प्रत्यभिज्ञादर्शन के मुख्य बिन्दु
⇒ कश्मीरी अद्वैैत शैव दर्शन के तीन रूपों में एक है।
⇒ आदि प्रचारक - दुर्वासा और त्र्यम्बक ।
⇒ प्रत्यभिज्ञादर्शन को लिपिबद्ध करने वाले मूल प्रवर्तक - आचार्य वसुगुप्त(800ई. शती)
⇒ वे तीन रूप इस प्रकार हैं -
1. प्रत्यभिज्ञादर्शन - स्वयं को भूला हुआ जीव पुनः अपने सच्चे स्वरूप को पहचान कर अद्वैत हो जाता है।
2. स्पन्दशास्त्र - विश्व का उद्भव शिव और शक्ति से होने के कारण ।
3. त्रिक् प्रत्यभिज्ञा - इसको त्रिकदर्शन भी कहते हैं जिसमें नर, शिव और माया का मुख्यतया प्रतिपादन किया गया है।
⇒ इस दर्शन के प्रमुख आचार्य अभिनवगुप्त हैं।
⇒ ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी तथा ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृति विमर्शिनी नामक दो रचनायें हैं इनकी।
⇒ दूसरी रचना को ही 'बृहती विमर्शिनी' अथवा 'अष्टादश साहस्री" भी कहते हैं।
⇒ इन्होनें ध्वन्यालोक पर लोचन तथा नाट्यशास्त्र पर भारती नामक टीका लिखी।
⇒ मालिनीविजयवार्तिक इनका आगमपरक ग्रन्थ है।
⇒ परमार्थसार इनके दार्शनिक पाण्डित्य का परिचायक है।
⇒ 12 खण्डों में विभाजित इनका ग्रन्थ तन्त्रालोक दर्शन और योग का वृहत् कोश है।
⇒ तन्त्रसार नामक इनके ग्रन्थ में तन्त्रलोक का निचोड़ है।
⇒ कश्मीर में शिवशिला(शिवपल)पर इस दर्शन के सूत्र मिले।
⇒ क्षेमराज के ग्रन्थ शिवसूत्र में इसका उल्लेख है जिसकी संख्या 77 है। ये ही सूत्र इस दर्शन के मूल आधार हैं।
⇒ भगवान शिव ने वसुगुप्त को स्वप्न में इन्ही सूत्रों का प्रचार करने हेतु आदेशित किया ।
⇒ स्पन्दकारिका नामक ग्रन्थ में इन्हीं शिवसूत्रों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।
⇒ वसुगुप्त के दो शिष्य हुए -1. कल्लट 2. सोमानन्द।
⇒ कल्लट का ग्रन्थ - स्पन्दासर्वस्व।
⇒ सोमानन्द के ग्रन्थ - शिवदृष्टि और परातर्ति।
⇒ सोमानन्द के पुत्र और शिष्य उत्पलाचार्य ने ईश्वरप्रत्यकि ग्रन्थ का प्रणयन किया जोकि इस दर्शन का प्राणभूत ग्रन्थ है।
⇒ यह ग्रन्थ इतना प्रसिद्ध हुआ कि इस दर्शन का नाम ही प्रत्यभिज्ञादर्शन पड़ गया।
⇒ उत्पल के शिष्य अभिनवगुप्त(950-1000ई.) हुए।
⇒ अभिनवगुप्त के सुयोग्य शिष्य क्षेमराज(975-1025ई.) थे जिन्होंने शिवसूत्रविमर्शिनी एवं प्रत्यभिज्ञाहृदय-स्पन्दसन्दोह आदि ग्रन्थों की रचना की।
⇒ इसके अनन्तर उत्पल वैष्णव ने स्पन्दप्रदीपिकाभास्कर, वरदराज ने शिवसूत्रवार्तिक, रामकण्ठ ने स्पन्दकारिकाविवृत्ति, योगराज ने परमार्थविवृति एवं जयरथ ने तन्त्रालोक पर विवेक टीका की रचना की।
⇒ इस दर्शन का परम तत्त्व अद्वय है जिसे परमेश्वर, परमशिव, चित्परासंवित्, अनुत्तर आदि नामों से सम्बोधित किया जाता है।
⇒ चित् नामक परमतत्त्व आवृत होता हुआ भी अनावृत है, परिवर्तनों का कारण होता हुआ भी परिवर्तनरहित है एवं अद्वैत है।
⇒ शांकरमत में चित् केवल प्रकाशत्वरूप है परन्तु इस दर्शन का चित् प्रकाशविमर्शमय है। जैसे - मणि।
⇒ मणि या परमतत्त्व को प्रकाशरूप कह देने मात्र से उसका तात्त्विक निरूपण नहीं होता । परमतत्त्व को अपने प्रकाश का विमर्श भी है।
⇒ चित् को आत्मचेतनता, स्वप्रकाश का आत्मज्ञान होता है।
⇒ विमर्श का आशय मैं हूँ से है। विमर्श चेतना की चेतना है।
⇒ विमर्श की परिभाषा- अकृतिमाहमिति विस्फुरणम्(क्षेमराज, पराप्रवेशिका पृ.2)
⇒ परिणामवाद / विकारवाद / सत्कार्यवाद पुष्टिकरण युक्ति पञ्चक -
1. असद्कारणात् - असत् सत् नहीं कर सकता।
2. उपादानग्रहणात् - दधि लाभाय दुग्धम् ।
3. सर्वसंभवात् - सबको सब वस्तु नहीं मिलती।
4. शक्तस्य शक्यकरणात् -
5. कारणाभावात् - तत्त्वतः कार्य कारण एक है।
⇒ अव्यक्तावस्था में वह (तत्) ही कारण है। व्यक्तावस्था में वह (तत्) ही कार्य है।
⇒ प्रकृति गुणत्रय -
1. सत्व- सत्वं लघु प्रकाशकम् ।
2. रज - इष्टमुपलम्भकं चलं च रज: । (प्रवर्तकं चञ्चलं च)
3. तम - गुरुवरणकमेव (गुरू आवरकंच)
⇒ पुरुष सिद्धि हेतु युक्ति पञ्चक -
1. प्रकृति प्रदार्थ समूहस्य परार्थत्वात् ।
2. त्रैगुण्यभिन्नत्वात् ।
3. अधिष्ठानत्वात् ।
4. प्रकृते: भोक्तृत्वात् ।
5. कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च ।
⇒ सांख्य में करण के 13 प्रकार है। - एकादश इन्द्रियाँ, बुद्धि और अहंकार |
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