वैदिक और लौकिक संस्कृत में भेद

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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हम सबने पढ़ा--भाषा विज्ञान एवं व्याकरण का सम्बन्ध । अब हम सब पढ़ेंगे-

वैदिक और लौकिक संस्कृत में भेद

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आज हम जानेंगे कि वैदिक एवं लौकिक संस्कृत में क्या भेद है ।  

प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का प्रथम निदर्शन हमें ऋग्वेद से प्राप्त होता है, जिसे भारतीय परम्परा में वेद, छन्दस, आम्नाय, आगम आदि पदों से अभिहित किया जाता है। पाश्चात्य भाषाशास्त्रियों ने भाषिक तुलना के आधार पर ऋग्वेद के 2 से 9 तक के मण्डलों को अधिक प्राचीन तथा शेष दो प्रथम एवं दशम मण्डलों को अपेक्षाकृत अर्वाचीन माना है। लौकिक संस्कृत का विकास इसी वैदिक संस्कृत से हुआ है। लौकिक संस्कृत का प्राचीनतम रूप हमें आदिकाव्य रामायण में देखने को मिलता है। पाणिनीय व्याकरण के परिणामस्वरूप लौकिक संस्कृत अधिक नियमित एवं परिष्कृत हो गई। वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत की तुलना हम समानता एवं विषमता के बिन्दुओं के आधार पर सरलता से कर सकते हैं।

लौकिक एवं वैदिक संस्कृत में समानताएँ  

लौकिक संस्कृत एवं वैदिक संस्कृत में जन्य-जनक भाव सम्बन्ध होने के कारण दोनों में कतिपय मूलभूत समानताएँ हैं, जो निम्नलिखित हैं -

1. दोनों श्लिष्ट योगात्मक भाषाएँ हैं।

2. दोनों में प्राय: सभी शब्द धातुज हैं तथा रूढ़ शब्दों की संख्या अत्यल्प है।

3. दोनों में पदनिर्माण की विधि प्रायः एक समान है। 

4. दोनों में सुप्, तिङ्, कृत्, तद्धित आदि प्रत्यय समान हैं।

5. दोनों में धातुओं का गणों में विभाजन, णिच्, सन् आदि प्रत्यय समान हैं ।

6. दोनों में समास विधि है।

7. दोनों में तीन लिङ्ग तथा तीन पुरुष हैं।

8. दोनों में वाक्य रचना शब्दों से न होकर पदों से होती है।

9. दोनों में वाक्य में पदक्रम निश्चित नहीं होता है।

10. दोनों में सन्धिकार्य होता है तथा कारक एवं विभक्तियाँ होती हैं।

वैदिक एवं लौकिक संस्कृत में  विषमताएँ

उपर्युक्त समानताओं के बावजूद दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व यह प्रमाणित करता है कि दोनों में पर्याप्त विषमताएँ हैं, जो अधोलिखित हैं 

1. वैदिक संस्कृत में 52 ध्वनियाँ हैं, जबकि लौकिक संस्कृत में 48 ध्वनियाँ ही है । ळ, ळह्, जिह्वामूलीय(<क,<ख) एवं उपध्मानीय(<प,<फ)- ये चार ध्वनियाँ लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गईं ।

2. वैदिक संस्कृत में 'लृ' स्वर का प्रयोग होता है, जबकि लौकिक संस्कृत में यह स्वर लुप्तप्राय हो गया।

3. वैदिक संस्कृत में संगीतात्मक स्वराघात' की प्रधानता है, जबकि लौकिक संस्कृत में बलात्मक स्वराघात' की प्रधानता है।

4. वैदिक संस्कृत में उदात्त आदि स्वरों का प्रयोग होता है, जबकि लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग नहीं है।

5. वैदिक संस्कृत में ह्रस्व, दीर्घ एवं प्लुत स्वरों का प्रयोग होता है,जबकि प्लुत स्वर लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गया । 6. वैदिक संस्कृत में लेट् लकार मिलता है, जो लौकिक संस्कृत में अप्राप्य है।

7. लङ्, लुङ् आदि लकारों में अट् आगम वैदिक संस्कृत में अनिवार्य नहीं है, जबकि लौकिक संस्कृत में इसकी अनिवार्यता है।

8. वैदिक संस्कृत में परस्मैपद आत्मनेपद में परिवर्तित हो जाता है, जबकि लौकिक संस्कृत में यह सम्भव नहीं है।
 

9. वैदिक संस्कृत में तुमुन्, क्त्वा आदि अर्थों में अनेक प्रत्यय हैं, किन्तु लौकिक संस्कृत में इनके स्थान पर थोड़े ही प्रत्यय हैं।

10. वैदिक संस्कृत में सन्धि नियम ऐच्छिक हैं, जबकि लौकिक संस्कृत में यह अनिवार्य है।

11. वैदिक संस्कृत में उपसर्गों का स्वतन्त्र प्रयोग भी होता है, जबकि लौकिक संस्कृत में ऐसा नहीं है।

12. वैदिक संस्कृत में शब्दरूपों एवं धातुरूपों में बहुत विविधता है, किन्तु लौकिक संस्कृत में यह विविधंता बहुत सीमित हो गई।

13. वैदिक संस्कृत के ईम्, सीम, वै आदि निपात लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गये।

14. वैदिक संस्कृत में 'तर', 'तम' प्रत्यय संज्ञा शब्दों से भी होते हैं (वृत्रतर: इन्द्रतमः आदि) जबकि लौकिक संस्कृत में ये प्रत्यय विशेषण शब्दों से ही होते हैं।

15. वैदिक संस्कृत में छन्दः पूर्ति के लिए स्वरभक्ति (स्वरों को तोड़कर पढ़ना) का  प्रयोग होता है, जबकि लौकिक संस्कृत में यह नहीं होता है।

इन सबके अतिरिक्त वैदिक संस्कृत से लौकिक संस्कृत के विकास में शब्दों तथा धातुओं के अर्थों में भी पर्याप्त विभिन्नता आ गई है। तद्यथा कुछ शब्दों के उदाहरण द्रष्टव्य है -


शब्द-

असुर, अराति, वध, क्षिति, न

वैदिक-अर्थ(क्रमशः)

प्राणदायक या शक्तिशाली, कृपण, घातक शस्त्र, गृह या निवास स्थान, जैसा या नहीं

लौकिक अर्थ(क्रमशः)

दैत्य, शत्रु, हत्या, पृथिवी, नहीं


इसी प्रकार वैदिक 'पत्' धातु जो 'उड़ने' को द्योतित करती थी, लौकिक संस्कृत में 'गिरने' का वाचन करने लगी। सह्' धातु अपने वैदिक अर्थ 'जीतना' को छोड़कर लौकिक संस्कृत में 'सहने' का बोध कराने लगी। इसके साथ ही लौकिक संस्कृत में दर्शत (दर्शनीय), दृशीक (सुन्दर), मूर (मूढ़), अमूर (विद्वान्), अक्तु (रात्रि), अमीवा (रोग), ऋदूदर (कृपालु) जैसे अनेकानेक वैदिक शब्दों का प्रयोग समाप्त हो गया है।

 वस्तुत: लौकिक संस्कृत ने यद्यपि वैदिक संस्कृत के गर्भ से ही जन्म लिया है तथापि ध्वनियों, स्वरों, शब्द प्रयोग, वाक्य रचना में परिष्कार' आदि अनेक क्षेत्रों में परिवर्तन को प्राप्त किया है। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि लौकिक संस्कृत ने प्रयोग की सरलता के कारण वैदिक संस्कृत से भी अधिक उन्नति व उत्कर्ष को प्राप्त किया है।
देवभाषा संस्कृत की अजस्रधारा अद्यावधि अपने मूलस्वरूप में अक्षुण्णभाव से प्रवाहित हो रही है। आगे भी उत्कर्ष को प्राप्त करती रहेगी ।


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