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भाषा का पारिवारिक वर्गीकरण

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आप पीछे पढ़ चुके हैं>>>लय(सुर या स्वर)अब देखें-भाषा परिवार का वर्गीकरण


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भाषा का पारिवारिक वर्गीकरण

     संसार में बोली जाने वाली भाषाओं की अनुमानित संख्या तीन हजार(3000) है। कुछ लोगों ने अधिक निश्चयात्मक ढंग से भाषाओं की संख्या 2796 मानी है। संसार की भाषाओं के वर्गीकरण के कई आधार हो सकते हैं, किन्तु भाषाविज्ञान की दृष्टि से दो ही आधार माने गये हैं -

(1) आकृतिमूलक 

(2) पारिवारिक या ऐतिहासिक

    रचना तत्त्व के आधार पर भाषा का जो वर्गीकरण होता है वह आकृतिमूलक वर्गीकरण है, परन्तु रचना तत्त्व और अर्थतत्त्व के सम्मिलित आधार पर किया गया वर्गीकरण पारिवारिक वर्गीकरण कहलाता है। भाषाओं के परिवार निर्धारण के लिए निम्नलिखित बातों पर विचार करना पड़ता है -

(1) ध्वनि

(2) पद रचना

(3) वाक्य रचना

(4) अर्थ

(5) शब्द भण्डार 

(6) स्थानिक निकटता।

     इन छ: आधारों पर भाषाओं की परीक्षा करने पर ही यह कहा जा सकता है कि वे एक परिवार की है या नहीं।संसार के भाषा परिवारों की संख्या अनिश्चित है। 10 से लेकर 250 भाषा परिवारों की कल्पना की गई है। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने 12 भाषा परिवार माने हैं जबकि डॉ. देवेन्द्रनाथ शर्मा ने अपेक्षाकृत निर्विवाद और प्रमुख' भाषा परिवारों की संख्या 18 मानी है। उनके अनुसार भाषा परिवारों की संख्या, नाम तथा खण्ड इन प्रकार है -

युरेशिया खण्ड

1. भारोपीय परिवार (Indo-Europian Family)

2. द्राविड़ परिवार (Dravidian family) 

3. बुरुशस्की परिवार (Burushaski family)

4. यूराल अल्ताई परिवार (Ural Altai Family)

5. कॉकेशी परिवार (Caucasian family) 

6. चीनी परिवार (Chinese family)

7. जापानी-कोरियाई परिवार (Japanese Korean family)

8. अत्युत्तरी (हाइपर बोरी) परिवार (Hyperborean family)

9. बास्क परिवार (Basqu family

10. सामी-हामी परिवार (Samitic- Hamitic family)

अफ्रीका खण्ड

11. सूडानी परिवार (Sudan family) 

12. बन्तू परिवार (Bantu family)

13. होतेन्तोत- बुशमैनी परिवार (Hottentot-Bushman family)

प्रशान्त महासागर के द्वीपपुञ्ज

14. मलय बहुद्वीपीय परिवार (Malay-Polynasian family)

15. पापुई परिवार (Papuan family)

16. आस्ट्रेलियाई परिवार (Australian family)

17. दक्षिण-पूर्व एशियाई परिवार (Austro Asiatic family)

अमेरिका खण्ड

18. अमेरिकी परिवार (American family)

विशेष –

 (1) 10 संख्यक सामी-हामी परिवार एशिया और अफ्रीका दोनों महादेशों में विस्तृत होने के कारण उभयनिष्ठ हैं।

(2) चीनी को चीनी-तिब्बती, बास्क को इबेरो-बास्क तथा सूडानी को सूडानी गिनी भी कहते हैं।

       भाषाओं के इस पारिवारिक वर्गीकरण से भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन में सुविधा होती है। साथ ही विश्व की प्रमुख भाषाओं के विषय में संक्षिप्त, मौलिक तथ्यात्मक जानकारी भी प्राप्त होती हैं। विभिन्न भाषाओं के अध्ययन से प्रत्येक परिवार की मूलभाषा के अन्वेषण के प्रयास में सहायता मिलती है तथा इन सबसे बढ़कर विभिन्न जातियों की सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा मिलता है तथा विश्वबन्धुत्व की भावना परिपुष्ट होती है। सम्प्रति विश्व के प्रमुख भाषा परिवारों का संक्षिपत अध्ययन अभीष्ट है।

1. भारोपीय भाषापरिवार

विश्व के भाषा परिवारों में भारोपीय परिवार का महत्त्व सर्वाधिक है इसकी महत्ता का वर्णन  निम्नलिखित हैं -

( क) इस परिवार की भाषाओं के बोलने वालों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है

(ख) भौगोलिक व्यापकता की दृष्टि से यह महत्तम है। प्राय: सारे संसार में इस परिवार की भाषाएँ बोली जाती हैं।

(ग) साहित्य, कला एवं विज्ञान की दृष्टि से यह सर्वोत्कृष्ट है। 

(घ) सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में यह अग्रगण्य परिवार है।

(ङ) राजनीतिक दृष्टि से यह विश्व का सबसे प्रभावशाली परिवार है। 

(च) भाषाविज्ञान एवं भाषाशास्त्र के अभ्युदय का श्रेय इसी को प्राप्त है।

    भारोपीय भाषा परिवार के लिए कुछ विद्वानों ने भारत-जर्मनिक (Indo Germanic), भारत-हिती (Indo-Hittite) जैसे नामों का भी प्रयोग किया है, किन्तु इसका सर्वप्रचलित एवं सर्वाधिक युक्तियुक्त नाम भारोपीय (Indo-Europian) ही है। 

      भारोपीय भाषाओं का उद्गम स्थल विवादास्पद एवं जटिल है। सामान्यतः मूल भारोपीय भाषा के प्रयोक्ताओं को 'आर्य' नाम दिया गया है तथा उनके आदि देश को ही भारोपीय भाषा का उद्गमस्थल स्वीकार किया जाता है किन्तु आर्यों का आदिदेश स्वयं एक जटिल और अनसुलझी पहेली होने के कारण भारोपीय भाषा का उद्गम भी विवादित है । मूल भारोपीय भाषा की निम्नलिखित विशेषताएँ उद्घाटित की जा सकती हैं-

 (क) यह भाषा श्लिष्ट योगात्मक थी।

(ख) इसमें मुख्यत: धातुओं से शब्द निष्पन्न होते थे।

(ग) इसमें सम्भवतः उपसर्गों का अभाव था।

(घ) इसमें प्रत्ययों का आधिक्य था अतएव रूपों की बहुलता थी।

 टिप्पणी

    मूल भारत-यूरोपीय भाषाओं के बोलने वालों (आर्यों) का आदि-स्थान कहाँ था? भारत से लेकर उत्तर-पश्चिम में स्कैण्डिनेविया तक और उत्तरी ध्रुव से लेकर कैस्पियन सागर के तट तक आर्यों के मूल स्थान को स्थापित करने की चेष्टा की गई है। आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा ने भाषाविज्ञान की भूमिका' में लिखा है कि "यह प्रश्न सुलझने के बदले और उलझ रहे हैं। इस समस्या के नहीं सुलझने का एक प्रधान कारण यह है कि विद्वानों की दृष्टि वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ रही है। जिस किसी विद्वान् ने इस समस्या का समाधान ढूँढ़ने का प्रयास किया है, उसका ध्यान इस बात पर रहा है कि उसी का देश आर्यों का आदि स्थान प्रमाणित हो।" और अन्त में वे लिखते हैं- "भारतीय साहित्य में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं मिलता कि आर्य कहीं बाहर से इस देश में आये। यदि वे बाहर से आये होते तो किसी-न-किसी रूप में इसका उल्लेख हुआ होता; कारण कि ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना परम्परा या जनश्रुति के द्वारा भी समाज में अवश्य प्रचलित रहती और अवसर पाकर विद्वान् उसकी चर्चा अवश्य करते। इसलिए कुछ भारतीय विचारकों का मत है कि आर्य मूलत: भारत के ही निवासी थे और कहीं बाहर से न आकर वे यहाँ से बाहर गये।" स्वामी दयानन्द सरस्वती (त्रिविष्टप तिब्बत), अविनाशचन्द्र दास (सरस्वती नदी का उद्गम स्थल), डॉ. सम्पूर्णानन्द (हिमालय), डॉ. गंगानाथ झा (ब्रह्मर्षि देश), डी. एस. त्रिवेदी [मुलतान मूलस्थान) में देविका नदी की घाटी] तथा एस. डी. कल्ला (कश्मीर) को आर्यों का आदि निवास स्थान मानते हैं। प्रो. पार्जेंटर ने 'एन्शियण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रडीशन' में भारतीय परम्परा तथा पुराणों के आधार पर भारत को ही आर्यों का आदि-आवास माना है। डॉ. रामविलास शर्मा तथा आचार्य किशोरीदास बाजपेयी भाषाविज्ञान के निष्कर्षो तथा वेदमन्त्रों का तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर आर्यावर्त को ही आर्यों का आदि-स्थान निरूपित करते हैं।

(ङ)   इसमें तीन लिङ्ग- (पुलिंङ्ग, स्त्री लिङ्ग तथा नपुंसकलिङ्ग), तीन वचन, (एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन) तथा तीन पुरुष (प्रथम, मध्यम, उत्तम) थे।

(च) इसमें आठ विभक्तियाँ थीं, जो आज भी संस्कृत में पूर्णत: प्राप्य हैं तथा ग्रीक व लैटिन में कुछ छँट गयी हैं। 

(छ) इसमें आत्मनेपद तथा परस्मैपद का व्यवहार था।

(ज) क्रिया के रूपों में भूत, वर्तमान तथा भविष्य की अवधारणा थी, किन्तु इनके अवान्तर भेदों का अभाव था।

(झ) समास इसकी प्रमुख विशेषता थी।

(ञ) पद रचना में स्वरभेद से अर्थभेद होता था। जैसे- देव दैव (देव सम्बन्धी), Sing > sang (गाया) ।

(ट) भाषा संगीतात्मक थी अत: उदात्तादि स्वरों का प्रयोग अर्थबोध में सहायक था। वैदिक मन्त्र इसके उदाहरण हैं। प्राचीन ग्रीक में भी स्वरों का उपयोग होता था।

(xii) धातु को द्वित्व करके अनेक धातुरूप बनाये जाते थे।

भारोपीय परिवार की शाखाएँ

       भारोपीय भाषा परिवार की दस शाखाएँ हैं, जिन्हें केन्टुम् और शतम् दो वर्गों में संगृहीत किया जा सकता है। इस विभाजन का श्रेय प्रो. अस्कोली (Prof. Ascoly) को जाता है, जिन्होंने 1870 में यह मत प्रस्तुत किया कि मूल भारोपीय भाषा की कण्ठ्य ध्वनियाँ कुछ भाषाओं में कण्ठ्य रह गईं। जबकि कुछ भाषाओं में ऊष्म (श, ष जु) हो गई। उदाहरणार्थ- 100 संख्या के वासक शब्दों को लिया गया, जिसे लैटिन में केण्टुम् (Centum) तथा अवेस्ता में सतम् (संस्कृत में शतम्) कहते हैं। इसी आधार पर इस विभाजन का नाम केण्टुम् और शतम् वर्ग पड़ा। भारोपीय परिवार की दसों शाखाएँ इन दो वर्गों में निम्नलिखित रूप में संगृहीत की जा सकती हैं-

शतम् वर्ग

1. भारत ईरानी शाखा (Indo-Iranian)- 100के लिए -भारतीय शतम्

2. बाल्टो स्लाविक शाखा (Baltoslavic)   ईरानी -सतम्

3. अल्बानी या इलीरी (Albanian or Illyrian)बाल्टिक- जिम्तस्

4. आर्मीनी (Armenian)  स्लाविक(रूसी)- स्तो

केण्टुम् वर्ग

5. ग्रीक या हेलेनिक (greek or Hellenic) लातिन- केन्तुम्

6. केल्टिक (Keltic) ग्रीक- हेकातोन

7. जर्मनिक या ट्यूटानिक (Germanic or Teutonic) जर्मनिक हुन्द 

8. इटालिक (Italic) केल्टिक-केत्

9. हित्ती(Hittite) तोख़ारी- कन्ध

10. तोखारी (Tokharian)

     आरम्भ में प्रो. हर्ट सदृश विद्वान का यह विचार था कि केण्टुम् वर्ग की भाषाएँ  विश्चुला नदी के पश्चिम में तथा सतम् वर्ग की भाषाएँ उसके पूर्व में प्रचलित है, किन्तु बाद में हित्ती और तोखारी भाषाओं के मिलने पर यह सिद्धान्त निरस्त हो गया, क्योंकि ये दोनों भाषाएँ पूर्व में प्रचलित होते हुए भी कैण्टुम् वर्ग की थीं। भारोपीय भाषा परिवार की शाखाओं का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है

1. भारत-ईरानी शाखा

    इस शाखा के भाषाभाषी स्वयं को आर्य कहते हैं। अतः इस शाखा को भी आर्यशाखा कहा जाता है। इसकी दो प्रमुख उपशाखाएँ हैं -

(क) भारतीय, (ख) ईरानी।


(क) भारतीय शाखा

इसे कालक्रमानुसार तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

(1) प्राचीन भारतीय आर्यभाषा- (2500 ई. पू. से 500 ई. पू.) 

विकासक्रम के अनुसार इसे वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत में बाँटा गया है। वैदिक संस्कृत- श्लिष्ट योगात्मक स्वर प्रधान, विविधता व जटिलता से युक्त है। इसमें उपसर्गों का स्वतन्त्र प्रयोग भी होता है। शेष विशेषताएँ लौकिक संस्कृत के ही समान हैं।

(2) मध्यकालीन भारतीय आर्यभाषाएँ (500 ई. पू. से 1000 ई. तक)

इसके भी कालक्रमानुसार तीन उपविभाग हैं -

(अ) प्रथम प्राकृत या पालि (500 ई. पू. से 100 ई. तक) 

    इसी भाषा में अशोक के शिलालेख, बौद्ध जातकग्रन्थ तथा प्रारम्भिक नाटक निबद्ध हैं।

(ब) द्वितीय प्राकृत (100 ई. से 500 ई. तक) 

 इसे साहित्यिक प्राकृत भी कहते है, क्योंकि इस काल में प्राकृत का विकसित साहित्यिक रूप प्राप्त होता है। इस काल में प्राकृत के प्रान्तीय या भौगोलिक भेद भी प्राप्त होते हैं तद्यथा-" मागधी, अर्धमागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, शूरसेनी, बाह्लीक, दाक्षिणात्य आदि।

(स) परकालीन प्राकृत या अपभ्रंश (500 ई० से 1000 ई. तक) 

आधुनिक विद्वान् प्रत्येक प्राकृत से एक-एक अपभ्रंश का उद्भव मानते हैं, जिनसे आधुनिक भारतीय भाषाएँ विकसित हुई हैं। अपभ्रंश की प्रवृत्ति अयोगात्मकता की ओर अधिक है।


(3) आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएँ (1000 ई. से वर्तमान समय तक) 

      इनका विकास अपभ्रंशों से हुआ है। ये भाषाएँ लगभग पूर्णतः अयोगात्मक हो गयी हैं। इनमें प्राय: दो ही लिङ्ग (पुंलिङ्ग व स्त्रीलिङ्ग) तथा दो ही वचन (एकवचन व बहुवचन) हैं। साथ ही इनमें बड़ी संख्या में अंग्रेजी, अरबी, फारसी जैसी भाषाओं के शब्द समाविष्ट हो गये हैं।

(ख) ईरानी शाखा

ईरान शब्द 'आर्याणाम्' का ही अपभ्रंश है, जिससे भारत व ईरान की प्राचीन भाषाओं की अत्यन्त निकटता द्योतित होती है। ऋग्वेद की भाषा और अवेस्ता  की भाषा की तुलना करने पर यह निकटता सुस्पष्ट हो जाती है। ईरानी भाषाओं को भी कालक्रमानुसार तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(1) प्राचीन युग

 प्राचीन ईरानी की दो प्रमुख भाषाएँ थीं-

(अ) पूर्वी ईरानी

(ब) पश्चिमी ईरानी।

        पूर्वी ईरानी को 'अवेस्ता' कहते हैं। इसी में पारसियों का धर्मग्रन्थ 'अवेस्ता' निबद्ध है। अवेस्ता की टीका को जेन्द (Zend, संस्कृत में छन्द) कहते हैं। पश्चिमी ईरानी को 'प्राचीन फारसी' कहते हैं। इसी भाषा में अफीमिनियन साम्राज्य के शासकों (558 ई. पू. से 323 ई. पू.) के अभिलेख प्राप्त होते हैं। प्राचीन फारसी की वर्णमाला अवेस्ता से सरल है तथा संस्कृत के अधिक निकट है। तद्यथा- संस्कृत- 'यदि', फारसी- 'यदो'।

(2) मध्य युग

 मध्ययुगीन ईरानी में सबसे प्रमुख भाषा 'पह्लवी' है, जिसका प्राचीनतम रूप तीसरी शती ई. पू. के कुछ सिक्कों में प्राप्त होता है। पह्लवी के दो रूप प्राप्त होते हैं- हुज्वारेश तथा पारसी या पाज़न्द। हुज्वारेश पर सेमेटिक प्रभाव अत्यधिक है जबकि पाजून्द पह्लवी का परिष्कृत रूप है। भारत की गुजराती भाषा पाज़न्द से काफी प्रभावित है ।

(3) आधुनिक युग

 आधुनिक ईरानी में फारसी या ईरानी भाषा प्रमुख है, जो ईरान की राष्ट्रभाषा है। इसका विकास प्राचीन फारसी से हुआ है। यह पूर्णत: अयोगात्मक हो गयी है। इसका साहित्य समृद्ध है। फिरदौसी द्वारा रचित 'शाहनामा' इसका आरम्भिक ग्रन्थ तथा राष्ट्रीय महाकाव्य है। वर्तमान फारसी में लगभग 70 प्रतिशत शब्द अरबी है तथा इसकी लिपि भी अरबी है।

आधुनिक फारसी की अनेक बोलियाँ हैं, जिनमें अफगानिस्तान में बोली जाने वाली 'पश्तो' बलूचिस्तान में व्यवहृत 'बलूची' पामीर के पठार में बोली जाने वाली 'पामीरी', कुर्दिस्तान की बोली कुर्दिश' आदि प्रमुख है।

      भारत-ईरानी शाखा की एक उपशाखा 'दरदी' है, जिसका क्षेत्र पंजाब के उत्तर-पश्चिम में पड़ता है। दरदी शाखा में भारतीय व ईरानी दोनों भाषाओं की विशेषताएँ मिलती है। लोवार, चित्राली, शीना आदि बोलियाँ इसके अङ्ग है। कश्मीरी भाषा को कुछ विद्वान् पैशाची अपभ्रंश से विकसित भारतीय भाषा मानते हैं, जबकि कुछ इसे दरदी भाषाओं में गिनते हैं।

2. बाल्टो-स्लाविक शाखा

 इनकी दो उपशाखाएँ हैं- 

1. बाल्टिक 

2. स्लाविक

इनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है

(क) बाल्टिक भाषाएँ

    बाल्टिक सागर के तट पर बोली जाने वाली भाषाएँ इसके अन्तर्गत सङ्गृहीत है। इनमें प्राचीन प्रशियन लिथुआनियन लेट्टिक भाषाएँ आती है। प्राचीन प्रशियन प्रशा की भाषा थी जो अब लुप्त हो चुकी है तथा इसे बोलने वाले अब जर्मन बोलते है। लिथुआनिया की भाषा लिथुआनियन है। यह भाषाविज्ञान की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें भारोपीय भाषा का प्राचीनतम रूप प्राप्त होता है। यह आज भी प्राय: पूर्ण श्लिष्ट भाषा है, जिसमें वैदिक संस्कृत एवं ग्रीक के समान संगीतात्मक सुर के दर्शन होते हैं। इसमें द्विवचन का प्रयोग आज भी होता है। लेट्टिक भाषा लैटविया की भाषा है। यह लिथुआनियन से अधिक विकसित है।

(ख) स्लाविक भाषाएँ

 इसके तीन अवान्तर विभाग हैं

(1) पूर्वी स्लाविक

 इसके अन्तर्गत महारूसी, श्वेतरूसी एवं लघुरूसी (रूथेनी) का ग्रहण किया जाता है। महारूसी रूस की राष्ट्रभाषा है। इसका साहित्य 11वीं शती से ही मिलता है। किन्तु इसका विकास 18वीं शती से प्रारम्भ हुआ है। इसमें तुर्गनेव, टॉल्स्टॉय, मैक्सिम गोर्की जैसे प्रसिद्ध लेखकों की रचनाएँ निबद्ध हैं। यह एक प्रभावशाली भाषा है, जिसके प्रयोक्ताओं की संख्या 10 करोड़ से अधिक है।   श्वेतरूसी-रूस के पश्चिमी भाग में व्यवहृत अमहत्त्वपूर्ण भाषा है। लघुरूसी-यूक्रेन में बोली जाती है। इसका भी साहित्य नगण्य है।

(2) पश्चिमी स्लाविक

 इसमें ज़ेक (Czech), पोलिश और स्लोवाकी भाषाएँ प्रमुख हैं। जेक जेकोस्लाविया की भाषा है जिसमें अनेक बोलियाँ बोली जाती हैं। विगत शताब्दी से इसके साहित्य में विशेष प्रगति हुई है। पोलिश पोलैण्ड की भाषा है, जो अनेक आक्रमणों एवम् उन्मूलनों को झेलने के बाद भी जीवित है और आज विशेष प्रगतिशील है। स्लोवाकी वस्तुत: जेक की ही विभाषा है।

(3) दक्षिणी स्लाविक

     इसमें बुल्गारी, सर्वो-क्रोती तथा स्लोवेनी भाषाएँ आती हैं। बुल्गारी बुल्गारिया की भाषा है तथा स्लाविक शाखा की सबसे प्राचीन भाषा है। इसे 'चर्चस्लाविक' भी कहते हैं। यह संस्कृत और ग्रीक के अधिक निकट है, यद्यपि वर्तमान बुल्गारी वियोगात्मक हो गयी है। इसका प्राचीनतम साहित्यिक अवशेष 'बाइबिल' का एक अनुवाद है। आधुनिक बुल्गारी में ग्रीक, रूमानी, तुर्की, अल्बानी भाषाओं के शब्द बहुलता से दृष्टिगोचर होते हैं। सर्वोक्रोती यूगोस्लाविया की भाषाओं का एक समूह है। स्लाविक भाषाओं में इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। स्लोवेनी- आद्रियातिक सागर (Adriatic Sea) के दक्षिण तटवर्ती क्षेत्र में व्यवहृत अमहत्त्वपूर्ण भाषा है।

3. अल्वानी या इलीरी शाखा

  यह शाखा आद्रियातिक सागर के पूर्व स्थित पहाड़ी प्रदेश अल्बानिया में विस्तृत है। इसका प्राचीन रूप इलीरी है। लिखित रूप में आने के पहले इसमें ध्वनि एवं पद रचना की दृष्टि से व्यापक परिवर्तन हो गया। इस पर ग्रीक, तुर्की और स्लाविक भाषाओं का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। इसमें साहित्य का प्रायः अभाव है। 16 वीं शती का एक बाइबिल का अनुवाद मिलता है। 17 वीं शती से इसमें साहित्य का विकास मुख्यत: लोकगीतों के रूप में हुआ है।

 4. आर्मीनी शाखा

 यह शाखा आमनिया देश में विस्तृत है, जिसकी सीमा ईरान से मिलने के कारण इस पर ईरानी का गहरा प्रभाव पड़ा है। शिक्षा, कला, शासन आदि में अधिकांश फारसी शब्द ही व्यवहृत होते हैं, किन्तु यह श्लिष्ट योगात्मक भाषा है जिसकी ध्वनियाँ ईरानी से भिन्न हैं। इसे आर्य परिवार तथा बाल्टोस्लाविक परिवार के मध्य संयोजक माना जाता है। आधुनिक आर्मीनी के दो रूप प्राप्य हैं-

(क) स्तम्बूल- जो कुस्तुन्तुनिया और कृष्णसागर के किनारे पर बोली जाती है, तथा 

(ख) अरारट- जो एशियाई क्षेत्र में बोली जाती है।

5. ग्रीक या हेलेनिक शाखा

   यह शाखा-ग्रीस, इंजियन द्वीप समूह, दक्षिणी अल्वानिया तथा युगोस्लाविया, दक्षिण-पश्चिमी बुल्गारिया, तुर्की के कुछ भाग, साइप्रस तथा क्रीट द्वीप में विस्तृत है। यह प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण शाखा है। प्राचीन ग्रीक की अनेक बोलियाँ थी, जिसमें एट्टिक (Attic) और डोरिक (Doric) प्रमुख थीं। होमर के दो प्रसिद्ध महाकाव्यों-इलियड व ओडिसी की भाषा यही थी। ग्रीस में सामान्यतः प्रचलित जनभाषा 'कोइने' में इन दोनों का मिश्रण था।

ग्रीक भाषा वैदिक संस्कृत से पर्याप्त समानता रखती है, जैसे कि-

(क) दोनों में ही मूल भारोपीय ध्वनियाँ सुरक्षित हैं। ग्रीक में स्वर अधिक सुरक्षित हैं जबकि संस्कृत में व्यञ्जन 

(ख) दोनों में संगीतात्मकता है।

(ग) दोनों में अव्ययों का बाहुल्य है, यद्यपि अव्यय शब्द पृथक्-पृथक् हैं। 

(घ)   दोनों के क्रिया रूपों में भी समानता है। दोनों में परस्मैपद (Active voice) तथा आत्मनेपद (Passive voice) का व्यवहार होता है। संस्कृत में लकारों व क्रिया रूपों का आधिक्य है जबकि ग्रीक में भूतकालिक, 'तुम' अर्थ वाले प्रत्ययों, 'क्त्वा' अर्थ वाले प्रत्यय तथा कृदन्त रूपों की बहुलता है। 

(ङ) दोनों में समास की सुविधा है, किन्तु संस्कृत में समास की सम्भावना विश्व की किसी भी भाषा से अधिक है।

(च) दोनों में तीन लिङ्ग एवं तीन वचन हैं।

      ग्रीक भाषा यूरोपीय सभ्यता का प्रथम माध्यम एवं स्रोत है। दर्शन, साहित्य, विज्ञान सभी दृष्टियों से इसका महत्त्व अप्रतिम है। ग्रीक वर्णमाला से ही (जिसे ग्रीसवासियों ने फिनीशिया से लिया था) समस्त यूरोप की लिपियों का विकास हुआ है। एक विलक्षण बात यह है कि प्राचीन और आधुनिक ग्रीक में भेद अत्यल्प है।

6. केल्टिक शाखा

    प्राय: दो हजार वर्ष पूर्व (280 ई. पू. के लगभग) यह भाषा पश्चिमी यूरोप से एशिया माइनर (तुर्की) तक के विस्तृत भु-भाग में बोली जाती थी, किन्तु अब यह यूरोप के पश्चिमी भाग में ही सीमित है। फ्रांस का पश्चिमोत्तर भाग तथा ग्रेटब्रिटेन इसका प्रमुख क्षेत्र है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से ये भाषाएँ सर्वाधिक कठिन और अस्पष्ट हैं। इनकी वाक्य रचना भी अत्यन्त जटिल है। भारोपीय भाषा की 'प' ध्वनि केल्टिक की एक उपशाखा में 'प' ही रहती है, जबकि दूसरी में 'क' हो जाती है। इसी आधार पर इन्हें पवर्गीय तथा कवर्गीय में बाँटा गया है। पवर्गीय को' ब्रिटानिक' भी कहते हैं, जिसमें वेल्श, कॉनिश आदि भाषाएँ आती हैं। कवर्गीय को गेलिक कहते हैं तथा इसमें आइरिश, स्कॉचगेलिक मांक्स भाषाएँ आती हैं। केल्टिक तथा इटालिक भाषाओं में पर्याप्त साम्य है।

7. जर्मनिक या ट्यूटानिक शाखा

   यह भारोपीय परिवार की सर्वाधिक भू-भाग में बोली जाने वाली शाखा है। इसकी एक भाषा-अंग्रेजी विश्वभाषा है। क्षेत्रीय दृष्टि से इस शाखा का विभाजन इस प्रकार है-

(क) पूर्वीक्षेत्र

     इसकी प्रमुख भाषा गॉथी (Gothic) है, जो इस शाखा की प्राचीनतम भाषा है किन्तु अब मृतप्राय है। यह संयोगात्मक भाषा है जिसमें द्विवचन का प्रयोग होता है। इसके वाक्यविन्यास पर ग्रीक का प्रभाव है तथा यह संस्कृत से भी अधिक समता रखती है। 

(ख) उत्तरी क्षेत्र 

 इसमें आइसलैण्ड की भाषा-'आइसलैण्डिक', नार्वे की भाषा  'नार्वेजियन', डेनमार्क की भाषा 'डेनिश' तथा स्वीडन की 'स्वीडिश' प्रमुख है। 

(ग) पश्चिमी क्षेत्र

 इसमें इंग्लैण्ड की भाषा- 'अंग्रेजी', दक्षिणी जर्मनी की भाषा-'उच्च जर्मन', उत्तरी जर्मनी की भाषा- 'निम्न जर्मन', हालैण्ड की भाषा-'डच' तथा  बेल्जियम की भाषा 'फ्लेमिश' प्रमुख हैं।

    ये सभी भाषाएँ मूलतः संयोगात्मक थीं, किन्तु क्रमश: अयोगात्मक हो गईं। जर्मन भाषा बहुत दूर तक आज भी संयोगात्मक है। इनमें क्रियाएँ सबल और निर्बल दो भागों में विभक्त हैं। सबल क्रियाएँ वे हैं, जिनमें धातु के अन्तर्वर्ती स्वर में ही परिवर्तन करके भूतकाल बना लिया जाता है, जैसे- Come > Came, See > Saw आदि, जबकि निर्बल क्रियाएँ वे हैं, जिनमें प्रत्यय (ed) जोड़कर भूतकाल बनाया जाता है, जैसे- Love-Loved, Walk > Walked आदि। इन सभी भाषाओं में 'बल' का प्रयोग होता है, केवल स्वीडिश में अभी भी स्वर का प्रयोग अवशिष्ट है।

8. इटालिक शाखा

इस शाखा में मुख्यतः पाँच भाषाएँ आती हैं -

(1) इतालवी - जिसके अन्तर्गत इताली, सिसली व कोर्सिका गृहीत की जाती है।

(2) फ्रांसीसी

(3) पुर्तगाली

(4) स्पेनिश

(5) रूमानी


ये सभी भाषाएँ लैटिन से विकसित हुई है, जो मूलत: रोम और उसके निकटवर्ती क्षेत्र की भाषा थी तथा आज भी रोमन कैथॉलिक सम्प्रदाय की धार्मिक भाषा है। इस शाखा की भाषाओं में रचनात्मक की अपेक्षा ध्वन्यात्मक भेद अधिक है। इनमें भी फ्रांसीसी भाषा में ध्वन्यात्मक भेद सर्वाधिक है। इसमें लिखित और उच्चरित रूपों में बहुत अन्तर हो जाता है। अन्तिम व्यन्जन ध्वनियों का प्रायः उच्चारण नहीं होता है। 

    साहित्यिक दृष्टि से फ्रांसीसी तथा इतालवी बहुत समृद्ध व महत्त्वपूर्ण भाषाएँ हैं। 20 वीं शती के पूर्वार्द्ध तक फ्रांसीसी ही यूरोप की साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं कूटनीतिक भाषा रही। यह आज भी फ्रांस के अतिरिक्त जेनेवा, कनाडा आदि की जनभाषा है। स्पेनी तथा पुर्तगाली का भी साहित्य समृद्ध है। ये सभी भाषाएँ योगात्मकता से अयोगात्मकता की और विकसित हुई है। लैटिन और संस्कृत में अनेक समानताएँ थीं।

9. हित्ती शाखा

    सन् 1893 में एशिया माइनर के बोगाजकोई से प्राप्त कीलाक्षर अभिलेख के पश्चात् ही इस भाषा का अस्तित्व प्रमाणित हुआ। ये अभिलेख भारोपीय परिवार के प्राचीनतम अभिलेख हैं। भारोपीय का हिती से वही सम्बन्ध है, जो ग्रीक या संस्कृत का इटालिक से। यह माना जाता है कि हिनी और तोखारी हो सबसे पहले भारोपीय परिवार से अलग हुई। कुछ भाषाविज्ञानी हित्ती को भारोपीय परिवार की पुत्री नहीं अपितु बहन स्वीकार करते हैं तथा भारोपीय परिवार को भारत-हित्ती परिवार कहना अधिक युक्तियुक्त मानते हैं।

    हित्ती भाषा में केवल पुंल्लिङ्ग और नपुंसक लिंग मिलता है। स्त्रीलिङ्ग का इसमें अभाव है। यह विशेषता भारोपीय परिवार की किसी अन्य भाषा में अप्राप्य है। इसमें 6 कारक (अधिकरण का अभाव) हैं। इसमें दो ही काल हैं- भूत एवं वर्तमान। इसकी क्रियाओं में सरलता है। इसमें योगात्मकता के साथ-साथ अयोगात्मकता के लक्षण मिलते हैं।

10. तोखारी शाखा

20 वीं शती के प्रारम्भ में मध्य एशिया के तुर्फान प्रदेश में भारतीय लिपि में निबद्ध अनेक ग्रन्थों व पत्रों की प्राप्ति से यह शाखा अस्तित्व में आयी। इसके प्रयोक्ता 'तोखर' (महाभारत में वर्णित तुषारा:) लोग थे। जिनका राज्य मध्य एशिया में द्वितीय शताब्दी ई. पू. से सातवीं शताब्दी ई. तक (हूणों द्वारा विनष्ट किये जाने तक) था।

   इस भाषा में मूल भारोपीय स्वर सरल हो गये हैं। स्वर मात्राएँ उपेक्षित है तथा व्यञ्जनों की संख्या अत्यल्प है। स्पर्श व्यञ्जनों में से केवल तीन क, तू, प्ही अवशिष्ट हैं।कारक 9 हैं। जिनमें से कर्त्ता, कर्म और सम्बन्ध प्रधान हैं। द्विवचन प्रचलित है। सर्वनाम तथा संख्यावाचक शब्द भारोपीय ही हैं। सन्धि-नियम कुछ संस्कृत जैसे हैं तथा क्रियारूप अधिक जटिल है। इसमें शत् प्रत्ययान्त रूप भी मिलते हैं।

2. द्राविड़ परिवार

       इस परिवार की भाषाएँ भारत के अनेक भागों तथा बलूचिस्तान में फैली हुई हैं। तमिल (मद्रास), तेलुगु (आन्ध्रप्रदेश) कन्नड (कर्नाटक), मलयालम (केल) इस परिवार की विकसित भाषाएँ हैं। इनके अतिरिक्त गोंडी (मध्य भारत, बुन्देलखण्ड, उत्तर भारत के अनेक क्षेत्र), उराँव (बिहार, उड़ीसा एवं मध्य प्रदेश), बाहुई (बलूचिस्तान), तुलु, कोड्गु, टोडा, कोटा, माल्टो आदि इस परिवार की अन्य भाषाएँ हैं, जो अविकसित अवस्था में हैं।

इस परिवार को भाषाएँ अश्लिष्ट अन्तयोगात्मक हैं, जिनमें प्रकृति व प्रत्यय का भेद बिल्कुल स्पष्ट रहता है। इनमें मूर्धन्य ध्वनियों का बाहुल्य है तथा कुछ विद्वानों का अनुमान है कि संस्कृत में मूर्धन्य ध्वनियों का प्रवेश इन्हीं भाषाओं के सम्पर्क के कारण हुआ। इनमें यूराल-अल्ताई के समान समस्वरता पायी जाती है। इनमें अन्तिम व्यब्जन के बाद अतिलघु 'अ' जोड़ा जाता है। इनमें दो वचन तथा तीन लिङ्ग हैं। क्रिया में कृदन्त रूपों की अधिकता है तथा कर्मवाच्य का अभाव है।

3. बुरुशस्की परिवार

      यह भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में बोली जाती है। इसका क्षेत्र तुर्की, तिब्बत और भारत-ईरानी परिवार की भाषाओं से घिरा है। कुछ विद्वान् इसे द्राविड़ या मुण्डा परिवार से सम्बद्ध करने का प्रयास करते हैं। यह किसी समय में भारत का महत्त्वपूर्ण भाषा परिवार था, जो आज महत्त्वहीन हो गया है। यह सर्वनाम प्रधान भाषा है, जिसमें सम्मानित पुरुष-स्त्री और समकक्ष व्यक्तियों के लिए पृथक्-पृथक् सम्बोधन हैं।

4. यूराल-अल्ताई परिवार

      विस्तार की दृष्टि से भारोपीय परिवार के बाद यह सर्वाधिक बड़ा परिवार है जिसका क्षेत्र उत्तरी महासागर से लेकर दक्षिण में भूमध्य सागर, पश्चिम में अटलांटिक महासागर से लेकर पूर्व में ओखोस्टक सागर तक विस्तृत है। इसके दो उपवर्ग हैं।

(क) यूराल वर्ग

      जिसमें फिनो उग्री (फिनलैण्ड, नार्वे, हंगरी में) व समोयद(साइबेरिया) भाषाएँ आती हैं।

(ख) अल्ताई वर्ग

   जिसमें तुर्की, मंगोली एवं मंचुई (मंचूरिया में) भाषाएँ आती हैं। -फिनी को सुओमी भी कहते हैं, जो फिनलैण्ड से लेकर उत्तरी रूस में श्वेतसागर तक बोली जाती है। यह उच्चकोटि की साहित्यिक भाषा है जिसमें 'कलेवल' नामक प्रसिद्ध महाकाव्य निबद्ध है। उग्री हंगरी की भाषा है जिसकी 'मग्यार शाखा' में अच्छा साहित्य है।

       ये भाषाएँ अश्लिष्ट योगात्मक है। समस्वरता इनकी प्रमुख विशेषता है। शब्दों के बाद सम्बन्ध वाचक सर्वनाम-प्रत्यय के रूप में जोड़े जाते हैं।

5. कॉकेशी परिवार

      कृष्णसागर एवं कैस्पियन सागर के मध्यवर्ती काकेशस पर्वत का समीपस्थ भूभाग इस का विस्तार क्षेत्र है। इसकी दो उपशाखाएँ हैं

(1) उत्तरी

 जिसमें कबर्डिन, सर्कासियन, चेचेनिश, लेगियन आदि भाषाएँ आती है। 

(2) दक्षिणी

 जिसमें जार्जियन, मिग्रेलियन, लासिश, स्वानियन आदि आती है। 

       इस परिवार की अनेक भाषाओं का सम्यक् अध्ययन नहीं हो पाया है। ये भाषाएँ अश्लिष्ट योगात्मक है, यद्यपि इनमें कभी-कभी प्रश्लिष्टता के भी लक्षण मिलते हैं। क्रियारूपों में अनेकबार धातु का निर्धारण भी कठिन हो जाता है। शब्द-निष्पत्ति के लिए उपसर्ग और प्रत्यय दोनों का योग किया जाता है। उत्तरी शाखा की भाषाओं में व्यञ्जनों की बहुलता है। पद-रचना अत्यन्त जटिल है।

6. चीनी परिवार

   चीन, बर्मा, स्याम और तिब्बत में इस परिवार की भाषाओं का विस्तार है। इसकी प्रमुख भाषाएँ चीनी, थाई (स्यामी), बर्मी (ब्रह्मी), तिब्बती तथा अनामी (कंबोडिया) में हैं। इस परिवार को एकाक्षर परिवार भी कहते हैं क्योंकि इस परिवार की भाषाओं के शब्द एकाक्षर तथा अपरिवर्तनीय होते हैं, अर्थात् इनमें उपसर्ग, प्रत्यय, विभक्ति आदि जैसा कोई तत्त्व नहीं होता। एक ही शब्द स्थानभेद से संज्ञा, विशेषण, क्रिया- कुछ भी हो सकता है। अर्थ भेद के लिए इनमें स्वर और तान का प्रयोग किया जाता है। इसमें व्याकरण का अभाव है। अर्थ की स्पष्टता के लिए कभी-कभी दो शब्दों को जोड़ दिया जाता है। 

7. जापानी- कोरियाई परिवार

      यह जापान और कोरिया में विस्तृत है तथा जापानी व कोरियाई इसकी दो प्रमुख भाषाएँ हैं। जापानी भाषा साहित्य तथा अभिव्यक्ति की दृष्टि से संसार की सर्वोच्च भाषाओं में से एक है। ये भाषाएँ अश्लिष्ट योगात्मक हैं। इनमें ध्वनि समूह सरल हैं तथा संयुक्त व्यञ्जनों का प्रयोग बहुत कम होता है। शब्द के सभी अक्षरों पर समान बल दिया जाता है। लिङ्ग, वचन एवं पुरुष की धारणा अस्पष्ट है। कारक-सम्बन्धों का बोध परसर्ग के द्वारा कराया जाता है। पदक्रम पर्याप्त नियमित है।

8. अत्युत्तरी परिवार

      यह साइबेरिया के उत्तर-पूर्वी प्रदेश में बोली जाने वाली भाषाओं का परिवार है, जिसकी प्रमुख भाषाएँ युकगिर, कमचटका, चुकची, ऐनू आदि हैं। इन भाषाओं में सम्बन्ध सूचक कारक चिह्न अन्त में जुड़ते हैं। इनमें काल का निर्धारण सहायक क्रियाओं से होता है। वस्तुत: इस परिवार का विधिवत् अध्ययन अभी अपेक्षित है।

9. बास्क परिवार

       इसका क्षेत्र फ्रांस और स्पेन की सीमा पर पेरिनीज पर्वत के पश्चिमी भाग में है। इसमें आठ बोलियाँ हैं। यह अश्लिष्ट अन्तयोगात्मक भाषा है, किन्तु क्रियारूपों में प्रश्लिष्टता दृष्टिगोचर होती है। क्रियारूपों में जटिलता है जबकि वाक्य विन्यास सरल है। पद रचना में प्रत्ययों की प्रधानता है। इसका शब्दभाण्डार सीमित है, जिसमें अमूर्त विचारों के बोधक शब्द बिल्कुल नहीं हैं। बास्क उन भाषाओं में है, जिसका वर्गीकरण नहीं हो पाया है।

10. सामी-हामी परिवार

इसका विस्तार एशिया और अफ्रीका दोनों महादेशों में है। सामी का क्षेत्र एशिया में अरब, ईराक, फिलिस्तीन तथा अफ्रीका में सीरिया, मिस्र, इथियोपिया, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया व मोरक्को तक विस्तृत है, जबकि हामी का विस्तार अफ्रीका में लीबिया, सोमालीलैण्ड (सोमालिया) व इथियोपिया में है। सामी परिवार की मुख्य भाषा अरबी है। प्राचीन मिश्री ने सामी व हामी के बीच पुल का काम किया है।

   सामी व हामी दोनों ही श्लिष्टयोगात्मक व अन्तर्मुखी भाषाएँ हैं। सामी की पाँच शाखाओं- अक्कदी, कनानी, अरमी, अरबी और इथियोपियाई में अन्तिम दो ही जीवित हैं। हामी के अन्तर्गत प्राचीन मिस्री व बर्बर भाषाएँ आती हैं।

11. सूडानी परिवार

      अफ्रीका महाद्वीप में भूमध्यरेखा के उत्तर में पश्चिम से पूर्व तक इस परिवार का विस्तार है। इसके उत्तर में हामी परिवार है जबकि दक्षिण में बन्तू परिवार है। इस परिवार में चार सौ से अधिक भाषाएँ हैं। जिनमें वुले, मनफू, कनूरी, नीलोटिक, बन्तूइड, हौसा आदि प्रमुख हैं। ये मुख्यतः अयोगात्मक भाषाएँ , जिनमें धातुएँ एकाक्षर हैं तथा विभक्तियों का सर्वथा अभाव है। अर्थ स्पष्ट करने के लिए शब्दयुग्म बनाये जाते हैं तथा अर्थभेद के लिए सुर व तान का उपयोग होता है। इसमें उपसर्ग और निपात नहीं हैं, अतः वाक्यरचना बहुत सीधी तथा सरल होती है। इस परिवार की भाषाओं में एक विशेष प्रकार के शब्द होते हैं, जिन्हें ध्वनिचित्र, शब्दचित्र, ध्वन्यात्मक वर्णनात्मक क्रियाविशेषण कहते हैं।

12. बन्तू परिवार

    यह दक्षिणी अफ्रीका के अधिकांश भाग एवं जंजीबार द्वीप में विस्तृत है। स्वाहिली, जुलू, काफ़िर, रुआन्दा, उम्बुन्दु, हेरेरो, कांगो आदि इसकी प्रमुख भाषाएँ हैं। ये भाषाएँ अश्लिष्ट पूर्वयोगात्मक हैं। इनमें उपसर्ग जोड़कर पद बनते हैं। इनकी प्रमुख विशेषता ध्वनि- अनुरूपता है। स्वरभेद से अर्थभेद हो जाता है। इनके शब्द स्वरान्त होते हैं तथा संयुक्त व्यञ्जनों का प्रायः अभाव है। इस परिवार में लगभग डेढ़ सौ भाषाएँ हैं, जिनमें जंजीबार की स्वाहिली सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व व्यापक है।

13. होतेन्तोत-बुशमैनी परिवार

    इसका विस्तार दक्षिण पश्चिमी अफ्रीका में ऑरेंज नदी से नगामी झील तक है। होतेन्तोत, बुशमैनी, दमारा, सन्दवे, ऐकवे आदि इसकी प्रमुख भाषाएँ हैं। इस परिवार की भाषाओं में 'क्लिक' या अन्तः स्फोटात्मक ध्वनियाँ इन्हें विलक्षण बनाती हैं। इनमें लिङ्गविचार पुरुषत्व व स्त्रीत्व पर निर्भर न होकर प्राणित्व व अप्राणित्व पर आश्रित हैं। इनमें बहुवचन बनाने के प्रकार बहुविध और अनियमित हैं।

14. मलय बहुद्वीपीय परिवार

     यह पश्चिम में अफ्रीका के मेडागास्कर द्वीप से लेकर पूर्व में ईस्टर द्वीप तक तथा उत्तर में फारमोसा से लेकर दक्षिण में न्यूजीलैण्ड तक विस्तृत है । इसमें मलय प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, बाली, सिलिविज्, फिलीपीन, हवाई, समोआ, न्यूजीलैण्ड आदि असंख्य द्वीप हैं। इसकी चार प्रमुख शाखाएँ हैं-

(क) इण्डोनेशियाई शाखा -जिसमें मलाया, जावी, सुन्दियन, फारमोसी, मलागासी, तगल आदि भाषाएँ आती हैं।

(ख) मेलानेशियाई शाखा -जिसमें फिजियत भाषाएँ हैं। 

(ग) माइक्रोनेशियाई शाखा- जिसमें माइक्रोनेशियन भाषाएँ हैं।

(घ) पोलीनेशियाई शाखा - जिसमें मओरी (न्यूजीलैण्ड), हवाइयन, समोअन आदि भाषाएँ हैं।

   सभी भाषाएँ प्राय: अश्लिष्ट योगात्मक जिनमें प्राय: दो अक्षर वाली है। स्वर बलाघात युक्त संज्ञाओं लिङ्ग, वचन, विभक्ति है। बहुवचन काम द्विरुक्ति लिया जाता क्रियारूप के मध्य में प्रत्यय जोड़कर जाते हैं।

15. पापुई परिवार

    इसका क्षेत्र मलाया पॉलीनेशिया मध्य न्यूगिनी, सोलोमन आदि द्वीप समूह है। इस  परिवार भाषाएँ भी प्राय: अश्लिष्टयोगात्मक जिनमें उपसर्ग और प्रत्यय के योग से शब्द हैं। न्यूगिनी की प्रसिद्ध भाषा 'मफोर' है ।

16. आस्ट्रेलियाई परिवार

     इसका सम्पूर्ण आस्ट्रेलिया महाद्वीप कामिलरोई प्रमुख भाषाएँ ये भी अश्लिष्टयोगात्मक भाषाएँ जिनमें प्रत्यय अन्त में रोड़े जाते हैं। इनमें क्रियारूपों पर्याप्त जटिलता तथा वर्तमान, व भविष्य के अनेक भेद है।

17. दक्षिण-पूर्व एशियाई परिवार

    विस्तार क्षेत्र भारत को अनेक प्रदेशों से लेकर स्था, एवं कम्बोडिया पश्चिम 'मुण्डा' 'मोन-खमेर में ''आतथा दक्षिण में 'निकोबार' परिवार मुभाष दृष्टि से समृद्ध है। इस का प्रभाव हिन्दी को भोजपुरी, मैथिली आदि कोलियों पर पड़ा है। बलाघात है।

18. अमेरिकी परिवार

   सम्पूर्ण उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका में इस परिवार का विस्तार है। इस परिवार में लगभग एक हजार भाषाएँ मानी जाती है, प्रमुख भाषाएँ इस प्रकार वर्गीकृत की जा सकती हैं-

(क) उत्तरी अमेरिका 

 इसमें अथपस्कन तथा अल्गोनकिन भाषाएँ प्रमुख हैं।

(ख)मध्य अमेरिका

इसमें अजतेक व मय भाषाएँ महत्त्वपूर्ण हैं ।

(ग) दक्षिण अमेरिका

 इसमें अरबक, करीब, तुपी गुअर्नी, कुईचुआ आदि उल्लेखनीय हैं।

     दक्षिण अमेरिका की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यहाँ पुरुष करीब भाषा बोलते हैं और स्त्रियाँ अरबक

ये भाषाएँ प्रश्लिष्टयोगात्मक हैं, जिनमें पूरे वाक्य के लिए एक शब्द होता है। इनमें स्वतन्त्र शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं होता है।

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भागवत दर्शन: भाषा का पारिवारिक वर्गीकरण
भाषा का पारिवारिक वर्गीकरण
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