स्फोटवाद

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0

 स्फोटवाद

स्फोटवाद
स्फोटवाद

 "स्फोटवाद" वैयाकरणों का प्रमुख सिद्धान्त है। 'स्फोट' शब्द की व्युत्पत्ति "स्फुटति अर्थः यस्मात् स स्फोटः" इस प्रकार की जाती है। अर्थात् जिससे अर्थ की प्रतीति हो उसको 'स्फोट' कहते हैं। यह 'स्फोट' पद-स्फोट, वर्ण-वाक्य-स्फोट आदि भेद से आठ प्रकार का होता है। "पदस्फोट" से पदार्थ की तथा वाक्य-स्फोट से वाक्यार्थ की प्रतीति होती है। गकार, औकार, विसर्जनीय के योग से मिलकर बना हुआ जो 'गौ' पद गाय का बोध कराता है, वह श्रोत्र से सुनायी देने वाली ध्वनि नहीं, उससे व्यक्त मानस 'स्फोट' है । क्योंकि श्रोत्र से सुनायी देने वाली ध्वनि तो क्षणिक और अस्थिर है। एक ध्वनिके उच्चारण के बाद जब तक दूसरी ध्वनि का उच्चारण किया जाता है तब तक पहला ध्वनि-रूप वर्ण नष्ट हो जाता है इसलिए अनेक वर्णों के समुदाय रूप पद की उपस्थिति एक साथ नहीं हो सकती। इसी प्रकार अनेक पदों के समुदाय रूप वाक्य की भी एक साथ उपस्थिति नहीं हो सकती है। तब पदार्थ या वाक्यार्थ की प्रतीति कैसे होती है इस प्रश्न का समाधान करनेके लिए वैयाकरणों ने "स्फोट-सिद्धान्त" की कल्पना की है । उनका अभिप्राय यह है कि पूर्व -पूर्व वर्ण के अनुभव से एक प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है। उस संस्कार से सह कृत अन्त्य वर्ण के श्रवण से तिरोभूत वर्णों को भी ग्रहण करने वाली एक मानसिक पद की प्रतीति उत्पन्न होती है। इसी का नाम 'पदस्फोट' है। अर्थ की प्रतीति इस 'पदस्फोट' के द्वारा ही होती है, श्रोत से गृहीत शब्द या ध्वनि से नहीं; क्योंकि उस रूप में तो अनेक वर्णों के समुदाय रूप पद की स्थिति ही नहीं बन सकती है। इसी प्रकार "पूर्व-पूर्व-पदानुभवजनितसंस्कारसहकृत-अन्त्य-पद-श्रवण" से सदसद् अनेक पदावगाहिनी मानसी वाक्य-प्रतीति होती है, वैयाकरण उसको 'वाक्य-स्फोट' कहते हैं । इस 'वाक्य-स्फोट' से वाक्यार्थ की प्रतीति होती है। वर्ण-ध्वनि से वर्ण- स्फोट की अभिव्यक्ति होती है। नैयायिक 'स्फोट' को नहीं मानते हैं। इसका कारण यह है कि वैयाकरणों का यह 'स्फोट' नित्य है। इसी 'स्फोट' को लेकर वे शब्द को नित्य बतलाते हैं। नैयायिक के मत से शब्द अनित्य है और स्फोटकी सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है। वे केवल 'सदसदनेकवर्णावगाहिनी पदप्रतीति' तथा 'सदसदनेकपदावगाहिनी वाक्य-प्रतीति' मानते हैं पर उसे 'स्फोट' नहीं कहते हैं और न नित्य मानते हैं। इस 'स्फोट' की अभिव्यक्ति श्रोतग्राह्य ध्वनि-रूप शब्दसे होती है इसलिए जैसे वैयाकरणों ने अपने यहाँ प्रधानभूत 'स्फोट' के अभिव्यञ्जक शब्दके लिए 'ध्वनि' पदका प्रयोग किया है उसी प्रकार प्रधानभूत व्यङ्गय अर्थ को अभिव्यक्त करने वाले शब्द तथा अर्थ के लिए आनन्दवर्धनाचार्य आदि ने 'ध्वनि' शब्द का प्रयोग साहित्यशास्त्र में किया है ।

आगे देखें>>>

>> काव्य के हेतु

>> काव्यशास्त्र के सम्प्रदाय

>> काव्य प्रयोजन

>> अभिहितान्वयवाद एवं अन्विताभिधानवाद प्रभाकर को गुरु की उपाधि, आतिवाहिक पिण्ड विवाद तथा  तौतातिक मत

>>काव्य का लक्षण, विभिन्न आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्य-लक्षणों का विवेचन

>>भरतमुनि का रससूत्र तथा उत्पत्तिवाद, अनुमितिवाद, भुक्तिवाद तथा अभिव्यक्तिवाद का विश्लेषण

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top