काव्य के हेतु
काव्य के हेतु |
मम्मट प्रतिपादित काव्य हेतु -
शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात् ।
काव्यशशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ॥ ३ ॥
शक्तिः कवित्वबीजरूपः संस्कारविशेषः यो विना काव्यं न प्रसरेत् प्रसृतं वा उपहसनीयं स्यात्। लोपस्य स्थावरजङ्गमात्मकस्य लोकवृत्तस्य, शास्त्राणां छन्दो- व्याकरणाभिधानकोशकलाचतुर्वर्गगजतुरगखङ्गादिलक्षणग्रन्थानाम्, काव्यानां च महाकवि...।
कवि में रहने वाली उसकी स्वाभाविक प्रतिभा रूप १. शक्ति, २. लोकव्यवहार, शास्त्र तथा काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुणता और ३. काव्य की रचना-शैली तथा आलोचना-पद्धति को जानने वाले गुरु की शिक्षा के अनुसार काव्य-निर्माण का अभ्यास, ये तीनों मिलकर समष्टि रूपसे उस काव्य के विकास अथवा उद्भव के कारण है ।
शक्ति
कवित्वका बीजभूत संस्कार-विशेष प्रतिभा या शक्ति कहलाती है, जिसके बिना काव्य निर्मित ही नहीं होता है अथवा तुकबन्दी के रूप में कुछ बन जाने पर भी उपहास के योग्य होता है। यह मम्मट प्रतिपादित प्रथम काव्य हेतु है।
लोकव्यवहार एवं शास्त्रज्ञान
लोक अर्थात् स्थावर-जङ्गम रूप संसार व्यवहार के शास्त्र अर्थात् छन्द, व्याकरण, संज्ञा शब्दों के अभिधान अमरकोश आदि , कला अर्थात् भरत, कोहल आदि प्रणीत नृत्य-गीत आदि, चौसठ प्रकार की कलाओं के प्रतिपादक लक्षण-ग्रन्थों , चतुर्वर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतिपादक ग्रन्थ, हाथी-घोड़े आदि के लक्षणों के प्रतिपादक शालिहोत्र आदि रचित ग्रन्थ एवं खङ्ग आदि के लक्षण ग्रन्थों और महाकवियों द्वारा रचे गये काव्यों के आदि पद के ग्रहण से सूचित इतिहास आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न व्युत्पत्ति का ज्ञान, काव्य का द्विताय हेतु है।
अभ्यास
जो काव्य की रचना और उसकी विवेचना करना जानते हैं उनके उपदेश के अनुसार अपने आप नवीन श्लोकादि के निर्माण करने और प्राचीन कवियों के श्लोकों को जोड़-तोड़ करने में बार-बार प्रवृत्ति अर्थात् अभ्यास करना काव्य का तृतीय हेतु है।
ये तीनों मिलकर समष्टि रूप से, अलग-अलग नहीं, उस काव्यके उद्भव अर्थात् निर्माण और विकासमें कारण हैं। अलग-अलग तीन कारण नहीं होते हैं- हेतुः न तु हेतवः ।
यहाँ ग्रन्थकार ने शक्ति, लोकव्यवहार, शास्त्र एवं काव्य आदि के पर्यालोचन से उत्पन्न व्युत्पत्ति तथा काव्य की रचना-शैली और उसके गुण-दोषों के जानने वाले विद्वानों की शिक्षा के अनुसार अभ्यास इन तीनों की समष्टि को काव्य-निर्माण की योग्यता प्राप्त करनेका कारण माना है।
वामन प्रतिपादित काव्य हेतु
वामन ने भी अपने काव्यालंकारसूत्र ग्रन्थ में इसी प्रकार (१) लोक, (२) विद्या तथा ( ३ ) प्रकीर्ण इन तीनों को काव्य का अङ्ग काव्य-निर्माण की क्षमता प्राप्त करने का साधन बतलाया है -
लोको विद्या प्रकीर्णञ्च काव्याङ्गानि (१.३.१)
लोकवृत्तं लोक: (१.३.२)
शब्दस्मृत्यभिधानकोश-छन्दोविचिति-कला-कामशास्त्र- दण्डनीतिपूर्वा विद्याः (१.३.३)
लक्ष्यज्ञत्वमभियोगी वृद्धसेवावेक्षणं प्रतिभानमवधानञ्च प्रकीर्णम् (१.३.११)
इस प्रकार वामन ने काव्य के कारणों का अधिक विस्तार के साथ विवेचन किया है। प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय के २० सूत्रों में वामन ने इन काव्याङ्गों के निरूपण करने में व्यय किये हैं जिनको मम्मटाचार्य ने केवल एक कारिका में कह दिया है। मम्मट ने वामन के लोक तथा विद्या दोनों को 'लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात् निपुणता के अन्तर्गत कर लिया है। 'प्रकीर्ण में से शक्ति को अलग कर दिया है और 'वृद्ध-सेवा' का 'काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास में अन्तर्भाव करके मम्मट ने वामन के समान आठ काव्याङ्ग का मुख्यरूप से तीन काव्य-साधनों के रूप में प्रतिपादन किया है।
भामह प्रतिपादित काव्य-हेतु
वामन के पूर्ववर्ती काव्यालंकार के प्रणेता आचार्य भामह ने भी काव्य-साधनोंका निरूपण लगभग उसी प्रकारसे किया है। उन्होंने लिखा है-
शब्दश्छन्दोऽभिधानार्था इतिहासाश्रयाः कथाः ।
लोको युक्तिः कलाश्चेति मन्तव्या काव्यगैरमी ॥९॥
शब्दाभिधेये विज्ञाय कृत्वा तद्विदुपासनाम्।
विलोक्यान्यनिबन्धांश्च कार्यः काव्यक्रियादरः ॥१०॥
इन काव्य-साधनों की तुलना करने से प्रतीत होता है कि काव्य-साधन सभी आचार्यो की दृष्टिमें लगभग एक-से ही हैं। परन्तु भिन्न-भिन्न आचार्यों ने उनके पौर्वापर्य अथवा विभाग आदि में थोड़ा-बहुत भेद करके उनका अलग-अलग ढंग से निरूपण कर दिया है। तत्त्वतः उनके विवेचनमें अधिक भेद नहीं है ।
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