द्वैताद्वैतवाद या भेदाभेदवाद के मुख्य बिन्दु

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 निम्बार्काचार्य (द्वैताद्वैतवाद या भेदाभेदवाद) 

nimbarkacharya
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⇒  द्वैताद्वैतवाद को "सनकादिक सम्प्रदाय" के भी नाम से  जाना जाता है।

⇒ निम्बार्काचार्य का जन्मस्थान- दक्षिण भारत, गोदावरी नदी के तट पर वैदूर्य पत्तन के निकट, (पंडरपुर) अरुणाश्रम में श्री अरुण मुनि की पत्नी श्रीमती जयन्ति देवी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। द्रविण देश में जन्म लेने के कारण इन्हें "द्रविणाचार्य" भी कहा जाता है।

⇒ जन्म समय - १२५० ई० |  

⇒ ये भगवान "सूर्य के अवतार" माने जाते हैं। कुछ "सुदर्शनचक्र" का भी अवतार मानते हैं।

⇒ पहले इनका नाम "नियमानन्द" था बाद में "निम्बादित्य" या "निम्बार्काचार्य" हो गया।  

⇒ ब्रह्म से जीव की पृथकता तथा अपृथकता दोनों हैं।

⇒ इस सम्प्रदाय के विकास की दो श्रेणी  - 1. विरक्त 2. गृहस्थ । 

⇒ इनके दो शिष्य -

1. केशव भट्ट -  इनके अनुयायी विरक्त होते हैं ।

2. हरिव्यास - गृहस्थ अनुयायी ।

⇒ इस सम्प्रदाय में राधा कृष्ण की पूजा होती है तथा गोपी चन्दन का तिलक धारण  किया जाता है।

⇒ इनका मुख्य ग्रन्थ भागवत है।

⇒ आगे के आचार्य - गोस्वामी हित हरिवंश, श्री हरि व्यास, श्री हरिदास, माधव मुकुन्द ।

⇒ निंबार्काचार्य का देह त्याग - चौदहवीं सती । 

⇒ ब्रह्म जीव से या जगत के परिणाम रूप पृथक्, तथा स्वरूप में अन्तर न होने के कारण अपृथक भी है।

⇒ निम्बार्क ब्रह्म को चतुष्पाद मानते हैं।

1. प्रथम पाद - दृश्यमान संसार

2. द्वितीय पाद - जीवात्मा (संसार को विभिन्न रूपों में देखने वाला)

3. त़ृतीय पाद - ब्रहमाण्ड के पदार्थों का नित्य द्रष्टा "ईश्वर"

4. चतुर्थ पाद - आनन्द मात्र अक्षर ब्रह्म

⇒ इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व और जीव समुदाय भी ब्रह्म ही है। 

⇒ जगत और जीव ब्रह्म के अंश मात्र है तथा अंश और अंशी में
"भेदाभेद" है।

⇒ ब्रह्म समग्र आनन्द की अनुभूति करता है अतः यह ईश्वर और सर्वज्ञ है।

⇒ जीवगत आनन्द तथा ब्रह्मगत आनन्द में भेद और अभेद दोनों है। 

⇒ जीव आनन्द के एक विशेष अंश का ही अनुभव या ज्ञान करता है, अतः विशेषज्ञ है पर सर्वज्ञ नहीं। सर्वज्ञ न होने के कारण ब्रह्माधीन है।

⇒ ईश्वर ब्रह्म, जीव ब्रह्म, जगत‌ब्रह्म इन तीनों का अधिष्ठान अक्षरब्रह्म है । 

⇒ वह निर्गुण है किन्तु जगत का निमित्तोपादान कारण होने से सगुण भी है ।

⇒ ब्रह्म जिस स्थिति में समग्र आनन्द का अनुभव करता है उस स्थिति में वह ईश्वर कहलाता है।

⇒ ब्रह्म का ईश्वरीय रूप ही सर्वज्ञ, सर्वप्रकाशक तथा सृष्टि, स्थिति तथा लय का कारण माना जाता है अतः ईश्वर और ब्रह्म एक ही है।

⇒ इस दर्शन में ब्रह्म को व्यूह कहा है। 

⇒ व्यूह चार हैं - वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध ।

⇒ ईश्वरावतार के तीन वर्ग - गुणावतार, पुरुषावतार और लीलावतार ।

⇒ पुरुषावतार -  विष्णु 

⇒ गुणावतार - ब्रह्मा, विष्णु, महेश |  

⇒ लीलावतार के दो भेद - 1. आवेशावतार,  2. स्वरूपावतार

⇒ आत्मा "ज्ञाता " है । अपने अस्तित्व हेतु ब्रह्म पर निर्भर तथा अणुरूप है। 

⇒ जीव "स्थूलारुन्धती न्याय" से अहंकार भी कहा जाता है।

⇒ भूमा साधना द्वारा मन की वृत्तियों को अन्तरमुखी करके यानि अहं (मैं) को सूक्ष्म अहं (अस्मिता- मैं कर्ता हूँ, भोक्ता हूँ) में लय करके तथा सूक्ष्म अहं को भी अस्मि (हूँ) में लय कर जीव ब्राह्मी स्थिति में पहुँचता है तथा इस स्थिति में निरन्तर रहने के अनन्तर ही जीव का मोक्ष होता है।

⇒ ज्ञान योग - सन्यासी हेतु 

⇒ कर्मयोग - सकाम संसारी मनुष्य हेतु  

⇒ भक्ति योग - निष्काम मनुष्य हेतु।

⇒ वासना का आत्यन्तिक क्षय "मोक्ष" है।

⇒ इनकी रचनाएँ - 1. ब्रह्मसूत्र वाक्यार्थ  2. वेदान्त कामधेनु

⇒ प्रवृत्तिमार्गीय भागवत धर्म के साधक हैं । 

⇒ जगत ब्रह्म का स्वाभाविक परिणाम है, भ्रम मा मिथ्या नहीं। 

⇒ रामानुज के अनुसार सत्कार्यवाद के आधार पर जगत की व्याख्याकी है ।

⇒ ये सतख्यातिवाद को मानते हैं। सभी ज्ञान ब्रह्ममय है अतः वे सत् हैं, स्वतः प्रमाण्यवाद के द्वारा सिद्ध हैं ।

⇒ विवेक, वैराग्य, शम, दम, तितिक्षा एवं उपरति छः साधनों के बाद, ब्रह्म तत्व की जिज्ञासा होती है। 

⇒ जगत के तीन उपादान कारण - चैतन्य, गति, जड़।

⇒ कौन से आचार्य किस भाव को स्वीकारते हैं -

1. रामानुजाचार्य - दास्य भाव ( दैन्ययुक्त शरणापत्ति से कृपा की आकांक्षा) 

2. मध्वाचार्य -  सख्य भाव (प्रीति युक्त साहचर्य से आनंद की अभिलाषा) 

3. वल्लभाचार्य -  वात्सल्य भाव (स्नेहयुक्त सामीप्य से पोषण की आकांक्षा) 

4. निम्बार्काचार्य - प्रियावत् भाव (श्रीकृष्ण (ब्रह्म) के साथ नित्य विहार)

⇒ पतंजलि के आत्मोद्धार हेतु दो मार्ग-  1. अष्टांग योग 2.  ईश्वर प्रणिधान 

⇒ क्रियाशक्ति का ज्ञानशक्ति से निरसन ज्ञान योग है। इसी में भगवद्भक्ति का संयोग ज्ञान योग है ।

⇒ रुक्मिणी ज्ञानशक्ति,
सत्यभामा क्रियाशक्ति, राधा भगवान की पराशाक्ति हैं ।


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