मयूरभट्ट का उपाख्यान
मयूर भट्ट का उपाख्यान |
संवत् १०७८ या सन् १०२१ में मयूर कवि राजा भोजके सभारत्न थे और धारानगरी में रहते थे । 'कादम्बरी' नामक प्रसिद्ध गद्य-काव्य के निर्माता महाकवि 'बाणभट्ट' इनके भगिनी-पति अर्थात् बहनोई थे । वे भी उसी धारानगरी में रहते थे। दोनों ही कवि थे इसलिए साले-बहनोई के इस सम्बन्ध के अतिरिक्त भी उन दोनों में विशेष मैत्री भाव था। दोनों अपनी नूतन रचनाएँ एक-दूसरेको सुनाते रहते थे ।
मयूरभट्ट के द्वारा सूर्यशतक की रचना |
एक दिन की बात है कि बाण की पत्नी किसी कारण से बाणभट्ट से अत्यन्त अप्रसन्न हो गयी । बाणभट्ट ने उनको मनाने का बहुत प्रयत्न किया पर उसमें उनको सफलता नहीं मिली। इस मान - मनौवल में ही उनकी सारी रात बीत गयी और लगभग सबेरा हो आया, पर बाणभट्ट भी अपने प्रयत्न में लगे हुए थे तथा वे अपनी पत्नी से कह रहे थे -
गतप्राया रात्रिः कृशतनुशशी शीर्यत इव
प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णित इव ।
प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो
अर्थात्,
"हे प्रिये, रात्रि समाप्त हो आयी है । चन्द्रमा अस्त होने जा रहा है और यह दीपक भी रातभर जागने के कारण अब निद्रा के वशीभूत होकर झोके ले रहा है। यद्यपि प्रणाम से मान की समाप्ति हो जाती है पर मेरे सिर झुकाने पर भी तुम अपना क्रोध नहीं छोड़ रही हो "
श्लोक के तीन चरण बन पाये थे और बाणभट्ट उन्हीं तीनों को बार-बार दुहरा रहे थे। इसी समय मयूरभट्ट प्रातःकाल के भ्रमण और काव्यचर्चा के निमित्त बाणभट्ट को साथ ले जाने के लिए उनके घर आ पहुँचे । बाणभट्ट को ऊपर लिखे श्लोक का पाठ करते हुए सुनकर वे बाहर ही रुक गये। थोड़ी देर सुनने के बाद उनसे चुप न रहा गया और उन्होंने श्लोकके चतुर्थ चरणको इस प्रकार पूर्ति करके उसे जोर से सुना ही दिया कि--
'कुचप्रत्यासत्त्या हृदयमपि चण्डि कठिनम् ॥
बाण की पत्नी ने जब यह सुना तो उसे बड़ा क्रोध आया और उस क्रोध के आवेश में उसने पूर्ति करने वाले को पहिचाने बिना ही कुष्ठी हो जाने का शाप दे दिया। उसके पातिव्रत्य के प्रभाव से मयूरभट्ट पर शाप का प्रभाव पड़ा और वे कुष्ठी हो गये। इसके बाद मालूम होने तथा क्रोध शान्त होने पर उसी ने उनको शाप के प्रभाव से मुक्त होनेका यह उपाय बतलाया कि तुम गङ्गाके किनारे जाकर सूर्य की उपासना करो, उसी से तुम इस रोग मुक्त हो सकोगे तदनुसार मयूरभट्ट के किनारे एक वृक्ष पर एक रस्सी का छीका लटकाकर और उस पर बैठकर सूर्यदेव की उपासना प्रारम्भ की। वह प्रतिदिन सूर्य की स्तुति में एक नया श्लोक बनाते थे और प्रतिदिन अपने छीके की एक रस्सी काटते जाते थे छीके की सौ डोरियाँ कट जानेपर उनके गङ्गा में गिरने के पूर्व ही सूर्यदेव की कृपा से उनको आरोग्य लाभ हो गया। इस प्रकार सूर्य की स्तुति में मयूरकवि ने जिन सौ श्लोकों की रचना की, उन्हीं का संग्रह 'सूर्यशतक' नामसे प्रसिद्ध है । इसी प्रसिद्ध कथा के आधार पर मम्मटाचार्य ने 'शिवेतरक्षतये की व्याख्या में मयूरभट्ट के नामका उल्लेख किया है।
आगे देखें>>>
>> अभिहितान्वयवाद एवं अन्विताभिधानवाद प्रभाकर को गुरु की उपाधि, आतिवाहिक पिण्ड विवाद तथा तौतातिक मत
>>काव्य का लक्षण, विभिन्न आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य-लक्षणों का विवेचन
>>भरतमुनि का रससूत्र तथा उत्पत्तिवाद, अनुमितिवाद, भुक्तिवाद तथा अभिव्यक्तिवाद का विश्लेषण
thanks for a lovly feedback