भरतमुनि का रससूत्र तथा उत्पत्तिवाद, अनुमितिवाद, भुक्तिवाद तथा अभिव्यक्तिवाद का विश्लेषण

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 भरतमुनि का रससूत्र

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भरतमुनि का रससूत्र


    रस की निष्पत्ति का सर्वप्रथम उल्लेख भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में किया है जोकि समस्त रससिद्धान्त की आधार-भित्ति है। भरतमुनि के रससूत्र की व्याख्या में ही उत्तरवर्ती आचायों ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है और उसके परिणामस्वरूप १. उत्पत्तिवाद २ अनुमितिवाद ३. भुक्तिवाद और ४. अभिव्यक्तिवाद इन चार सिद्धान्तों का विकास हुआ है। भरतमुनि का रससूत्र है -

विभावानुभावव्यभिचारीभावसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।

विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है इस भरत-सूत्र में जो 'निष्पत्ति' शब्द आया है उसके भी चार अर्थ होते हैं-

- भट्टलोल्लट के मत में 'निष्पत्ति का अर्थ 'उत्पत्ति' 

- शंकुक के मत में 'अनुमिति' 

- भट्टनायक के मत में 'भुक्ति' 

- अभिनवगुप्त के मत में अभिव्यक्ति

    'विभाव-अनुभाव-व्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:'अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारि भाव के योग से रस की निष्पत्ति होती है । इस सूत्र की अनेक प्रकार की व्याख्या उनके टीकाकारों ने की है जिनमें से १. भट्टलोल्लट, २. शंकुक, ३. भट्टनायक तथा ४. अभिनवगुप्त मुख्य व्याख्याकार हैं । इन चार आचार्यों द्वारा की गयी व्याख्या काव्यप्रकाशकार मम्मट ने भी उद्धृत को है । इन चारों आचार्यों द्वारा की जानेवाली यह व्याख्या अभिनवगुप्त-रचित भरतनाट्यशास्त्र की 'अभिनवभारती' नामक टीका में से ली गयी है। अभिनवभारती में यह सब प्रकरण बहुत लम्बा तथा कठिन है । मम्मट ने उसका सारांश संक्षिप्त रूप में उपस्थित कर दिया है, इतना ही अन्तर है। 'अभिनवभारती' के आधार पर ही आगे  भरत के रससूत्र की चार प्रकार की व्याख्या को प्रस्तुत करेंगे ।

भट्टलोल्लट का उत्पत्तिवाद

     भरत-सूत्र के व्याख्याकारों में भट्टलोल्लट उत्पत्तिवाद के माननेवाले हैं। उनके मत में विभाव, आदि के संयोग से अनुकार्य राम आदि में रस की उत्पत्ति होती है। उनमें भी विभाव सीता आदि मुख्यरूप से रस के उत्पादक होते हैं। अनुभाव उस उत्पन्न हुए रस को बोधित करने वाले होते हैं और व्यभिचारि भाव उस उत्पन्न रस के परिपोषक होते हैं। अतः स्थायिभाव के साथ विभावों का उत्पाद्य उत्पादकभाव, अनुभावों का गम्य-गमकभाव और व्यभिचारिभावों का पोष्य-पोषकभाव सम्बन्ध होता है। इसलिए भरत सूत्र में जो 'संयोग' शब्द आया है भट्टलोल्लट के मत में उसके भी तीन अर्थ है। विभावों के साथ संयोग अर्थात् उत्पाद्य उत्पादक-भाव सम्बन्ध, अनुभावों के साथ गम्य-गमकभाव सम्बन्ध तथा व्यभिचारिभावों के साथ पोष्य- पोषकभाव रूप सम्बन्ध 'संयोग' शब्दका अर्थ होता है। इसी बात को मम्मट कहते हैं -

विभावेैर्ललनोद्यानादिभिरालम्बनोद्दीपनकारणैः रत्यादिको भावो जनितः, अनुभावैः कटाक्षभुजाक्षेपप्रभृतिभिः कार्यैः प्रतीतियोग्यः कृतः, व्यभिचारिभिनिर्वेदादिभिः सहकारिभिरुपचितो मुख्यया वृत्त्या रामादावनुकार्ये तद्रूपतानुसन्धानान्नर्त्तकेऽपि प्रतीयमानो रस इति भट्टलोल्लटप्रभृतयः ।

अर्थात्,

   विभावों अर्थात् रस के आलम्बन तथा उद्दीपन के कारणभूत ललनादि आलम्बनविभाव और उद्यान आदि उद्दीपन विभावों से रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हुआ, रति आदि को उत्पत्तिके कार्यभूत कटाक्ष, भुजाक्षेप आदि अनुभावों से प्रतीति के योग्य किया गया और सहकारी रूप निर्वेद आदि व्यभिचारिभावों से पुष्ट किया गया मुख्यरूप से अनुकार्य रूप राम आदि में और उनके स्वरूप का अनुकरण करने से नट में प्रतीयमान अर्थात् आरोप्यमाण रत्यादि स्थायिभाव ही रस कहलाता है । यह भट्टलोल्लट आदि का मत है।

     यह जो भट्टलोल्लट आदि का मत दिखलाया है इसमें स्थायिभाव के साथ विभावों का 'संयोग' अर्थात् उत्पाद्य-उत्पादकभाव सम्बन्ध, अनुभावों के साथ गम्य-गमकभाव सम्बन्ध तथा व्यभिचारिभावों के साथ पोष्य-पोषकभाव सम्बन्ध 'संयोग' से अभिप्रेत है ऐसा मान कर ही व्याख्या में क्रमशः 'जनितः, 'प्रतीतियोग्यः कृतः' तथा 'उपचित: इन पदों का प्रयोग किया गया है। दूसरी बात यह है कि इस मत में रस मुख्यरूप से अनुकार्य राम आदि में रहता है और उनका अनुकर्ता होने के कारण गौणरूप से नट में भी रस की स्थिति मानी जाती है । परन्तु सामाजिक में रस की उत्पत्ति नहीं होती है। तीसरी बात यह है कि जैसे भरत-सूत्र में आये हुए 'संयोग' शब्द के तीन अर्थ यहाँ माने गये हैं उसी प्रकार भरत-सुत्र में आये हुए 'निष्पत्ति' शब्द के भी तीन अर्थ समझने चाहिये । विभाव के साथ स्थायिभाव का 'संयोग' अर्थात् उत्पाद्य उत्पादकभाव सम्बन्ध होने पर रस की 'निष्पत्ति' अर्थात् 'उत्पत्ति' होती है। यहां 'निष्पत्ति' शब्द का अर्थ 'उत्पत्ति' होता है। अनुभावों के साथ 'संयोग' अर्थात् गम्य-गमकभाव सम्बन्ध होने पर रस की 'निष्पत्ति' अर्थात् 'प्रतीति' होती है। यहाँ 'निष्पत्ति' शब्द का अर्थ 'प्रतीति' होता है और व्यभिचारि भावों के साथ पोष्य-पोषकभाव सम्बन्ध होने से रस की 'निष्पत्ति' तथा 'पुष्टि होती है। यहाँ 'निष्पत्ति' शब्द का अर्थ पुष्टि होता है। यह इस व्याख्या का अभिप्राय है।

    इस व्याख्या को टीकाकारों ने मीमांसा-सिद्धान्त के अनुसार को गयी व्याख्या बतलाया है। 'मीमांसा से यहाँ 'उत्तर-मीमांसा' अर्थात् 'वेदान्त' का ग्रहण करना चाहिये । वेदान्त में जगत् की आध्यात्मिक प्रतीति मानी गयी है। जैसे रज्जु में सर्प की आध्यासित या आरोपित प्रतीति के समय सर्प के विद्यमान न होने पर भी सर्प की प्रतीति और उससे भय आदि कार्यों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार अभिनयादि के समय रामादिगत सीताविषयिणी अनुरागादिरूपा रति के विद्यमान न होने पर भी नट में विद्यमानरूप से उसकी प्रतीति और उसके द्वारा सहृदय में चमत्कारानुभूति आदि कार्यों की उत्पत्ति होती है। इसी सादृश्य के कारण इस सिद्धान्तको 'मीमांसा' अर्थात् 'उत्तर-मीमांसा' या 'वेदान्त का अनुगामी सिद्धान्त कहा जा सकता है। इस व्याख्या के करने वाले भट्टलोल्लट मीमांसक पण्डित थे ।


आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद

    इस व्याख्या के अनुसार नट कृत्रिम रूप से अनुभाव आदि का प्रकाशन करता है । परन्तु उनके सौन्दर्य के बल से उनमें वास्तविकता-सी प्रतीत होती है। उनके कृत्रिम अनुभाव आदि को देखकर सामाजिक, नट में वस्तुतः विद्यमान न होने पर भी, उसमें रस का अनुमान कर लेता है और अपनी वासना के वशीभूत होकर उस अनुमीयमान रसका आस्वादन करता है। शंकुक की इस व्याख्या को काव्यप्रकाशकार ने निम्नलिखित प्रकारसे उपस्थित किया है-

१. 'यह राम ही है' अथवा 'यह ही राम है' इस प्रकार की सम्यक् प्रतीति  

२. यह राम नहीं है इस प्रकार उत्तरकाल में बाधित होनेवाली 'यह राम' है  इस प्रकार की मिथ्याप्रतीति 

३. 'यह राम है या नहीं' इस प्रकार की संशय रूप प्रतीति 

४. 'यह राम के समान है' इस प्रकार की सादृश्य प्रतीति 

  इस प्रकार की सादृश्य प्रतीति इन  १. सम्यक् प्रतीति २. मिथ्याप्रतीति ३. संशयप्रतीति तथा ४. सादृश्य प्रतीतियों से भिन्न प्रकार की 'चित्रतुरगन्याय' से होने वाली पांचवें प्रकार की प्रतीति काव्यों के अनुशीलन से तथा शिक्षा के अभ्यास से सिद्ध किये हुए अपने अनुमान इत्यादि कार्य से नट के ही द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले, कृत्रिम होने पर भी कृत्रिम न समझे जाने वाले, विभाव आदि शब्दों से व्यवहृत होने वाले, कारण, कार्य और सहकारियों के साथ 'संयोग' अर्थात् गम्य-गमकभावरूप सम्बन्ध से, अनुमीयमान होने पर भी, वस्तु के सौन्दर्य के कारण तथा आस्वाद का विषय होने से अन्य अनुमीयमान अर्थों से विलक्षण स्थायीरूप से सम्भाव्यमान रति आदि भाव वहां अर्थात् नट में वास्तव में न रहते हुए भी सामाजिक के संस्कारों से स्वात्मगतत्वेन आस्वाद किया जाता हुआ 'रस' कहलाता है। यह श्रीशंकुक का मत है। इस मत  में भरतसूत्र के 'निष्पत्ति' का अर्थ 'अनुमिति' और 'संयोग' शब्द का अर्थ गम्य-गमक भाव सम्बन्ध है ।

    श्रीशंकुक के मत का विश्लेषण किया जाय तो उसमें निम्नलिखित बातें विशेष ध्यान देने योग्य पायी जाती है-

 १ - शंकुक ने नट में रस को अनुमेय माना है। अनुमान की सामग्री में, नट में 'चित्रतुरग न्याय से राम-बुद्धि का प्रतिपादन किया है। जैसे घोड़े के चित्र को देखकर यह घोड़ा है' इस प्रकारका व्यवहार होता है, परन्तु इस प्रतीति को १. न सत्य कहा जा सकता है, २. न मिथ्या, ३. न संशयरूप कहा जा सकता है और ४. न सादृश्यरूप प्रतीति ही माना जा सकता है। चित्रस्थ तुरग में होने वाली बुद्धि इन चारों प्रकार की बुद्धियों से भिन्न होती है। इसी प्रकार नट में जो राम-बुद्धि होती है वह १. सम्यक् २. मिथ्या ३. संशय तथा ४. सादृश्य इन चारों प्रकार की प्रतीतियों से विलक्षण होती है । 

२ - रस की अनुमिति में राम-सीता आदि विभावों की प्रतीति तो चित्रतुरगन्याय से होती ही है, उसके अतिरिक्त जिन अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव रूप लिङ्गों से उनमें 'इयं सीता रामविषयक-रतिमती, तस्मिन्विलक्षणस्मितकटाक्षादिमत्त्वात्' इस प्रकार का अनुमान होता है, वे लिङ्ग भी यथार्थ नहीं है। यथार्थ स्मित कटाक्षादि अनुभाव तो यथार्थ सीता राम आदि में ही रहे होंगे। पर यहाँ चित्रतुरगन्याय से उपस्थित सीता-रामरूप नट में यथार्थ स्मित कटाक्षादि नहीं है, नट अपने शिक्षा और अभ्यास से कृत्रिम स्मित- कटाक्षादि का प्रदर्शन करता है। इस प्रकार कृतिम आलम्बनरूप सीता-राम आदि में नटी द्वारा कृत्रिम रूप से प्रकाशित स्मित कटाक्षादि से 'इयं सीता रामविषयक रतिमती' या 'अयं राम सीताविषयकरतिमान् तत्र विलक्षणस्मित कटाक्षादिमत्वात् इस प्रकार आनुमानिक रस की प्रतीति होती है

३- इसलिए भरत के रससुत्र में प्रयुक्त 'संयोगात्' शब्द का अर्थ 'गम्यगमकभावसम्बन्धात्'  होता है ।

४- इसलिए आनुमानिक रस की प्रतीति का आधार भी सामाजिक नहीं होता है। कृत्रिम राम और सीता में रहने वाली रति या रस का सामाजिक को केवल अनुमान होता है। 

५ - सामान्यतः अनुमान आदि प्रमाणों से होने वाले ज्ञान 'परोक्ष' रूप माने जाते हैं। केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से ही 'अपरोक्ष' प्रतीति होती है। परन्तु इस रसानुमिति में विशेषता यह है कि वह अनुमिति होने पर भी अन्य अनुमितियों से भिन्न और 'अपरोक्ष' रूप होती है। इसलिए उस अनुमित रस का भी सामाजिक को आस्वाद होता है।

६- सामाजिक के रसास्वाद का कारण उसकी वासना और रसप्रतीति में विलक्षण अपरोक्षता की कल्पना है । वस्तुतः अनुमित रस न सामाजिक में रहता है और न कृत्रिम रामादि में रहता है, परन्तु वासना के बल से सामाजिक में न रहने वालेऔर नट में भी वस्तुतः अविद्यमान किन्तु अनुमीयमान रस का सामाजिक को आस्वाद होता है।

    शंकुक के 'अनुमितिवाद' को न्यायमतानुसारी सिद्धान्त माना गया है। इसका कारण उसका अनुमितिप्रधान होना ही है। न्यायशास्त्र अनुमिति प्रधान शास्त्र है। विशेषरूप से नव्य-न्याय के आचार्यों ने तो अपनी सारी शक्ति अनुमान के परिष्कार में ही लगा दी थी। न्याय की इस अनुमितिप्रधान' प्रक्रिया के आधार पर ही शंकुक ने अपने 'अनुमितिवाद' की स्थापना की है। इसीलिए उसको न्याय मतानुसारी सिद्धान्त कहा जाता है।

    'शंकुक' के मत में चतुर्विध प्रतीतियों से सम्यक् प्रतीति का प्रदर्शन करते हुए मम्मट ने 'राम एवायम्', 'अयमेव रामः इन दो वाक्यों का प्रयोग किया है। इनमें वस्तुतः 'एव' पद का दो प्रकार से, प्रयोग किया गया है। 'राम एवायम्' और 'अयमेव राम:' इन दोनों वाक्यों में 'रामः' विशेषण पद है, 'अयम्' विशेष्य पद है । इनमें से प्रथम वाक्य में विशेषणभूत 'रामः' पद के साथ 'एवकार का प्रयोग किया गया है और 'अयमेव रामः' इस दूसरे वाक्य में 'अयम्' इस विशेष्य पद के साथ 'एवकार' का प्रयोग किया है। पहले वाक्य में 'राम:' इस विशेषण पद के साथ एवकार को मिलाकर 'राम एवायम्' यह प्रयोग किया गया है। 'विशेषणसङ्गतः एवकारः अयोगव्यवच्छेदकः इस नियमके अनुसार वह विशेष्यभूत 'अयम्' पद के अर्थ में 'रामत्व' के प्रयोग का व्यवच्छेद कर उसमें 'रामत्व' का नियमन करता है, अर्थात् 'यह राम से भिन्न नहीं है। दूसरे वाक्य में विशेष्यभूत 'अयम्' के साथ प्रयुक्त 'एवकार' अन्य योग का व्यवच्छेदक होता है। अर्थात् विशेष्य से भिन्न किसी अन्य पदार्थ में विशेषणीभूत धर्म के सम्बन्ध का निवारक होता है। इसलिए यहाँ विशेष्यभूत 'अयम्' के साथ प्रयुक्त 'एवकार' इससे भिन्न अर्थ में 'रामत्व के सम्बन्ध का निवारण करता हुआ 'यही राम है, अन्य कोई राम नहीं' इस प्रकार 'अयम्' में रामत्व का नियमन करता है । 'राम एवायम्' और 'अयमेव रामः ' ये दोनों अंश मिलकर सम्यक् प्रतीति का प्रदर्शन करते हैं।

एवकारस्त्रिधा मतः (एव का प्रयोग तीन प्रकार से) -

अयोगमन्ययोगं     च अत्यन्तायोगमेव च । 

व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य एवकारस्त्रिधा मतः ॥

     इस 'एव' का प्रयोग तीन प्रकार से होता है और उन तीनों में उसके अर्थ में भेद हो जाता है वह कभी विशेषण के साथ प्रयुक्त होता है, कभी विशेष्य के साथ और कभी क्रिया के साथ । विशेष्य के साथ प्रयोग होने पर वह अन्ययोग का व्यवच्छेदक होता है (विशेष्यसङ्गतस्त्वेवकारो अन्ययोगव्यवच्छेदकः) जैसे 'पार्थ एव धनुर्धरः' यहाँ पार्थ विशेष्य है उसके साथ प्रयुक्त एवकार अन्ययोग का व्यवच्छेदक होता है। अर्थात् वह विशेष्य पार्थ अन्य में विशेषण 'धनुर्धर के सम्बन्ध का निषेध करता है। पार्थ एव धनुर्धरो नान्य:' (पार्थ ही धनुर्धर हैं, अन्य नहीं) यह उसका भावार्थ होता है। विशेषण के साथ प्रयुक्त 'एव' अयोगव्यवच्छेदक होता है ( विशेषणसङ्गतस्येवकारो प्रयोगावच्छेदकः) जैसे 'पार्थो धनुर्धर एव' यहाँ विशेषण धनुर्धर के साथ प्रयुक्त 'एव' विशेष्य में विशेषण के प्रयोग अर्थात् सम्बन्धाभाव का निषेध करता है और 'पार्थ धनुर्धर ही है' इस रूप में उसमें धनुर्धरत्व का नियमन करता है। इसी प्रकार जब 'एव' क्रिया के साथ अन्वित होता है तब अत्यन्तायोग का व्यवच्छेदक होता है। जैसे नीलं कमलं भवत्येव' इस वाक्य में 'भवति' क्रिया के साथ अन्वित एवकार कमल में नीलत्व के अत्यन्त असम्बन्ध का निषेधक है। यहाँ वह न तो सब कमलों में नीलत्व के सम्बन्ध को नियमित करता है और न कमलभिन्न में अनीलत्व के सम्बन्ध को, किन्तु किसी विशेष कमल में नीलत्व सम्बन्ध को नियमित करता है। इस प्रकार एव के तीन प्रकार के प्रयोग होते हैं।


भट्टनायक का भुक्तिवाद

    भरतमुनि के सूत्र के तीसरे व्याख्याकार भट्टनायकने सामाजिक को होने वाली साक्षात्कारात्मक रसानुभूति के उपपादन के लिए एक नये ही मार्ग का अवलम्बन किया है जिसे साहित्यशास्त्र में 'भुक्तिवाद' नाम से कहा जाता है। उसका अभिप्राय यह है कि रस की 'निष्पत्ति' न अनुकार्य राम आदि में होती है और न अनुकर्त्ता नटादि में । अनुकार्य और अनुकर्ता दोनों तटस्थ हैं, उदासीन हैं। उनको रसानुभूति नहीं होती है। वास्तविक रसानुभूति सामाजिक को होती है। उसका उपपादन अन्य किसी व्याख्याकार नें नहीं किया है। भट्टलोल्लट ने मुख्यरूप से 'तटस्थ' राम आदि में और गौणरूप से 'तटस्थ' नट में रस की 'उत्पत्ति' मानी है। पर इसमें सामाजिक का स्थान कहीं नहीं आया है। अतएव 'ताटस्थ्येन रसोत्पत्ति मानने वाले भट्टलोल्लट का सिद्धान्त ठीक नहीं है। श्रीशंकुक ने 'तटस्थ' नट में रस की 'अनुमिति' (प्रतीति) मानी है और उसके द्वारा संस्कारवर्ण सामाजिक की रस-चर्वणा का उपपादन करने का यत्न किया है। परन्तु 'अनुमिति' तो केवल परोक्ष-ज्ञान रूप होती है। साक्षात्कारात्मक रसानुभूति की समस्या उसके द्वारा हल नहीं हो सकती है। इसलिए यह सिद्धान्त भी ठीक नहीं है, 'न ताटस्थ्येन रस उत्पद्यते, न प्रतीयते । ताटस्थ्य से अर्थात् अनुकार्यगत या अनुकर्तृगतरूप से न रस की उत्पत्ति होती है और न प्रतीति या अनुमिति होती है। यहाँ उत्पद्यते से भट्टलोल्लट के 'उत्पत्तिवाद' का और न प्रतीयते से अनुमितिवाद का निराकरण किया गया है।

     इनके अतिरिक्त रस के विषय में एक और सिद्धान्त है— 'अभिव्यक्तिवाद' । इस सिद्धान्त के आचार्य अभिनवगुप्त है। उनके मतानुसार सामाजिक में रस की 'अभिव्यक्ति होती है। इन्होंने रस की स्थिति 'तटस्थ' राम या नटादि में न मानकर 'आत्मगत' अर्थात् सामाजिकगत मानी है। सामाजिक में भी रस की उत्पत्ति या अनुमिति न मानकर उसकी अभिव्यक्ति मानी है। परन्तु भट्टनायक के मत में यह अभिव्यक्तिवाद भी ठीक नहीं है क्योंकि अभिव्यक्ति सदा पूर्व विद्यमान वस्तु होती है। रस अनुभूतिस्वरूप है । अनुभूतिकाल से पहले या पीछे उनकी सत्ता नहीं है। 'अभिव्यक्त' होने वाली वस्तु का अस्तित्व  अभिव्यक्ति के पहले भी रहता है और बाद को भी। परन्तु रस की यह स्थिति नहीं है। रस अनुभूतिकाल में ही रहता है. उसके आगे या पीछे नहीं। इसलिए रस की अभिव्यक्ति मानने वाला सिद्धान्त भी ठीक नहीं है। 'आत्मगतत्वेन नाभिव्यज्यते ,आत्मगत अर्थात् सामाजिकगत रूप से रस अभिव्यक्त भी नहीं होता है। इस प्रकार भट्टनायक ने 'उत्पत्तिवाद', 'अनुमितिवाद' और अभिव्यक्तिवाद तीनों का खण्डन करके अपने 'भुक्तिवाद' की स्थापना की है और उसी को रसानुभूति की समस्या का सबसे सुन्दर समाधान माना है ।

भट्टनायक ने अपने 'भुक्तिवाद की स्थापना करने के लिए शब्द में स्वीकृत अभिधा और लक्षणा शक्ति के अतिरिक्त 'भावकत्व' तथा 'भोजकत्व रूप दो नये व्यापारों की कल्पना की है। उनके मतानुसार अभिधा या लक्षणा से काव्य का जो अर्थ उपस्थित होता है उसको शब्द का 'भावकत्व' व्यापार परिष्कृत कर सामाजिक के उपभोग के योग्य बना देता है। काव्य से जो अर्थ अभिधा द्वारा उपस्थित होता है वह एक विशेष नायक और विशेष नायिका की प्रेमकथा आदि के रूप में व्यक्तिविशेष से सम्बद्ध होता है। इस रूप में सामाजिक के लिए उसका कोई उपयोग नहीं होता है । शब्द का 'भावकत्व' व्यापार इस कथा में परिष्कार कर उसमें से व्यक्ति-विशेष के सम्बन्ध को हटाकर उसका 'साधारणीकरण' कर देता है। उस साधारणीकरण' के बाद सामाजिक का उस कथा के साथ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। अपनी रुचि या संस्कार के अनुरूप सामाजिक उस कथा  का एक पात्र स्वयं बन जाता है। इस प्रकार असली नायक नायिका आदि की जो स्थिति उस कथा  में थी, 'साधारणीकरण व्यापार के द्वारा सामाजिक को लगभग वही स्थान मिल जाता है। यह शब्द के 'भावकत्व' नामक दूसरे व्यापारका प्रभाव हुआ । 

      भट्टनायक के अनुसार इस 'भावकत्व' व्यापार से काव्यार्थ का 'साधारणीकरण' हो जाता है तब शब्द का 'भोजकत्व' नामक तीसरा व्यापार सामाजिक को रस का साक्षात्कारात्मक 'भोग' करवाता है यही भट्टनायक का 'भोजकत्व' सिद्धान्त है, जो 'भुक्तिवाद' कहलाता है। इस प्रकार भट्टनायक ने शब्द में अभिधा, लक्षणा आदि के अतिरिक्त 'भावकत्व' तथा 'भोजकत्व' रूप दो नवीन व्यापारों की कल्पना कर सामाजिक की रसानुभूति का उपपादन करने का प्रयत्न किया है। मम्मट ने उनके सिद्धान्त का उल्लेख इस प्रकार किया है -

   न तटस्थ रूप से अर्थात् नटगत या अनुकार्यगत रूप से रस की प्रतीति अर्थात् अनुमिति होती है और न उत्पत्ति होती है क्योंकि तटस्थगत रस को उत्पत्ति या अनुमिति मानने से सामाजिक को रस का आस्वादन नहीं हो सकता है और न सामाजिकगत रूप से आत्मगतत्वेन रस की अभिव्यक्ति होती है (क्योंकि अभिव्यक्ति सदा पूर्व से विद्यमान अर्थ की होती है । रस केवल अनुभूतिस्वरूप ही है। अनुभूति से भिन्न काल में उसकी स्थिति नहीं है। इस प्रकार 'नोत्पद्यते से भट्टलोल्लट के मत का, 'न प्रतीयते' से श्रीशंकुक के मत का तथा 'नाभिव्यज्यते' से  आगे दिखाये जाने वाले अभिनवगुप्त के मत का, सबका ही निराकरण कर दिया गया है। तब भट्टनायक के मत में सामाजिक को रसास्वादन कैसे होता है यह बतलाते हैं । ) अपितु काव्य अथवा नाटक में  शब्द के अभिधा तथा लक्षणा से भिन्न विभावादि के साधारणीकरणस्वरूप 'भावकत्व' नामक व्यापार से विशेष सीता-राम आदि के सम्बन्ध के बिना 'भाव्यमानः' अर्थात् साधारणीकृत रत्यादि स्थायिभाव योगाभ्यास आदि काल में सत्व गुण के उद्रेक अर्थात् ब्रह्मानन्दसदृश प्रकाश और आनन्दमय अनुभूति की वेद्यान्तरसम्पर्कशून्यरूप स्थिति के सदृश अर्थात् ब्रह्मसाक्षात्कारजन्य आनन्दानुभूति के सदृश भोग से अर्थात शब्द 'भोजकत्व' नामक व्यापार से 'भुज्यते' अर्थात् आस्वादित किया जाता है यह भट्टनायक का मत है। इसमें 'निष्पत्ति' शब्द का अर्थ 'भुक्ति' है और 'संयोग' का अर्थ 'भोज्य- भोजकभाव सम्बन्ध' है।

    भट्टनायक के इस 'भुक्तिवाद' को व्याख्याकारों ने सांख्यमतानुयायी सिद्धान्त माना है। इस सिद्धान्त को सांख्य-सिद्धान्त का अनुगामी इस रूप में कहा जा सकता है कि जैसे सांख्य में सुख-दुःख आदि वस्तुतः अन्तःकरण के धर्म है, आत्मा के धर्म नहीं, परन्तु पुरुष का अन्तःकरण के साथ सम्बन्ध होने से पुरुष में उनकी औपाधिक प्रतीति होती है, उसी प्रकार सामाजिक में न रहने वाले रस का भोग उसको होता है, इस सादृश्य के आधार पर ही इस सिद्धान्त को सांख्य सिद्धान्त का अनुगामी कहा जा सकता है।


अभिनवगुप्तका अभिव्यक्तिवाद

     भरत नाट्यशास्त्र के चतुर्थ किन्तु सर्वप्रमुख व्याख्याकार अभिनवगुप्त ने 'अभिव्यक्तिवाद की स्थापना की है। जिस प्रकार भट्टलोल्लट ने उत्तरमीमांसा के, श्रीशंकुक न्याय के , और भट्टनायक ने सांख्य के आधार पर अपने-अपने मतोंकी स्थापना की है, उसी प्रकार अभिनवगुप्त ने अपने पूर्ववर्ती अलङ्कारशास्त्र के प्रमुख ध्वनिवादी आचार्य आनन्दवर्धन के आधार पर अपने 'अभिव्यक्तिवाद का प्रतिपादन किया है इसलिए उनका मत आलङ्कारिक मत कहा गया है। उन्होंने स्पष्टरूप से सामाजिकगत रसानुभूति के उपपादन के लिए दूसरे मार्ग का अवलम्बन किया है। उसमें पहली बात तो उन्होंने यह स्पष्ट कर दी है कि सामाजिकगत स्थायिभाव ही रसानुभूति का निमित्त होता है। मूल मनःसंवेग अर्थात् वासना या संस्काररूप में रति आदि स्थायिभाव सामाजिक की आत्मा में स्थित रहता है। वह साधारणीकृत रूप से उपस्थित विभावादि-सामग्री से अभिव्यक्त या उद्बुद्ध हो जाता है और तन्मयीभाव के कारण वेद्यान्तर के शून्य ब्रह्मास्वाद परमानन्दरूप अनुभूत होता है। इस मत में भट्टनायक के समान शब्द में 'भावकत्व' तथा 'भोजकत्व' रूप दो व्यापारों की कल्पना नहीं की गयी है, परन्तु 'भावकत्व' व्यापार के स्थान पर 'साधारणीकरण' व्यापार, अभिधा तथा लक्षणा के साथ शब्द की 'व्यञ्जना' नामक तृतीय वृत्ति अवश्य मानी गयी है। अभिनवगुप्त के इस सिद्धान्त को मम्मट ने निम्नलिखितरूपमें प्रस्तुत किया है-

      लोकमें प्रमदा आदि अर्थात् प्रमदा, उद्यान, कटाक्ष आदि विभाव, अनुभावादि के देखने से उन प्रमदादि में रहने वाले रति आदि रूप स्थायी भावों के अनुमान करने में निपुण सहृदयों का, काव्य तथा नाटकमें कारणत्व, कार्यत्व तथा सहकारित्व आदि को छोड़कर विभावन आदि व्यापार (रत्यादीनाम् आस्वादयोग्यतानयनरूपाविर्भावनं विभावनम्) अर्थात् रत्यादि को आस्वाद योग्य रूप प्रदान करना 'विभावन व्यापार' कहलाता है आदि पद से 'अनुभावन' तथा 'व्यभिचारण' व्यापार का भी संग्रह होता है। इस प्रकार के आस्वादयोग्य रत्यादि को अनुभवविषयीकरणमनुभावनम्' अनुभव का विषय बनाना 'अनुभावन' तथा 'काये विशेषेण अभितः रत्यादीनां सञ्चारणं व्यभिचारणम्' (शरीर में रति आदि के प्रभाव का सञ्चारण 'व्यभिचारण' व्यापार) से युक्त होने से विभावादि शब्दों से व्यवहार्य उन्हीं प्रमदादि रूप कारण, कार्य, सहकारियों से जो 'ये मेरे ही हैं' या 'शत्रु के ही हैं' या 'तटस्थ के ही है' अथवा 'ये न मेरे ही हैं', 'न शत्रु के ही है' और 'न तटस्थ के ही है' इस प्रकार के सम्बन्धविशेष का स्वीकार अथवा परिहार करने के नियम का निश्चय न होने से साधारण अर्थात् विशेष व्यक्ति के सम्बन्ध से रहित रूप से प्रतीत होनेवाले उन विभावादि से ही अभिव्यक्त होने वाला और सामाजिकों में वासनारूप से विद्यमान रति आदि स्थायी भाव नियत-प्रमाता अर्थात् विशिष्ट एक सामाजिक में स्थित होने पर भी साधारणोपाय अर्थात् व्यक्तिविशेष के सम्बन्ध के बिना प्रतीत होने वाले विभावादि के बल से उसी रसानुभवके काल में मैं ही इसका आस्वादनकर्ता हूँ, या ये विभावादि मेरे ही हैं, इस प्रकार के व्यक्तिगत भावनाओं रूप परिमित प्रमातृ भाव के नष्ट हो जाने से वेद्यान्तर के सम्पर्क से शून्य और अपरिमित प्रमातृभाव जिसमें उदित हो गया है इस प्रकार के प्रमाता सामाजिक के द्वारा समस्त सामाजिकों के हृदयों के साथ समान रुप से अर्थात् व्यक्तिविशेष के सम्बन्ध से रहित साधारण्य से अपनी आत्मा समान आस्वाद से अभिन्न होने पर भी आस्वाद का विषय होकर अर्थात् जैसे आत्म-साक्षात्कार में चिद् रूप से अभिन्न आत्मा को भी साक्षात्कार का 'विषय' माना जाता है, इसी प्रकार रसानुभूति में अनुभूति से अभिन्न होने पर भी रस को 'विषय' कहा जा सकता है, आस्वादमात्रस्वरूप (चर्व्यमाणतैकप्राणः), विभावादि की स्थितिपर्यन्त ही रहने वाला, इलायची, कालीमिर्च, शक्कर, इमली, आम आदि को मिलाकर तैयार किये गये प्रपाणक अर्थात् पने के रस के समानअर्थात् प्रमाणक को घटक सामग्री के रस से विलक्षण रस के समान आस्वाद्यमान, साक्षात् प्रतीत होता हुआ-सा, हृदयमें प्रविष्ट होता हुआ-सा समस्त अङ्गों का आलिङ्गन करता हुआ-सा, अन्य सबको तिरोभूत करता हुआ-सा, ब्रह्मसाक्षात्कार का अनुभव कराता हुआ-सा, अलौकिक आनन्द को प्रदान करनेवाला चमत्कारी शृङ्गार आदि 'रस' होता है। यह अभिनवगुप्त का मत है और यह आलंकारिकों का सिद्धान्त माना जाता है।

    अभिनवगुप्त ने भरतनाट्यशास्त्र की 'अभिनवभारती' नामक अपनी व्याख्या में रसोत्पत्तिक विषय में बहुत अधिक विस्तार के साथ विचार किया है। उसमें उन्होंने भट्टलोल्लट श्रीशंकुुक तथा भट्टनायक के मतों को दिखलाने तथा उनकी आलोचना करने के बाद अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। उनके सारे विवेचन का केन्द्र बिन्दु सामाजिक की रसानुभूति रही है। इसी कसौटी पर उन्होंने दूसरे मतों की परीक्षा की है और इन मतों के विन्यास के पौर्वापर्य का निर्धारण भी उसी कसौटी पर किया है। सबसे पहिले दिये हुए भट्टलोल्लट के मत में सामाजिक की रसानुभूति की कोई चर्चा नहीं है इसलिए खण्डन करने योग्य अथवा अनुपादेयता की दृष्टि से उसको सबसे पहले रखा। अनुमेयतावादी शंकुक के मत में यद्यपि सामाजिक के साथ रस का सम्बन्ध तो स्थापित किया गया है, परन्तु अनुमितिरूप होने से वह साक्षात्कारात्मक नहीं है इसलिए वह भी अधिक उपादेय नहीं है, अतः उसको दूसरा स्थान दिया गया हैं। भट्टनायक के तीसरे मत में रसानुभूति को सामाजिक के साक्षात्कारात्मक अनुभव के रूप में प्रस्तुत करने का यत्न किया गया है, इसलिए वह शेष दोनों मतों से अधिक उपादेय है इसलिए तीसरे स्थान पर उसको रखा गया है। परन्तु उस सिद्धान्त में 'भावकत्व' तथा 'भोजकत्व' रूप दो व्यापारों की कल्पना की गयी है वह प्रामाणिक नहीं है, इसलिए उसका भी निराकरण कर अभिनवगुप्त ने अपने 'अभिव्यक्तिवाद की स्थापना की है। इस प्रकार इन मतों की रसप्रक्रिया में उपादेयता के तारतम्य से ही अभिनवगुप्त ने उनके क्रम का निर्धारण किया है।

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