काव्य का लक्षण, विभिन्न आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य-लक्षणों का विवेचन

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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kavya
kavya ka Lakxan

  लक्षण किसे कहते हैं ? किसी वस्तु अथवा विषय के असाधारण अर्थात् विशेष धर्म का कथन करना लक्षण कहलाता है । लक्षण निर्धारित करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उसमें विवेच्य वस्तु का ऐसा विशिष्ट गुण निर्दिष्ट किया जाये जो केवल उसी पदार्थ में विद्यमान हो । लक्षण के 2 भेद हैं -

१. स्वरूप लक्षण - अन्तर्भूत मूल गुण का उल्लेख ।

२. तटस्थ लक्षण - इतर व्यावर्तक धर्म का उल्लेख ।

लक्षण का प्रयोजन होता है समान जातीय एवं विषम जातीय अन्य पदार्थों में विभेदीकरण अथवा व्यवहार प्रवर्त्तन, जैसे - ब्रह्मविद्या में, सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म स्वरूप लक्षण है तथा जन्माद्यस्य यतः तटस्थ लक्षण । विवेचना की यही प्रणाली भारतीय दर्शन से भारतीय काव्यशास्त्र में आयी है । 

काव्यलक्षण की विशेषताएँ 

क) अतिव्याप्ति या अव्याप्ति दोष रहित - 

  अतिव्याप्ति का अर्थ है विषय का अनावश्यक विस्तार जैसे - भामह का काव्य का लक्षण शब्दार्थौ सहितौ काव्यम् अर्थात् शब्द तथा अर्थ के सहभाव का नाम काव्य है, यह सम्पूर्ण वाङ्गमय का लक्षण कह दिया न कि काव्य का लक्षण अतः इसमें अतिव्याप्ति दोष आ गया । अव्याप्ति का मतलब है अपूर्ण विस्तार मूलकाव्य लक्षण के केवल  एक भेद का लक्षण बताना जैसे - वर्ड्सवर्थ का काव्य लक्षण कि -कविता तीव्रतम भावों का सहज उच्छलन है । यह मूलतः गीतकाव्य का लक्षण है जो काव्य का एक भेद है ।

ख) लक्षण सूत्रबद्ध हो अर्थात् सारगर्भित ,संक्षिप्त और अर्थवान् हो ।

ग) लक्षण में पारिभाषिक शब्द जैसे - रस वक्रोक्ति अलंकार आदि क्योंकि इस शब्द को शास्त्र से अपरिच्त व्यक्ति नहीं समझ सकता है ।

घ) कथन का अतिविस्तार न हो ।

ङ) तार्किक स्पष्ट एवं सहजबोधगम्य लक्षण हो ।

च) घोर दार्शनिक प्रत्ययों का प्रयोग न हो जैसे - ब्रह्म, माया आदि । ये दार्शनिक अवधारणाएँ पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा में गहन सूक्ष्म विवाद का विषय होती हैं जिससे सामान्य व्यक्ति अनभिज्ञ होता है।

अर्थात् निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि - अरथ अमित अति आखर थोरे ।

काव्य लक्षण विवेचन में ध्यातव्य तीन प्रमुख बातें -

१- काव्य-लक्षण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

२- काव्य लक्षण का आधार 

३- विद्वानों के अभिमतों की समीक्षा तथा लक्षण की शक्ति तथा सीमा का निर्धारण

    इस प्रकार काव्य का लक्षण होना चाहिए । अब हम आगे अनेक काव्यशास्त्रियों द्वारा निर्धारित काव्य लक्षणों का वर्णन कर रहे हैं - 

आचार्य मम्मट का काव्य-लक्षण

     किसी भी पदार्थका अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव - तीनों प्रकार के दोषों से रहित एकदम निर्दुष्ट लक्षण प्रस्तुत करना यों ही कठिन होता है, फिर काव्य जैसे दुर्बोध पदार्थ का लक्षण करना और भी अधिक कठिन है। फिर भी काव्यप्रकाशकार ने इस दिशा में जो प्रयत्न किया है वह प्रशंसनीय है। यद्यपि उत्तरवर्ती विश्वनाथआदि ने उनके लक्षण का बुरी तरहसे खण्डन किया है, परन्तु वास्तविक दृष्टिसे विचार किया जाय तो वह उतना दूषित लक्षण नहीं है जितना विरोधियों ने उसको चित्रित करने का प्रयत्न किया है। उनके काव्य-लक्षण के गुण-दोष की मीमांसा करने से पहले उनके लक्षणों को भली प्रकार समझ लेना चाहिये अन्यथा उसकी समालोचना और मीमांसा समझ में नहीं आ सकेगी । काव्यप्रकाशकार मम्मट काव्य का लक्षण करते हैं -

'तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।

   अर्थात्,   दोषोंसे रहित, गुण-युक्त और साधारणतः अलङ्कार सहित परन्तु कहीं-कहीं अलङ्कार-रहित शब्द और अर्थ दोनों की समष्टि काव्य कहलाती है।

   मम्मटाचार्य के अनुसार यह काव्य का लक्षण है। इस लक्षण में सबसे पहली बात यह है कि मम्मट शब्द तथा अर्थ दोनों की समष्टि को काव्य मानते हैं। अकेला शब्द या अकेला अर्थ इनमें से कोई भी काव्य नहीं है । 'तत्' यह सर्वनाम-पद पिछली 'काव्यं यशसे' इत्यादि कारिका में प्रयुक्त हुए काव्यपद का परामर्शक है। द्वितीय कारिका में मुख्य संज्ञापद या 'काव्य' पद का प्रयोग करने के बाद तीसरी तथा चौथी दोनों कारिकाओं में ग्रन्थकार ने 'तत्' इस सर्वनाम पद के प्रयोग द्वारा ही उसका निर्देश किया है। इसलिए यहां भी 'तत्' पद 'काव्य' का परामर्शक है। 'शब्दार्थौ तत् का अर्थ 'शब्दार्थौ काव्यम्' यह हुआ। इसके अनुसार शब्द तथा अर्थ, ये दोनों मिलकर काव्यपद-वाच्य होते हैं, यह ग्रन्थकार का अभिप्राय है ।

    इस 'शब्दार्थौ' पद के तीन विशेषण लक्षण में प्रस्तुत किये गये हैं। वे शब्द और अर्थ दोनों किस प्रकार के होने चाहिये कि (१) 'अदोषौ', (२) 'सगुणौ' तथा (३) 'अनलंकृती पुनः क्वापि' । अर्थात् वे शब्द तथा अर्थ दोनों दोष-रहित हो यह पहली बात है दूसरी बात यह है कि वे दोनों 'सगुण' माधुर्य आादि काव्य-गुणों से युक्त होने चाहिये और तीसरी बात यह है साधारणत: वे अलङ्कार सहित भी होने चाहिये परन्तु जहाँ कहीं रसादि की प्रतीत हो रही हो वहां उनके अलंकारविहीन होने पर भी काम चल सकता है । इस प्रकार इन तीन विशेषणों से युक्त शब्द तथा अर्थ की समष्टि का नाम काव्य है, यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है। अनलंकृती पुनः क्वापि का उदाहरण देते हैं -

     यः    कौमारहरः   स  एव  हि  वरस्ता एव   चैत्रक्षपा

      स्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढाः कदम्बानिलाः।

       सा चैवास्मि      तथापि तत्र   सुरतव्यापारलीलाविधौ

         रेवारोधसि      वेतसीतरुतले    चेतः    समुत्कण्ठते ॥

   अर्थात्, जिन प्रियतम पतिदेव ने विवाह के बाद प्रथम सम्भोग द्वारा मेरे कुमारीभाव के सूचक योनिच्छद का भङ्ग करके कौमार्य का हरण किया, चिर उपभुक्त मेरे कौमार्यका हरण करनेवाले वे हो पतिदेव हैं, और आज फिर वे ही चैत्र मास की उज्ज्वल चांदनी से भरी हुई रातें है, खिली हुई मालती (वसन्त में खिलने वाली लता विशेष) सुगन्ध से भरी हुई और धूलि-कदम्ब की उन्मादक, प्रौढ़ एवं अत्यन्त कामोत्तेजक वायु बह रही है और मैं भी वही हूँ । सभी सामग्री पुरानी, चिर उपभुक्त होने से उसमें उत्कण्ठा होने का कोई अवसर नहीं फिर भी न जाने क्यों आज  वहाँ नर्मदा तट पर उस बेत के पेड़ के नीचे जहां अनेक बार अपने पतिदेव के साथ सम्भोग कर चुकी हूँ, सम्भोगकी उन काम-केलियों के फिर-फिर करने के लिए चित्त उत्कण्ठित हो रहा है । यह श्लोक शार्ङ्गधरपद्धति में शिलाभट्टारिका के नाम दिया गया है।

    यहाँ कोई स्पष्ट अलङ्कार नहीं है और रस के प्रधान होने से रसवदलङ्कार के रूपमें उसको भी अलंकार नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि वह रसवदलङ्कार रस के गौण होने पर ही होता है ।

 पण्डितराज जगन्नाथ का काव्य-लक्षण

 "रमणीयार्थ प्रतिपादक: शब्द: काव्यम्'

पण्डितराज जगन्नाथ को छोड़कर प्रायः सभी प्राचार्यों ने शब्द और अर्थ दोनों को ही काव्य माना है।


भामह का काव्य-लक्षण

मम्मट के पूर्ववर्ती आचार्यों में से साहित्यशास्त्र के भीष्मपितामह भामह का काव्य-लक्षण सबसे अधिक प्राचीन है। उन्होंने काव्य का लक्षण किया है -

'शब्दार्थों सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद् द्विधा ।'

                                                                 - काव्यालंकार १.१

   यह लक्षण जितना ही प्राचीन है उतना ही संक्षिप्त है। उन्होंने शब्द और अर्थ दोनों के सहभाव को काव्य माना है। वे सहभाव या 'सहितौ' शब्द का क्या अर्थ लेते हैं इसकी व्याख्या भी उन्होंने नहीं की है। पर उनका अभिप्राय यह है कि जिस रचना में वर्णित अर्थ के अनुरूप शब्दों का प्रयोग हो या शब्दों के अनुरूप अर्थ का वर्णन हो वे शब्द और अर्थ ही 'सहितौ' पद से विवक्षित हैं। वही शब्द और अर्थ का 'साहित्य' है ।


दण्डीका काव्य-लक्षण

    भामह के बाद 'काव्यादर्श' के निर्माता "दण्डी' का स्थान माना जाता है। दण्डी ने पूर्व के आचार्यों का उल्लेख करते हुए लिखा है -

अतः    प्रजानां    व्युत्पत्तिमभिसन्धाय  सूरयः।

 वाचां विचित्रमार्गाणां निबबन्धुः क्रियाविधिम् ॥

 तैः   शरीरं   काव्यानामलङ्काराश्च    दर्शिताः ।

                                                                      - काव्यादर्श, १.९-१०

    अर्थात् प्रजाजनों की व्युत्पत्ति को ध्यान में रखकर भामह आदि प्राचीन विद्वानों ने विचित्र मार्गों से युक्त काव्यवाणी के रचना प्रकारों का वर्णन किया है, जिसमें उन्होंने काव्य के शरीर तथा उसके अलंकारों का वर्णन किया है। यहाँ तक डेढ़ कारिका में दण्डी ने पूर्व आचार्यों के मत की चर्चा की है। उनका सङ्केत यहाँ मुख्य रूप से 'भामह की ओर ही है । 'भामह के 'शब्दार्थों सहितौ काव्यम् इस लक्षण में काव्य के शब्द और अर्थमय 'शरीर' का निर्देश है और आगे ग्रन्थ में उसके अलङ्कारों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार 'तैः शरीरं काव्यानामलङ्काराश्च दर्शिताः।' यह पंक्ति स्पष्टरूप से 'भामह की ओर संकेत कर रही है । भामह के इस लक्षण में आये हुए 'सहितौ' पद की कोई व्याख्या नहीं की गयी थी । इस कमी को पूरा करने का प्रयत्न 'दण्डी' ने किया है , यथा -

शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिता पदावली ॥'

    यही दण्डी का काव्य-लक्षण है। इष्ट अर्थात् मनोरम, हृदयाह्लादक अर्थ से युक्त पदावली- शब्द समूह अर्थात् शब्द और अर्थ दोनों मिलकर ही काव्य शरीर है। इस प्रकार 'भामह' और 'दण्डी' दोनों ने काव्य के शरीर तथा अलङ्कारों की चिन्ता को है, पर उसकी आत्माका विचार नहीं किया है।


वामनका काव्य-लक्षण

      दण्डी के बाद 'वामन' का काव्य-लक्षण सामने आता है। वामन ने भामह और दण्डी के उक्त काव्य शरीर में प्राणप्रतिष्ठा करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने काव्य के शरीर की चिन्ता न करके उसके आत्मा का अनुसन्धान करने का प्रयत्न किया है। यथा-

 'रीतिरात्मा काव्यस्य'

                                                   - काव्यालङ्कारसूत १.२.६

   यह उनका प्रसिद्ध सूत्र है । अर्थात् ये 'रीति' को काव्य की 'आत्मा' मानते हैं और 'काव्यं ग्राह्यमलङ्कारात्', 'सौन्दर्यमलङ्कारः' आदि सूत्रों में काव्य के सौन्दर्याधायक अलङ्कारों को काव्य की ग्राह्यता एवं उपादेयता का प्रयोजक मानते हैं ।


आनन्दवर्धन का काव्य लक्षण

    भामह और दण्डी ने काव्य के शरीर की चर्चा की थी इसलिए आत्मा का कोई प्रश्न उनके सामने नहीं था । वामन ने 'रीतिरात्माकाव्यस्य' लिखकर काव्यकी 'आत्मा' क्या है ? एक नया प्रश्न उठा दिया है। इसलिए अगले विचारक आनन्दवर्धनाचार्य के सामने काव्य की आत्मा के निर्धारण करने का प्रश्न, काव्य प्रश्न बन गया । रीतियों को वे केवल 'सङ्घटना' या अवयव-संस्थान के समान ही मानते हैं, उनको काव्य की 'आत्मा' वे नहीं मानते हैं। इसलिए उन्होंने 'ध्वनि' को काव्य की आत्मा माना है और वह भी अपने मत से ही नहीं, अपितु प्राचीन अलिखित परम्परा के आधार पर वे 'ध्वनि' को ही काव्य की आत्मा मानने के पक्ष में हैं। इस विषय में कुछ लोगों ने विप्रतिपत्ति उत्पन्न कर दी थी, उन्हीं के निराकरण के लिए उन्हें 'ध्वन्यालोक' ग्रन्थ लिखने की आवश्यकता पड़ी।

काव्यस्यात्मा ध्वनिरिति बुधैः यः समाम्नातपूर्व-

स्तस्याभावं     जगदुरपरे     भारतमास्तमन्ये ।

केचिद्वाचा     स्थितमविषये    तत्त्वमूचुस्तदीयं

   तेन   ब्रूमः   सहृदयमनः   प्रीतये  तत्स्वरूपम् ॥

    इस प्रकार आनन्दवर्धनाचार्य के मत से 'ध्वनि' ही काव्य का जीवनाधायक तत्त्व है। उसके बिना सुन्दर शब्द और अर्थ भी निर्जीव देह के समान त्याज्य हैं। ध्वनि-रूप आत्मा की प्रतिष्ठा होने पर ही शब्दार्थ काव्य होते हैं। 


राजशेखर का काव्य लक्षण

    पिछले आचार्यों ने काव्य के शरीर, आत्मा अलङ्कार आदि का जो यह रूपक बांधा था इसकी पृष्ठ-भूमि में उन्होंने एक 'काव्यपुरुष ' की कल्पना की थी जो बहुत स्पष्ट नहीं थी आगे चलकर राजशेखर ने इस 'काव्यपुरुष' की कल्पना को एकदम स्पष्ट और मूर्त रूप प्रदान कर दिया। उन्होंने 'काव्यपुरुष' का वर्णन करते हुए लिखा है -

"शब्दार्थौ ते शरीरम्, संस्कृतं मुखम् प्राकृतं बाहुः, जघनमपभ्रंशः, पैशाचं पादौ, उरो मिश्रम् । समः प्रसन्नो मधुर उदार ओजस्वी चासि । उक्तिचणं व ते वचः, रस आत्मा, रोमाणि छन्दांसि, प्रश्नोत्तर-प्रवह्लिकादिकं च वाक्केलिः, अनुप्रासोपमादयश्च त्वामलङ्कुर्वन्ति ।

                                                                                                                     - काव्यमीमांसा

    ध्वनिकार ने ध्वनि को काव्य की 'आत्मा' माना था। राजशेखर ने उस आत्मतत्त्व को और अधिक निश्चित रूप देने के लिए वस्तु ध्वनि तथा अलङ्कारध्वनि को छोड़कर केवल रसको काव्य की आत्मा माना है।


 कुन्तक का काव्य-लक्षण

   वक्रोक्तिजीवितकार कुन्तक ने इन सबकी अपेक्षा अधिक विस्तारपूर्वक और अधिक स्पष्ट रूप से काव्य का लक्षण करने का प्रयत्न किया है।

शब्दार्थौ सहितौ वक्र-कविव्यापारशालिनि ।

  बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ॥

                                                                                         - वक्रोक्तिजीवितम्, १.७

  कुन्तक के इस लक्षण में पूर्वोक्त सभी लक्षणों का सारांश प्रायः आ जाता है। 'शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्' यह भामह का लक्षण कुन्तक के इस लक्षण में स्पष्टरूप से ही समाविष्ट हो गया है। 'तद्विदाह्लादकारिणि बन्धे व्यवस्थितौ, से दण्डी की 'इष्टार्थव्यवच्छिन्नापदावली  तथा वामन की 'रीति' दोनों समावेश हो जाता है। 'वक्र-कविव्यापारशालिनि से ध्वन्यालोककार के व्यञ्जना- व्यापार-प्रधान 'ध्वनि' तथा राजशेखर के 'रस' दोनों का अन्तर्भाव हो जाता है। इस प्रकार कुन्तक ने मानों पूर्ववर्ती सभी आचार्यों के काव्य-लक्षणों का निचोड़ अपने इस लक्षण में समाविष्ट कर दिया है। फिर भी अभी उनकी तृप्ति नहीं हुई है। क्योंकि 'सहितौ' पद का स्पष्टीकरण न भामह के लक्षण में हुआ था और न यहाँ हुआ है। अतएव शब्द और अर्थ के इस 'साहित्य' का स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं -

शब्दार्थौ   सहितावेव  प्रतीतौ  स्फुरतः  सदा । 

सहिताविति     तावेव    किमपूर्वं    विधीयते ॥

साहित्यमनयो:  शोभाशालितां प्रति काप्यसौ। 

अन्यूनानतिरिक्तत्वमनोहारिण्यवस्थितिः      ॥

                                                                                            - वक्रोक्तिजीवित, १.१६-१७

      यहां पहले यह शंका उठायी है कि शब्द और अर्थ तो प्रतीति में सदा साथ-साथ ही भासते हैं फिर 'सहितौ' पदसे आप उनमें कौन-सी विशेषता दिखलाना चाहते हैं ? इस शंका का उत्तर देते हुए कुन्तक यह कहते हैं कि शब्द और अर्थ के 'साहित्य' का अभिप्राय काव्य-सौन्दर्य के लिए उनकी 'न्यूनता या अधिकता से रहित' मनोहर होना चाहिये। उसी को शब्द और अर्थ का 'साहित्य' कहते हैं । इस प्रकार कुन्तक ने काव्यलक्षण को अधिक विस्तार के साथ स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है।


क्षेमेन्द्र  का काव्य-लक्षण

   साहित्यशास्त्र के इतिहास में जिस प्रकार वामन अपने 'रीति-सिद्धान्त के लिए, आनन्दवर्धन अपने 'ध्वनि-सिद्धान्त' के लिए और कुन्तक अपने 'वक्रोक्ति-सिद्धान्त के लिए प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार क्षेमेन्द्र अपने 'औचित्य सिद्धान्त' के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने 'औचित्य को ही काव्य का 'जीवित' माना है। अपने 'औचित्यविचारचर्चा में वे लिखते हैं -

काव्यस्यालमलङ्कारैः किं मिथ्यागणितैर्गुणैः ।

यस्य जीवितमौचित्यं विचिन्त्यापि न दृश्यते ॥

  अलङ्कारास्त्वलङ्कारा     गुणा एव गुणाः सदा । 

      औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीवितम् ॥


 विश्वनाथ का काव्य-लक्षण

   साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ रसात्मक वाक्य' को काव्य मानते हैं। 'वाक्यं रसात्मक काव्यम्' यह उनका काव्य-लक्षण है ।


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