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1.1 |
गृहस्थ को सभी शुभ कार्य अपने ही घर में करना चाहिए। दूसरे के घर में किया गया मांगलिक कार्य सुखदायी नहीं होता। अतः यत्न करके गृहस्थ को अपने घर का निर्माण अवश्य करना चाहिए।
ग्रामवास विचार-
ग्राम के नक्षत्र से गृह स्वामी के नक्षत्र तक गणना करें। शेष वासपुरुष के अंग एवं फल निम्न चक्र में स्पष्टार्थ है।
1.2 |
भूमि परीक्षण-
गृहनिर्माण के पूर्व भूमि परीक्षण आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत भूमिशोधन की बहुत सी विधियाँ दी गयी है। किन्तु लोकव्यवहार में ये विधियाँ अत्यधिक प्रचलित हैं जो अधोलिखित है-
१. जिस भूमि पर मकान बनाना हो उसके बीचों बीच एक हाथ लम्बा, एक हाथ चौड़ा, एक हाथ गहरा गड्ढा खोदना चाहिए फिर उसी (निकली हुई) मिट्टी से उस गड्ढे को भर देना चाहिए, यदि गड्डा भरने से मिट्टी बच जाय तो उत्तम, बराबर हो जाय को सम और मिट्टी कम हो जाय तो निषिद्ध हो ता है। इस भूमि पर मकान नहीं बनवाना चाहिए।
२. पूर्व विधि से गड्ढा खोदकर सायं काल में पूर्णरूप से पानी भरकर प्रात:काल देखने पर यदि जल दिखाई पड़े तो शुभ, केवल कीचड़ बचा रहे तो सम और मिट्टी फट जाये तो भूमि हानिकारक होती है।
३. वास्तुरत्नाकर के अनुसार जिस भूमि पर औषिधियाँ, वृक्ष, लतायें तथा हरी भरी घासें हो एवं भूमि समतल हो ऐसी भूमि निवास हेतु प्रशस्त मानी गयी है। यथा-
यत्र वृक्षाः प्ररोहन्ति शस्यं हर्षात्प्रर्धते ।
सा भूमिर्जीविता ज्ञेया मृतावाच्याऽन्यथा बुधैः ।।
भूमि के लक्षण-
गजपृष्ठ-
जिस स्थान में दक्षिण पश्चिम, नैऋत्य और वायव्य कोण की ओर भूमि ऊँची हो उसको गजपृष्ठभूमि कहा गया है। उस भूमि पर घर बनाकर रहने से धन-धान्य, सन्तान, आयु की वृद्धि होती है।
कूर्मपृष्ठ: -
जहाँ की भूमि मध्य में ऊँची हो और - चारों दिशाओं में झुकाव हो, वह कूर्मपृष्ठ भूमि कहलाती है। उस स्थान पर वास करने से नित्य उत्साह, धन-धान्य, संतान, आयु आरोग्य, यश और प्रतिष्ठा की वृद्धि होती है। दैत्यपृष्ठ: - ईशानकोण, पूर्व और अग्निकोण में भूमि ऊँची हो और पश्चिम में नीची हो। उसमें निवास करने से अशुभ फल मिलता है।
नागपृष्ठ: -
जहाँ दक्षिण और उत्तर दोनों दिशा में भूमि ऊँची हो, बीच में नीची हो। यहाँ वास करने से सभी प्रकार की हानि होती है।
वर्णानुसार भूमिविचार चक्र
1.3 |
सूर्यचन्द्रवेध विचार -
पूर्वपश्चिमतो दैर्ध्यं सपादं दक्षिणोतरम् । शुभावहं चन्द्रविद्धं सूर्यविद्धं न शोभनम् ।। चन्द्रविद्धं गृहं कुर्यात् सूर्यविद्धं जलाशय। वाटिकातूभयोर्विद्धां देवागारं तु वर्तुलम् ।।
राशि विचार -
वासकर्ता के नाम राशि से २, ९, ५, १०, ११ स्थानों में ग्राम की राशि हो तो वासकर्ता के लिए वह ग्राम, मुहल्ला, शुभ एवं १, ३, ४, ७, ८ और १२ स्थानों में हो तो अशुभ होता है।
कांकिणी विचार -
अपनी-अपनी वर्ग संख्या को द्विगुणित कर उसमें ग्रामादि वर्ग संख्या को जोड़कर उसमें ८ का भाग देने से जिसका शेष अधिक हो वह ऋणी होता है। अतः वासकर्ता की काकिणी से गाँव, मुहल्ला या शहर की कांकिणी हमेशा अधिक होनी चाहिए।
मण्डलानयन -
पिण्ड की लम्बाई x चौड़ाई में नौ से भाव देन पर क्रम से १ दाता, २ भूपति, ३ क्लीब ४ चोर ५ पण्डित, ६ भोगी, ७ धनाढ्य, ८ दरिद्र, ९ कुबेर से नौ प्रकार के मण्डल होते हैं। इनका फल नाम के सदृश होता है।
मण्डलेशानयन -
गृहपिण्ड की लम्बाई और चौड़ाई को जोड़कर २ से गुणा कर ८ से भाग देने पर शेष संख्या से मण्डलेश होते हैं। मण्डलेश का फल निम्न चक्र में स्पष्टार्थ है-
1.4 |
आँगन विचार-
आँगन की लम्बाई चौड़ाई को आठ से गुणा करके नव से भाग देने पर क्रम से १ तस्कर, २ भोगी, ३ पण्डित, ४ दाता, ५ नृपति, ६ नपुंसक, ७ कुबेर, ८ दरिद्र, ९ भयदाता से नव प्रकार के आँगन होते हैं। इनका फल नाम के समान होता है। बीच में आँगन ऊँचा और चारों तरफ नीचे शुभ फलदायक होता है। इसके विपरीत होने पर सन्तान नाशक होता है।
चरणी विहार -
स्वामी के हस्तप्रमाण से लम्बाई एवं चौड़ाई का मान जोड़कर ८ से भाग देने पर शेष संख्या से फल क्रमश: १ - हनि, २ - रोग, ३ - लाभ, ४ -क्षय,५- नाश, ६ - वृद्धि, ७ - भेद, ८ - वृद्धि होती है।
राहु दिशा विचार -
देवालय, जलाशय और मकान के नींव खोदते समय राहु की दिशा का विचार आवश्यक होता है।
स्पष्ट चक्र
1.5 |
नींव या जलाशय आदि खोदते समय राहु के मुख भाग को छोड़कर पृष्ठभाग में खोदना शुभ होता है ।
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