1 |
मित्रों ! वास्तु शास्त्र से सम्बन्धित महत्वपूर्ण विषयों के विषय में बताया जा चुका है अब हम चर्चा करेंगे कि घर में वास्तु देवताओं की पूजा क्यों करते हैं ।
वास्तुशास्त्र के अनुसार प्रत्येक गृह में वास्तु पुरुष का निवास होता है और जहाँ वास्तु पुरुष हैं वही देवता भी रहते हैं भवन में वास्तु पुरुष के चारों तरफ 45 देवताओं का वास कहा गया है। गृह निर्माण एवं गृह प्रवेश के समय वास्तुशान्ति के पूजन का विधान है। जिसमें वास्तु चक्र बनाकर सभी 45 देवताओं को वास्तु पुरुष के विभिन्न अंगों पर स्थापित कर वास्तु पूजन किया जाता है ताकि घर में सुख-शांति और समृद्धि सदैव बनी रहे। वास्तु शास्त्र में विभिन्न प्रकार के गृहों के लिए विभिन्न प्रकार के वास्तु पूजन की विधियाँ बतायी गयी हैं, जिसमें एकाशीति पद वास्तु विधि समस्त भवनों के लिए प्रशस्त की गई है। । प्रस्तुत लेख में एकाशीति पद वास्तु के स्थापित 45 देवताओं के गुण-दोषों का वर्णन किया गया है। एकाशीति पद वास्तु चक्र में 45 देवताओं का वास्तु पुरुष के किन-किन अंगों पर वास है निम्न आकृति द्वारा स्पष्ट किया गया है—
2 |
वास्तु देवताओं के गुण-दोषों का वर्णन इस प्रकार है-
शिखि-
शिखि शब्द शिखर का बोधक है, जिसका अर्थ अग्नि या मोर है। अग्नि के समान गुण धर्म वाले देव शिखि का निवास वास्तु पुरुष के सिर स्थल पर है। शिखि का एक नाम अग्नि भी है और इसको अनल भी कहा जाता है। अनल को अग्नि देव का अवतार माना जाता है।
पर्जन्य-
वास्तु चक्र में वास्तु पुरुष के दाहिने नेत्र वाले पद का स्थान पर्जन्य को प्राप्त है। पर्जन्य वर्षा के देवता हैं। वास्तु चक्र में ईशान कोंण से ठीक पूर्व का पद पर्जन्य देव का निवास है। पर्जन्य को स्त्री संतति अथवा स्त्री गुणों का वृद्धि कारक देवता माना गया है।
जयन्त-
जयन्त इन्द्र और दैत्यराज पुलोम की पुत्री के पुत्र हैं और आसुरी संस्कारों से परिपूर्ण हैं। वास्तु चक्र में वास्तु पुरुष के दाएँ कान के पद पर अवस्थित है। राक्षसी संस्कार के होते हुए भी, जयन्त मनुष्य की रक्षा करते हैं और उसको धन-धान्य से सम्पन्न करते हैं। यह शुभ देवता हैं इसलिए वास्तु चक्र में जयन्त के स्थान पर भवन का मुख्य द्वार करने से गृहस्वामी को हर तरफ से सफलता मिलती है, धन और समृद्धि से खुशहाली रहती है, से व्यवसाय में उन्नति होती है और यश की प्राप्ति भी होती है। जयन्त द्वारा प्रदत्त लक्ष्मी गृहस्वामी को राज-पुरुष बना सकती है।
इन्द्र-
वास्तु चक्र में ईशान कोण की तरफ सूर्य के निकट का स्थान इंद्र को प्राप्त है। इन्द्र सभी प्रकार के धन के स्वामी हैं। भवन में इन्द्र के स्थान पर मुख्य द्वार का निर्माण करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है, इससे व्यक्ति को राज सम्मान की प्राप्ति होती है। मनुष्य में राजसी गुणों का विकास होता है साथ ही अहंकार की भी वृद्धि होती है।
सूर्य-
वास्तु चक्र में पूर्व दिशा में सूर्य को एक पद प्राप्त है। वास्तु में सूर्य की प्रधानता अत्यधिक है, सूर्य पृथ्वी के समस्त जीवों के प्राण हैं, प्रकाश और ऊर्जा के स्रोत हैं। वास्तु चक्र के इस पद पर मुख्य बैठक बनाने का प्रावधान है।
सत्य-
सत्य अष्ट वसुओं में से एक है और साक्षात धर्म के अवतार माने जाते हैं। वास्तु चक्र में सत्य को सूर्य के पास का पद प्राप्त है. यह व्रत एवं संकल्प की ओर प्रेरित कर मनुष्य को दृढ़ता प्रदान करते हैं ताकि वह अपना विकास कर सके।
भृश-
भृश का अर्थ विस्तार या फैलाव है। वास्तव में भृश ऊषा देवता है। इस पद को 'उषस' नामक देवता का स्थान प्राप्त है। 'उषस्' के गुण भृश में निहित है। अत्यधिक चमक, नियमों का पालन करना, सदैव उन्नति एवं समृद्धि उषा देवता के पूजन से प्राप्त होता है।
आकाश-
आकाश को अंतरिक्ष, व्योम, द्यौ भी कहा जाता है। महाभूतों में आकाश को प्रधान तत्व माना जाता है। वास्तु चक्र में अग्नि कोण से पूर्व दिशा में आकाश का पद है। गृह प्रवेश के समय इसी आकाश पद पर वास्तु देव की प्रतिष्ठा की जाती है। भवन की प्राण प्रतिष्ठा होने से भवन जीवंत हो उठता है। आकाश देवता गृहस्वामी को आशीर्वाद प्रदान करते हैं जिससे वह फलता-फूलता है।
अग्नि-
वास्तु चक्र में अग्नि देव अग्नि कोंण के स्वामी है। वास्तु चक्र में अग्नि का अत्यधिक महत्व है। पूर्व जन्मों के कर्मों का संश्लेषण तथा कर्मों का परिपाक अग्नि कोंण में स्थित • देवताओं के माध्यम से होता है। कर्मों का क्षय भी इसी कोंण से होता है। अग्नि देव समस्त देवताओं के यज्ञभाग को देवताओं तक पहुंचाने का कार्य करते हैं।
पूषा-
पूषा देव द्वादश आदित्यों में से एक है और पशुओं के अधिष्ठाता हैं। वास्तु चक्र में अग्नि कोंण से दक्षिण का स्थान पूषा को प्राप्त है। यह पशु सम्पत्ति की वृद्धि करते हैं तथा ऐश्वर्य के अधिष्ठाता हैं। पूषा को दुर्बल मानसिकता का प्रतीक माना गया है और दूषित होने पर व्यक्ति धोखे बाज, फरेबी और अहंकारी बन जाता है।
वितथ-
वास्तु पुरुष के दाहिने बगल के निचले पद पर वितथ स्थित है। वितथ का अर्थ झूठ माना जाता है और वितथ देव छद्म वेशधारी है।
गृहत्क्षत-
गृहत्क्षत को विश्वदेव भी कहते हैं और ये समूह के रूप में प्रतिष्ठित है। वास्तु चक्र में दक्षिण दिशा में वितथ के बाद का पद है। गृहत्क्षत देव घर को अक्षुण बनाते हैं तथा गृह को ठोस स्वरूप एवं स्थिरता प्रदान करते हैं। घर टिकाऊ होता है और किसी तोड़फोड़ की आवश्यकता नहीं होती है। मानव का कल्याण करते हैं और सो जाने पर सभी की रक्षा करते हैं।
यम-
यमदेव भगवान सूर्य के पुत्र हैं, इन्हें वैवस्वत भी कहा जाता है। वास्तु चक्र में यम का स्थान दक्षिण दिशा में गृहत्क्षत के पास के पद पर है। यम के स्थान पर दीपक जलाने की प्रथा है। इसी स्थान पर पितरों को स्थापित किया जाता है। यम प्राणों के देवता है और मृतात्मा को मार्ग दिखाते हैं। यम का अग्निदेव से गहरा संबंध है और अग्निदेव ही मृतात्माओं को यम तक पहुँचाते हैं। यम जीव को बढ़ाते हैं और देवताओं तक ले जाने का कार्य करते हैं।
गंधर्व-
वास्तु चक्र में दक्षिण दिशा में यम के बाद गंधर्व का स्थान है। गीत, वाद्य तथा नृत्य के साहचर्य के कारण गंधर्व और अप्सरा साथ साथ रहते हैं। इस विद्या की सिद्धि के लिए। गंधर्व के स्थान पर अभ्यास करना फलदायी होता है।
भृंगराज-
भृंगराज का अर्थ है भौरों का राजा । वास्तु चक्र में भृंगराज का पद वास्तु पुरुष के दायीं जांघ वाले भाग पर गंधर्व के निकट स्थित है। भृंगराज से गंधर्व का गहरा संबंध है। भवन का मुख्य द्वार इस पद पर होने से दाम्पत्य जीवन में कामसुख की अधिकता रहती है ।
मृग-
वास्तु चक्र में मृग का संबंध मार्गशीर्ष मास से है और यह वास्तु पुरुष के दाएं कूल्हे पर स्थित है। मार्गशीर्ष मास के स्वामी द्वादश आदित्यों में से अंशु माने गए हैं
पितृगण-
मृतकों को पितर कहा जाता है। वास्तु चक्र में नैऋत्य दिशा में पितृगण का पद स्थान है। वास्तु में नैऋत्य दिशा बहुत महत्वपूर्ण मानी गई है। पितर यदि प्रसन्न रहते हैं तो गृहस्वामी को बहुत लाभ होता है और अपसन्न अवस्था में पितर कुल नाशक सिद्ध हुए हैं। यदि गृहस्वामी नैऋत्य को दोष रहित रखता है तो पितरों का आशीर्वाद मिलता रहता ।
दौवारिक-
दौवारिक का अर्थ द्वारपाल है। दौवारिक को नंदि या प्रगथगणों का अधीश्वर कहा गया है। नंदि भगवान शंकर के द्वारपाल है। नंदि का अर्थ है अपनी वाणी द्वारा स्तुति कर अपने स्वामी को प्रसन्न करना। जिसकी स्तुति से देवता प्रसन्न हों वही नंदि है। वास्तु चक्र में वास्तु पुरुष के बाएं कूल्हे पर दौवारिक का पद स्थित है ।
सुग्रीव-
सुग्रीव का अर्थ है सुन्दर गर्दन वाला। वास्तु शास्त्र में इसका अर्थ घोड़े के सिर वाला है। वास्तु चक्र में सुग्रीव का नैऋत्य के बाद पश्चिम दिशा में दौवारिक के पहले का पद है। विद्या अध्ययन के लिए वास्तु में पश्चिम नैऋत्य के मध्य का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है ।
पुष्पदंत-
पुष्पदंत अदृश्य विधा के ज्ञाता एवं भगवान शंकर के गण हैं। वास्तु चक्र में यह पद विद्या अध्ययन का स्थान माना जाता है। पुष्पदन्त की स्तुति 'शिव महिमा स्त्रोत' आज भी प्रसिद्ध है ।
वरुण-
वरुण जल के देवता हैं और व्यक्ति के पाप-पुण्य का हिसाब रखते हैं। साक्षी के रूप में प्रण या प्रतिज्ञा के समय आज भी लोग हाथ में जल लेकर संकल्प करते हैं। वास्तु चक्र में पश्चिम दिशा में वास्तु पुरुष की बायीं जांघ वाले पद का स्थान प्राप्त है।
असुर-
असुर को कुटिल प्राणी कहा जाता है। वास्तु चक्र में पश्चिम दिशा में वायव्य कोण की ओर वास्तु पुरुष की बायीं बगल में वरुणदेव के पास का असुर पद है। असुर बहुत उत्तेजित हो जाते हैं और अहंकारी भी हैं। अप्रसन्न होने पर कुल का नाश कर देते हैं। भवन का मुख्य द्वार असुर पद पर होने से राजदण्ड का भय रहता है। गृहस्वामी अथवा परिवार के सदस्य अनैतिक कार्य करने लगते हैं
शोष-
शोष का अर्थ है शोषण या सूखना। शोषण को शोक का देवता कहते हैं। शोष को शनि भी कहा गया है। अतः शनि के गुण इनमें निहित है। वास्तु चक्र में शोष का स्थान वायव्य कोण में असुर के पास है। शोष के स्थान पर भवन का मुख्य द्वार होने से गृहस्वामी को कई तरह की परेशानियां उठानी पड़ती हैं। ये शीघ्र उत्तेजित हो जाते हैं और जरा सी उपेक्षा या निरादर होने पर गृह स्वामी को क्षति पहुंचा सकते हैं। इसीलिए वास्तु में इस स्थान पर रोदन कक्ष बनाने को बताया गया है।
पापयक्ष्मा-
वास्तु चक्र में वायव्य कोण के समीप पश्चिम दिशा में पापयक्ष्मा का स्थान है। जब व्यक्ति पाप कर्मों में अथवा अशुभ या नीच कार्यों में व्यस्त रहता है उसे यक्ष्मा रोग होता है।
रोग-
वास्तु चक्र में रोग को वायव्य कोण का स्थान प्राप्त है। इस कोंण में भवन का मुख्य द्वार बनाना वर्जित है। इस पद पर द्वार बनाने से गृहस्वामी रोग व्याधि से ग्रसित रहता है।
नाग-
वास्तु चक्र में वायव्य कोंण से उत्तर की ओर पहले पद पर नाग का स्थान है। नाग देवता का निवास पाताल है। मुख्य नाग नौ माने गये हैं जिनके विशिष्ट गुणों और प्रेम के कारण इस स्थान पर रति कक्ष बनाने का शास्त्रों में प्राविधान है।
मुख्य-
मुख्य देवता को त्वष्टा (विश्वकर्मा) माना गया है और द्वादश आदित्यों में एक हैं। वास्तु चक्र में उत्तर दिशा में वास्तु पुरुष के बाएं हाथ की कोहनी पर त्वष्टा का पद है। विश्वकर्मा वास्तु कर्म के अधिष्ठाता हैं और स्थापत्य कला में प्रवीण थे। विश्वकर्मा की गृह निर्माण के समय पूजा की जाती है जिससे वास्तु अनुकूल होता है।
भल्लाट-
वास्तुचक्र में भल्लाट का स्थान उत्तर दिशा में मुख्य पद के निकट है। भल्लाट को चन्द्रमा कहा गया है। इस स्थान पर मुख्य द्वार का निर्माण करने से प्रचुर मात्रा में घर में सम्पत्ति आती है और गृहस्वामी राजा के समान जीवन व्यतीत करता है।
सोम (कुबेर)-
सोम को चन्द्रमा भी कहा जाता है। वास्तु चक्र में सोम का स्थान उत्तर दिसा में भल्लाट के समीप है। सोम मुख्य देवता के सगे चाचा हैं और अष्ट वसुओं में से एक हैं। वास्तु चक्र में सोमदेव के स्थान पर मुख्य द्वार का निर्माण करने से गृहस्वामी को धन की कमी नहीं होती है।
सर्प-
ज्योतिष शास्त्र में सर्प को काल कहा गया है। वास्तु चक्र में सर्प का स्थान उत्तर दिशा की ओर ईशान कोण के निकट वास्तु पुरुष के बाएं कंधे पर है। वास्तु मण्डल में इस पद पर वसु और काल की प्रतिष्ठा की जाती है जिसका सर्पों के साथ घनिष्ठ संबंध है।
अदिति-
वास्तु चक्र में ईशान कोंण के निकट के पद पर अदिति का वास है। अदिति से द्वादश आदित्यों का जन्म हुआ था।
दिति-
वास्तु चक्र में ईशान के ठीक पास उत्तर दिशा में दिति का स्थान है। दिति से राक्षसों का जन्म हुआ था, अतएव राक्षसों के स्वभावगत गुण इनमें विद्यमान हैं।
आप-
वास्तु चक्र में ब्रह्मा के स्थान से ईशान कोंण तक आप का द्विपद का स्थान है। आप देवता समूह के रूप में विद्यमान है। वास्तु चक्र में आप की दिशा अत्यन्त शीतल मानी गई है।
आपवत्स-
आप जल है और वत्स स्रोत है। आपवत्स को जलस्रोत, या भूगर्भ जल या भूमि से ऊपर स्थित जल के रूप में चिन्हित किया गया है। केन्द्र से ईशान कोण तक के कर्ण के स्थान पर आप और आपवत्स स्थित है। जलस्रोत और जल के पुनर्भरण संबंधित रचना इस क्षेत्र में किया जा सकता है।
सविता -
सावितृ-सूर्य रश्मियों को सविता कहा जाता है और सविता द्वादश आदित्यों में एक है। वास्तु चक्र में ब्रह्म स्थान से अग्निकोंण की ओर जाने वाले कर्ण पर मध्य में सविता और सावितृ देव अवस्थित हैं। यह दोनों गुण और क्रिया के बोधक हैं और दो नाम एक रूप हैं। यह दोनों वास्तु पुरुष के दाहिने हाथ पर स्थित हैं वास्तु शास्त्र में यह स्थान मंथन, चिंतन व शोध कार्यों के लिए प्रशस्त है।
इन्द्र और जय-
वास्तु चक्र में ब्रह्मस्थान से नैतृत्य कोण की ओर के स्थान पर इन्द्र और जय के पद स्थित हैं। दोनों पदों का आदरपूर्वक पूजन करने से गृहस्वामी को सर्वस्व प्राप्त होता है। उनकी उपेक्षा सर्वनाश कर सकती है।
रूद्र-
वास्तु चक्र में में ब्रह्म स्थान से वायव्य कोण के कर्ण पर रुद्र का स्थान है।
राजयक्ष्मा-
यक्ष्मा फेफड़े की एक व्याधि है। रुद्र से राज उत्पन्न हुआ है। और रुद्र वायु से विचरण करता है। जब रुद्र रौद्र रूप धारण करता है तो राजयक्ष्मा बन जाता है। वास्तु चक्र में ब्रह्म स्थान पृथ्वीधर और मित्र के त्रिकोंण बिन्दु पर राजयक्ष्मा स्थित है। उत्तर दिशा में इस पद पर मुख्य देवता के भाग पर रतिगृह बनाने का विधान है जिससे राजयक्ष्मा देवता तृप्त और संतुष्ट होते हैं ।
अर्यमा-
वास्तु चक्र में अर्यमादेव को पूर्व दिशा में षटपदीय स्थान प्राप्त है। दोषपूर्ण गृह निर्माण के कारण तथा अर्थमा देव की उपेक्षा या निरादर के कारण घर में बारम्बार दुर्घटनाएं होती हैं। अर्थमा देव पितरों के देव हैं। श्राद्ध पक्ष में गृहस्वामी अर्थमा को तुष्ट करता है तो उसके पितृगण भी संतुष्ट रहते हैं। अर्थमा देव भी प्रसन्न होते हैं जिससे परिवार में वंश परम्परा की वृद्धि होती है।
विवस्वान-
वास्तु चक्र में दक्षिण दिशा में इन्द्र-जय और सविता-सावितृ के मध्य विवस्वान को षटपदीय पद प्राप्त हैं। इस स्थान पर भवन या प्रमुख कक्ष के निर्माण से गृह स्वामी को राज्य, ऐश्वर्य एवं धन-धान्य की प्राप्ति होती है।
मैत्रगण-
वास्तु चक्र में पश्चिम दिशा में षटपदीय स्थान मैत्रगण देवता का है। वास्तु पुरुष के पेट के बाएं भाग पर मित्र का स्थान है। वरुण और मित्र का अटूट संबंध है। मित्र दिन में राज करते हैं और वरुण सायंकाल में भ्रमण करते हैं। दोनों मिलकर प्राणियों में प्राण-शक्ति का संचार करते हैं। इस स्थान पर भोजन कक्ष बनाना अत्युत्तम होता है। गृहस्वामी के परिवार के सदस्यों में सर्वदा प्रेम व स्नेह बना रहता है।
पृथ्वीधर -
वास्तु चक्र में पृथ्वीधर उत्तर दिशा में में गौरवशाली स्थान पर विराजमान हैं। अष्टवसुओं में पृथ्वीधर देवता साक्षात् शेषनाग स्वरूप हैं।
ब्रह्मा-
वास्तु चक्र के सबसे प्रमुख देवता ब्रह्मा है। सृष्टि के रचनाकार स्वयं ब्रह्मा ही हैं, हर प्राणी एवं प्राणी स्थल में विद्यमान हैं। एकाशीति पद वास्तु में ब्रह्म भवन के मध्य सबसे अधिक नौ पदों के नियत स्थान पर प्रतिष्ठित है। प्रत्येक भवन में ब्रह्म स्थान होता है और इस स्थान पर किसी तरह का कोई निर्माण वर्जित है अन्यथा कुल नाश का भय होता है। घर में ब्रह्म स्थान कभी भी किसी भी तरह दूषित नहीं होना चाहिए। ब्रह्म स्थान खुला और ऊंचा होने से घर में सुख शांति और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।
वास्तुचक्र में वास्तु पुरुष के विभिन्न अंगों पर अवस्थित 45 देवताओं और राक्षसगणों का उनकी प्रकृति के अनुरूप जो गृहस्वामी आचरण करता है, उनकी पूजा करता है, उनका सम्मान करता है और उनको प्रसन्न रखता है वह गृहस्वामी सर्वदा सुख-शांति, दीर्घायु, समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति करता है।
thanks for a lovly feedback