काव्य प्रयोजन
काव्य प्रयोजन
काव्य प्रयोजन |
प्रयोजन के बिना व्यक्ति किसी भी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता है जैसा कि कहा गया है -
"प्रयोजनमनुद्दिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते ।"
अतः काव्यशास्त्र में प्रवृत्त होने के लिए काव्यविदों ने इसके अनेक प्रयोजन बताए हैं जिनका निरूपण हम यहाँ करने चल रहे हैं।
आचार्य मम्मट का काव्यप्रयोजन
"काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।
सद्यः परनिवृत्तये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ॥"
काव्य १.यशजनक, २.अर्थका उत्पादक, ३.लोकव्यवहार का बोधक, ४.शिव अर्थात् कल्याण शिवेतर अर्थात् उससे भिन्न अनिष्टका नाशक, पढ़ने या सुनने-देखने आदि के साथ ही ५.सद्यः परम आनन्द का देने वाला और ६.स्त्री के समान सरस रूप से कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश प्रदान करनेवाला होता है । काव्यका निर्माण कवि को कालिदास आदि के समान यश की प्राप्ति, नैषध महाकाव्य के प्रणेता महाकवि श्रीहर्ष से नहीं अपितु 'रत्नावली नाटिका के प्रणेता राजा श्रीहर्ष आदि से धावक आदि पण्डितों के समान धन की प्राप्ति कराता है और काव्यों के अध्ययन करने से पढ़ने वालों को वर्णित राजा आदि के साथ अन्य लोगों के व्यवहार को पढ़ने या नाटक आदि में देखने के द्वारा काव्य ही राजा आदि के साथ किये जाने योग्य आचार का परिज्ञान कराता है। इसी प्रकार काव्यनिर्माण सूर्य आदि की स्तुति से 'मयूर'[कवि आदि के कुष्ठ निवारण के समान अनर्थ का निवारण करता है और इन समस्त प्रयोजनों में मुख्य काव्य के पढ़ने या सुनने के बाद सद्यः तुरन्त ही रस के आस्वादन से समुत्पन्न और अन्य सब विषयों के परिज्ञान से शून्य परम आनन्द की अनुभूति तथा राजा को आज्ञा के समान शब्द-प्रधान वेद आदि शास्त्रों से विलक्षण मित्र वचन के समान अर्थ-प्रधान पुराण और इतिहास आदि से विलक्षण शब्द तथा अर्थ दोनों के गुणीभाव के कारण रस के साधक व्यञ्जन व्यापारको प्रधानताके द्वारा, वेद-शास्त्र-पुराण-इतिहास आदि से विलक्षण, जो लोकोत्तर वर्णन-शैली में निपुण कवि का कर्म अर्थात् काव्य है वह स्त्री के समान सरसता के साथ सरस बनाकर राम आदि के समान आचरण करना चाहिये, रावण आदि के समान नहीं, यह यथायोग्य उपदेश आवश्यकतानुसार कवि तथा सहृदय पाठक आदि दोनों को कराता है इसलिए काव्य को रचना तथा उसके अध्ययन में अवश्य प्रयत्न करना चाहिये।
इस वाक्यका अर्थ समझने के लिए उसका विश्लेषण करना आवश्यक है । वाक्य का क्रियापद 'करोति' लगभग वाक्य के अन्त में आया है। इस क्रिया के कर्म-पद यशः, धनम्, आचार-परिज्ञानम्, अनर्थनिवारणम् आनन्दम्, उपदेशं च ये ६ हैं। इन सबके साथ उपमा और विशेषण जुड़े हुए हैं। विशेष रूप से आनन्द के साथ 'सकलप्रयोजनमौलिभूतम्', 'रसास्वादनसमुद्भूतम्' और 'विगलितवेद्यान्तरम्' ये तीन विशेषण जुड़े हुए हैं। वाक्य में 'काव्यम्' पद कर्तृपद है । पर उसके साथ 'वेदादिशास्त्रेभ्यः पुराणादीतिहासेभ्यश्च विलक्षणं' इन विषयों को जोड़कर यत् काव्यं तत् यह पद बनता है। इन विशेषणोंके साथ भी दूसरे विशेषण जुड़े हुए हैं। 'प्रभुसम्मित- शब्दप्रधानवेदादिशास्त्रेभ्य: विलक्षणं सुहृत्सभ्यतार्थतात्पर्यवत्पुराणादीतिहासेभ्यश्च विलक्षणं यत् काव्यं तत् यतः धनम्,आचार परिज्ञानम्, अनर्थनिवारणम्, उपदेशं च करोति' यह वाक्य बनता है। वेद शास्त्र इतिहास-पुराणादि से काव्यकी विलक्षणता दिखलाने के लिए पूर्वोक्त विशेषणों के अतिरिक्त 'शब्दार्थयोर्गुणभावेन रसाङ्गभूत व्यापारप्रवणतया' पद तथा 'उपदेश' इस कर्मपदके साथ 'कान्तेव सरसतापादनेनाभिमुखीकृत्य पद में इति कर्तव्यता भी समाविष्ट हो गयी है। फलतः इस वाक्य की रचना बड़ी दुरूह और क्लिष्ट हो गयी है। बिना टीका के इसका अर्थ समझना जरा टेढ़ी खीर है।
इस प्रकार मम्मटाचार्यने इस कारिका में काव्यके छह प्रयोजन दिखलाये हैं। इससे कान्तासम्मिततया उपदेशयुजे' इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने वेदादि शास्त्र तथा पुराण- इतिहासादि से काव्य का भेद और उसकी उपादेयता का प्रतिपादन बड़े अच्छे ढंग से किया है। काव्य के प्रयोजनों में यश, धन आदि अन्य प्रयोजनों के साथ कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश करना भी एक मुख्य प्रयोजन है । वेद-शास्त्र इतिहासपुराणादि की रचना भी मनुष्योंको शुभ-कर्मों में प्रवृत्त करने तथा अशुभ-कर्मों से निवृत्त करने के लिए ही की गयी है। परन्तु काव्य की उपदेश-शैली उन सबसे विलक्षण है। इस विलक्षणता का उपपादन करने के लिए ग्रन्थकार ने शब्दप्रधान, अर्थप्रधान तथा रसप्रधान तीन तरह को उपदेश-शैलियों की कल्पना की है, जिनको 'प्रभुसम्मित', 'सुहृत्सम्मित' तथा 'कान्तासम्मित' निर्दिष्ट किया है। वेदशास्त्र आदि की शैली 'प्रभुसम्मित' या शब्दप्रधान शैली है। राजाज्ञाएँ तथा राजकीय विधान सदा शब्दप्रधान होते हैं। उनमें जो कुछ आज्ञा दी जाती है उसका अक्षरशः पालन करना अनिवार्य होता है। इसी प्रकार वेद-शास्त्र आदि में जो उपदेश दिये गये हैं उनका अक्षरश: पालन करना ही अभीष्ट होता है। इसलिए वे शब्दप्रधान होने से राजाज्ञा के समान या प्रभुसम्मित उपदेश शैली में अन्तर्भुक्त होते हैं। दूसरी उपदेश-शैली इतिहास-पुराण आदि की है। इनमें वेद-शास्त्र आदि के समान शब्दों की प्रधानता नहीं होती है अपितु अर्थ पर विशेष बल दिया जाता है तथा उनके अभिप्राय का अनुसरण किया जाता है। इसको आचार्य मम्मट ने 'सुहृत् सम्मित शैली कहा है। मित्र अपने मित्र को उचित कार्य का अनुष्ठान करने तथा अनुचित काम का परित्याग करने का उपदेश करता है। परन्तु उसका उपदेश राजाज्ञा के समान शब्दप्रधान नहीं होता है। उसका तात्पर्य अर्थ में होता है। इसलिए अर्थ में तात्पर्य रखने वाली इस दूसरे प्रकार की उपदेश-शैली को ग्रन्थकार 'सुहृत्सम्मित' शैली कहा है। इतिहास-पुराण आदि का अन्तर्भाव इस शैली के अन्तर्गत होता है। काव्य की उपदेश-शैली इन दोनों से भिन्न प्रकारकी होती है। उसमें न शब्द की प्रधानता होती है और न अर्थ की । यहाँ शब्द तथा धर्म दोनों का गुणीभाव होकर केवल रस की प्रधानता होती है। इस शैली को मम्मट ने 'कान्तासम्मित' उपदेश-शैली नाम दिया है। स्त्री जब किसी काम में पुरुष को प्रवृत्त या किसी कार्य से उसको निवृत्त करती है तब वह अपने सारे सामर्थ्य से उसको सरस बनाकर ही प्रेरणा करती है। इसलिए कान्तासम्मित-शैली में शब्द तथा अर्थ दोनों का गुणीभाव होकर रस को प्रधानता हो जाती है। इसलिए इसको रसप्रधान शैली कहा जा सकता है । मम्मटाचार्य ने काव्य की उपदेश-शैली को इस श्रेणी में रखा है। काव्यों के पढ़ने से भी रामादि के समान आचरण करना चाहिये, रावण आदि के समान आचरण नहीं करना चाहिये इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त होती है। परन्तु उसमें शब्द या अर्थ को नहीं अपितु रस की प्रधानता होती है। काव्य के रसास्वादन के साथ-साथ कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान भी मनुष्य को होता जाता है। यह शैली वेद शास्त्र को शब्दप्रधान तथा इतिहास-पुराण आदि की अर्थप्रधान दोनों शैलियों से भिन्न और सरसता के कारण अधिक उपादेय है। इसलिए काव्य के विषय में प्रयत्न करना ही चाहिये, यह अभिप्राय है।
काव्य से यश की प्राप्ति होती है इसको सिद्ध करने के लिए आचार्य मम्मट ने कालिदास का उदाहरण दिया है, जो उचित ही है अर्थप्राप्ति भी काव्य से हो सकती है। इसके लिए ग्रन्थकार ने धावक का नाम लिया है। श्रीहर्ष के नाम से 'रत्नावली नाटिका' आदि जो ग्रन्थ पाये जाते हैं वे वस्तुतः उनके बनाये हुए नहीं हैं अपितु धावक नामक किसी अन्य कवि के बनाये हुए हैं। राजा श्रीहर्षने प्रचुर धन देकर उस कवि को सम्मानित तथा पुरस्कृत किया, इसलिए कवि ने उसपर से अपना नाम हटाकर लिखने वाले के स्थान पर राजा श्रीहर्ष का नाम डाल दिया है। इस प्रकार उन काव्यों से धावक को केवल धन की प्राप्ति हुई, यश की प्राप्ति जितनी होनी चाहिये थी उतनी नहीं हुई। तीसरा प्रयोजन 'व्यवहारविदे' अर्थात् व्यवहारका ज्ञान है। काव्य-नाटक आदि में जो चरित्र-चित्रण होता है उससे भिन्न-भिन्न स्थितियों में पात्रों के परस्पर व्यवहार की शैली का परिज्ञान होता है, विशेषकर राजा आदि के साथ किस प्रकार का शिष्टाचार व्यवहार में लाना चाहिये इस बात का परिज्ञान काव्यादि के द्वारा ही साधारण जनों को प्राप्त होता है। 'सद्यः परनिर्वृतये' अर्थात् काव्य के निर्माण अथवा पाठ के साथ ही जो एक विशेष प्रकारके आन्तरिक आनन्द की प्राप्ति होती है वह अलौकिक आनन्दानुभूति ही काव्य का सबसे मुख्य प्रयोजन है । इस आनन्दानुभूति के समय पाठक संसार भूलकर उसी काव्य जगत में तल्लीन हो जाता है। इस तन्मयता में हो उस अलौकिक आनन्द की अभिव्यक्ति होती है।
शिवेतरक्षतये अर्थात् अनिष्ट अमङ्गल का निवारण भी एक प्रयोजन बतलाया गया है। इसके लिए ग्रन्थकार ने 'मयूर' कवि का उदाहरण दिया है। 'मयूर' कवि का एकमात्र काव्य 'सूर्यशतक' मिलता है। इसमें सूर्य के स्तुति-परक १०० श्लोक है। कहते है कि इन श्लोकों द्वारा सूर्य की स्तुति कर 'मयूर' कवि ने कुष्ठ रोग से छुटकारा पाया था। इसलिए ग्रन्थकार ने उसे अनिष्ट निवारण के उदाहरणरूप में प्रस्तुत किया है। 'मयूर' कवि के कुष्ठी होनेके विषयमें एक कथा प्रसिद्ध है। देखें-मयूरभट्ट का उपाख्यान ।
आचार्य वामन का काव्यप्रयोजन
आचार्य वामन ने काव्य के केवल दो प्रयोजन माने हैं—एक कीर्ति और दूसरा प्रीति । उन्होंने लिखा है-
काव्य सद् दृष्टादृष्टार्थं प्रीतिकीतिहेतुत्वात् ।
- वामन, काव्यालंकारसूत्र १.१.५
इनमें से प्रीति अर्थात् आनन्दानुभूति को काव्य का दृष्ट-प्रयोजन तथा कीति को काव्य का अदृष्टार्थ प्रयोजन माना है और इस पर विशेष बल दिया है। उन्होंने इस विषय में तीन श्लोक भी दिये है
प्रतिष्ठां काव्यबन्धस्य यशसः सरणिं विदुः ।
अकीर्तिवर्तिनीं त्वेवं कुकवित्वविडम्बनाम् ॥१॥
कीर्तिं स्वर्गफलामाहुरासंसार विपश्चितः ।
अकीर्तिन्तु निरालोकनरकोद्देशदूतिकाम् ॥२॥
तस्मात् कीर्तिमुपादातुमकीर्तिञ्च व्यपोहितम् ।
काव्यालङ्कारसूत्रार्थ: प्रसाद्यः कविपुङ्गवैः ॥३॥
भामह प्रतिपादित काव्य-प्रयोजन
वामनके भी पूर्ववर्ती आचार्य भामह ने अधिक विस्तार के साथ काव्य के प्रयोजनों का वर्णन निम्नलिखित प्रकार किया है -
धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्तिं प्रीतिं च साधुकाव्यनिबन्धनम् ॥
अर्थात् उत्तम काव्य की रचना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थों तथा समस्त कलाओं में निपुणता और कीर्ति एवं प्रीति अर्थात् आनन्द को उत्पन्न करने वाली होती है । भामह के इस श्लोक को उत्तरवर्ती सभी आचार्यों ने आदरपूर्वक अपनाया है। इसके अनुसार कीर्ति तथा प्रीति के अतिरिक्त पुरुषार्थ-चतुष्टय, कला तथा व्यवहार आदिमें निपुणताकी प्राप्ति भी काव्यका प्रयोजन है। कीर्ति को काव्य का मुख्य प्रयोजन बतलाते हुए जिस प्रकार वामन ने तीन श्लोक लिखे थे, जो ऊपर दिये जा चुके हैं, उसी प्रकार भामह ने भी कुछ श्लोक इसी अभिप्राय के लिखे हैं जो नीचे दिये जा रहे हैं-
उपेयुषामपि दिवं सन्निबन्धविधायिनाम्।
आस्त एव निरातङ्कं कान्तं काव्यमयं वपुः॥
रुणद्धि रोदसी चास्य यावत् कीर्तिरनश्वरी ।
तावत् किलायमध्यास्ते सुकृती वैबुधं पदम् ॥
अतोऽभिवाञ्छता कीर्तिं स्थेयसीमा भुवः स्थितेः ।
यत्नो विदितवेद्येन विधेयः काव्यलक्षणः ॥
सर्वथा पदमप्येकं न निगाद्यमवद्यवत्।
विलक्ष्मणा हि काव्येन दुःसुतेनेव निन्द्यते ॥
नाकवित्वमधर्माय व्याधये दण्डनाय वा ।
कुकवित्वं पुनः साक्षान्मृतिमाहुर्मनीषिणः ॥
-भामह काव्यालंकार प्रथम परिच्छेद ६-१२ श्लोक
अर्थात् उत्तम काव्यों की रचना करने वाले महाकवियों के दिवङ्गत हो जाने के बाद भी उनका सुन्दर काव्य-शरीर 'यावच्चन्द्र दिवाकरौ' अक्षुण्ण बना रहता है और जब तक उनकी अनश्वर कीर्ति इस भू-मण्डल तथा आकाश में व्याप्त रहती है तब तक वे सौभाग्यशाली पुण्यात्मा देवपद का भोग करते हैं । इसलिए प्रलयपर्यन्त स्थिर रखने वाली कीर्ति चाहने वाले कवि को उसके उपयोगी समस्त विषयों का ज्ञान प्राप्त कर उत्तम काव्य की रचना के लिए प्रयत्न करना चाहिये । काव्य में एक भी अनुपयुक्त पद न आने पावे इस बात का ध्यान रखना चाहिये, क्योंकि बुरे काव्य की रचना से कवि उसी प्रकार निन्दा का भाजन होता है जिस प्रकार कुपुत्र से पिता की निन्दा होती है । कु कवि बनने की अपेक्षा तो अकवि होना अच्छा है क्योंकि अकवित्व से न तो अधर्म होता है और न व्याधि या दण्ड का भागी ही बनना पड़ता है परन्तु कुकवित्व को विद्वान् लोग साक्षात् मृत्यु ही कहते हैं ।
कुन्तक प्रतिपादित काव्यप्रयोजन
कुन्तक ने अपने वक्रोक्तिजीवित में इसको और भी अधिक स्पष्ट किया है। उन्होंने काव्य प्रयोजनों का निरूपण करते हुए लिखा है-
धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः ।
काव्यबन्धोऽभिजातानां हृदयाह्लादकारकः ॥
व्यवहारपरिस्पन्दसौन्दर्यं व्यवहारिभिः ।
सत्काव्याधिगमादेव नूतनौचित्यमाप्यते ॥
चतुर्वर्गफलास्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदाम् ।
काव्यामृतरसेनान्तश्चमत्कारो वितन्यते ॥
-वक्रोक्तिजीवितम्, प्रथम उन्मेष, कारिका.३-५
अर्थात् काव्य की रचना अभिजात अर्थात् श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न राजकुमार आदि के लिए सुन्दर एवं सरस ढंग से कहा गया धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि का सरल मार्ग है । सत्काव्य के परिज्ञान से ही व्यवहार करने वाले सब प्रकार के लोगों को अपने-अपने व्यवहार का पूर्ण एवं सुन्दर ज्ञान प्राप्त होता है और सबसे बड़ी बात यह है कि उससे सहृदयों के हृदय में चतुर्वर्ग-फल की प्राप्ति से भी बढ़कर आनन्दानुभूति रूप चमत्कार उत्पन्न होता है ।
भरतमुनिके काव्य-प्रयोजन
काव्यशास्त्र के आद्य आचार्य श्रीभरतमुनिने अपने 'नाटयशास्त्र में नाट्य अथवा काव्य के प्रयोजनों का वर्णन इस प्रकार किया है-
उत्तमाधममध्यानां नराणां कर्मसंश्रयम् ।
हितोपदेशजननं धृति-क्रीड़ा सुखादिकृत् ॥
दुःखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम् ।
विश्रान्तिजननं काले नाटयमेतद् भविष्यति ॥
धन्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्द्धनम् ।
लोकोपदेशजननं नाटयमेतद् भविष्यति ॥
- नाट्यशास्त्र, अ.1, श्लो. ११३-११५
उत्तरवर्ती आचार्योंने इसीके आधारपर काव्यके प्रयोजनोंका निरूपण किया है।
साहित्यदर्पणकार आचार्य विश्वनाथ का काव्यप्रयोजन
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