भागवत प्रथम स्कन्ध एकोनविंशति अध्याय ( bhagwat mahapuran 1.19 )

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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bhagwat chapter 1.19
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              ॥ सूत उवाच ॥


महीपतिस्त्वथ तत्कर्म गर्ह्यं
      विचिन्तयन् नात्मकृतं सुदुर्मनाः । 
अहो मया नीचमनार्यवत्कृतं 
      निरागसि ब्रह्मणि गूढतेजसि ॥ १ ॥ 

ध्रुवं ततो मे कृतदेवहेलनाद् 
           दुरत्ययं व्यसनं नातिदीर्घात् ।
तदस्तु कामं ह्यघनिष्कृताय मे 
           यथा न कुर्यां पुनरेवमद्धा ॥ २ ॥ 

अद्यैव राज्यं बलमृद्धकोशं 
           प्रकोपितब्रह्मकुलानलो मे । 
दहत्व भद्रस्य पुनर्न मे ऽ भूत् 
          पापीयसी धीर्द्विजदेवगोभ्यः ॥३॥ 

स चिन्तयन्नित्थमथाशृणोद्यथा 
        मुनेः सुतोक्तो निर्ऋतिस्तक्षकाख्यः । 
स साधु मेने न चिरेण तक्षका-
     नलं प्रसक्तस्य विरक्तिकारणम् ॥ ४ ॥ 

अथो विहायेमममुं च लोकं 
          विमर्शितौ हेयतया पुरस्तात् । 
कृष्णाङ्घ्रिसेवामधिमन्यमान 
          उपाविशत् प्रायममर्त्यनद्याम् ॥५॥ 

या वै लसच्छ्री तुलसीविमिश्र 
          कृष्णाङ्घ्रिरेण्व भ्यधिकाम्बुनेत्री । 
पुनाति लोकानुभयत्र सेशान् 
          कस्तां न सेवेत मरिष्यमाणः ॥ ६ ॥
 
इति व्यवच्छिद्य स पाण्डवेयः 
          प्रायोपवेशं प्रति विष्णुपद्याम् । 
दधौ मुकुन्दाङ्घ्रिमनन्यभावो 
          मुनिव्रतो मुक्तसमस्तसङ्गः ॥ ७ ॥ 

तत्रोपजग्मु र्भुवनं पुनाना 
          महानुभावा मुनयः सशिष्याः । 
प्रायेण तीर्थाभिगमापदेशैः 
          स्वयं हि तीर्थानि पुनन्ति सन्तः ॥ ८ ॥ 

अत्रिर्वसिष्ठश्च्यवनः शरद्वान् 
                अरिष्टनेमिर्भृगुरङ्गिराश्च । 
पराशरो गाधिसुतोऽथ राम 
                उतथ्य इन्द्रप्रमदे ध्मवाहौ ॥ ९ ॥ 

मेधातिथिर्देवल आर्ष्टिषेणो 
                भारद्वाजो गौतमः पिप्पलादः । 
मैत्रेय और्वः कवषः कुम्भयोनिः 
                द्वैपायनो भगवान् नारदश्च ॥ १० ॥ 

अन्ये च देवर्षिब्रह्मर्षिवर्या 
                राजर्षिवर्या अरुणादय श्च । 
नानार्षेयप्रवरान् समेतान् 
              अभ्यर्च्य राजा शिरसा ववन्दे ॥ ११ ॥ 

सुखोपविष्टेष्व थ तेषु भूयः 
              कृतप्रणामः स्वचिकीर्षितं यत् । 
विज्ञापयामास विविक्तचेता 
             उपस्थितोऽग्रेऽभिगृहीतपाणिः ॥ १२ ॥ 

                     ॥ राजोवाच ॥

अहो वयं धन्यतमा नृपाणां 
                  महत्तमानुग्रहणीयशीलाः । 
राज्ञां कुलं ब्राह्मणपादशौचाद् 
                  दूराद्विसृष्टं बत गर्ह्यकर्म ॥ १३ ॥ 

तस्यैव मेऽघस्य परावरेशो 
                 व्यासक्तचित्तस्य गृहेष्वभीक्ष्णम् । 
निर्वेदमूलो द्विजशापरूपो 
                 यत्र प्रसक्तो भयमाशु धत्ते ॥ १४ ॥ 

तं मोपयातं प्रतियन्तु विप्रा 
                 गङ्गा च देवी धृतचित्तमीशे । 
द्विजोपसृष्टः कुहकस्तक्षको वा 
                 दशत्वलं गायत विष्णुगाथाः ॥ १५ ॥
 
पुनश्च भूयाद्‍भगवत्यनन्ते 
                रतिः प्रसङ्गश्च तदाश्रयेषु । 
महत्सु यां यामुपयामि सृष्टिं 
                मैत्र्यस्तु सर्वत्र नमो द्विजेभ्यः ॥ १६ ॥ 

इति स्म राजाध्यवसाययुक्तः
                प्राचीनमूलेषु कुशेषु धीरः । 
उदङ्मुखो दक्षिणकूल आस्ते 
                समुद्रपत्‍न्याः स्वसुतन्यस्तभारः ॥ १७ ॥ 

एवं च तस्मिन् नरदेवदेवे 
                प्रायोपविष्टे दिवि देवसङ्घाः । 
प्रशस्य भूमौ व्यकिरन् प्रसूनैः 
                मुदा मुहुर्दुन्दुभयश्च नेदुः ॥ १८ ॥ 

महर्षयो वै समुपागता ये 
                प्रशस्य साध्वित्यनुमोदमानाः । 
ऊचुः प्रजानुग्रहशीलसारा 
                यदुत्तमश्लोकगुणाभिरूपम् ॥ १९ ॥ 

न वा इदं राजर्षिवर्य चित्रं 
                भवत्सु कृष्णं समनुव्रतेषु । 
येऽध्यासनं राजकिरीटजुष्टं
                सद्यो जहुर्भगवत्पार्श्वकामाः ॥ २० ॥ 

सर्वे वयं तावदिहास्महेऽद्य 
                कलेवरं यावदसौ विहाय । 
लोकं परं विरजस्कं विशोकं
                यास्यत्ययं भागवतप्रधानः ॥ २१ ॥ 

आश्रुत्य तद् ऋषिगणवचः परीक्षित् 
                  समं मधुच्युद् गुरु चाव्यलीकम् । 
आभाषतैनानभिनन्द्य युक्तान् 
                  शुश्रूषमाणश्चरितानि विष्णोः ॥ २२ ॥ 

समागताः सर्वत एव सर्वे 
                 वेदा यथा मूर्ति धरास्त्रिपृष्ठे । 
नेहाथवामुत्र च कश्चनार्थ 
                 ऋते परानुग्रहमात्मशीलम् ॥ २३ ॥ 

ततश्च वः पृच्छ्यमिमं विपृच्छे 
                 विश्रभ्य विप्रा इति कृत्यतायाम् । 
सर्वात्मना म्रियमाणैश्च कृत्यं 
                 शुद्धं च तत्रामृशताभियुक्ताः ॥ २४ ॥ 

तत्राभवद् भगवान् व्यासपुत्रो 
                 यदृच्छया गामटमानोऽनपेक्षः । 
अलक्ष्यलिङ्गो निजलाभतुष्टो 
                 वृतश्च बालैरवधूतवेषः ॥ २५ ॥ 

तं द्व्यष्टवर्षं सुकुमारपाद 
                 करोरुबाह्वंसकपोलगात्रम् । 
चार्वायताक्षोन्नसतुल्यकर्ण 
                 सुभ्र्वाननं कम्बुसुजातकण्ठम् ॥ २६ ॥
 
निगूढजत्रुं पृथुतुङ्गवक्षसं 
                आवर्तनाभिं वलिवल्गूदरं च ।
 दिगम्बरं वक्त्रविकीर्णकेशं 
                प्रलम्बबाहुं स्वमरोत्तमा भम् ॥ २७ ॥ 

श्यामं सदापीच्यवयोऽङ्गलक्ष्म्या 
                स्त्रीणां मनोज्ञं रुचिरस्मितेन । 
प्रत्युत्थितास्ते मुनयः स्वासनेभ्यः 
                तल्लक्षणज्ञा अपि गूढवर्चसम् ॥ २८ ॥ 

स विष्णुरातोऽतिथय आगताय 
                तस्मै सपर्यां शिरसाऽऽजहार । 
ततो निवृत्ता ह्यबुधाः स्त्रियोऽर्भका 
                 महासने सोपविवेश पूजितः ॥ २९ ॥ 

स संवृतस्तत्र महान् महीयसां 
                 ब्रह्मर्षिराजर्षिदेवर्षि सङ्घैः । 
व्यरोचतालं भगवान् यथेन्दुः 
                 ग्रहर्क्षतारानिकरैः परीतः ॥ ३० ॥ 

प्रशान्तमासीनमकुण्ठमेधसं 
                 मुनिं नृपो भागवतोऽभ्युपेत्य । 
प्रणम्य मूर्ध्नावहितः कृताञ्जलिः 
                 नत्वा गिरा सूनृतयान्वपृच्छत् ॥ ३१ ॥

                   ॥ परीक्षिदुवाच ॥ 

अहो अद्य वयं ब्रह्मन् सत्सेव्याः क्षत्रबन्धवः । 
कृपयातिथिरूपेण भवद्भिस्तीर्थकाः कृताः ॥ ३२ ॥ 

येषां संस्मरणात् पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः । 
किं पुनर्दर्शनस्पर्श पादशौचासनादिभिः ॥ ३३ ॥ 

सान्निध्यात्ते महायोगिन् पातकानि महान्त्यपि । 
सद्यो नश्यन्ति वै पुंसां विष्णोरिव सुरेतराः ॥ ३४ ॥ 

अपि मे भगवान् प्रीतः कृष्णः पाण्डुसुतप्रियः । 
पैतृष्वसेयप्रीत्यर्थं तद्‍गोत्रस्यात्तबान्धवः ॥ ३५ ॥
 
अन्यथा तेऽव्यक्तगतेः दर्शनं नः कथं नृणाम् । 
नितरां म्रियमाणानां संसिद्धस्य वनीयसः ॥ ३६ ॥ 

अतः पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् । 
पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा ॥ ३७ ॥ 

यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्क र्तव्यं नृभिः प्रभो । 
स्मर्तव्यं भजनीयं वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् ॥ ३८ ॥ 

नूनं भगवतो ब्रह्मन् गृहेषु गृहमेधिनाम् । 
न लक्ष्यते ह्यवस्थानं अपि गोदोहनं क्वचित् ॥ ३९ ॥ 

                          सूत उवाच

एवमाभाषितः पृष्टः स राज्ञा श्ल क्ष्णया गिरा । 
प्रत्यभाषत धर्मज्ञो भगवान् बादरायणिः ॥ ४० ॥ 


इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां 
प्रथमस्कन्धे शुकागमनं नाम एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥



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