भाषा उत्पत्ति के सिद्धान्त । वेदों का अपौरुषेयत्व एवं दिव्योत्पत्तिवाद

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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पिछली पोस्ट में आप देख चुके हैं-  भाषा क्या है? भाषा की सही परिभाषा  अब देखें -

भाषा उत्पत्ति के सिद्धान्त । वेदों का अपौरुषेयत्व एवं दिव्योत्पत्तिवाद

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   भाषा मनुष्य को अन्य जीवसमूहों से विशिष्ट करने का प्रमुख कारक है, किन्तु भाषा की उत्पत्ति किस प्रकार हुई यह अत्यन्त विवादास्पद प्रश्न है। भाषा की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों ने जो भी विचार प्रस्तुत किये हैं वे अपूर्ण एवं अनिर्णयात्मक है। अतः सम्प्रति भाषा वैज्ञानिकों ने इस विषय को भाषाविज्ञान के क्षेत्र से बहिष्कृत कर दिया है। भाषा की उत्पत्ति संबन्धित विभिन्न सिद्धान्त व उनकी समीक्षा संक्षेप में इस प्रकार की जा सकती है।

1. दिव्योत्पत्ति का सिद्धान्त (Divine Theory)

   भाषा की उत्पत्ति से सम्बद्ध यह प्राचीनतम मत है, जिसके अनुसार भाषा परमात्मा द्वारा मनुष्य को प्रदत्त उपहार है। प्रत्येक धर्मावलम्बियों ने इसे व्याख्यायित किया है तथा इस प्रकार अपनी भाषा को दैवी भाषा बताया है। ऋग्वेद में भाषा के दिव्योत्पत्ति का वर्णन प्राप्त होता है। पुरुष सूक्त में ऋग्, यजुष, साम एवं अथर्ववेद को विराट् पुरुष से उद्भूत बताया गया है।

तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।

छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तस्मादजायत ।।

                                                                      (ऋ. 10/90/9)

 वेद में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'वाग्देवी को देवों ने उत्पन्न किया तथा उसे सभी प्राणी बोलते हैं। वस्तुओं के नामधेयों को धारण करने वाली (भाषा) को बृहस्पति (परमेश्वर) ने सर्वप्रथम प्रेरित (प्रदान किया।

देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।

                                                                                  (ऋ. 8/100/11 )


बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रेरत नामधेयं दधानाः ।

यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः ।।

                                                                                (ऋग्वेद 10/71/1)


मनु ने भी भाषा की दिव्योत्पत्ति को मान्यता प्रदान किया है। 

सर्वेषां तु नामानि कर्माणि च पृथक्-पृथक् ।

वेद शब्देभ्य एवादी पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ।।

                                                               (मनुस्मृति 1 / 21 )

मात्र संस्कृत में ही नहीं अपितु अन्य भाषाओं में भी यह सिद्धान्त प्रतिष्ठित है। कैथोलिक ईसाइयों ने बाइबिल के प्राचीन विधान (Old Testament) की 'हिब्रू भाषा' को तथा मुसलमानों ने कुरान को ' अरबी भाषा' को दिव्यभाषा एवं आदिभाषा घोषित किया है। बाइबिल में उल्लेख है कि मानवजाति महत्त्वाकांक्षावश स्वर्ग तक पहुँचने के निमित्त गगनचुंबी मीनार बना रही थी। ईश्वर ने इससे भयभीत होकर कारीगरों की भाषा को गड़बड़ा दिया । जिससे वे एक-दूसरे के भाव न समझ सके और मीनार अपूर्ण रह गयी, अन्यथा सर्वत्र हि भाषा ही रहती। भाषा की दिव्योत्पत्ति का कतिपय आधुनिक विद्वानों ने भी पुरजोर समर्थन किया है, जिसमें स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम अग्रगण्य है। जर्मन विद्वान् सुसमिल्श ने कहा है कि

 "भाषा मानवकृत नहीं है, अपितु परमात्मा से साक्षात् उपहार स्वरूप प्राप्त हुई है ।"

"Language could not have been invented by man, but was a direct gift from god."

यह मत आस्था पर अवलम्बित है, अतः तर्कशास्त्री एवं विज्ञानवादी विद्वान् इसे स्वीकार नहीं करते हैं। उनका तर्क है कि यदि भाषा ईश्वरीय है, तो सृष्टि में भाषा-भेद नहीं होना चाहिए, उसे पूर्णविकसित होना चाहिए तथा वह जन्म से ही मनुष्यों को प्राप्त होनी चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। संसार में असंख्य भाषाएँ हैं जिनमें से अधिकांश अव्यवस्थित व त्रुटिपूर्ण हैं, उनमें विकास, परिवर्तन व परिवर्द्धन दिखायी पड़ता है तथा भाषा को सीखना पड़ता है । अतः भाषा की उत्पत्ति दिव्य नहीं हो सकती है । 

पर जहाँ वेदों की बात आती है,वेद का अपौरुषेयत्व एवं स्वतः प्रमाणत्व अपनी अलग कोटि का है- इसे इज्जील, कुरान, गीता आदि की कोटि में नहीं रक्खा जा सकता। अत्यन्त उत्कृष्ट और लोकोपयोगी होते हुए भी ये उसी अर्थ में 'ईश्वरीय ज्ञान, इलहाम या रिवील्ड' नहीं हैं, जिस अर्थ में वेद हैं। कुरान के अवतरण से पूर्व अरबी भाषा अरब देश में अतिविकसित अवस्था में विद्यमान थी, इञ्जील से पूर्व हिब्रू भाषा और उसका साहित्य जनता के पास था, ईरानियों की गाथाओं से पूर्व गाथाओं की भाषा और उसमें प्रतिपादित सत्य महात्मा जरथुश्त्र से पहले विद्यमान थे। भगवद् गीता से पूर्व गीता की भाषा विद्यमान थी। किन्तु वेदों से वैदिकभाषा प्रसूत हुई न कि वैदिक भाषा मनुष्य के पास वेद से पहले विद्यमान थी और उस पूर्वभाषा में वेदों का आविर्भाव हुआ। वेदपूर्व भाषा की कल्पना कुछ भाषाशास्त्रियों ने की है। (यह कोरी कल्पना है या कल्पना का विजृम्भण मात्र है) पर सच्चाई यही है कि तथाकथित वेद-पूर्व की भाषा का एक शब्द या वाक्य उपलब्ध नहीं है। वैदिक शब्दों के अपभ्रंश का इतिहास प्राप्त है, किन्तु वैदिक शब्द किन-किन रूपों या शब्दों से क्रमशः विकसित होकर बने हैं, इसका कोई इतिहास नहीं है। उदाहरणार्थ- वैदिक पितृ शब्द बिगड़ कर पितर (पाली), पिता (हिन्दी), पीटर (लैटिन व इतालवी), फाटर (जर्मन), फादर (अंग्रेजी), इत्यादि बन गये। वैदिक मातृ से मातर (पाली), माता (हिन्दी), मुटर (जर्मन), मदर (अंग्रेजी शब्द बने हैं। यही स्थिति स्वसृ (स्वसा-भगिनी अर्थ में) से सिस्टर (अंग्रेजी) तथा दुहित् (दुहिता-पुत्री अर्थ में) से दुख्तर (अरबी) तथा डॉटर (अंग्रेजी) आदि शब्दों की है। इसके साथ ही अन्य भाषाओं में वेद के शब्दों के अर्थ बदल गये या शब्दों का रूप ही बिगड़ गया। मानवीय ऊहा और मनीषा ने विभिन्न आधारों पर काल के विस्तृत प्रवाह में सहस्रों -लाख नये शब्दों की रचना भी की।

   दिव्योत्पत्तिवाद की समीक्षा में भाषावैज्ञानिक एवंविध टिप्पणी करते हैं। भाषोत्पत्ति विषयक जब सभी स्थापनाएँ असिद्ध है, तब अन्ततः समाधान क्या है? मनुष्य तथा पशु-पक्षी में भी कुछ ऐसी विशिष्टताएँ पायी जाती है, जो प्रकृति प्रदत्त या आस्तिकता की दृष्टि से कहें तो (God Gift) होती है। कोयल की मीठी गान, मयूर का सुन्दर नृत्य, मधुमक्खी का छाता बनाना क्या परमेश्वर प्रदत्त उपहार नहीं है? एक-एक मधुमक्खी का छोटा सा घर होता है, जो श्री डाइमेन्सल (त्रि-आयमिक ज्यामिति) का एक अत्यन्त विलक्षण नमूना है। फूलों के रस को मुँह में भरना तथा उस रस में से मोम व मधु के भागों को बिना किसी प्रयोगशालीय उपकरण के अलग-अलग करना, यह कौन सिखाता है? मकड़ी द्वारा कई एक कोण बनाते हुए एकदम सीधी रेखाओं द्वारा जाला बुनने का गुण कहाँ से आता है? इसी प्रकार कण्ठ से लेकर ओष्ठ तक बोलने का यन्त्र एकमात्र मनुष्य को ही मिला है। मनुष्य 'क' से लेकर 'म' तक का उच्चारण ही नहीं करता, अपितु इन अक्षरों को सुनकर इनके उच्चारण के भेद को भी समझ लेता है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी प्राणी में यह सामर्थ्य नहीं है कि इन अक्षरों का पृथक्-पृथक् उच्चारण कर सके। पशु-पक्षियों के कान में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह वर्णमाला के अक्षरों के भेद को पृथक्-पृथक् सुन सकें और समझ सकें। अतः वाग् यन्त्र और श्रोत्र-तन्त्र अपौरूपेय है परमेश्वर की कृपा से हमें प्राप्त है। स्थूल दृश्यमान जगत् और अन्नमय कोश से लेकर आनन्दमय कोश तक की रहस्यमय सृष्टि (स्थूल से लेकर अतिसूक्ष्म तक का जगत्) मानवीय रचना नहीं है। मनुष्य की अप्रतिम बुद्धि-मानस चेतना और ऊहा मनुष्य की बनाई हुई नहीं है और न भाषा बोलने और सुनने का वाक्-श्रोत्र-यन्त्र या तन्त्र ही मनुष्य ने बनाया है। अत: आदि भाषा को ईश्वर प्रदत्त मानने में क्या आपत्ति है? किसी भी विषय के विज्ञान या शास्त्र के स्वरूपवान् होने के लिए भाषा, वस्तु विषय (दृश्यमान जगत्) और वस्तुविषय को शास्त्र रूप में प्रतिपादित करने के लिए मानव ऊहा चाहिए। ये तीनों (1) भाषा (ii) वस्तु विषय (दृश्यमान जगत्) तथा (ii) मानव ऊहा या बुद्धि अपौरुषेय (ईश्वर प्रदत्त) है। परमात्मा ने सभी प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य को विशेष बुद्धि दी और इस बुद्धि में उन्नति का भी अवकाश रखा। बुद्धि की सहायता से मनुष्य शास्त्र बनाता है। सृष्टि के अध्ययन अवलोकन की सूक्ष्मता के साथ बुद्धि भी बढ़ती है और शास्त्र भी तथा विभिन्न भाषाएँ भी । भाषा ईश्वरीय है इसलिए आगे बहुविध विकसित अनेक भाषाएँ न होकर भाषिक-एकरूपता होनी चाहिए, इसका क्या तुक है? मनुष्य को निर्मिति ईश्वरीय है तो क्या सभी मनुष्य एकरूप (गोरे-काले-लम्बे-चिकने आदि विविधताओं वाले नहीं हैं?) हैं? शाम्य और ज्ञान के निरन्तर विकास में व्यक्ति भी साथ देता है और समष्टि भी और आगे की सन्तति भी इसी विकास क्रम से हमारा ज्ञान-विज्ञान पूर्व युग के ऋषियों से लेकर आज तक के मनीषियों के सहयोग से वर्तमान स्तर तक पहुंचा है और आगे भी बढ़ेगा (यदि परिस्थितियाँ अनुकूल हो)। वैसे 'भाषा' के 'दिव्योत्पत्तिवाद' में मेरी व्यक्तिगत आस्था है, जिसके कारणों का उल्लेख ऊपर की पक्तियों में मैंने विनम्रतापूर्वक किया है।

भाषा वैज्ञानिक इस बात से सहमत नहीं हैं ।

आगे देखें-भाषा उत्पत्ति के अन्य सिद्धान्त

language  science
1.1

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