क्या अथर्ववेद जादू-टोने का ग्रन्थ है ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 क्या अथर्ववेद जादू-टोने का ग्रन्थ है ? 



  सभी पाश्चात्य विद्वान् इस विचार से सहमत हैं कि अथर्ववेद जादू-टोने का ग्रन्थ है। विन्तर्नित्स ने ऋग्वेदसंहिता और अथर्ववेदसंहिता की परिभाषा इस प्रकार की है "ऋग्वेद स्तुतिगानों के ज्ञान का वेद है। सामवेद गानपरक तथा यजुर्वेद यज्ञपरक वेद है। अथर्ववेदसंहिता अथर्वमन्त्रों का संग्रह, अर्थात् जादू के मन्त्रों (अथर्वन्) का शास्त्र है।" वे आगे लिखते हैं " अथर्ववेद का अर्थ है 'अथर्वा का वेद' अथवा 'जादुई मन्त्रों का शास्त्र"। मूल में अथर्वन् का अर्थ है 'अग्निपूजक' (a fire-priest), और सम्भवतः पुजारी के लिये यह भारतीय प्राचीनतम नाम है और भारत-ईरानी काल से चला आ रहा है । अवेस्ती, अथर्वन् और वैदिक अथर्वन् में कोई अन्तर नहीं है। जिस प्रकार प्राचीन संस्कृति और सभ्यताओं वाले अन्य राष्ट्रों में पुजारी और जादू-टोना करने वाले एक ही व्यक्ति होते थे, उसी प्रकार ईरान और भारत में भी दोनों कार्य एक ही मनुष्य करता था। भारतीय साहित्य में अथर्ववेद के लिये मिलने वाला प्राचीनतम नाम अथर्वाङ्गिरस है। 'अथर्वों और अङ्गिरों का वेद' अङ्गिरा भी अथर्वों की तरह अग्नि में यज्ञ-याग करने वाले लोग थे। और यह शब्द भी अथर्वन् की तरह 'जादुई मन्त्रों का पर्याय हो गया। इन दोनों शब्दों के अर्थों में अन्तर यह किया जाता है, कि अथर्वन् प्रसन्नता देने वाले 'शुभ, अच्छे जादू' (holy magic) का पर्याय है और अङ्गिरस् दुःख देने वाले 'बुरे, घातक जादू' (hostile magic, black magic) का। अथर्वन् के अन्तर्गत रोगों का निवारण करने वाले जादू-टोने आते हैं और अङ्गिरस के अन्तर्गत शत्रुओं, विरोधियों और जादू-टोना करने वालों को हानि पहुँचाने वाले। अथर्ववेद वस्तुतः अथर्वाङ्गिरस का ही संक्षिप्त रूप है।

  अथर्ववेद को 'जादू-टोनों का वेद' बनाने का उत्तरदायित्व वस्तुतः कौशिकसूत्र के कर्ता और उसका अनुकरण करने वाले सायण आदि परवर्ती भाष्यकारों पर है। कौशिकसूत्र में अथर्ववेद के सभी मन्त्रों का गृह्य अनुष्ठानों में विनियोग करने का प्रयास किया गया है। इन सूत्रों में अथर्ववेद के मन्त्रों को असम्बद्ध, निराधार जादू-टोनों की क्रियाओं के साथ जोड़ा गया, और मन्त्रों के अर्थों को इस प्रकार मोड़ देने का प्रयास किया गया, जिससे ऐसा प्रतीत हो कि इन मन्त्रों की रचना जादू-टोनों की क्रियाओं के लिये ही हुई है। क्रियाओं के अनुष्ठानों में इस प्रकार के क्रिया-कलापों को जोड़ दिया गया जिनका मन्त्र के अर्थ के साथ दूर का भी कोई सम्बन्ध नहीं है। इससे वेद के मन्त्रों के अर्थों को भली प्रकार न समझने वाले लोगों के मनों में यह भावना उत्पन्न हो गई, कि जो अनुष्ठान किया जा रहा है, वह मन्त्र के अर्थ के अनुसार किया जा रहा है। इस प्रकार उनके लिये अथर्ववेद के मन्त्र 'जादू-टोनों के मन्त्र' बन गए। उदाहरण के लिये हम अथर्ववेद के प्रथम काण्ड के प्रथम सूक्त को ले सकते हैं। इस मन्त्र के ऋषि अथर्वा, देवता वाचस्पति और छन्द अनुष्टुप् है। इस सूक्त में ब्रहाचारी के द्वारा ज्ञान (श्रुत) के लिये वाचस्पति अर्थात् वाक् के स्वामी परमेश्वर अथवा वाणी के रक्षक उपाध्याय से प्रार्थना की जा रही है। इस सूक्त में चार मन्त्र है। मन्त्र २ और ३ के चतुर्थ पाद में आए "मय्येवास्तु मयि श्रुतम्" 'मुझमें ही (स्थिर) हो मुझमें, सुना हुआ' और चौथे मन्त्र के उत्तरार्ध के "सं श्रुतेन गमेमहि मा श्रुतेन वि राधिषि" 'संगति सुने हुए की करें हम, मत सुने हुए से वियुक्त हो मैं' इस मन्त्र का आशय बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है परन्तु कौशिकसूत्र ने अनेक अनर्गल कर्मों को अनुष्ठान के रूप में इसके साथ जोड़ दिया है। 

" शुकशारिकृशानां जिह्वा बध्नाति । आशयति । औदम्बरपलाशकर्कन्धूनाम् आदधाति । आवपति। भक्षयति। उपाध्यायाय भैक्षं प्रयच्छति । सुप्तस्य कर्णम् अनुमन्त्रयते । उपसीदन् जपति। धानाः सर्पिर्मिश्राः सर्वहुताः। तिलमिश्रा हुत्वा प्राश्नाति । पुरस्ताद् अग्नेः कल्माषं दण्डं निहत्य पश्चाद् अग्नेः कृष्णाजिने धागा अनुमन्त्रयते सूक्तस्य पारं गत्वा प्रयच्छति। सकृज्जुहोति । दण्डधानाजिनं ददाति। (कौशिकसूत्र १०.२-१५) 

    सायण ने कौशिकसूत्र का अनुसरण करते हुए इन मेधाजनन कर्मों को अपने सरल शब्दों में इस प्रकार दोहराया है- 

"उदुम्बरपलाशकर्कन्धूसमिदाधानम्, व्रीहियवतिलानाम् आवपनम्, क्षीरौदनपुरोडाशरसानां भक्षणम्, उपाध्यायाय भैक्षदानम्, सुप्तस्योपाध्यायस्य कर्णानुमन्त्रणम्, उपाध्यायोपसदनकाले जपः, आज्यमिश्रधानाहोम, तिलमिअधाना हुत्वा राच्छेषभक्षणम्, उपाध्यायाय दण्डाजिनधानाः प्रदातुधानानुमन्वणम्, तद्वद् एवं धानाहोम, शुकशारिभारद्वाजानां पक्षिणां जिह्वाबन्धनं तत्प्राशनं च । एतानि कर्माणि अनेन सूक्तेन मेधाकामस्य कार्याणि । "

  मेधा की कामना वाले ब्रह्मचारी के लिये ये जो कार्य कौशिकसूत्र और सायण ने गिनाए है, इनका सूक्त के मन्त्रों में कोई संकेत तक नहीं है। इन अनुष्ठानों के साथ इस सूक्त का विनियोग करके इसे एक जादू-टोने वाला सूक्त बनाने का प्रयास किया गया है।

  एक अन्य उदाहरण द्रष्टव्य है। तृतीय काण्ड के सूक्त १ और २ का विषय 'शत्रुसेना का किंकर्तव्यविमूढीकरण' है। यहाँ इन्द्र नरेन्द्र अर्थात् राजा है। वह धनों का स्वामी (मघवन्) है। अग्नि मार्गदर्शक (अग्रणी) है। वह यज्ञ में पुरोहित के रूप में और युद्ध में सेनापति क रूप में नेतृत्व करता है। इन्द्र क्षत्रिय है और अग्नि विद्वान् ( ब्राह्मण)। ये दोनों क्रमशः बल और बुद्धि के प्रतीक हैं। दोनों मिलकर ही शत्रु को पराभूत कर सकते हैं। मरुत् संग्राम में राजा के लिये मृत्यु का वरण करने वाले सैनिक हैं। वसु (बसने वाले) प्रजाजन (विशः) हैं। ये सब यदि राजा के पक्षधर और सहायक होंगे, तो राजा को शत्रुसेना को किंकर्तव्यविमूढ करके उस पर विजय पाना सुनिश्चित है परन्तु कौशिकसूत्र और सायण ने इसके साथ भी कुछ अनुष्ठानों को जोड़कर इसे भी जादू- -टोने का सूक्त बनाने का प्रयास किया है।

 ... अग्निर् नः शत्रून्' (अथर्व ३.१) अग्निर् न दूत' (अथर्व ३.२) इति मोहनानि ओदनेनोपयम्य फलीकरणान् उलूखलेन जुहोति एवम् अणून् । एकविंशत्या शर्कराभिः प्रतिनिष्पुनाति अप्वां यजते।(कौशिक सूत्र १४.१७-२१)

  सायण ने इसी बात को अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है-

 "तत्र प्रथमेऽनुवाके पञ्च सुक्तानि तत्र अग्निर् णः  शत्रून्' इति प्रथमं सूक्तम् तस्य परसेनामोहनकर्मणि फलीकरणमिश्रितस्व या कणिकिकामिश्रितस्य वा ओदनपिण्डस्य सांग्रामिकाग्नौ उलूखलेन होमे विनियोगः । ... 'अग्निर् णो दूतः इति द्वितीयसुक्तेन परसेनामोहनकर्माणि पूर्वसूक्तोक्तानि कुर्यात्।"

  अथर्ववेद के काण्ड १९, सूक्त ४३ में ऋषि अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, सोम, इन्द्र, आप और ब्रह्मा से प्रार्थना कर रहा है कि "वे उसे उस लोक में ले जाएँ जहाँ ब्रह्मज्ञानी लोग अपने समर्पण और तप के बल से जाते हैं, और वे उसे मेधा, प्राणशक्ति, दर्शनशक्ति, मनःशक्ति, शान्ति, शारीरिक बल, अमरता और ज्ञान प्रदान करें।" ये आठ ऐसे मूल्य हैं, जिनके बिना जीवन को सफलता और पूर्णता प्राप्त नहीं हो सकती। कौशिकसूत्र ने इस सूक्त को भी एक जादू-टोना बना दिया है। 

   इसी प्रकार के कुछ और उदार भावनाओं वाले काव्यात्मक सूक्त हैं, जिन्हें कौशिकसूत्र में आभिचारिक अनुष्ठानों के साथ जोड़ दिया गया है । अथर्ववेद काण्ड २.११ के पाँच मन्त्रों का एक सुन्दर भावों वाला सूक्त है। इसका शीर्षक हम 'आत्मविश्वास जगाओ, श्रेष्ठ की संगति करो, बराबर वालों से आगे बढ़ो' निश्चित कर सकते हैं।  इसका प्रथम मन्त्र द्रष्टव्य है ।

दूष्या दूषिर् असि हेत्या हेतिर् असि मेन्या मेनिर् असि । आप्नुहि श्रेयांसम् अति समं क्राम ॥ १ ॥(विनाश का विनाश है तू, हथियार के लिये हथियार है तू, वज्र के प्रति वज्र है तू । पास पहुँच श्रेष्ठ के, अतिक्रमण समान का कर जा तू ।।) 

  इस सूक्त के प्रत्येक मन्त्र के अन्तिम पाद में स्पष्ट उल्लेख है 'पास पहुँच श्रेष्ठ के, अतिक्रमण समान का कर जा तू' । मन्त्रों में मनुष्य को श्रेष्ठों की सङ्गति से हथियारों का मुँह मोड़ देने वाला, शत्रु पर आक्रमण करके उस पर विजय प्राप्त करने वाला, आत्मरक्षक, विद्वान्, वर्चस्वी, तेजस्वी बताकर उसे समान जनों से आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया गया है।

सायण ने कौशिकसूत्र (३९.१) को आधार बनाकर लिखा है - 

तृतीयेऽनुवाके सप्त सूक्तानि । तत्र 'दूष्या दूषिर असि' इति प्रथमं सूक्तम्  स्त्रीशूद्रराजब्राह्मणकापालिकान्त्यजशाकिन्यादिकृताभिचारे स्वात्मरक्षार्थम् कृत्याप्रतिहरणार्थं चानेन सूक्तेन तिलकमणिं संपात्य अभिमन्त्र्य बध्नीयात्।'

  सायण ने स्रक्ति का अर्थ 'तिलकवृक्ष' करके स्रक्त्य: को 'तिलकवृक्ष से बनी मणि' माना है। इस आधार पर सायण के द्वारा किये गए इस सूक्त के अर्थ से इसका काव्यात्मक सौन्दर्य और इसको उदात्त भावना बिल्कुल नष्ट हो गई है। कौशिकसूत्र, सायण और पाश्चात्य विद्वानों ने मणि का अर्थ ताबीज़ ( amulet) किया है जो आभूषण के रूप में धारण किया जाता था। अलङ्कार शब्द का अर्थ भी समर्थ बनाने वाला' (अलं समर्थं करोतीति अलङ्कारः) परन्तु इसका मूल अर्थ 'jewel, gem' है। इसे शोभा और उत्साहवर्धन के लिये अलंकार या गहने(अलंकरोतीति अलङ्कारः)कहा जाता है। आभरण शब्द का अर्थ भी बाहर से कुछ लाकर भरने वाला, रिक्तता को पूर्ण करने वाला' (आनीय भरतीति आभरणम्) है। अथर्व ८.५.१२ में कहा गया है कि मणि को धारण करने वाला मनुष्य व्याघ्र, सिंह, साँड और शत्रुहन्ता हो जाता है।

 स इद् व्याघ्रो भवत्यथो सिंहो अथो वृषा । अथो सपत्नकर्शनो यो बिभतीमं मणिम् ॥

इसी सूक्त का मन्त्र ८ भी विचारणीय है-

 स्राक्त्येन मणिना ऋषिणेव मनीषिणा । अजैषं सर्वाः पृतना वि मृधो हन्मि रक्षसः ॥('इस तिलकवृक्ष की मणि के द्वारा अथर्वा ऋषि की तरह मैंने शत्रुसेनाओं को जीत लिया है। और बलवान् राक्षसों को नष्ट कर दिया है।')

   मणि को प्रायः सिर पर धारण किया जाता होगा, इसी लिये शिरोमणि शब्द की प्रसिद्धि हुई।  अथर्व ३.३० का देवता अनुक्रमणी के अनुसार 'चन्द्रमाः, सांमनस्यम्' है  । ब्लुम्फील्ड ने इसे ‘संमनस्कता उत्पन्न करने वाला टोना' (charm to secure harmony) कहा है। कौशिकसूत्र १२.५ में सांमनस्यानि नामक सात सूक्तों के संग्रह में इसे प्रथम स्थान दिया गया है। कौशिकसूत्र (१२. ५-६) को प्रमाण मानकर सायण ने इस सूक्त के विनियोग के साथ निम्नलिखित क्रियाओं का उल्लेख किया है -

'सहृदयं सांमनस्यम्' इति सूक्तेन सांमनस्यकर्मणि ग्राममध्ये संपातितोदकुम्भनिनयनम् तद्वत्सुराकुम्भनिनयनम् त्रिवर्षवत्सिकाया गोः पिशितानां प्राशनम् संपातितान्नप्राशनम् संपातितसुरायाः पायनम्तथाविधप्रपोदकपायनम् च कुर्यात् ।

 इसका अर्थ यह हुआ कि 'इस सूक्त के द्वारा किये जाने वाले सांमनस्य नामक कर्म में ग्राम के मध्य में घृत के लेप वाले घड़े से जल का छिड़काव, सुरा के घड़े से सुरा का छिड़काव, गऊ की तीन वर्ष की बछड़ी के मांसों का भोजन, चारों ओर जल फिराए हुए अन्न का भोजन, जल फिराए हुई सुरा का पान और उसी प्रकार प्याऊ के जल का पान कराना चाहिये।'

 सुरापान, गोमांसभक्षण आदि इन अनावश्यक, बेहूदा, राक्षसी क्रियाओं का सूक्त के मन्त्रों में कहीं कोई संकेत नहीं है। इन क्रियाओं के द्वारा कौशिकसूत्रकार और उसके अनुयायी सायण ने इस सूक्त की उदात्तभावना और पवित्रता को भी नष्ट करने का कुकर्म किया है।

  अथर्व ६.६४ सूक्त का देवता भी 'सांमनस्यम्' है इसमें तीन मन्त्र है, जो कुछ पाठभेद के साथ ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त १०.१९१ से गृहीत किये गए हैं। इन मन्त्रों में कहा गया है कि तुम्हारे पूर्वज जिस प्रकार मिल बाँट कर खाते थे उसी प्रकार तुम भी समान विचारों वाले और संगठित होकर रहो तुम अपने ग्राम और घरों में एक विचार, एक समिति, एक व्रत, एक चित वाले होकर तथा मिलकर अग्निहोत्र करने वाले बनकर रहो। तुम्हारे मन, हृदय और संकल्प एक होने चाहियें, तभी तुम साथ मिलकर रह सकोगे। यह सूक्त नीचे दिया जाता है-

 सं जानीध्वं सं पृच्यध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।। १ ।। समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं व्रतं सह चित्तम् एषाम् । समानेन वो हविषा जुहोमि समानं चेतो अभिसंविशध्वम् ।। २।।समानी व आकूतीः समाना हृदयानि वः । समानम् अस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।। ३ ।।

 ब्लूमफील्ड ने इस सूक्त को अपने सूक्तसंग्रह की छठी सूची में रखा है और इसका शीर्षक 'कलहनिवारण टोना' (charm to allay discord) रखा है। ह्विटने ने इसे 'सांमनस्य के लिये' (For concord) कहा है। ग्रिफिथ ने इसे 'सहमति बनाने वाला अथवा समिति में ऐकमत्य उत्पन्न करने वाला सूक्त' (A hymn to promote agreement or unanimity in an assembly) कहा है।

  सायण ने इस सूक्त की भूमिका में लिखा है 

"सं जानीध्वम्' इति तृचेन सामनस्यकर्मणि उदकुम्भं सुराकुम्भं वा संपात्य अभिमन्त्र्य सूत्रोक्तप्रकारेण ग्राममध्ये निनयेत् तथा तत्रैव कर्मणि त्रिवर्षदेशीयाया वत्सतर्यां मांसविशेषम् अनेन तृचेन संपात्य अभिमन्त्र्य आशयेत् । तथा भक्तम् अनेन संपात्य अभिमन्त्र्य प्राशयेत्। तथा सुरां प्रपोदकं वा अनेन संपात्य अभिमन्त्र्य वा पाययेत्। सूत्रितं हि - 'सहृदयम् (अ. ३.३०) 'तद् ऊ षु' (अ. ५.१.५), 'सं जानीध्वम्' 'एह यातु' (अ. ६.७३), 'सं वः पृष्यताम्' (अ. ६.७४) इति प्रक्रम्य उदकुल संपातवन्तं ग्रामं परिहृत्य मध्ये निनयति एवं सुराकुलिजं त्रिहायण्या वत्सतर्याः शुत्तयानि पिशितानि आशयति । (कौसू. १२.५-८) इत्यादि।" 

 अथर्व सूक्त ३.२५ में पति द्वारा पत्नी के प्यार को जीतने का वर्णन है। पत्नी का अपने माता-पिता के प्रति अत्यधिक मोह और ममता है। पति उसको तनिक बलप्रयोग करके अपने घर तो ले आया है, पर कामसन्तप्ता होते हुए भी वह उससे रूठी हुई है। पति उसके अन्दर काम की भावनाओं को जगाकर, समझा-बुझा कर और देवताओं की सहायता से उसे अपने अनुकूल और वश में करना चाहता है। इस सूक्त के विनियोग में भी कौशिकसूत्र और सायण ने सूक्त के मन्त्रों से असम्बद्ध 'पत्नी को अंगुली से स्पर्श करना, घृत में भिगोए हुए बेरी के इक्कीस काँटों का आधान, बेरी के इक्कीस पत्तों को धागे से लपेटकर उनको अग्नि में आहुति देना, आदि' अनेक क्रियाओं के साथ एक क्रिया यह भी बताई है कि पति पत्नी की मिट्टी की प्रतिकृति बनाकर सशक्त लक्षण वाले बाण से उसे बींधे (तथा लिखितां प्रतिकृति सूक्तलक्षणया इष्वा विभ्येद्) । 

   अथर्ववेद ४.१६ का देवता 'सत्यानृतन्वीक्षणम्, वरुण' है। इस सूक्त में मन्त्र वरुण की सर्वज्ञता, के हैं। सूक्त में सर्वशक्तिमत्ता और सर्वव्यापकता का वर्णन है। इस सूक्त में सब मिलाकर ९ मन्त्र नीचे दिये जा रहे हैं-

बृहन्नेषाम् अधिष्ठाता अन्तिकादिव पश्यति यस्तायन्मन्यते चरन्त्सर्वं देवा इदं विदुः महानू ॥ १ ॥(निकट से मानो देख रहा है। जो 'छुपा हुआ', समझता है '(मैं) जा रहा', सबको देव (इसके) इसको जान लेते हैं ।। १॥) 

 यस् तिष्ठति चरति यश् च वञ्चति यो निलायं चरति यः प्रतङ्कम् ।   द्वौ सनिषद्य यन् मन्त्रयेते राजा तद् वेद वरुणस् तृतीयः ।। २ ।।(जो खड़ा है, जो चल रहा है, और जो टहल रहा है, जो पे-छुपे जा रहा है, (और) जो उदासीन होकर।दो जन मिल बैठकर, जब मन्त्रणा करते हैं,राजा उसको जान लेता है वरुण, तीसरा (बनकर )।। २।।) 

उतेयं भूमिर् वरुणस्य राज्ञ उतासौ द्यौर् बृहती दूरेअन्ता ।        उतो समुद्रौ वरुणस्य कुक्षी उतास्मिन्नल्प उदके निलीनः ।। ३।।(और यह भूमि राजा की है, वरुण की, और वह आकाश महान्, दूर तक छोरों वाला। और समुद्र (ये) दोनों, वरुण की कोखें है, और इस बूँद में भी, है वह छुपा हुआ ।। ३।।) 

उत यो द्याम् अतिसर्पात् परस्तान् न स मुच्यातै वरुणस्य राज्ञः ।। दिवः स्पशः प्रचरन्तीदम् अस्य सहस्राक्षा अति पश्यन्ति भूमिम् ।। ४ ।।(और जो लोक का (भी) अतिक्रमण कर जाए, परे तक, नहीं वह छूटेगा (शासन से), वरुण राजा के। द्युलोक से गुप्तचर घूम रहे हैं, इस (पृथिवी) पर उसके, हजारों आँखें वाले, अतिक्रमण करके देख रहे हैं, भूमि का ॥ ४॥) 

सर्वं तद् राजा वरुणो वि चष्टे यद् अन्तरा रोदसी यत् परस्तात् । संख्याता अस्य निमिषो जनानाम् अक्षानिव श्वघ्नी नि मिनोति तानि ॥ ५ ॥(सब कुछ उसका, राजा वरुण निरीक्षण करता है, जो अन्तराल में हैं लोक-भूलोक के, (और) जो है परे गिने हुए हैं इसके, निमेष और उन्मेष मनुष्यों के, पासों को जैसे जुआरी, स्थापित करता है वह सब पदार्थों को ।) 

ये ते पाशा वरुण सप्तसप्त त्रेधा तिष्ठन्ति विषिता रुशन्तः । चिनन्तु सर्वे अनृतं वदन्तं यः सत्यवाद्यति सृजन्तु ।। ६ ।।(जो तेरे पाश हैं, हे वरुण!, सात-सात,तीन प्रकार से स्थित हैं, बँधे हुए, प्रकाशमान। सौ पाशों से बाँध ले तू, हे वरुण।, इसको,बाँध लेवें वे सब, असत्य बोलने वाले को, जो सत्यवादी है, छोड़ उसको देवें वे) 

शतेन पाशैरभिधेहि वरुणैनं मा ते मोच्यनृतवाङ् नृचक्षः आस्तां जाल्म उदरं श्रंशयित्वा कोश इवाबन्धः परिकृत्यमानः ।। ७ ।।

 जगत् के नियन्ता और प्रशासक की सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता और सर्वव्यापकता की ऊँचे स्वर से घोषणा करने वाला यह सूक्त भी कौशिकसूत्रकार की क्रूर दृष्टि से बच न सका। उसने इस सूक्त का भी विनियोग उपचार कर्म में कर ही डाला। यह देखकर प्रो. रॉथ का हृदय रो पड़ा और उसने दुःखी मन से लिखा "समस्त वैदिक वाङ्मय में दैवी सर्वज्ञता को इतने सशक्त शब्दों में प्रस्तुत करने वाला अन्य कोई सूक्त नहीं है, फिर भी इस सुन्दर कृति को एक अभिचार के अनुष्ठान के प्रयोजन के लिये इसकी महिमा से च्युत कर दिया गया है। तथापि इस सूक्त के विषय में और इस वेद के दूसरे बहुत से अंशों के विषय में विचार करते हुए अनुमान किया जा सकता है कि प्राचीन सूक्तों के अंशों का जादुई अनुष्ठानों को शृङ्गारने के लिये प्रयोग किया गया है।

 ब्लूमफील्ड रॉय के इन विचारों को पचा न पाया और विरोधस्वरूप उसने लिखा "फिर भी हम कह सकते हैं, कि उक्त सूक्त के मन्त्र किसी और प्रसंग में प्रयुक्त नहीं हुए हैं, और कोई निश्चित साक्ष्य भी नहीं है कि उनकी रचना हमारे सम्मुख प्रयोजन के अतिरिक्त किसी अन्य उद्देश्य के लिये हुई है। निश्चित रूप से अथर्ववेद के ऋषियों की दृष्टि में इससे बढ़कर और कुछ हो भी क्या सकता था। इसी लिये यह सूक्त कौशिकसूत्र के छठे अध्याय में, जोकि 'अभिचार' को समर्पित है, रेखाङ्कित हुआ है।"

  पाश्चात्य विद्वानों ने कौशिकसूत्र को अथर्ववेद के अनुष्ठानों के ज्ञान के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण और अनिवार्य माना है। विन्तर्नित्स लिखता है "यह कौशिकसूत्र) गृह्य अनुष्ठानों की व्याख्या करने वाले अन्य गह्यसूत्रों की तरह केवल आंशिक रूप से तो एक गृह्यसूत्र ही है, परन्तु यह बहुत अधिक विस्तृत है और उन अभिचारक्रियाओं के अनुष्ठान के सूक्ष्मरहस्यों से भरा हुआ है, जिनके लिये अथर्ववेद के सूक्तों और मन्नों का प्रयोग होता था। इस प्रकार कौशिकसूत्र अथर्ववेदसंहिता का एक बहुमूल्य पूरक है और प्राचीन भारतीय अभिचार के विषय में हमारे ज्ञान के लिये एक ऐसा स्रोत है, जो हमारे अनुमान से बाहर है।"

  इसके विपरीत कौशिकसूत्र के उपर्युक्त उदाहरणों से पता चलता है कि आनुष्ठानिक कर्मों में अथर्ववेद के सूक्तों का प्रयोग नितान्त असंगत और अप्रासंगिक है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सायण आदि भाष्यकारों और पाश्चात्य अनुवादकों ने कौशिकसूत्रों का अनुकरण करते हुए अथर्ववेद के सूक्तों और मन्त्रों का विविध अनुष्ठानों में प्रयोग उनके वास्तविक अर्थों, उदास भावनाओं और उनके काव्यात्मक सौन्दर्य पर विचार किये बिना ही कर दिया है। ग्रिफिथ, ब्लुम्फील्ड, हिट्ने आदि पाश्चात्य विद्वानों ने तो समस्त अथर्ववेद को 'जादू-टोनों' का पोथा' ही मान लिया है। सूक्तों और मन्त्रों को प्रायः टोना (charm, spell, incantation, imprecation, magic) आदि कह कर ही पुकारा है। प्रार्थना (prayer) आदि शब्द तो ढूंढने से ही मिलते हैं। ब्रह्म, वचस्, वाक् आदि शब्दों का अर्थ भी चार्म (charm), स्पेल्ल (spell) आदि किया गया है। राज्यकर्माणि के अन्तर्गत राजा, राज्याभिषेक, युद्ध, शत्रुविजय सम्बन्धी सूक्तों और मन्त्रों को भी चार्म या स्पेल्ल ही कहा गया है।

   शत्रुविनाश के लिये किये गए कृत्या, अभिचार आदि सभी उपायों को उन्होंने जादू-टोना (charm, spell, incantation, imprecation, magic) ही मान लिया है। शब्दकल्पद्रुम में अभिचार का अर्थ किया है- "अभिचार: आभिमुख्येन शत्रुवधार्थं चार: कार्यकरणम्।" अर्थात् अपने शत्रुओं के विनाश के लिये किये गए उपायों को अभिचार कहा जाता है। सायण ने भी अभिचार शब्द के भाव को स्पष्ट करने के लिये किसी प्राचीन प्रमाण को उद्धृत किया है, जिसमें कहा गया है "मरण, दुर्घटना, विशेष रूप से किसी को बाँध लेना, प्रणिपात, उन्मत्तता, देैवी विनाश, पुत्र आदि तथा धन का नाश और घर में बहुत से दोषों का होना' ये सब अथवा इनके मध्य में से कुछ शत्रु के लिये हो जाएँ, ऐसा जो कर्म है, वह अभिचारकर्म है।

 मरणं व्यसनं चैव बन्धनं च विशेषतः । 

प्रणिपातोन्मत्तता वा दैवोपहतर् एव च।।

पुत्रादिधननाशश्च गृहे दोषान् बहून् अपि।' 

एतानि सर्वाणि कानिचिद् वा तेषां मध्ये यथा शो भवन्ति तयोद्देशेन यत् कर्म तद् अभिचारकर्म।" अथर्व. १६.१, प्रस्तावना

  कृत्या शब्द 'कृञ् हिंसायाम्' धातु से सिद्ध होता है और 'शत्रु के विरुद्ध विनाशकारी कृत्य' अर्थ में प्रयुक्त होता है।

   स्वयं अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर किसी प्रकार की दुर्भावना से किये गए अभिचार, कृत्या आदि कर्मों की निन्दा की गई है। इसे मूर्खों का कृत्य बताया गया है और कहा है कि जो पुरुष या स्त्री किसी के घर में अभिचार आदि पापकर्म करके उससे किसी दूसरे को मारना चाहता है तो वह पुरुष या स्त्री स्वयं दग्ध हो जाता है और बहुत से पत्थर फट-फट ध्वनि करते हुए उसपर गिर पड़ते हैं।' अथर्ववेद को 'जादू-टोनों का वेद' बनाने के लिये पाश्चात्य विद्वान् इतने दोषी नहीं है, जितने कौशिकसूत्र और उनका अनुसरण करने वाले सायण आदि भाष्यकार पाश्चात्य विद्वानों को तो पकी पकाई खीर मिल गई। इससे उनके मनोवाञ्छित उद्देश्य की पूर्ति अनायास ही हो गई है। कौशिकसूत्र के कर्ता ने ही सर्वप्रथम अथर्ववेद के सूक्तों और मन्त्रों का विनियोग उनके अर्थों पर विचार किये बिना आभिचारिक अनुष्ठानों के लिये किया है सायण ने उसका अनुसरण करते हुए समस्त अथर्ववेद का भाष्य उसके मन्तव्यों के अनुसार कर दिया है। कौशिकसूत्रकार ने ऋग्वेद से अथर्ववेद में ग्रहण किये गए असंख्य सूक्तों और मन्त्रों का विनियोग भी जादू-टोनों के लिये कर दिया है। ईश्वर ने उसे शीघ्र ही अपने पास बुला लिया होगा, अन्यथा वह ऋग्वेद को भी जादू दोनों का पोया बना देता मैं कई बार सोचता था कि कुशिक के गोत्रापत्य पुमान् कौशिक का अर्थ 'उल्लू' कैसे हो गया। उल्लू का स्वभाव है कि उसे सूर्य और उसका प्रकाश नहीं सुहाता। वह दिन के समय अन्धेरे स्थानों में छुप जाता है और रात के समय अन्धेरे में ही बाहर निकलता है। उसे अन्धकार ही अच्छा लगता है और वह अन्धकार में ही रहना पसन्द करता है। कौशिकसूत्र का यह कौशिक भी ऐसा ही है। इसे ज्ञान का प्रकाश अच्छा नहीं लगता। वेद कहता है 'तमसो मा ज्योतिर् गमय' ‘“हे प्रभो! मुझे अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो"। परन्तु यह कौशिक ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान के अन्धकार की ओर दौड़ता है। इसी लिये वेदज्ञ मनीषियों की दृष्टि में कौशिक शब्द उल्लू का पर्याय हो गया। कौशिकसूत्र का अर्थ भी 'उल्लू की प्रकृति वाले जनों का शास्त्र' समझा जाना चाहिये। अज्ञान में जीने वाले लोग ही कृत्या और अभिचार आदि क्रियाओं में विश्वास रखते हैं। उन्होंने ही जादू-टोनों और उनके शास्त्र का निर्माण किया है।


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