काव्यशास्त्र के सम्प्रदाय

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काव्यशास्त्र के सम्प्रदाय,


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काव्यशास्त्र के सम्प्रदाय


काव्यशास्त्र के सम्प्रदाय

 काव्यशास्त्र के सम्प्रदाय के इस प्रकरण में ध्वनिसम्प्रदाय, रससम्प्रदाय आदि कुछ सम्प्रदायों की चर्चा है। इन सम्प्रदायों की स्थापना काव्यात्मभूत तत्त्व के विषय में मतभेद के कारण हुई है। जो लोग रस को काव्य की आत्मा मानते हैं वे रससम्प्रदाय के अन्तर्गत हैं। जो अलङ्कारों को ही काव्य की आत्मा मानते हैं वे अलङ्कारसम्प्रदाय के अनुयायी कहे जाते हैं। इसी प्रकार 'रीतिरात्मा काव्यस्य, रीति को ही काव्य की आत्मा मानने वाले रीतिसम्प्रदाय के अन्तर्गत आते हैं। 'काव्यस्यात्मा ध्वनिः', ध्वनि को काव्य की आत्मा माननेवाले ध्वनिसम्प्रदाय के अनुयायी तथा 'वक्रोक्तिः काव्यजीवितम्', वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा माननेवाले वक्रोक्तिसम्प्रदायके अनुयायी कहे जाते हैं। इस प्रकार साहित्यशास्त्र में प्रायः पांच सम्प्रदाय पाये जाते हैं -

(१) रस सम्प्रदाय 

(२) अलङ्कारसम्प्रदाय, 

(३) रीतिसम्प्रदाय,

(४) वक्रोक्तिसम्प्रदाय, तथा 

(५) ध्वनि सम्प्रदाय   

भरत से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक काव्यशास्त्र के सभी आचार्य प्रायः इन्हीं सम्प्रदायों में से किसी न किसी सम्प्रदाय में अन्तर्भूत हो जाते हैं।


१. रससम्प्रदाय

  इन पाँचों सम्प्रदायों में से सबसे मुख्य तथा प्राचीन सम्प्रदाय कदाचित् रससम्प्रदाय है। रस सम्प्रदाय के संस्थापक भरतमुनि है। यदपि राजशेखरने अपनी काव्यमीमांसा में भरत से भी पहले नन्दिकेश्वर को रससिद्धान्त का प्रतिष्ठापक माना है, किन्तु नन्दिकेश्वर का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। इसलिए उपलब्ध साहित्यके आधारपर साहित्य शास्त्रके पितामह भरत को ही रससम्प्रदाय का संस्थापक माना जाता है। रसके विषयमें सबसे पहिला विवेचन भरतके 'नाटयशास्त्र' में ही पाया जाता है। भरतमुनि का विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पति यह प्रसिद्ध रस ही रससिद्धान्त का प्राणभूत है । उत्तरवर्ती आचार्यों ने इसी के आधार पर रस का विवेचन किया है। इसलिए भरतमुनि को ही रस सम्प्रदाय का आदिप्रवर्तक मानना होगा। भरतमुनि ने 'नाट्यशास्त्र' के छठे अध्याय में रसों का और सातवें अध्याय में भावों का बहुत विस्तार के साथ विवेचन किया है। यही रससिद्धान्त का आधार है।

भरतमुनिके रससिद्धान्तके व्याख्याकारके रूप में भट्टनायक, भट्टलोल्लट, शंकुक, अभिनवगुप्त आदि बहुत प्रसिद्ध हैं। इनके मतों को जानने हेतु  --देखें---


२. अलङ्कारसम्प्रदाय


   कालक्रम से भरत के बाद होने वाले दूसरे आचार्य भामह इस अलङ्कारसम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनके व्याख्याकार 'भामह विवरण के निर्माता उद्भट और उनके बाद हुए दण्डी, रुद्रट आदि और पश्चाद्वर्ती प्रतिहारेन्दुराज तथा जयदेव आदि अनेक आचार्य इस अलङ्कारसम्प्रदाय के अन्तर्गत आ जाते हैं। अलङ्कारसम्प्रदाय के अनुयायी भी रस की सत्ता मानते हैं किन्तु उसे प्रधानता नहीं देते हैं। उनके मत में काव्य का प्राणभूत जीवनाधायक तत्त्व अलङ्कार ही है। अलङ्कारविहीन काव्यकी कल्पना वैसी ही है जैसे उष्णता विहीन अग्नि की कल्पना । 'चन्द्रालोक' के निर्माता जयदेवने काव्यप्रकाशकार के काव्यलक्षण में आये 'अनलङ्कृती पुनः क्वापि', अर्थात् 'कहीं-कहीं' अलङ्कारहीन शब्दार्थ भी काव्य हो सकते हैं' इस अंशपर कटाक्ष करते हुए लिखा है

'अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती । 

असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती ॥

अर्थात् काव्यप्रकाशकार जो अलङ्कारविहीन शब्द और अर्थ को भी काव्य मानते हैं वे उष्णताविहीन अग्नि की सत्ता क्यों नहीं मानते ? अलङ्कारसम्प्रदायवादी, काव्यमें अलङ्कारों को हो प्रधान मानते है और इस का अन्तर्भाव रसवदलङ्कारों में करते हैं। रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्विन और समाहित, चार प्रकारके रसवदलङ्कार माने जाते हैं। भामह और दण्डी दोनों ने इन रसवदलङ्कार के भीतर ही रस का अन्तर्भाव किया है -

      रसवद्दर्शितस्पष्टशृङ्गारादिरसं       यथा ॥

                                                        -भामह, काव्यालंकार ३-६

         मधुरे रसवद्वाचि वस्तुन्यपि रसस्थितिः ।

                                    -दण्डी २-५१


३. रीतिसम्प्रदाय

    काव्य में अलङ्कारसम्प्रदाय के बाद रीतिसम्प्रदाय का स्थान आता है। रीति सम्प्रदाय के संस्थापक आचार्य वामन हैं । वामन ने काव्य में अलङ्कार को प्रधानता के स्थान पर रीति की प्रधानता का प्रतिपादन किया है। 'रीतिरात्मा काव्यस्य" यह उनका प्रमुख सिद्धान्त है। इसीलिए उन्हें रीतिसम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है । रीति क्या है इसका विवेचन करते हुए उन्होंने विशिष्ट पदरचना रीतिः अर्थात् विशिष्ट पदरचना का नाम 'रीति' है यह लक्षण किया है। आगे उस 'विशेष की व्याख्या करते हुए 'विशेषो गुणात्मा" अर्थात् रचना में माधुर्यादि गुणों का समावेश ही उसकी विशेषता है। और यह विशेषता ही 'रीति' है। इस प्रकार इस सिद्धान्त में 'गुण' और 'रीति' का अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है इसलिए रीतिसम्प्रदाय को 'गुणसम्प्रदाय' के नाम से भी कहा जाता है।

  आचार्य वामन ने 'काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः" तथा 'तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः इन दो सूत्रों को लिखकर गुण तथा अलंकारों का भेद प्रदर्शित करते हुए अलंकारों की अपेक्षा गुणों के विशेष महत्व को प्रदर्शित किया है। गुण काव्यशोभा के उत्पादक होते हैं तथाअलङ्कार केवल उस शोभा के अभिवर्द्धक होते है। इसलिए काव्य में अलंकारों की अपेक्षा गुणों का स्थान अधिक महत्वपूर्ण है। इसीलिए वामन ने अलंकारों की प्रधानता को समाप्त कर गुणों की प्रधानता का प्रतिपादन करने वाले रीतिसम्प्रदाय की स्थापना की। मम्मट आदि उत्तरवर्ती आचार्यांने 'रीति' की उपयोगिता तो स्वीकार की है किन्तु उसे काव्य का आत्मा स्वीकार नहीं किया है। उनके मत में रीतयोऽवयवसंस्थानविशेषवत्', काव्य में रीतियों की स्थिति वैसी ही है जैसे शरीरमें आँख, नाक, कान आदि अवयवों की । इन अवयवों की रचना शरीर के लिए उपयोगी भी है और शरीर-शोभा की जनक भी है फिर भी उसे आत्मा का स्थान नहीं दिया जा सकता है। इसी प्रकार काव्य में 'रीति' का महत्त्व तथा शोभाजनकत्व होने पर भी उसे काव्य का आत्मा नहीं कहा जा सकता है।


४. वकोक्तिसम्प्रदाय

   कालक्रम से वामनके रीतिसिद्धान्त के बाद उसको दबाकर वक्रोक्तिसम्प्रदाय के संस्थापक वक्रोक्तिजीवितकार आचार्य कुन्तक माने जाते हैं। कुन्तक ने काव्य में रीति की प्रधानता को समाप्त कर 'वक्रोक्ति के प्रधानता की स्थापना की। वैसे काव्यमें वक्रोक्ति का मूल्य भामह ने भी स्वीकार किया है---

सैषा      सर्वत्र       वत्रोक्तिरनयार्थो       विभाव्यते ।

   यत्नोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलङ्कारोऽनया विना ।।'

                                                                -भामह, काव्यालङ्कार २-८५

  इसी प्रकार दण्डीने

 'भिन्नं द्विधा स्वभावोक्तिर्वक्रोक्तिश्चेति वाङ्मयम्'

                                                             -काव्यादर्श, २-३६३

 लिखकर वकोक्तिके महत्वका प्रतिपादन किया है। और वामनने भी -

'सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्तिः'

                                                                                     -काव्यालङ्कारसूत्र, ४-३-८ की वृत्ति

 लिखकर काव्यमें 'वक्रोक्ति'का स्थान माना है। किन्तु उन सबके मतसे वक्रोक्ति सामान्य अलङ्कारादि रूप ही है । कुन्तक ने जो गौरव प्रदान किया है वह उन आचार्यों ने नहीं दिया है। इसलिए कुन्तक ही इस सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं । उन्होंने इस वकोक्तिसिद्धान्त के ऊपर भी 'वक्रोक्तिजीवित' नामक अपने विशाल एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थको रचना को है।

वक्रोक्तिजीवितकार ने अपने पूर्ववर्ती रीतिसिद्धान्त को भी परिमार्जित करके अपने यहां स्थान दिया है। वामनकी पाञ्चाली, वैदर्भी, गौडी आदि 'रीतियाँ' देशभेद के आधार पर मानी जाती थीं। कुन्तक ने उनका आधार देश को न मानकर रचनाशैली को माना है और उनके लिए 'रीति' के स्थान पर मार्ग' शब्द का प्रयोग किया है। वामन की वैदर्भी रीति को कुन्तक 'सुकुमारमार्ग' कहते हैं। इसी प्रकार गौडीरीति को विचित्रमार्ग तथा पाञ्चाली रीति को 'मध्यममार्ग'  कहते हैं।


५. ध्वनिसम्प्रदाय

कालक्रम से वक्रोक्तिसम्प्रदाय के बाद ध्वनिसम्प्रदाय का उदय हुआ। इस सम्प्रदाय के संस्थापक आनन्दवर्धनाचार्य माने जाते हैं। इनके मत में 'काव्यस्यात्मा ध्वनिः', काव्य की आत्मा ध्वनि है। इन सभी सम्प्रदायों में ध्वनिसम्प्रदाय सबसे अधिक प्रबल एवं महत्वपूर्ण सम्प्रदाय रहा है। यों इसके विरोध में भी अनेक ग्रन्थ लिखे गये, किन्तु उस विरोध से ध्वनिसिद्धान्त वैसा ही अधिकाधिक चमकता गया जैसे अग्नि तपाने पर स्वर्ण की कान्ति बढ़ती जाती है। ध्वनिसिद्धान्त के विरोध में वैयाकरण, साहित्यिक, वेदान्ती, मीमांसक, नैयायिक सभी ने आवाज उठायी, किन्तु अन्त में काव्यप्रकाशकार मम्मट ने बड़ी प्रबल युक्तियों द्वारा उन सबका खण्डन करके ध्वनिसिद्धान्त की पुनः स्थापना की। इसीलिए उनको 'ध्वनिप्रतिष्ठापकपरमाचार्य कहा जाता है।

   महामुनि भरत से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक लगभग दो हजार वर्षों के दीर्घकाल के भीतर इन सम्प्रदायों का विकास और सङ्घर्ष होता रहा है।

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भागवत दर्शन: काव्यशास्त्र के सम्प्रदाय
काव्यशास्त्र के सम्प्रदाय
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