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ऐसे आती है घर में वास्तुदोष से बर्बादी
ऐसे आती है घर में वास्तुदोष से बर्बादी |
मनुष्य बड़े ही शौक से अपना एक प्यारा सा घर बनता है, जिसमें वह सुख-शान्ति से अपने परिवार के साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर सके। परन्तु कभी-कभी वह दुःख और कठिनाइयों से इतना घिर जाता है कि उसका जीवन उसे निरर्थक लगने लगता है। उसके सभी सपनें चूर-चूर होकर बिखरने लगते हैं। उसको उस गृह में सुख और शान्ति नहीं मिलती। इसका प्रमुख कारण वास्तु दोष होता है।
गृह निर्माण में अज्ञानता वश कभी-कभी गृह में कुछ ऐसे दोष रह जाते है जिससे मनुष्य को जीवन भर पश्चाताप करना पड़ता है। वह कौन सा ऐसा वास्तु दोष हैं जिससे उसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कुछ प्रमुख वास्तु दोष इस प्रकार है
गृह का दक्षिण व पश्चिम भाग नीचा हो, और पूरब तथा उत्तर का भाग ऊंचा होतो घर में बर्बादी आती है। इसलिए भवन निर्माण में दक्षिण व पश्चिम ऊंचा तथा उत्तर, पूरब का भाग नीचा रखना चाहिए। इससे घर में खुशहाली आती है।
भवन के दक्षिण भाग तथा आग्नेय (पूर्व-दक्षिण के मध्य) में जल स्रोत नहीं रखना चाहिए। इससे घर की गृहिणी अस्वस्थ एवं बीमार रहती है, पुत्र भी बीमार रहता है तथा धन का नाश होता है। जल स्रोत की व्यवस्था हमेशा ईशान (पूर्वोत्तर) में रखना चाहिए। इससे सुख, समृद्धि वंश की वृद्धि और परिवार की उन्नति होती रहती है।
बड़े-बूढ़ों का शयन कक्ष दक्षिण-पश्चिम में होना चाहिए तथा घर के मालिक का शयन कक्ष भी नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम मध्य) में होना चाहिए। जो शुभदायक होता है।
गृह में परिवार तभी स्वस्थ रहता है जब घर का पूर्व उत्तर थोड़ा ढालदार हो, उत्तर-पूर्व, दक्षिण-पश्चिम की अपेक्षा नीचा
तथा उत्तर व पूरब दोनों दिशाओं में खुली जगह हो तथा प्रातःकाल सूर्य का प्रकाश गृह में आता हो,इससे परिवार को आरोग्य लाभ होता है।
गृह के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य) या पूर्व-दक्षिण (आग्नेय) में यदि कुआँ या गड्ढा हो तो तत्काल उसे बन्द या पटवाँ दे नहीं तो हमेशा परिवार में कोई न कोई बीमार रहेगा। तथा नैऋत्य का भाग ऊंचा तथा भारी रखें, इससे सभी प्रकार के सुख, सुविधा का आनन्द प्राप्त होता है।
आग्नेय दिशा में अग्नि देव का स्थान है यह स्थान हमेशा गर्म रहता है। यहाँ पर रसोई घर का निर्माण करना श्रेयस्कर होता है। इससे आरोग्यता बनी रहती हैं। सब लोग स्वस्थ तथा दीघार्यु होते हैं । अन्यथा सही स्थान पर रसोई घर न होने से आग का भय, परिवारिक क्लेश तथा अशान्ति बनी रहती है तथा चरित्र संबधी दोष उत्पन्न होते है।
ईशान (उत्तर-पूर्व) में भूलकर भी शौचालय नहीं बनाना चाहिए। इससे गृह स्वामी के वंश का नाश होता है। वंश आगे नहीं बढ़ता, संतान निकम्मी होती है। परिवार में कलह बना रहता है। ईशान यदि कटा, घटा या दबा हो तो धनागम में कमी आती हैं। ईशान में पूजा गृह होना सबसे उत्तम तथा फलदायी होता है। ईशान दिशा का द्वार सर्व सुखकारक होता है। क्योंकि गृह को तेज तथा बल इसी स्थान से मिलता है।
ज्यादातर देखा जाता है कि स्थान के अभाव में लोग सीढ़ी के नीचे पूजा घर, शौचलय, स्नानघर, पानी की टंकी बना देते है। इससे बीमारियाँ उत्पन्न होती है। यह शास्त्र के विरूद्ध है। क्योकि इससे रोजी रोजगार नष्ट होता है तथा तामसी प्रवृत्ति भी बढ़ती है। इस स्थान पर कूड़ा, करकट, चप्पल-जूता रखना अच्छा होता है।
भवन का मुख्य द्वार पूर्व में होना चाहिए तथा स्थान न मिलने पर उत्तर में बनना शुभ होता है। मुख्य द्वार को सिंहद्वार भी कहा जाता हैं। घर से निकलते समय दाहिने तरफ का भाग भारी तथा बायें तरफ का भाग कम हो, ऐसे स्थान पर द्वार बनाना चाहिए।
मुख्य द्वार को सजा-संवारकर रखने से गृह में लक्ष्मी का प्रवेश होता है। यह हमारे यहाँ की प्राचीन परम्परा भी है, कि मुख्य द्वार को अच्छे से सजाया जाय तथा उस पर ॐ,स्वस्तिक, त्रिशूल, गणेश जी की स्थापना किया जाय जिससे घर में सौभाग्य तथा धन की वृद्धि हो और गृह स्वामी प्रगति पथ पर अग्रसर रहे।
शौचालय नैऋत्य में या दक्षिण हो और बैठने की दिशा का मुख, उत्तर होनी चाहिए।
पानी टंकी का या जल जमाव की व्यवस्था हमेशा पश्चिम में होना आवश्यक है। गृह के मध्य भाग को ब्रह्मस्थान माना जाता है यह हमेशा खुला होना चाहिए, अतिथि गृह हमेश वायव्य में होना चाहिए वास्तुशास्त्र के अनुसार ईशान में पूजा के कक्ष, आग्नेय में रसोईघर, उत्तर में भंडार कक्ष, नैऋत्य या दक्षिण में शौचालय, पश्चिम के मध्य विद्याध्ययन कक्ष, पूर्व में स्नानगृह
तथा नैऋत्य में मुखिया का शयन कक्ष उत्तम माना गया है।
उपर्युक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखकर यदि कार्य किया जाय तो बर्बादियों को अवश्य टाला जा सकता है। गृहस्वामी यदि इन सबको ध्यान में रखकर गृह निर्माण करता है। तो वह सपरिवार सर्वदा सुख, समृद्धि एवं शान्ति प्राप्त कर सफल व्यक्ति की तरह जीवन यापन करता है तथा प्रकृति के विरूद्ध यदि वह आचरण करता है तो उससे वास्तु दोष का जन्म होता है जिससे वह जीवन पर्यन्त कष्ट ही कष्ट पाता है।
गृह निर्माण कराते समय अवश्य ध्यान देना चाहिए कि मकान हमेशा उत्तर दक्षिण लम्बा हो तथा इससे कम चौड़ पूरब पश्चिम हो जो शुभदायक होता है। पूर्व-पश्चिम अधिक लम्बा होतो सूर्यवेधी होता है, जो कष्टदायक माना जाता है। गृह चाहे नया हो या पुराना वास्तु शान्ति वैदिक विधि से अवश्य कराना चाहिए।
जिस गृह में तुलसी का वृक्ष, या देव वृक्ष, गौ माता की सेवा, ब्राह्मणों की सेवा, अतिथि सत्कार, स्त्रियों की इज्जत, बड़ा का सत्कार, तथा देव व पितरों का पूजन तथा भजन न होता हो वह घर नहीं श्मशान के बराबर माना जाता है। वहाँ पर सब कुछ ठीक होते हुए भी खराब के बराबर होता है।
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