अभिहितान्वयवाद, एवं अन्विताभिधानवाद, प्रभाकर को गुरु की उपाधि, आतिवाहिक पिण्ड, विवाद,तथा तौतातिक मत,
मीमांसकों में भी वाक्यार्थ के विषय में कई मत पाये जाते हैं, जिनमें 'अभिहितान्वयवाद' तथा 'अन्विताभिधानवाद' दो मुख्य है। प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् 'कुमारिलभट्ट' तथा उनके अनुयायी 'पार्थसारथिमिश्रा'दि 'अभिहितान्वयवाद' के मानने वाले है। इसके विपरीत प्रभाकर गुरु और उनके अनुयायी शालिकनाथ मिश्र आदि 'अन्विताभिधानवाद' के माननेवाले हैं।
अभिहितान्वयवाद एवं अन्विताभिधानवाद |
अभिहितान्वयवाद
अभिहितान्वयवाद का अभिप्राय यह है कि पहले पदों से पदार्थों की प्रतीति होती है तथा उसके बाद उन पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध, जो पदों से उपस्थित नहीं हुआ था, वाक्यार्थ-मर्यादा से उपस्थित होता है। इसलिए पहले पदों के द्वारा पदार्थ अभिहित अर्थात् अभिधा शक्ति द्वारा बोधित होते हैं, बाद में वक्ता के तात्पर्य के अनुसार उनका परस्पर अन्वय या सम्बन्ध होता है जिससे वाक्यार्थ की प्रतीति होती है। इस प्रकार वाक्यार्थ बोध के लिए अभिहित पदार्थों का अन्वय माननेके कारण 'कुमारिलभट्ट' आदि का यह सिद्धान्त 'अभिहितान्वयवाद' कहा जाता है। 'इस मत में पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध पदों से नहीं अपितु वक्ता के तात्पर्य के अनुसार होता है, इसलिए उसको 'तात्पर्यार्थ' कहते हैं, वही वाक्यार्थ कहलाता है और उसकी बोधक शक्ति को 'तात्पर्याख्या शक्ति' भी कहा जाता है, जो तीनों शक्तियों अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना से भिन्न चौथी शक्ति मानी जा सकती है । परन्तु मीमांसक व्यञ्जना शक्ति नहीं मानते हैं इसलिए उनकी दृष्टि से तो यह चौथी नहीं, तीसरी ही शक्ति है 'अभिहितान्वयवाद' में पहले पदों से केवल अनन्वित - पदार्थ उपस्थित होते है उसके बाद पदों की आकांक्षा, योग्यता तथा सन्निधिके बलसे 'तात्पर्य शक्ति' द्वारा उन पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध रूप वाक्यार्थों का बोध होता है। यह 'अभिहितान्वयवादी' कुमारिलभट्ट के मत का सारांश है।
यहाँ आकांक्षा, योग्यता तथा सन्निधि शब्दों का प्रयोग हुआ है। ये नये शब्द हैं इसलिए इनका अर्थ समझ लेना आवश्यक है ।
आकांक्षा
'आकांक्षा' वस्तुतः 'श्रोता की जिज्ञासा रूप' है। एक पद को सुनने के बाद वाक्य के अन्य पदों के सुने बिना पूरे अर्थ का ज्ञान नहीं होता है, इसलिए वाक्य के अगले पद के सुनने की इच्छा श्रोता के मन में उत्पन्न होती है । इसी का नाम आकांक्षा है। जिन पदों के सुनने पर इस प्रकार की आकांक्षा होती है उनके समुदाय को ही वाक्य कहते हैं। आकांक्षा से रहित 'गौरश्वः पुरुषो हस्ती' आदि यों ही अनेक पद बोल देने से वाक्य नहीं बनता है।
योग्यता
'योग्यता' पदका अभिप्राय 'पदार्थो के परस्पर सम्बन्ध में बाधा का अभाव है। जहाँ पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध में बाधा होती है उस पद-समुदाय को वाक्य नहीं कहा जाता और न उससे वाक्यार्थ बोध होता है। जैसे 'वह्निना सिञ्चति' इस पद- समुदाय में 'योग्यता' नहीं है क्योंकि वह्नि से सिंचाई नहीं की जा सकती है इसलिए वह्नि तथा सेचन के सम्बन्ध में बाधा होने से यहाँ योग्यता का अभाव है। इस कारण इसको वाक्य नहीं कहा जा सकता है।
सन्निधि
'सन्निधि' पद का अर्थ 'एक ही पुरुष द्वारा अविलम्ब से पदों का उच्चारण करना' है। यदि एक ही व्यक्ति द्वारा घंटे-घंटेभर बाद में पदों का अलग-अलग उच्चारण किया जाय तो वे सब मिलकर वाक्य नहीं कहला सकते हैं; क्योंकि उनमें 'आसक्ति' या सन्निधि' नहीं है। जैसे - किसी ने आज कहा 'दही में' अगले दिन बोला 'बूरा अर्थात् पिसी शक्कर डालो' । इस वचन में सन्निधि न होने से यह वाक्य नहीं कहा जा सकता है ।
इसलिए आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि से युक्त जो पदसमुदाय होता है वही वाक्य कहलाता है और उसीसे वाक्यार्थका बोध होता है। इसलिए यहाँ इन तीनोंका उल्लेख किया है।
अन्विताभिधानवाद
दूसरा सिद्धान्त 'अन्विताभिधानवाद' है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक 'प्रभाकर' और उनके अनुयायी 'शालिकनाथ मिश्र' आदि हैं। इनका कहना यह है कि पहले 'केवल' पदार्थ अभिहित होते हों और बाद को उनका 'अन्वय' होता हो यह बात नहीं है, बल्कि पहले 'अन्वित' पदार्थों का ही अभिधा से बोधन होता है इसलिए इस सिद्धान्त का नाम 'अन्विताभिधानवाद' रखा गया है। इस मत में पदार्थों का 'अन्वय' पूर्व ही सिद्ध होने के कारण उसके कराने के लिए, 'तात्पर्या शक्ति' की आवश्यकता नहीं होती है।
प्रभाकर अपने इस मत के समर्थन के लिए यह युक्ति देते हैं कि पदों से जो पदार्थों की प्रतीति होती है वह 'सङ्केतग्रह' के बाद ही होती है और उस सङ्केत का ग्रहण व्यवहार से होता है। जैसे, छोटा बालक है, उसको यह ज्ञान नहीं होता है कि किस शब्द का क्या अर्थ है, कौन-सा शब्द किस अर्थ के बोधन के लिए प्रयुक्त किया जाता है। वह अपने पिता आदि के पास बैठा है। पिता उसके बड़े भाई या नौकर आदि किसी को आज्ञा देता है कि 'जरा कलम उठा दो।' बालक न कलम को जानता है और न 'उठा दो' का अर्थ समझता है । परन्तु वह पिता के इस वाक्य को सुनता है और भाई के व्यापार को देखता है। इससे उसके मन पर उस समष्टि वाक्य के समष्टिभूत अर्थ का एक संस्कार बनता है। उसके बाद पिता फिर कहता है 'कलम रख दो और दावात उठा दो ।' बालक फिर इस वाक्य को सुनता और भाई को तदनुसार क्रिया करते देखता है। इस प्रकार अनेक बार के व्यवहार को देखकर बालक धीरे-धीरे कलम, दावात, उठाना, रखना आदि शब्दों के अलग-अलग अर्थ समझने लगता है। इस प्रकार व्यवहार से सङ्केत प्रह होता है। यह सङ्केत-ग्रह केवल पदार्थ में नहीं, अपितु किसी के साथ अन्वित-पदार्थ में ही होता है । इसलिए जब 'केवल' 'अनन्वित' पदार्थ में सङ्केत-ग्रह नहीं होता है तो 'केवल' या अनन्वित' पदार्थ की उपस्थिति भी नहीं होती है। अतएव 'अन्वित' का ही 'अभिधान' अर्थात् 'अभिधा' से बोधन होने से 'अन्विताभिधान' ही मानना उचित है, 'अभिहितान्वय' का मानना उचित नहीं है, यह प्रभाकर के सिद्धान्त का सार है ।
इस 'अन्विताभिधानवाद' के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले प्रभाकर, वस्तुतः 'अभिहितान्वयवादी कुमारिलभट्ट' के शिष्य हैं। पर उनका अनेक विषयों में अपने गुरु से मतभेद रहा है। प्रभाकर अपने विद्यार्थी जीवन में ही बड़े प्रभावशाली विद्यार्थी थे और अपने स्वतन्त्र विचारों के लिए प्रसिद्ध थे । प्रत्येक विषय पर वे अपनी स्वतन्त्र प्रतिभा और स्वतन्त्र विचार-शैली से विचार करते थे जिसके कारण कभी-कभी उनके गुरु कुमारिलभट्ट को भी कठिनाई का सामना करना पड़ता था ।
एक बार की बात है कि कुछ विद्वानों में 'आतिवाहिक पिण्ड' के सिद्धान्त पर विवाद छिड़ गया । 'आतिवाहिक पिण्ड' का अभिप्राय मृत्यु के बाद दिये जाने वाले पिण्ड से है। एक पक्ष उसके दिये जाने का समर्थन करता था और उसकी एक विशेष विधि का प्रतिपादन करता था। दूसरा पक्ष उसका विरोधी था । अन्त में यह विवाद निर्णय के लिए कुमारिलभट्ट के पास पहुँचा । कुमारिलभट्ट ने अपनी सम्मति के अनुसार एक पक्ष में व्यवस्था दे दी। परन्तु यह व्यवस्था प्रभाकर को रुचिकर प्रतीत नहीं हुई और उन्होंने उसका प्रतिवाद किया। बाहर के विद्वान् तो कुमारिलभट्ट की व्यवस्था लेकर चले गये परन्तु जो विवाद अब तक बाहर था वह अब घर में प्रारम्भ हो गया । कुमारिलभट्ट ने अनेक प्रकार से प्रभाकर को अपना सिद्धान्त समझाने का प्रयत्न किया परन्तु उसको सन्तोष न हुआ, या यों कहना चाहिये कि कुमारिल भट्ट अपनी युक्तियों से उसको चुप न कर सके। जैसे गान्धी जी अपने जीवन काल में जवाहरलालजी को अपने अहिंसा - सिद्धान्त को पूरी तरह से समझा नहीं सके पर उनको यह विश्वास था कि मेरे सिद्धान्त का पालन करने वाले 'जवाहर' ही होंगे, उसी प्रकार कुमारिलभट्ट को यह विश्वास था कि इस 'आतिवाहिक पिण्ड' के सिद्धान्त को प्रभाकर इस समय भले ही अपने इस तर्क के सामने न टिकने दे पर किसी दिन इस सिद्धान्त को मानेगा ही इसलिए उस समय उन्होंने इस विषयपर आगे चर्चा बन्द कर दी और प्रभाकर से कह दिया कि फिर कभी इस सिद्धान्त का स्पष्टीकरण करेंगे । बहुत दिन बीत गये। एक दिन सहसा कुमारिलभट्ट की मृत्यु का समाचार सुनायी दिया। यद्यपि सहसा किसी को उनकी मृत्यु का विश्वास न होता था पर जब सभी ने उनके शरीर की परीक्षा कर उस में जीवन का कोई चिह्न न पाया तो फिर उस पर विश्वास करने के अतिरिक्त और मार्ग ही क्या था । फलतः सब लोगों ने उनका अन्तिम संस्कार करने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। इस अन्तिम संस्कार के प्रसङ्गमें जब 'आतिवाहिक पिण्ड' का अवसर आया तो लोगों ने प्रभाकर की ओर देखा । परन्तु उस समय प्रभाकर ने बिना किसी सङ्कोच के कुमारिलभट्ट की व्यवस्था के अनुसार ही सारी प्रक्रिया करवायी । सारी कारवाई पूर्ण हो जाने के बाद मृतक-यान के उठाये जाने के पूर्व कुमारिलभट्ट के शरीर में कुछ चेतना का संस्कार-सा प्रतीत हुआ और धीरे-धीरे थोड़ी देर बाद वे उठकर बैठ गये, जैसे सोकर उठे हों। उठने के बाद सब लोगों में प्रसन्नताकी लहर दौड़ गयी और इस बीच में क्या-क्या हुआ इस सबका समाचार उनको सुनाया गया । उस प्रसङ्गमें जब उनको यह मालूम हुआ कि आज प्रभाकर ने मेरे 'आतिवाहिक पिण्ड' सम्बन्धी सिद्धान्त को ही मान्य ठहराया था तब उनको भी प्रसन्नता हुई और उन्होंने प्रभाकर को सम्बोधन करके कहा, 'प्रभाकर जितमस्माभिः'- कहो प्रभाकर ! हम जीते न । प्रभाकर ने उत्तर दिया, 'भगवन् मृत्वा जितम्'– 'भगवन् ! मरकर जीते'। मुझे जीतने के लिए आपको मरने का छल करना पड़ा या दूसरा जन्म लेना पड़ा ।
प्रभाकर को 'गुरु'की उपाधि
यह उन गुरु-शिष्य के शास्त्र समर की एक झांकी है। पर एक और घटना इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। एक दिन कुमारिलभट्ट के यहाँ विद्यार्थियों के पाठ हो रहे थे। प्राचीन पाठशाला की प्रणाली यह थी कि पाठ के समय छोटे-बड़े सभी विद्यार्थी, गुरुजी के पास ही बैठकर सबके पाठ सुनते थे इससे जो विद्यार्थी उस ग्रन्थ को पहिले पढ़ चुके होते थे उनको उसका पाठ दुबारा तिबारा सुनने से वह और अधिक परिमार्जित हो जाता था और जिन्हें आगे चलकर वह ग्रन्थ पढ़ना होता था उनका कुछ प्रारम्भिक संस्कार बन जाता था जो आगे उनको सहायता देता था । ऐसे ही पाठ के प्रसङ्ग में सब विद्यार्थियों के साथ बैठे हुए प्रभाकर, अपने से किसी उच्च कक्षा के विद्यार्थियों का पाठ सुन रहे थे। पढ़ते-पढ़ते गुरुजी अकस्मात् रुक गये। कोई क्लिष्ट पंक्ति आगे थी जो लग नहीं रही थी। इसलिए गुरुजी ने उस पाठ को वहीं रोक दिया और देखकर कल पढ़ाने को कह दिया।
पाठों के समाप्त हो जाने के बाद जब सब लोग उठकर चले गये और गुरुजी अपने भोजन आदि कार्यों में लग गये तो प्रभाकर ने आकर गुरुजी की पुस्तक उठा ली और जहाँ गाड़ी अटक गयी थी उस पाठ को विचारने लगे । तनिक देर सोचने के बाद उन्हें मालूम हो गया कि यह, 'ईश्वरकी रचना' को '७ सेर का चना' बना देने वाले आज के प्रेस के भूतों के समान, लेखक के प्रमाद का खेल है । उसमें कोई शास्त्रीय गुत्थी नहीं है। पुस्तक में लेखक ने प्रमाद से पाठ अशुद्ध लिख दिया था। इसलिए वह पंक्ति नहीं लग रही थी। पुस्तक लिखा हुआ था 'अत्रापि नोक्तं तत्रापि नोक्तम् इति पौनरुक्त्यम्'। इसका अर्थ यह होता था कि 'यहाँ भी नहीं कहा है और वहाँ भी नहीं कहा है इसलिए पुनरुक्ति है'। यही समस्या बन गयी थी। पुनरुक्ति तो तब होती है जब एक ही बात दो बार कही जाय। जो बात न यहाँ कही गयी, न वहाँ कही गयी वह पुनरुक्त कैसे हो सकती है यह बात समझ में नहीं आ रही थी। प्रभाकर ने कलम लेकर उस पाठ को संशोधन करके इस प्रकार लिख दिया -
'अत्र तुना उक्तं तत्र अपिना उक्तम् इति पौनरुक्त्यम् ।'
अर्थात् यहाँ जो बात 'तुना' अर्थात् 'तु' शब्द से कही है वही बात वहाँ अर्थात् दूसरे स्थान पर 'अपिना' अर्थात् 'अपि शब्द से कही गयी है इसलिए पुनरुक्ति है।
'अत्र तुनोक्तं तत्रापिनोक्तम् इति पौनरुक्त्यम्।
इस पाठ में जो पुनरुक्ति समझ में नहीं आ रही थी पाठ का संशोधन कर देने से वह बिलकुल स्पष्ट हो गयी । प्रभाकर चुप-चाप पुस्तक रखकर चले आये। कुछ समय बाद जब कुमारिलभट्ट ने उस पाठ को विचारने के लिए पुस्तक उठायी तो सब कुछ हस्तामलकवत् स्पष्ट हो गया और यह समझने में भी उनको देर न लगी कि यह कार्य प्रभाकर का है। उनको अपने शिष्य की प्रतिभा पर पहिले ही बड़ा विश्वास था पर आज उसकी अपूर्व प्रतिभा देखकर उनको बड़ा आनन्द हुआ और वे गद्गद हो गये विश्वविद्यालयीय बाह्याडम्बरमय वातावरण के समान नहीं, अपितु विशुद्ध भावना से अपने समस्त शिष्य मण्डल के बीच आज उन्होंने अपने उस शिष्य को 'गुरु'की गौरवमयी उपाधि प्रदान की । तब से आजतक प्रभाकर गुरु नामसे प्रसिद्ध हैं और दार्शनिक ग्रन्थों में 'इति गुरुमतम्' कहकर अत्यन्त सम्मानपूर्वक उनके मत का उल्लेख किया जाता है।
तौतातिक मत
इसके विपरीत कुमारिलभट्ट के मत का प्रायः 'इति तौतातिकं मतम्' 'तौतातिक मत' नाम से उल्लेख किया जाता है । 'तौतातिक' शब्दका अर्थ 'तु शब्दः तातः शिक्षको यस्य स तुतातः, तस्येदं तौतातिकम्' यह होता है । 'तु' शब्द जिसका 'तात' अर्थात् शिक्षक है वह तु-तात हुआ और उसका मत 'तोतातिक मत' 'हथा। ऊपर की घटना के अनुसार 'तु' शब्द से ही कुमारिलभट्ट को यह शिक्षा मिली थी इसलिए वे ही 'तु-तात' हुए, और उनका मत 'तौतातिक मत' कहलाया जाने लगा ।
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>>काव्य का लक्षण, विभिन्न आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य-लक्षणों का विवेचन
>> अभिहितान्वयवाद एवं अन्विताभिधानवाद प्रभाकर को गुरु की उपाधि, आतिवाहिक पिण्ड विवाद तथा तौतातिक मत
>>भरतमुनि का रससूत्र तथा उत्पत्तिवाद, अनुमितिवाद, भुक्तिवाद तथा अभिव्यक्तिवाद का विश्लेषण
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