोल प्रदेश में ।

प्रश्न - शङ्कराचार्य के नाम से कितने ग्रन्थ उल्लिखित हैं ?

उ. लगभग 272 ।

प्रश्न - आचार्य शङ्कर ने 'ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या' के आधार पर किस वाद की स्थापना की ?

उ. मायावाद की स्थापना ।

प्रश्न - शङ्कराचार्य के अनुसार सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् क्या है ?

उ. ब्रह्म का विवर्तमात्र ।

प्रश्न - किस तरह ब्रह्म तत्त्व में ही हमें जगत् की भ्रान्ति हो रही है ?

उ. रज्जु में सर्प की भ्रान्ति की तरह।

प्रश्न - शङ्कराचार्य के अनुसार आत्मा है ?

उ. स्वतः सिद्ध ।

प्रश्न - शाङ्करभाष्य पर भामती टीका का प्रणयन किसने किया ?

उ. वाचस्पति मिश्र ने ।

प्रश्न - आचार्य वाचस्पति मिश्र का जन्मस्थान कहाँ है ?

उ.  मिथिला ।

प्रश्न -  आचार्य वाचस्पति मिश्र का समय क्या है ?

उ. आठवीं शताब्दी के अन्त से लेकर नवम शती का प्रारम्भ ।

प्रश्न - आचार्य मण्डनमिश्र किस दर्शन से सम्बन्धित हैं ?

उ. पूर्व मीमांसा दर्शन से ।

प्रश्न - आचार्य मण्डनमिश्र का अपर नाम क्या था ?

उ. सुरेश्वराचार्य ।

प्रश्न - आचार्य मण्डनमिश्र का जन्म कहाँ हुआ था ?

उ. रेवा नदी के तटवर्ती प्राचीन माहिष्मती में ।

प्रश्न - आचार्य मण्डनमिश्र किस प्रदेश के सबसे बड़े विद्वान् और कवि थे ?

उ. मगध प्रदेश के ।

प्रश्न - वेदान्तसार के रचयिता कौन हैं ?

उ. आचार्य सदानन्दयोगीन्द्र ।

प्रश्न - वेदान्तसार किस दर्शन पर आधारित ग्रन्थ है ?

उ. अद्वैतवेदान्त पर ।

प्रश्न - आचार्य सदानन्दयोगीन्द्र का समय क्या है ?

उ. सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ।

प्रश्न - "वेदान्तपरिभाषा" नामक उत्कृष्ट एवं अद्वैतसिद्धान्त के लिये अत्यन्त उपयोगी प्रकरणग्रन्थ की रचना किसने की ?

उ. आचार्य धर्मराज अध्वरीन्द्र ने ।

प्रश्न - आचार्य धर्मराज अध्वरीन्द्र का समय क्या है ?

उ. 17 वीं शताब्दी का आरम्भ।

प्रश्न - "नैष्कर्म्यसिद्धि" नामक ग्रन्थ की रचना किसने की ?

उ. सुरेश्वराचार्य ने ।

प्रश्न - वेदान्तदर्शन का क्या सिद्धान्त है ?

उ. अद्वैतवेदान्त एकमात्र ब्रह्म को ही सत्य, नित्य और सर्वोपरि तत्त्व के रूप में मानता है।

प्रश्न - वेदान्तदर्शन का प्रारम्भ कहाँ से होता है ?

उ. ब्रह्मजिज्ञासा से(अथातो ब्रह्मजिज्ञासा - ब्रह्मसूत्र १.१)।

प्रश्न - ब्रह्म शब्द कैसे बनता है ?

उ.  'बृह् वृद्धौ' वृद्धि के अर्थ मे प्रयुक्त 'बृह' धातु से मनिन् प्रत्यय करके ।

प्रश्न - ब्रह्म शब्द का क्या अर्थ है ?

उ.  महान्, व्यापक, निरवधिक, निरतिशय महत्त्व से युक्त तत्त्व ही ब्रह्म है।

प्रश्न - ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति क्या है ?

उ. बृंहणाद् ब्रह्म अर्थात् - देश, काल तथा वस्तु आदि से अपरिछिन्न नित्य तत्त्व ही ब्रह्म है।

प्रश्न - वेदान्तसार का मङ्गलाचरण क्या है ?

उ. अखण्डं सच्चिदानन्दमवाङ्मनसगोचरम्।

     आत्मानमखिलाधारमाश्रयेऽभीष्टसिद्धये ॥

     (अभीष्ट की सिद्धि के लिये सत्य ज्ञान एवं आनन्द स्वरूप, मन वाणी तथा इन्द्रियों के अविषय,सम्पूर्ण स्थावरजङ्गम रूप प्रपञ्च के आधारस्वरूप, अखण्ड परमात्मा का  आश्रय ग्रहण करता हूँ।)

प्रश्न - वेदान्तसार के मङ्गलाचरण में किसकी वन्दना की गई है ?

उ. ब्रह्म की वन्दना ।

प्रश्न - ग्रन्थकार की अभीष्ट सिद्धि क्या है ?

उ. ग्रन्थ की निर्विघ्नसमाप्ति या विविध दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति ।

प्रश्न - कौन सा दर्शन एकमात्र परमब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करता है ?

उ. वेदान्तदर्शन ।

प्रश्न - आत्मा एवं ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन करने वाला दर्शन है ?

उ.  वेदान्तदर्शन ।

प्रश्न - अखण्डं सच्चि.., में आत्मा के कितने विशेषणों का प्रयोग हुआ है ?

उ. चार विशेषणों का प्रयोग -  अखण्डम्, सच्चिदानन्दम्, अवाङ्मनसगोचरम्, अखिलाधारम् ।

प्रश्न - वेदान्तसार के द्वितीय मङ्गलाचरण में किसका स्मरण किया गया है ?

उ. अद्वयानन्द का ।(अर्थतोऽप्यद्वयानन्दानतीतद्वैतभानतः । गुरुनाराध्य वेदान्तसारं वक्ष्ये यथामति ॥)

प्रश्न - आचार्य सदानन्द के गुरु का क्या नाम है ?

उ. अद्वयानन्द ।

प्रश्न - वेदान्त किसे कहा गया है ?

उ. उपनिषद् को प्रमाण मानकर चलने वाले शास्त्र को । (वेदान्तो नामोपनिषत्प्रमाणम्) ।

प्रश्न - वेदान्त के उपकारक ग्रन्थ कौन हैं ?

उ. ब्रह्मसूत्र, शारीरकसूत्र आदि । (तदुपकारीणि शारीरकसूत्रादीनि च) ।

प्रश्न - अनुबन्ध चतुष्टय क्या है ?

उ. अधिकारी, विषय, सम्बन्ध, प्रयोजन को अनुबन्ध चतुष्टय कहा गया है (तत्रानुबन्धोनामाधिकारिविषयसम्बन्धप्रयोजनानि)।

प्रश्न - अधिकारी का लक्षण क्या है ?

उ. जिसने वेद- वेदाङ्गों का विधिपूर्वक अध्ययन करके समस्त वेदान्त के अर्थ को सामान्यरूप से जान लिया है तथा इस जन्म में अथवा अन्य जन्मों में कामनाओं को पूर्ण करने वाले काम्यकर्म तथा शास्त्रों द्वारा निषेध किये गये कर्मों को छोड़ने के साथ-साथ नित्य, नैमित्तिक, प्रायश्चित्त और उपासना कर्मों के अनुष्ठान से सम्पूर्णपापों से मुक्त, अत्यधिक निर्मल अन्तःकरण वाला जो साधन चतुष्टयसम्पन्न है, ऐसा प्रमाता पुरुष ( इस ब्रह्मविद्या) वेदान्त का अधिकारी है। (अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेनापाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरस्सरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता)। 

प्रश्न - काम्यादि कर्म क्या हैं ?

उ.  स्वर्ग आदि कामनाओं के साधनस्वरूप ज्योतिष्टोमयाग आदि काम्यकर्म हैं।(काम्यानि स्वर्गादीष्टसाधनानि ज्योतिष्टोमादीनि)।

प्रश्न - निषिद्धकर्म कौन हैं ?

उ. नरकादि अनिष्टस्थानों की प्राप्ति के साधनभूत ब्राह्मणहत्या, गोहत्या आदि निषिद्धकर्म है। ( निषिद्धानि नरकाद्यनिष्टसाधनानि ब्राह्मणहननादीनि) ।

प्रश्न - नित्यकर्म किसे कहते हैं ?

उ. जिसके न करने से भविष्य में दुःख की सम्भावना हो, ऐसे सन्ध्यावन्दन आदि नित्यकर्म हैं। (नित्यान्यकरणे प्रत्यवायसाधनानि सन्ध्यावन्दनादीनि) ।

प्रश्न -  नैमित्तिक कर्म क्या हैं ?

उ. पुत्र जन्मादि के अवसर पर किये जाने वाले जातेष्टि यज्ञ आदि नैमित्तिक कर्म है । (नैमित्तिकानि पुत्रजन्माद्यनुबन्धीनि जातेष्ट्वादीनि) ।

प्रश्न - प्रायश्चित्तकर्म किसे कहते हैं ?

उ. पाप के क्षय करने के लिये साधन बनने वाले चान्द्रायण आदि व्रत प्रायश्चित्त कर्म हैं। ( प्रायश्चित्तानि पापक्षयसाधनानि चान्द्रायणादीनि) ।

प्रश्न - उपासनाकर्म किसे कहते हैं ?

उ. सगुणब्रह्म को विषय बनाने वाला मानसिक व्यापार ध्यान ही जिनका स्वरूप है उन शाण्डिल्यविद्या आदि को उपासनाकर्म कहते है। (उपासनानि सगुणब्रह्मविषयमानसव्यापाररूपाणि शाण्डिल्यविद्यादीनि) । 

प्रश्न - नित्य नैमित्तिक और प्रायश्चित कर्मों का परम प्रयोजन क्या है ?

उ. बुद्धि की शुद्धि। 

प्रश्न - उपासना रूप कर्मों का मुख्य प्रयोजन क्या है ?

उ.  चित्त की एकाग्रता।

प्रश्न - नित्य, नैमित्तिक, प्रायश्चित्त कर्मों का गौण प्रयोजन क्या है ?

उ. पितृलोक प्राप्ति ।

प्रश्न - उपासना का गौण प्रयोजन क्या है ?

उ.  सत्यलोक (देवलोक की प्राप्ति )।

प्रश्न - साधनचतुष्टय क्या है ?

उ. साधनानि नित्यानित्यवस्तुविवेकेहामुत्रार्थफलभोगविरागशमादिषट्कसम्पत्तिमुमुक्षुत्वानि ।

   (१) नित्य एवं अनित्यवस्तुविवेक, ( नित्यानित्यवस्तुविवेकः) ।

  (२) इहलौकिक एवं पारलौकिक फल को भोगने के प्रति वैराग्य,(इहामुत्रार्थफलभोगविरागः) । 

  (३) शम,दम,उपरति,तितिक्षा,समाधान और श्रद्धा आदि छः प्रकार की सम्पत्ति (शमादिषट्कसम्पत्तिः)

  (४) मोक्षप्राप्ति के प्रति इच्छा- ये चार साधन हैं। (मुमुक्षुत्वानि च ) ।

प्रश्न - नित्यवस्तु क्या है ?

उ. एकमात्र ब्रह्म ।

प्रश्न - "शम" का लक्षण क्या है ?

उ. श्रवण, मनन और निदिध्यासन को छोड़कर उनसे भिन्न विषयों से मन को हटा लेना  शम कहा जाता है। (शमस्तावच्छ्रवणादिव्यतिरिक्तविषयेभ्यो मनसो निग्रहः) ।

प्रश्न - "दम" किसे कहते हैं ?

उ. श्रोत्रादि बाह्य इन्द्रियों को श्रवणादि के अतिरिक्त विषयों से हटाने को दम कहते हैं। (दमो बाह्येन्द्रियाणां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्यो निवर्तनम्) ।

प्रश्न - "उपरति" क्या है ?

उ. अन्तरिन्द्रिय मन और श्रोत्रादि बाह्य इन्द्रियों को अपने-अपने विषय से निवृत्त कर लेने पर श्रवण आदि के अतिरिक्त विषयों से इनका उपरत हो जाना अर्थात् फिर से विषयों की ओर प्रवृत्त होने का उत्साह न रह जाने से स्थिर हो जाना उपरति है। (निवर्तितानामेतेषां तद्व्यतिरिक्तविषयेभ्य उपरमणमुपरतिः अथवा विहितानां कर्मणां विधिना परित्यागः) ।

प्रश्न - "तितिक्षा" किसे कहते हैं ?

उ. शीत-उष्ण, मान अपमान, लाभ-हानि, जय पराजय, निन्दा-स्तुति, हर्ष - शोक आदि द्वन्द्वों को सहन करना तितिक्षा है। (तितिक्षा शीतोष्णादिद्वन्द्वसहिष्णुता) ।

प्रश्न - "समाधान" का क्या लक्षण है ?

उ.  निगृहीत चित्त का श्रवणादि में तथा श्रवणादि के अनुकूल गुरुशुश्रूषा वेदान्तग्रन्थों का सम्पादन और उनकी रक्षा करना आदि विषयों में स्थिर हो जाना समाधान है । (निगृहीतस्य मनसः श्रवणादौ तदनुगुणविषये च समाधिः समाधानम्) ।

प्रश्न - "श्रद्धा" क्या है ?

उ. गुरू द्वारा उपदिष्ट वेदान्त के वाक्यों में विश्वास श्रद्धा है। (गुरूपदिष्टवेदान्तवाक्येषु विश्वासः श्रद्धा) ।

प्रश्न - "मुमुक्षुत्व" क्या है ?

उ. मोक्ष की इच्छा ही मुमुक्षुत्व है (मुमुक्षुत्वम् मोक्षेच्छा) ।

प्रश्न - वेदान्त का विषय क्या है ?

उ. जीव और ब्रह्म की एकता। (विषयो जीवब्रह्मैक्यं शुद्धचैतन्यं प्रमेयं तत्रैव वेदान्तानां तात्पर्यात्) ।

प्रश्न - प्रमा का विषय कौन है ?

उ. शुद्धचैतन्य, क्योंकि समस्त वेदान्तवाक्यों का अभिप्राय उसी शुद्धचैतन्य के प्रतिपादन में निहित है।

प्रश्न- वेदान्त का सम्बन्ध क्या है ?

उ.  ज्ञान के विषय जीव और ब्रह्म का ऐक्य एवं उनका प्रतिपादन करने वाले उपनिषद्रूप प्रमाणवाक्यों का परस्पर बोध्य-बोधकभाव सम्बन्ध है। (सम्बन्धस्तु तदैक्यप्रमेयस्य तत्प्रतिपादकोपनिषत्प्रमाणस्य च बोध्यबोधकभावः)।

प्रश्न - वेदान्त का प्रयोजन क्या है ?

उ.  जीव एवं ब्रह्म के ऐक्यविषयक ज्ञान के साथ अज्ञान की निवृत्तिपूर्वक अपने स्वरूप का परिचय होने से परमानन्द की प्राप्ति ही मुख्य प्रयोजन है। (प्रयोजनं तु तदैक्यप्रमेवगताज्ञाननिवृत्तिः स्वस्वरूपानन्दावाप्तिश्च) ।

प्रश्न - "अध्यारोप" क्या है ?

उ. रस्सी में सर्प के आरोप के समान वस्तु में अवस्तु का आरोप ही अध्यारोप है। (असर्पभूतायां रज्जौ सर्पारोपवद्वस्तुन्यवस्त्वारोपोऽध्यारोपः) ।

प्रश्न - "वस्तु" क्या है ?

उ. सच्चिदानन्द, अनन्त और अद्वैत ब्रह्म वस्तु है ।(वस्तु सच्चिदानन्दानन्ताद्वयं ब्रह्म)

प्रश्न - "अवस्तु" किसे कहते हैं ?

उ. अज्ञान आदि से लेकर सम्पूर्ण जडप्रपञ्च अवस्तु है।(अज्ञानादिसकलजडसमूहो ऽवस्तु) 

प्रश्न - वेदान्त के अनुसार अज्ञान का लक्षण क्या है ?

उ. वेदान्त के अनुसार अज्ञान  सत् और असत् दोनों से विलक्षण होने से अनिर्वचनीय, त्रिगुणात्मक, ज्ञान का विरोधी तथा भाव रूप से 'यत्किञ्चित्' ऐसा कहते हैं। (अज्ञानं तु सदसद्भयामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधि भावरूपं यत्किञ्चिदिति) ।

प्रश्न - अज्ञान के किसने भेद हैं ?

उ.  दो भेद(२) - समष्टि और व्यष्टि ।

प्रश्न - "समष्टि" का क्या अभिप्राय है ?

उ. समष्टि का अभिप्राय है -समूह , जैसे - वन,जलाशय । यह अज्ञान समष्टि के अभिप्राय से एक है ।

प्रश्न - "व्यष्टि" का क्या अर्थ है ?

उ. व्यष्टि का अर्थ है - एकत्व, जैसे - वृक्ष, जलबिन्दु । यह अज्ञान व्यष्टि के अभिप्राय से अनेक कहा जाता है ।

प्रश्न - "समष्टि" की व्युत्पत्ति क्या है ?

उ. सम् + √ अश् (व्याप्तौ संघाते च ) + क्तिन् = सभी को व्याप्त करने वाला ।

प्रश्न - "व्यष्टि" में प्रकृति प्रत्यय क्या है ?

उ. वि + √ अश् (व्याप्तौ संघाते च ) + क्तिन् = सीमित स्थान में रहने वाला । 

प्रश्न - वेदान्तदर्शन में "समष्टि" का अर्थ क्या है ?

उ. माया ।

प्रश्न - वेदान्तदर्शन में "व्यष्टि" के लिए किस शब्द का प्रयोग किया गया है ?

उ.  'अविद्या' का।

प्रश्न - "सत्त्वशुद्धयविशुद्धिभ्यां मायाविद्ये च ते मते " यह कथन किस ग्रन्थ से उद्धृत है ?

उ. पञ्चदशी (१.१६) नामक ग्रन्थ से ।

प्रश्न - वेदान्त के अनुसार "ईश्वर" कौन है ?

उ. अज्ञान की समष्टि (माया) उत्कृष्ट (ईश्वर) उपाधि होने के कारण विशुद्धसत्त्व प्रधान से युक्त होती हैं इससे उपहित हुआ चैतन्य समस्त अज्ञानराशि का प्रकाशक होने से सर्वज्ञता, सर्वेश्वरता, सर्वनियामकता आदि गुणों से युक्त, अव्यक्त, अन्तर्यामी, जगत् का कारण और ईश्वर कहा जाता है। "यः सर्वज्ञः स सर्ववित् " इति श्रुतेः । 'जो सर्वज्ञाता सर्ववित् है' इत्यादि श्रुति प्रमाण है।

प्रश्न -  वेदान्त के सृष्टिक्रम में ईश्वर का स्थान है ?

उ. ब्रह्म के पश्चात् ।

प्रश्न - ईश्वर को जगत् का कारण होने से क्या कहा गया है ?

उ. कारण शरीर ।

प्रश्न - आनन्द की प्रचुरता के कारण ईश्वर क्या है ?

उ. आनन्दमयकोष ।

प्रश्न - ईश्वर में ही सब कुछ विलीन होने के कारण क्या कहा गया ?

उ. सुषुप्ति एवं लयस्थान ।

प्रश्न - व्यष्टि किस कारण मलिनसत्त्वप्रधान होती है ?

उ. निकृष्ट उपाधि से युक्त होने के कारण ।(व्यष्टिर्निकृष्टोपाधितया मलिनसत्त्वप्रधाना) ।

प्रश्न - उपाधि युक्त चैतन्य अल्पज्ञता एवं अशक्तता आदि गुणों वाला होने से, व्यष्टिगत एक ही अज्ञान का प्रकाशक होने के कारण ईश्वर को क्या कहा गया है ?

उ. प्राज्ञ । (एतदुपहित चैतन्यमल्पज्ञत्वानीश्वरत्वादि गुणक प्राज्ञ इत्युच्यत एकाज्ञानावभासकत्वात्) ।

प्रश्न- इस (जीव ) की व्यष्टिरूप उपाधि अहङ्कार आदि का कारणरूप होने से क्या कहलाती है ?

उ. कारण शरीर ।

प्रश्न- जीव के आनन्द की प्रचुरता एवं चैतन्य को कोश के समान ढक लेने के कारण क्या कहा जाता है ?

उ. आनन्दमयकोश ।

प्रश्न - पञ्चकोश कौन हैं ?

उ. अन्नमयकोश, मनोमयकोश, प्राणमयकोश, विज्ञानमयकोश तथा आनन्दमयकोश ।

प्रश्न - स्थूलशरीर का अभिमानी कौन है ?

उ. समष्टि रूप में वैश्वानर तथा व्यष्टि रूप में विश्व ।

प्रश्न - समष्टिरूप स्थूल शरीर का कोष है ?

उ. अन्नमयकोश ।

प्रश्न - व्यष्टिरूप स्थूल शरीर का कोष है ?

उ. मनोमयकोश ।

प्रश्न - स्थूल शरीर की अवस्था है ?

उ. जाग्रत अवस्था।

प्रश्न- सूक्ष्मशरीर का अभिमानी कौन है ?

उ. समष्टि रूप में सूत्रात्मा तथा व्यष्टि रूप में तैजस् ।

प्रश्न - समष्टिरूप सूक्ष्म शरीर का कोष है ?

उ. प्राणमयकोश ।

प्रश्न - व्यष्टिरूप सूक्ष्म शरीर का कोष है ?

उ. विज्ञानमयकोश ।

प्रश्न - सूक्ष्मशरीर की अवस्था है ?

उ. स्वप्नावस्था ।

प्रश्न - कारणशरीर का अभिमानी कौन है ?

उ. समष्टि रूप में ईश्वर तथा व्यष्टि रूप में प्राज्ञ ।

प्रश्न - समष्टिरूप कारणशरीर का कोष है ?

उ. आनन्दमयकोश ।

प्रश्न - कारणशरीर की अवस्था है ?

उ. सुषुप्तावस्था।

प्रश्न-  'लयस्थान' किसे कहते हैं ?

उ. स्थूल तथा सूक्ष्मशरीर आदि प्रपञ्च के विलय की अधिकता होने को लयस्थान कहा जाता है ।

प्रश्न - जीव सुषुप्ति अवस्था में कब होता है ?

उ. सबका उपरम अथवा विलयन होने पर ।

प्रश्न -  'ईश्वर' संज्ञा किसकी होती है ?

उ. समष्टिरूप अज्ञान से उपहित चैतन्य की ।

प्रश्न - व्यष्टिरूप अज्ञानों से उपहित चैतन्य की क्या संज्ञा होती है ?

उ.  जीव अथवा 'प्राज्ञ' संज्ञा ।

प्रश्न - किसे सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, अन्तर्यामी, सभी जीवों की उत्पत्ति एवं प्रलय के स्थान का कारण बताया गया है ?

उ. प्राज्ञ को ।(एष सर्वेश्वरः, एषः सर्वज्ञः एषः अन्तर्यामि एष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम्) ।

प्रश्न - समष्टिव्यष्टिगत दोनों अज्ञानों एवं इनकी उपाधियों से युक्त ईश्वर और प्राज्ञ दोनों चैतन्यों का आधार कौन है ?

उ. उपाधिरहित शुद्धचैतन्य । इसे ही 'तुरीय'  नाम से भी जाना जाता है।  

प्रश्न - तुरीयावस्था के ऊपर चतुर्थ अवस्था किसकी है ?

उ.  अद्वैतब्रह्म की ।

प्रश्न -  अज्ञान की कितनी शक्तियाँ हैं ?

उ.  दो(२) -  आवरण और विक्षेप । (अस्याज्ञानस्यावरणविक्षेपनामकमस्तिशक्तिद्वयम्) । 

प्रश्न - आवरण शक्ति क्या है ?

उ. प्रमाता(जीव) के सच्चिदानन्द स्वरूप को ढकने वाली शक्ति ।

प्रश्न - विक्षेप शक्ति क्या है ?

उ. सम्पूर्ण नामरूपात्मक जगत् को उत्पन्न करने वाली शक्ति ।

प्रश्न - कौन सी शक्ति तमोगुण प्रधान होती है ?

उ. विक्षेप शक्ति ।

प्रश्न - वेदान्त की दृष्टि में आत्मा का बन्धन अथवा मोक्ष क्या है ?

उ. वेदान्त की दृष्टि में आत्मा का बन्धन अथवा मोक्ष सम्भव नहीं है, यह तो केवल आभासमात्र है। जैसे - रस्सी में सर्प अथवा सीप में चाँदी। यही बात हस्तामलक नामक ग्रन्थ में आयी हुई कारिका कहती है -

                                                     घनच्छन्नदृष्टिर्घनच्छन्नमर्कै-

र्यथा मन्यते निष्प्रभं चातिमूढः ।

तथा बद्धवद्भाति यो मूढदृष्टेः 

    स नित्योपलब्धिस्वरूपोऽहमात्मा ॥" 

(जिस प्रकार मेघ से ढका हुआ दृष्टि वाला मूर्ख व्यक्ति, बादल से ढके हुए सूर्य को प्रकाशरहित मानता है उसीप्रकार मूढ सामान्य दृष्टि वालों को आत्मा जन्म मरणादि बन्धनों से बँधा हुआ सा प्रतीत होता है)।

प्रश्न - आवरण शक्ति का क्या कार्य है ?

उ. सत्य को आवृत करना ।

प्रश्न - विक्षेप शक्ति का क्या कार्य है ?

उ. सत् में असत् की उद्भावना ।

प्रश्न - कौन उपादान और निमित्त दोनों कारण है ?

उ. आवरण एवं विक्षेप नामक दो महत्त्वपूर्ण शक्तियों से युक्त अज्ञान से उपहित चैतन्य, सूक्ष्मशरीर से लेकर ब्रह्माण्डपर्यन्त दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् प्रपञ्च का उपादान और निमित्त दोनों है। जिसप्रकार मकड़ी अपने जाल निर्माणरूप कार्य के प्रति अपने शरीर के चैतन्य की प्रधानता के कारण निमित्तकारण है तथा अपने शरीर से निकलने वाले द्रव्य की प्रधानता की दृष्टि से उपादानकारण भी है। उसी प्रकार अज्ञान से उपहित आत्मा अपने चैतन्य की प्रधानता होने से दृश्यमान सांसारिक प्रपञ्च का निमित्तकारण तथा अज्ञान की प्रधानता के समय उपादान कारण होता है ।(शक्तिद्वयवदज्ञानोपहितं चैतन्यं स्वप्रधानतया निमित्तं स्वोपाधिप्रधानतयोपादानं च भवति । यथा-लुता तन्तुकार्य प्रति स्वप्रधानतया निमित्तं स्वशरीरप्रधानतयोपादानं च भवति) ।

प्रश्न - सूक्ष्मशरीर के कितने अवयव हैं ?

उ. सत्रह (१७) अवयव - पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ(चक्षु, श्रोत्र, त्वक्, घ्राण,  रसना)      -      ५

                                 - पञ्चकर्मेन्द्रियाँ(वाक्,  पाणि, पाद, पायु, उपस्थ)    -      ५

                                 - बुद्धि                                                                 -      १

                                 - मन                                                                   -      १

                                  - पञ्चवायु(प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान)         -     ५

प्रश्न - अपञ्चीकृत सूक्ष्मशरीर (सात्त्विक अंशों से ज्ञानेन्द्रियों की उत्पत्ति ) के अवयवों का वर्णन कीजिए ?

उ. आकाश     - श्रोत्र     - शब्द

      वायु          - त्वक्    - स्पर्श

      अग्नि         - चक्षु     - रूप

      जल          - रसना  - रस

      पृथिवी      - घ्राण    - गन्ध

प्रश्न - लूता(मकड़ी)  उपादान कारण  कैसे होती है ?

उ. स्वशरीरप्रधानतया ।

प्रश्न - लूता(मकड़ी)  निमित्त कारण कैसे होती है ?

उ. चैतन्यस्वप्रधानतया ।

प्रश्न - तमोगुण की प्रधानता वाली विक्षेपशक्ति से युक्त अज्ञान से उपहित चैतन्य से सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम क्या है ?

उ. आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है। (तमः प्रधानविक्षेपशक्तिमदज्ञानोपहितचैतन्यादाकाश आकाशाद्वायुवयोरग्निरग्नेऽपोद्भ्यः पृथिवी चोत्पद्यते) ।

प्रश्न -  पञ्चीकृत महाभूतों से किसका निर्माण होता है ?

उ. स्थूलशरीर का ।

प्रश्न - लिङ्गशरीर किसे कहते हैं ?

उ. सूक्ष्मशरीर को ही लिङ्गशरीर भी कहते हैं ।(लियते ज्ञाप्यते प्रत्यगात्मसद्भावः एभिरिति लिङ्गानि लिङ्गानि च तानि शरीराणि इति लिङ्गशरीराणि) ।

प्रश्न - सूक्ष्मशरीरे कति अङ्गानि सम्भवन्ति ?

उ. सूक्ष्मशरीराणि सप्तदशाबववानि लिङ्गशरीराणि अवयवास्तु ज्ञानेन्द्रियपञ्चकं बुद्धिमनसी कर्मेन्द्रियपञ्चकं वायुपञ्चकं चेति ।

प्रश्न - बुद्धि का लक्षण क्या  है ?

उ. निश्चय करने वाली अन्तःकरण की वृत्ति ही बुद्धि है।(बुद्धिर्नाम निश्चयात्मिकान्तःकरणवृत्तिः) ।

प्रश्न  - मन का लक्षण क्या है ?

उ. संकल्प-विकल्प करने वाली अन्तःकरण की वृत्ति मन है । (मनो नाम संकल्पविकल्पात्मिकान्तःकरणवृत्तिः) ।

प्रश्न - विज्ञानमयकोश कैसे बनता है ?

उ. बुद्धि और पञ्चज्ञानेन्द्रियों के मिलन से।

प्रश्न - अपञ्चीकृत पञ्चभूतों के सात्त्विक अंशों से कौन उत्पन्न होते हैं ?

उ. पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, बुद्धि एवं मन - ये सात ।

प्रश्न - 'मनोमयकोश' का निर्माण कैसे होता है ?

उ. मन और पञ्चज्ञानेन्द्रियों के मिलने से ।

प्रश्न - चित्त का लक्षण क्या है ?

उ. अनुसंधानात्मिकान्तकरणवृत्तिः चित्तम्। 

प्रश्न - अहङ्कार का क्या लक्षण है ?

उ. अभिमानात्मिकान्तःकरणवृत्तिरहङ्कारः ।

प्रश्न - रजोगुण प्रधान अशों से  कौन उत्पन्न होता है ?

उ. पञ्चकर्मेन्द्रियाँ(वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ)

प्रश्न - पञ्चवायु हैं ?

उ. प्राण, व्यान, समान, उदान, अपान ।

प्रश्न - प्राणवायु शरीर के किस भाग में रहता है ?

उ. नासिकाग्रवर्ती(नासिका के अग्रभाग में) ।

प्रश्न -  प्राणवायु का कार्य क्या है ?

उ. श्वसन कार्य ।

प्रश्न - कौन सी वायु ऊर्ध्वगमनशील है ?

उ. प्राण और उदानवायु ।

प्रश्न - अपानवायु शरीर के किस भाग में रहता है ?

उ. गुदा भाग में -  उपस्थवर्ती

प्रश्न - अधोगमनशील वायु कौन सी है ?

उ. अपान और समान वायु ।

प्रश्न - अपानवायु का क्या कार्य है ?

उ. मलमूत्र निस्सारण ।

प्रश्न - व्यानवायु शरीर के किस भाग में रहता है ?

उ. सम्पूर्णशरीरस्थ ।

प्रश्न - व्यानवायु का क्या कार्य है ?

उ. रक्त संचालन ।

प्रश्न - कौन सी वायु सर्वत्रगमनशील है ?

उ. व्यानवायु ।

प्रश्न -समानवायु शरीर के किस भाग में रहता है ?

उ. उदरस्थ(पेट में)

प्रश्न - समानवायु का क्या कार्य है ?

उ. पाचन करना

प्रश्न - उदानवायु शरीर के किस भाग में रहता है ?

उ. कण्ठदेश में

प्रश्न - उदानवायु का क्या कार्य है ?

उ. निस्सरण ।

प्रश्न - कारणशरीर के निर्माण किन कोशत्रय की महती भूमिका रहती है ?

उ. विज्ञानमय, मनोमय तथा प्राणमय कोश की ।

प्रश्न - ज्ञानशक्तिसम्पन्न कर्तृरूप कौन सा कोश है ?

उ. विज्ञानमयकोश ।(विज्ञानमयो ज्ञानशक्तिमान् कर्तृरूपः) ।

प्रश्न - कौन सा कोश इच्छाशक्तिसम्पन्न तथा करणरूप है ?

उ. मनोमयकोश ।(मनोमय इच्छाशक्तिमान् करणरूपः) ।

प्रश्न - क्रियाशक्तिसम्पन्न तथा कार्यरूप कौन सा कोश है ?

उ. प्राणमयकोश ।(प्राणमयः क्रियाशक्तिमान् कार्यरूपः) ।

प्रश्न - किसके कारण समष्टि से उपहित चैतन्य सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ और प्राण कहा जाता है ?

उ. सर्वत्र व्याप्त होने से तथा ज्ञान, इच्छा एवं क्रियाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण ।

प्रश्न - व्यष्टिरूप उपाधि से युक्त इस चैतन्य की तैजस् संज्ञा कब होती है ?

उ. तेजोयुक्त अन्तःकरण उपाधि से युक्त होने से।

प्रश्न - पञ्चीकरण क्या है

उ. पञ्चीकृत (महाभूतों) को ही स्थूलभूत कहते हैं। सर्वप्रथम प्रत्येक सूक्ष्मभूत को समान दो भागों में विभाजित करके, तत्पश्चात् प्रथम पाँच में से प्रत्येक को चार भागों में विभक्त करके, अपने अपने अंश को छोड़कर अन्य भूतों के अधीश के साथ जोड़ने से वे पाँच सूक्ष्मभूत स्थूलभूत हो जाते हैं।

 “द्विधा विधाय चैकैकं चतुर्धा प्रथमं पुनः ।

स्वस्वेतरद्वितीयांशैयोंजनात्पञ्चपञ्च ते ॥

पञ्चीकरण प्रक्रिया

           आकाश(१/२)   वायु(१/२)     अग्नि(१/२)     जल(१/२)       पृथ्वी(१/२)

                   |                  |                        |                   |                     |

             वायु(१/८)     आकाश(१/८)    आकाश(१/८)   आकाश(१/८)   आकाश(१/८)  

             अग्नि(१/८)    अग्नि(१/८)          वायु(१/८)          वायु(१/८)        वायु(१/८)

              जल(१/८)     जल(१/८)          जल(१/८)          अग्नि(१/८)        अग्नि(१/८)

              पृथ्वी(१/८)    पृथ्वी(१/८)        पृथ्वी(१/८)          पृथ्वी(१/८)       जल(१/८)

प्रश्न - किस ग्रन्थ में सर्वप्रथम अग्नि की उत्पत्ति कही गई है ?

उ. छान्दोग्योपनिषद (६.३.३) में ।

प्रश्न - पञ्चमहाभूतों की उत्पत्ति का क्रम क्या है ?

उ. आकाश>वायु>अग्नि > जल>पृथिवी ।

प्रश्न - किन पञ्चमहाभूतों के  त्रिवृत्करण द्वारा स्थूलसृष्टि की उत्पत्ति बतायी गयी है ?

उ. अग्नि > जल>पृथिवी।

प्रश्न - त्रिवृत्करण क्या है ?

उ. त्रिवृत्करण द्वारा स्थूलसृष्टि की उत्पत्ति बतायी गयी है । त्रिवृत्करण के अनुसार अग्नि, जल और पृथिवी इन तीनों को सर्वप्रथम दो बराबर भागों में विभाजित किया जाता है। पुनः प्रथम तीन अर्धांशों को फिर से दो भागों में विभाजित करके उनका एक-एक भाग पूर्व के अर्धांश में जोड़ दिया जाता है जिससे त्रिवृत् भूत का निर्माण होता है।

प्रश्न - पञ्चीकृत महाभूतों से किसकी उत्पत्ति होती है ?

उ. पञ्चीकृत महाभूतों से भूः भुवः स्वः, मह, जनः तपः, सत्यम् इत्यादि नाम वाले ऊपर-ऊपर विद्यमान लोकों की और अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल नामक अधोवर्ती भुवनों की, ब्रह्माण्ड की तथा उसमें विद्यमान चार प्रकार के स्थूलशरीरों की एवं उनके योग्य अन्नपान आदि की उत्पत्ति होती है।

प्रश्न - स्थूलशरीर किसने प्रकार का होता है ?

उ. चार प्रकार का - १. जरायुज(पिण्डज) २. अण्डज ३. उद्भिज ४. स्वेदज ।

प्रश्न - जरायुज(पिण्डज) स्थूल शरीर कैसे उत्पन्न होता है ?

उ. जरायु(पिण्ड) से उत्पन्न होने वाले मनुष्य पशु आदि।

प्रश्न - अण्डज किसे कहते है ?

उ. अण्डों से उत्पन्न होने वाले पक्षी, सर्प आदि अण्डज है।

प्रश्न - उद्भिज्ज स्थूल शरीर का क्या लक्षण है ?

उ. पृथ्वी को भेदकर उत्पन्न होने वाले लता, वृक्ष आदि उद्भिज्ज है ।

प्रश्न - स्वेदज का क्या आशय है ?

उ. पसीने से पैदा होने वाले जू, मच्छर आदि स्वेदज स्थूल शरीर है ।

प्रश्न - पञ्चज्ञानेन्द्रियों के देवता कौन हैं ?

उ.         इन्द्रियाँ                             देवता

               श्रोत्र               -                दिक्

               त्वक्              -                वायु

                चक्षु               -                सूर्य

                रसना             -               वरुण

                 घ्राण              -               अश्विन्

प्रश्न -  पञ्चकर्मेन्द्रियों के देवता कौन हैं ?

उ.          इन्द्रियाँ                             देवता                         

               वाक्                -               अग्नि

               पाणि                -               इन्द्र

                पाद                 -               उपेन्द्र

                पायु                 -               यम

                उपस्थ              -               प्रजापति

प्रश्न - अन्तः चतुष्टय के देवता कौन हैं ?

उ.       अन्तः चतुष्टय                          देवता

                  मन                -                 चन्द्र

                  बुद्धि              -                  ब्रह्म

                 अहङ्कार          -                  शिव

                  चित्त               -                  विष्णु

प्रश्न - कारणशरीर में स्थित चैतन्य,  समष्टि एवं व्यष्टि की दृष्टि से  क्या कहलाता है ?

उ. ईश्वर एवं प्राज्ञ । 

प्रश्न - सूक्ष्मशरीर में स्थित चैतन्य समष्टि एवं व्यष्टि की दृष्टि से क्या कहा जाता है ?

उ.  क्रमशः हिरण्यगर्भ(सूत्रात्मा) या तैजस ।

प्रश्न - स्थूलशरीर में स्थित चैतन्य समष्टि एवं व्यष्टि से क्या कहलाता है ?

उ. क्रमशः वैश्वानर (विराट) एवं विश्व ।

प्रश्न - 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' इस महावाक्य का वाच्यार्थ क्या होता है ?

उ. महाप्रपञ्च तथा उससे उपहित चैतन्य से अभिन्न होकर परमशुद्ध चैतन्य ।

प्रश्न - 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' इस महावाक्य का लक्ष्यार्थ क्या होता है ?

उ. परमशुद्ध चैतन्य की अलग- अलग होने की स्थिति । जिस प्रकार एक लोहे के गोले को अग्नि में डालने पर वह तपकर लाल हो जाता है तथा उससे जलने पर मैं लोहे से जल गया इस प्रकार कहा जाता है जबकि शक्ति लोहे में न होकर अग्नि में होती है।

प्रश्न - अपवाद किसे कहते हैं ?

उ. रस्सी में भ्रान्तिवश प्रतीत होने वाले सर्प की पुनः रस्सीमात्र के रूप में प्रतीति के समान ब्रह्मरूप वस्तु में मिथ्याप्रतीति के कारण अवस्तुरूप अज्ञानादि प्रपञ्च में, पुनः ब्रह्मरूप सत्यवस्तु का भान होना ही वस्तुतः अपवाद है।(अपवादो नाम रज्जुविवर्तस्य सर्पस्य रज्जुमात्रत्ववद्वस्तु विवर्तस्यावस्तुनोऽज्ञानादेः प्रपञ्चस्य वस्तुमात्रत्वम्) ।

प्रश्न - विकार या परिणाम किसे कहते हैं ?

उ. अपने मूलरूप का परित्याग करके अन्यरूप को ग्रहण करना ही विकार कहा गया है (सतत्त्वतोऽन्यथाप्रथा विकार इत्युदीरितः) । जैसे - दूध का दही के रूप में परिवर्तित होना 'विकार' है, क्योंकि दही बनने के बाद दूध के रूप में बनाना असम्भव है। अपने रूप का त्याग करके ही दूध दही बनता है। इसी प्रक्रिया को विकार या परिणाम भी कहा जाता है।

प्रश्न - विवर्त किसे कहते हैं ?

उ. अपने रूप को बिना छोडे अन्य वस्तु की मिथ्याप्रतीति विवर्त कहलाता है (अतत्त्वतोऽन्यथाप्रथा विवर्त इत्युदीरितः) ।

प्रश्न - प्रलयकाल में कौन किसमें विलीन हो जाता है ?

उ.  सुख दुःखरूप भोग का स्थान रूप से उत्पन्न हुए सभी चार प्रकार के स्थूलशरीर, भोग्यरूप अन्न पान आदि इसके आयतनभूत भूः भुवः स्वः आदि चौदहलोक एवं उन भुवनों का आधारभूत ब्रह्माण्ड यह सब अपने कारण रूप पञ्चीकृत महाभूतों में (विलीन) हो जाता है। (एतद्भोगायतनं चतुर्विधसकलस्थूलशरीरजातं रूपद् भोग्यरूपान्नपानादिकमेतदायतनभूतभूरादिचतुर्दशभुवनान्येतदायतनभूतं ब्रह्माण्डं चैतत्सर्वमेतेषां कारणरूपं पञ्चीकृतभूतमात्रं भवति ।)

प्रश्न - तत्त्वमसि महावाक्य का क्या अर्थ है ?

उ. अज्ञान आदि व्यष्टि इसकी उपाधि, अल्पज्ञत्व आदि विशेषताओं से युक्त चैतन्य (अर्थात् जीव), इसकी उपाधि से रहित शुद्धचैतन्य ये तीनों (एक साथ) तप्तलोहपिण्ड के समान अभिन्न प्रतीत होने के कारण 'त्वम्' पद के वाच्यार्थ होते हैं। इस उपाधि से युक्त आधारभूत अनुपहित आनन्दरूप तुरीयचैतन्य त्वम्'पद का लक्ष्यार्थ होता है। अनुपहित शुद्धचैतन्य 'तत्' एवं 'त्वम्' इन दोनों पदों का लक्ष्यार्थ है इसीलिए 'तत्' एवं 'त्वम्' ये दोनों पद यहाँ लक्षण है तथा शुद्धचैतन्य लक्ष्य है। 'तत्त्वमसि' (वह तू है) इत्यादि वाक्य तीन सम्बन्धों से अखण्ड अर्थ का बोध कराने वाला होता है। समानाधिकरण्य, विशेषणविशेष्यभाव एवं लक्ष्यलक्षणभाव ये तीन सम्बन्ध होते हैं।

प्रश्न - वेदान्तदर्शन में किन चार महावाक्यों की विशेषचर्चा  की गई है तथा वे कहाँ से उद्धृत किये गये हैं ?

उ.              महावाक्य                      उपनिषद्

                 प्रज्ञानं ब्रह्म         -          ऐतरेयोपनिषद् -५

                 तत्त्वमसि           -          छान्दोग्योपनिषद् - ६.८

                 अहं ब्रह्मास्मि     -           बृहदारण्यकोपनिषद् १.४

                 अयमात्मा ब्रह्म   -           माण्डुक्योपनिषद् - २

प्रश्न - महावाक्यों का वर्ण्यविषय क्या है ?

उ. ब्रह्म के स्वरूप एवं अद्वैत का प्रतिपादन करना।

प्रश्न - 'तत्त्वमसि' महावाक्य क्या सन्देश देता है ?

उ. 'तत्त्वमसि' महावाक्य वस्तुतः उपदेशवाक्य है। जो एक गुरू द्वारा अधिकारी प्रमाता को उपदेश रूप में दिया जाता है । यह ब्रह्म और जीव की एकता बताता है।

प्रश्न -  'भागलक्षणा' किसे कहते हैं ?

उ. लक्ष्यलक्षणसम्बन्ध को ।

प्रश्न - समानाधिकरण्य सम्बन्ध किसमें होता है ?

उ. पदों में ।

प्रश्न - विशेषण विशेष्यभाव सम्बन्ध किसमें होता है ?

उ. पदों के अर्थों में ।

प्रश्न - लक्ष्यलक्षणभाव सम्बन्ध किस कारण होता है ?

उ. आन्तरिक गुणों के कारण ।

प्रश्न - लक्षणा के भेदों का उदाहरण सहित निरूपण कीजिए ?

उ.           लक्षणा                                उदाहरण

         १. जहत् लक्षणा             -            गंगायां घोषः

         २. अजहत् लक्षणा         -            शोणो धावति

         ३. जहदजहल्लक्षणा      -           तत्त्वमसि

प्रश्न - अनुभववाक्य है ?

उ. अहं ब्रह्मास्मि ।

प्रश्न - उपदेशवाक्य है ?

उ.  तत्त्वमसि ।

प्रश्न - किस वाक्य में ब्रह्माकाराकारिचित्तवृत्ति तथा तद्गत चिदाभास दोनों की आवश्यकता होती है ?

उ. 'अहं ब्रह्मास्मि' में । (ब्रह्मास्मीत्यखण्डाकाराकारिता चित्तवृत्तिरुदेति) ।

प्रश्न - वेदान्त की दृष्टि में अधिकारी को गुरु अखण्ड अर्थ का बोध किस प्रकार कराता है ?

उ.  अध्यारोप एवं अपवादन्याय से 'तत्त्वमसि' महावाक्य के तत् एवं त्वम् पदों के अर्थों को भली प्रकार समझाकर  अधिकारी को गुरु अखण्ड अर्थ का बोध कराता है जिसके परिणामस्वरूप उसके हृदय में अखण्ड आकार से आकारित इस प्रकार की चित्तवृत्ति का उदय होता है कि मैं ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त,सत्यस्वभाव, परमानन्द स्वरूप, अनन्त एवं अद्वैतब्रह्म हूँ।

प्रश्न - जहद्लक्षणा किसे कहते हैॆ ?

उ. जो अपने मूल अर्थ को त्याग दे उसे जहद्लक्षणा कहते हैॆ । इसे लक्षणलक्षणा भी कहते हैं। 

प्रश्न - अजहल्लक्षणा किसे कहते हैं ?

उ. जो अपने अर्थ को न छोड़े वह उपादान लक्षणा या अजहल्लक्षणा होती हैं।

प्रश्न -  जहदजहल्लक्षणा किसे कहते हैं ?

उ. जो अपने मूल अर्थ को त्याग दे और एक अंश का बोध कराये वह जहदजहल्लक्षणा है। इसे भागलक्षणा भी कहते हैं।

प्रश्न - तत्त्वमसि वाक्य का बोध लक्षणा के किस भेद से होता है ?

उ. जहदजहल्लक्षणा या भागलक्षणा से।

प्रश्न - वेदान्त में  लिङ्ग कितने हैं ?

उ. छः(६) - १. उपक्रम, २. उपसंहार, ३. अभ्यास, ४. अपूर्वता फल,  ५. अर्थवाद, ६. उपपत्ति । (लिङ्गानि तूपक्रमोपसंहाराभ्यासापूर्वता फलार्थवादोपपत्त्याख्यानि )

प्रश्न  - आत्मदर्शन के कितने उपाय हैं ?

उ. चार(४) - १. श्रवण, २. मनन, ३. निदिध्यासन, ४. समाधि- अनुष्ठान ।

प्रश्न -वेदान्त में श्रवण का क्या लक्षण है ?

उ. सम्पूर्ण वेदान्तसूत्रों का अद्वितीयवस्तु ब्रह्म में ही तात्पर्य है, यह निश्चय करना ही वस्तुतः श्रवण है। (श्रवणं नाम षड्विधलिङ्गशेषवेदान्तानामद्वितीये वस्तुनि तात्पर्यावधारणम्) ।

प्रश्न - उपक्रम एवं उपसंहार क्या है ?

उ.  प्रतिपादन योग्य पदार्थ का उसके प्रारम्भ एवं अन्त में प्रतिपादन करना क्रमशः उपक्रम एवं उपसंहार है। (तत्र प्रकरणप्रतिपाद्यस्यार्थस्य तदाद्यन्तयोरुपपादनमुपक्रमोपसंहारौ) । 

प्रश्न - अभ्यास का क्या लक्षण है ?

उ. प्रकरण में प्रतिपादित वस्तु का बीच-बीच में बार-बार प्रतिपादन करना ही अभ्यास है। (प्रकरणप्रतिपाद्यस्य वस्तुनस्तन्मध्ये पौनःपुन्येन प्रतिपादनमभ्यासः) ।

प्रश्न - अपूर्वता का क्या लक्षण है ?

उ. प्रकरण में प्रतिपादित अद्वितीय वस्तु को अन्य प्रमाणों से अगम्य वर्णित करना 'अपूर्वता' है। (प्रकरणप्रतिपाद्यस्याद्वितीयवस्तुनः प्रमाणान्तराविषयी करणमपूर्वता )

प्रश्न -  फल का क्या लक्षण है ?

उ. प्रकरण में प्रतिपादित करने योग्य आत्मज्ञान अथवा उसके अनुष्ठान के प्रसंग में श्रूयमाण प्रयोजन ही फल है। (फलं तु प्रकरणप्रतिपाद्यस्यात्मज्ञानस्य तदनुष्ठानस्य वा तत्र तत्र श्रूयमाणं प्रयोजनम्) ।

प्रश्न - अर्थवाद किसे कहते हैं ?

उ. प्रकरण में प्रतिपादित करने योग्य अद्वितीय वस्तु परमब्रह्म की जहाँ जहाँ अवसर प्राप्त होने पर की गई प्रशंसा को अर्थवाद कहा गया है। (प्रकरणप्रतिपाद्यस्य तत्र तत्र प्रशंसनमर्थवादः) । 

प्रश्न - उपपत्ति का क्या लक्षण है ?

उ. प्रकरण में प्रतिपादनायोग्य अद्वितीय वस्तु परमब्रह्म को प्रमाणित सिद्ध करने के लिये यत्र-तत्र जो तर्क एवं युक्तियाँ प्रस्तुत की जाती है। उसे ही उपपत्ति कहा गया है।  (प्रकरणप्रतिपाद्यार्थसाधने तत्र तत्र श्रूयमाणायुक्तिरुपपत्तिः) ।

प्रश्न -  मनन किसे कहते हैं ?

उ. वेदान्त में प्रतिपादित अनुकूल युक्तियों के माध्यम से अद्वितीयतत्त्व ब्रह्म का निरन्तर चिन्तन करना ही 'मनन' कहलाता है। (मननं तु श्रुतस्याद्वितीयवस्तुनो वेदान्तानुगुणयुक्तिभिरनवरतमनुचिन्तनम्) । 

प्रश्न - निदिध्यासन का क्या लक्षण है ?

उ. शरीर से लेकर बुद्धिपर्यन्त भिन्न भिन्न सभी जड़ पदार्थों में भिन्नता की भावना का परित्याग करके, सभी को एकमात्र ब्रह्म मानकर, विश्वास करना ही निदिध्यासन है । (विजातीयदेहादिप्रत्ययरहिताद्वितीयवस्तुसजातीयप्रत्ययप्रवाहो निदिध्यासनम्) ।

प्रश्न - समाधि के कितने भेद हैं ?

उ. दो भेद(२) - १. सविकल्पक समाधि २. निर्विकल्पक । (समाधिर्द्विविधः सविकल्पको निर्विकल्पकश्चेति) ।

प्रश्न - सविकल्पक समाधि से क्या आशय है ?

उ. सविकल्पक समाधि में ज्ञाता एवं ज्ञेय के भेद का लोप न होकर केवल अद्वितीयवस्तु के आकार से आकारित चित्तवृत्ति की स्थिति ही सविकल्पक समाधि है। जिसमें समाधि होने के बाद भी उसे अपने आपका और दूसरे का भी भान न हो वह सविकल्पक समाधि है, जैसे -  मिट्टी का हाथी । (सविकल्पको नाम ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयानपेक्षयाद्वितीयवस्तूनि तदाकाराकारितायाश्चित्तवृत्तेरवस्थानम्) ।

प्रश्न - ज्ञाता कौन है ?

उ. जो जानना चाहता है अर्थात् जिज्ञासु ।

प्रश्न - ज्ञेय कौन है ?

उ.  ब्रह्म या जिसको जानना चाहते हैं ।

प्रश्न - ज्ञान क्या है ?

उ. विषय (ब्रह्म) को पाने का मार्ग है। 

प्रश्न - त्रिपुटी क्या है ?

उ. ध्याता, ध्यान और ध्येय ।

प्रश्न - प्राणायाम कितने प्रकार का होता है ?

उ. तीन प्रकार(३) - १. रेचक,  ३. कुम्भक, २. पूरक।

प्रश्न  - समाधि के विघ्न कौन-कौन हैं ?

उ. चार विघ्न(४) -१. लय (निद्रा आना)

                         २. विक्षेप (अन्यवस्तु का आलम्बन)

                         ३. कषाय (राग, द्वेष से चित्त का जड़ होना )

                         ४. रसास्वादन (समाधि से प्राप्त आनन्द का अनुभव ) ।

प्रश्न - जीवन्मुक्ति का क्या स्वरूप है ?

उ. १. अखण्ड ब्रह्मज्ञान ।

     २. अज्ञान दूर होकर ब्रह्म साक्षात्कार ।

     ३. सञ्चित क्रियमाणादि कर्म, संशय, विपरीत ज्ञान का विनाश।

     ४. कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि बन्धनमुक्त तथा ब्रह्म के स्वरूप में स्थित होना। 

प्रश्न - निर्विकल्पक समाधि का क्या लक्षण है ?

उ. जिसमें अपने आपका और वर्षा तूफान किसी भी वस्तु का ज्ञान न रहे वह निर्विकल्पक समाधि है । (निर्विकल्पकस्तु ज्ञातृज्ञानादिविकल्पलयापेक्षयाद्वितीयवस्तुनि तदाकाराकारितयाश्चित्तवृत्तिरतितरामेकीभावेनावस्थानम्) ।

प्रश्न - समाधि के कितने अङ्ग हैं ?

उ. आठ अङ्ग(८) - 'यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि । (यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयः) ।

प्रश्न - यम कितने हैं ?

उ. पाँच(५) - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। (अहिंसा सत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः) ।

प्रश्न - नियम कितनें हैं ?

उ. पाँच(५) - शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान । (शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः) ।

प्रश्न - आसन क्या है ?

उ. हाथ, पैर आदि की स्थिति विशेष के बोधक पद्म एवं स्वस्तिक आदि आसन हैं । (करचरणादिसंस्थानविशेषलक्षणानि पद्मस्वस्तिकादीन्यासनानि) ।

प्रश्न - प्राणायाम किसे कहते हैं ?

उ. रेचक, पूरक, कुम्भक लक्षणों से युक्त प्राण को नियन्त्रित करने का उपाय ही प्राणायाम है । (रेचकपूरककुम्भकलक्षणाः प्राणनिग्रहोपायाः प्राणायामाः) ।

प्रश्न - प्रत्याहार का क्या लक्षण है ?

उ. अपने- अपने विषयों से इन्द्रियों को निवृत्त कर लेना 'प्रत्याहार' है। (इन्द्रियाणां स्वस्वविषयेभ्यः प्रत्याहरणं प्रत्याहारः) ।

प्रश्न - धारणा क्या है ?

उ. अद्वितीयवस्तु ( ब्रह्म) में अन्तरिन्द्रियों ( मन, बुद्धि एवं चित्त) को नियोजित करना 'धारणा' है।(अद्वितीयवस्तुन्यन्तरिन्द्रियधारणं धारणा) ।

प्रश्न - ध्यान किसे कहते हैं ?

उ. अन्तरिन्द्रियों मन एवं बुद्धि आदि को रुक-रुककर उस अद्वितीयवस्तु ब्रह्म में प्रवृत्त करना ही ध्यान है। (तत्राद्वितीयवस्तुनि विच्छिद्य विच्छिद्यान्तरिन्द्रियवृत्तिप्रवाहो ध्यानम्) ।

प्रश्न - लय नामक विघ्न का क्या लक्षण है ?

उ.  सविकल्पक से निर्विकल्पक समाधि में जाते समय कहीं नींद का आ जाना समाधि का लय नामक विघ्न है।  (लयस्तावदखण्डवस्त्वनवलम्बनेन चित्तवृत्तेर्निद्रा) ।

प्रश्न - विक्षेप नामक विघ्न का क्या लक्षण है ?

उ.  जिस पर हम ध्यान लगाना चाहते हैं, उस पर ध्यान लगाने पर किसी और वस्तुओं पर भी हमारा मन चला जाय वह विक्षेप नामक विघ्न है। (चित्तवृत्तेरन्यावलम्बनं विक्षेपः) । 

प्रश्न - कषाय नामक विघ्न का क्या लक्षण है ?

उ. जिस ब्रह्म पर हम ध्यान लगायें और उसी समय राग आदि का भाव तथा क्रोध या पीड़ा होना आदि कषाय नामक विघ्न हैं। (लयविशेषभावेऽपि चित्तवृत्ते रागादिवासनयास्तब्धीभावादखण्डवस्त्वनवलम्बनं कषायः) ।

प्रश्न - रसास्वाद नामक विघ्न का क्या लक्षण है ?

उ. सविकल्पक समाधि में जब हम ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं । उसी के साथ साथ हमें और भी आनन्द की प्राप्ति होती है । उसी में निर्विकल्पक समाधि मानकर सन्तुष्ट हो जाना ही रसास्वाद नामक विघ्न है। (अखण्डवस्त्वनवलम्बनेनापि चित्तवृत्तेः सविकल्पकानन्दास्वादनं रसास्वादः) । 

प्रश्न - निर्विकल्पकसमाधि कब होती है ?

उ. चार प्रकार के विघ्नों से पूर्णतयारहित चित्त, जब वायुरहित प्रदेश में स्थित दीपक के समान अचल होकर अखण्ड चैतन्यमात्र में स्थित रहता है तब निर्विकल्पकसमाधि होती है । (विघ्नचतुष्टयेन विरहितं चित्तं निर्वातदीपवदचलं भवति) । 

प्रश्न - जीवन्मुक्ति का क्या लक्षण है ?

उ. समस्त बन्धनों से रहित हो जाने से केवल ब्रह्म में ही तत्पर रहने वाले ब्रह्मनिष्ठ को ही जीवन्मुक्त कहते हैं।

"भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे।”

                                                                             (मुण्डकोपनिषद्)

प्रश्न - मुण्डकोपनिषद् में जीवन्मुक्ति का क्या लक्षण दिया गया है ?

उ. अखिलबाधरहितो ब्रह्मनिष्ठः ।

प्रश्न - उपदेशसाहस्री  में जीवन्मुक्ति का क्या लक्षण किया गया है ?

उ. सुषुप्ति के समान जो जाग्रत अवस्था में भी हर जगह अद्वैत को ही देखता है। द्वैत को देखता हुआ भी उसमें विद्यमान अद्वैत का ही दर्शन करता है तथा जो कर्म करते हुए भी निष्क्रिय है। वही इस लोक में आत्मज्ञानी है अन्य कोई नहीं, यह निश्चित है।

सुषुप्तवज्जाप्रति वो न पश्यति द्वयं व पश्यन्नपि चाद्वयत्त्वतः ।

तथा च कुर्वन्नपि निष्क्रियश्च यः, स आत्मविन्नान्य इतीह निश्चयः ॥

प्रश्न - कर्म के कितने प्रकार हैं ?

उ. १. सञ्चित कर्म २. क्रियमाण कर्म ३. प्रारब्ध कर्म ।

प्रश्न - सञ्चितकर्म किसे कहते है ?

उ. अनादिकाल में किए गए कर्म जिनका फल अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है, सञ्चितकर्म कहलाते है।

प्रश्न - क्रियमाण कर्म का क्या आशय है ?

उ. मन, वाणी एवं कर्म द्वारा वर्तमान जन्म में किए जा रहे कर्म क्रियमाण कर्मों की श्रेणी में आते है ।

प्रश्न -  प्रारब्धकर्म किसे कहते हैं ?

उ. चिरकाल के सञ्चित कर्म, जब फलोन्मुख होकर शुभ अथवा अशुभ फल प्रदान करने में तत्पर रहते हैं तब वे ही प्रारब्धकर्म कहलाते हैं। 

प्रश्न -  प्रारब्धकर्म के कितने भेद हैं ?

उ. तीन(३) - १. स्वेच्छाकृत २. परेच्छाकृत ३. अनिच्छाकृत ।

प्रश्न - साधक किस प्रकार कर्मबन्धन से मुक्त होकर खण्ड ब्रह्मरूप में  स्थित होता है ?

उ. स्वेच्छा, अनिच्छा अथवा परेच्छारूप प्रारब्ध कर्मों द्वारा प्राप्त कराए गए, सुख एवं दुःखरूप फलों का अनुभव करते हुए, प्रारब्धकर्मों की समाप्ति के बाद आनन्दस्वरूप आन्तरिक आत्मारूप के बाद परमब्रह्म में प्राणों के लीन होने पर सृष्टि के कारण अज्ञान तथा उसके कार्यरूप संस्कारों के पूर्णतया नष्ट होने के बाद उसे सभी प्रकार के भेदों का आभास होना बन्द हो जाता है। इस अवस्था में जीवन्मुक्त का शरीर पात हो जाता है तथा परमकैवल्य एकमात्र आनन्दरूप में स्थित हुआ वह अखण्ड ब्रह्मरूप में ही स्थित हो जाता है ।

प्रश्न - सत्ता के कितने प्रकार हैं ?

उ. तीन प्रकार(३) - प्रातिभासिक, व्यावहारिक एवं पारमार्थिक ।

प्रश्न - जगत् किस प्रकार की सत्ता है ?

उ. व्यावहारिक तथा प्रातिभासिक ।

प्रश्न - वेदान्त में पारमार्थिक सत्ता किसकी है ?

उ. एकमात्र ब्रह्म की ।

प्रश्न - ब्रह्म ईश्वर की संज्ञा कब प्राप्त करता है ?

उ. शुद्धसत्त्वप्रधान अज्ञान से आवृत्त होने पर ।

प्रश्न - शुद्धसत्त्वप्रधान अज्ञान से आवृत्त होने वाला ईश्वर अव्यक्त अन्तर्यामी संसार का कारण रूप होने से क्या कहलाता है  ?

उ. कारणशरीर ।

प्रश्न - कारणशरीर लयस्थान भी होता है ?

उ. सूक्ष्म एवं स्थूलशरीरों का । 

प्रश्न - स्थूल एवं सूक्ष्म जगत्प्रपञ्च का लयस्थान होने के कारण इसी कारणशरीर को क्या कहा गया है ?

उ.  सुषुप्ति । 

प्रश्न - प्रलय की अवस्था में भी किसकी  स्थिति बनी रहती हैं ?

उ. कारणशरीर की।


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