ध्वनि परिवर्तन के कारण एवं दिशाएँ

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 >>>ध्वनि परिवर्तन के कारण एवं दिशाएँ<<<

दोस्तों ! भाषा विज्ञान में हम सबने---स्वर तथा व्यञ्जन ; अर्थ, एवं वर्गीकरण,  भाषाशास्त्रियों के महाभाष्य सम्बन्धी मत का खण्डन नामक विषय पर अध्ययन किया । अब हम सब >>>ध्वनि परिवर्तन के कारण<<< विषय पर चर्चा करेंगे ।

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dhwani pariwartan

ध्वनि-परिवर्तन (Phonetic Change)

   परिवर्तन सृष्टि का नियम है। 'यत् किञ्चिज्जगत्यां जगत्' (यजुर्वेद 40/1) वैदिक ऋषि की यह घोषणा जगत्, पृथिवी या भूगोल- खगोल सबको निरन्तर गतिशील तथा परिवर्तनशील मानती है। सृष्टि के नैसर्गिक नियम के अनुकूल ही ध्वनि भी स्थिर या अपरिवर्तनीय तत्त्व न होकर सतत परिवर्तनशील है। प्रत्येक भाषा की ध्वनियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। इसी परिवर्तन के परिणामस्वरूप एक-एक शब्द के अनेक अपभ्रंश हो जाते हैं, जिनके प्रति महाभाष्यकार पतञ्जलि ने भी ध्यान आकृष्ट किया है ।

'एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽपभ्रंशाः '। (महाभाष्य, पस्पशाह्निक)

 ध्वनि भाषा का प्रमुख तत्त्व है तथा इसमें होने वाला परिवर्तन भाषा के विकास को सुनिश्चित करता है।

ध्वनि परिवर्तन के कारण

  ध्वनि वक्ता द्वारा उच्चरित होने पर श्रोता द्वारा सुनी जाती है। वक्ता एवं श्रोता के व्यक्तिगत कारणों से भी ध्वनि का परिवर्तन होने लगता है, जिसमें पारिस्थितिक कारणों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। वक्ता एवं श्रोता से सम्बद्ध कारण आभ्यन्तर कारण कहे जाते हैं, जबकि पारिस्थितिककारण तथा अन्य कारण बाह्य कारण कहलाते हैं। इनका पृथक्-पृथक् विवेचन अधोलिखित है-

(क) आभ्यन्तर कारण

ध्वनिपरिवर्तन के आभ्यन्तर कारणों का निरूपण निम्नलिखित शीर्षकों में किया जा सकता है-

 (1) प्रयत्नलाघव (Economy of Effort)

    इसे ही मुखसुख अथवा उच्चारण सौकर्य भी कहते हैं। यह ध्वनि परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण है। इसका सीधा तात्पर्य है ‘श्रम को अल्पता’। अल्प श्रम से अधिक लाभ उठाना मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। इसी प्रवृत्ति के चलते मनुष्य टेलीफोन को' फोन', रेलवे ट्रेन को 'रेल', एयरोप्लेन को 'प्लेन', न्यूजपेपर को 'पेपर' आदि सम्बोधित करता है। भाषा की इस प्रवृति को संस्कृत के वैयाकरणों ने सर्वप्रथम लक्षित किया था। 'प्रत्याहार' इसी प्रवृत्ति के परिचायक हैं। तभी तो ' अच्' कहने से सम्पूर्ण स्वरों का 'हल्' कहने से सभी व्यज्जनों का बोध होता है। शिलालेखों में भी प्राप्त शुदि> सुदी (शुक्लपक्ष दिवस), बदि>बदी (बहुलपक्ष दिवस) आदि पद इसी प्रवृत्ति के पोषक है। सामान्यतः प्रयत्नलाघव द्वारा क्लिष्ट शब्दों को सरल बनाया जाता है, जैसे सत्य>सच, कर्म>काम, चक्र>चक्कर, ब्राह्मण>बाम्हन आदि।  वस्तुतः प्रयत्नलाघव आलस्य की सम्मानित संज्ञा है, किन्तु इससे श्रम के साथ-साथ समय की बचत भी होती है। प्रयत्नलाघव के अन्तर्गत ध्वनिपरिवर्तन की अनेक प्रक्रियाएँ आती हैं। तद्यथा- आगम, लोप, विकार, विपर्यय, समीकरण, विषमीकरण आदि। इनका स्वतन्त्र विवेचन ध्वनिपरिवर्तन की दिशाएँ शीर्षक में आगे किया जाएगा।

(2) लघुकरण की प्रवृत्ति

   इस प्रवृत्ति के अन्तर्गत दीर्घं एवं क्लिष्ट शब्दों को शीघ्र उच्चारण के निमित्त संक्षिप्त कर दिया जाता है। मूलत: यह प्रयत्नलाघव की प्रवृत्ति ही है, किन्तु दोनों में भेद यह है कि जहाँ प्रयत्नलाघव स्वतः स्फूर्त होता है, वहीं लघुकरण सप्रयोजन किया जाता है। किन्तु दोनों ही अल्पश्रम द्वारा अधिक परिणाम के लिए प्रवृत्त होते हैं। लघुकरण की प्रवृत्ति के ही परिणामस्वरूप हाईस्कूल को H. S., भारतीय जनता पार्टी को भा.ज. पा., मास्टर ऑफ आर्ट्स को M. A., भारत यूरोपीय को भारोपीय आदि शब्दों का व्यवहार होता है। 'लघुकरण' की इस प्रवृत्ति के कारण ही वार्तिककार कात्यायन का निर्देश है कि नामों आदि में एक अंश के उच्चारण से भी काम चलाया जा सकता है, तद्यथा 'देवदत्त:' को देव: या दत्तः, सत्यभामा को सत्या या भामा भी सम्बोधित किया जा सकता है। 

विनापि प्रत्ययं पूर्वोत्तरपदयोर्वा लोपो वाच्यः (शब्दानुशासन सूत्र- 5/3/83 पर वार्तिक) 

 इसी प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप संस्कृत का बलीवर्द (बैल), हिन्दी में बली > बैल तथा वर्द > बर्धा बरधा > बधा दोनों ही सम्बोधन पा गया। अन्य महत्त्वपूर्ण उदाहरण है- उपाध्याय ओझा > झा। इसी प्रकार अंग्रेजी भाषा में North, East, West, South से News (समाचार) शब्द बना है।

(3) अपूर्ण अनुकरण

  भाषा अनुकरण के द्वारा ही सीखी जाती है। कभी-कभी अज्ञानतावश अथवा वाग्यन्त्रों में दोषवश अनुकरण नहीं हो पाता है तथा ध्वनि में परिवर्तन हो जाता है। इसी के परिणामस्वरूप बच्चे 'राम' को 'लाम' कहते हैं। इसी प्रकार दन्तहीन वृद्ध के लिए दन्त्य ध्वनियों का उच्चारण कठिन है। अपूर्ण अनुकरण अनपढ़ व्यक्तियों में विशेष रोचक होता है। अनपढ़ व्यक्ति कोर्ट को 'कोट', लार्ड को 'लाट', जीरॉक्स को 'झेरुक्स', हू कम्स देयर (Who comes their) को 'हुकुमसदर,' ओं नमः सिद्धम् को 'ओनामासीधम' आदि कहते हुए प्राय: प्रबुद्धों का मनोरञ्जन करता है। इस प्रकार आङ्गिक एवं मानसिक संघटन द्वारा अनुकरण की अपूर्णता से भी ध्वनियों का सम्यक् अनुकरण नहीं हो पाता जिसके चलते ध्वनियों में परिवर्तन हुआ करता है। इस अपूर्ण अनुकरण के लिए वक्ता एवं श्रोता दोनों उत्तरदायी होते हैं। यह अपूर्णता पीढ़ी-दर-पीढ़ी फैलता हुआ भाषा में अपना प्रभाव छोड़ता है तथा कई पीढ़ियों के बाद यह भाषा में स्वीकार्य होने लगता है।

(4) अशिक्षा तथा अज्ञता

   शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य भाषा के शुद्धरूप का ज्ञान कराना है, अत: स्वाभाविक ही है कि अशिक्षा तथा अज्ञान से भाषा की ध्वनियों के व्याकरण सम्मत रूप में परिवर्तन होने लगता है। अशिक्षित तथा अज्ञानी व्यक्ति के उच्चारण में त्रुटियाँ देखी जाती हैं। तद्यथा- गार्ड को गाड, लाइन को लैन, गोस्वामी को गोसाईं, रिपोर्ट को रपट आदि कहा जाना। ये ध्वनियों के परिवर्तन भावाभिव्यक्ति में समर्थ होने के कारण धीरे-धीरे भाषा में मान्य होने लगते हैं।

(5) भावातिरेक

   प्रेम, क्रोध, शोक आदि भावों के अतिरेक से भी शब्दों में ध्वनि परिवर्तन हो जाने से शब्दों का रूप बदल जाता है। इस असामान्य उच्चारण दशा के कारण ध्वनिपरिवर्तन प्रेरित होता है तथा इसी के परिणामस्वरूप बेटी>बिटिया, बेटा>बिटुवा, बहू > बहुरिया, लालचन्द्र > लाले या लल्लू, पुरुषोत्तम>परसू हो जाते हैं। राम > रामू > रमुवा, बच्चा > बाचा > बचवा, लालू>ललुआ, मेधा > मिधिया नाम के सम्बोधन रूप में प्रेम के कारण उच्चरित होने लगते हैं ।

(6) भाषण शीघ्रता

   शीघ्रता से बोलने के प्रयास में भी प्राय: ध्वनियों में परिवर्तन देखा जाता है। ऐसी दशा में मध्यवर्ती ध्वनियों का प्राय: लोप हो जाता है। इसके साथ-ही-साथ प्रायः लघुकरण की प्रवृत्ति भी देखी जाती है। इसी के फलस्वरूप मास्टर साहब> मास्साहब, बाबूजी> बाऊजी, डॉक्टर साहब> डॉट्साहब>डागडर बाबू, Do not Don't भ्रातृजाया> भौजाई, उन्होंने > उन्ने, सदृश प्रयोग परिलक्षित होते हैं।

(7) कृत्रिमता

 आत्मप्रदर्शन तथा आत्मविशिष्टता प्रदर्शित करने के प्रयास में व्यक्तियों द्वारा प्रायः ध्वनियों में अनेक परिवर्तन हो जाते हैं। इस बनावटीपन के चक्कर में इच्छ> इक्षा, शाप > श्राप जैसे प्रयोग अज्ञानता में कर दिये जाते हैं और ऐसे प्रयोक्ता प्रायः सुविज्ञों के मनोरञ्जन के पात्र बनते हैं। भ्राता > प्रा, स्नुषा > नू (बहू) (पंजाबी) ये दोनों "लघुकरण की प्रवृत्ति' के उदाहरण भी है।)

(8) मात्रा एवं सुर

   ये भी ध्वनिपरिवर्तन के महत्त्वपूर्ण कारण है। प्राय: देखा जाता है कि जब दो दीर्घमात्राएँ साथ-साथ आ जाती हैं, तो उच्चारण में क्लिष्टता आ जाती है और तब उनमें से पहले वाली मात्रा ह्रस्व हो जाती है। तद्यथा- बाजार>बजार,आकाश-अकास, दीवार > दिवार या दिवाल इत्यादि। इसी प्रकार सुर के कारण भी ध्वनि आदि में परिवर्तन प्रकट होता है, जैसे- पुष्ट>पोढ़, कुष्ठ>कोढ़, बिल्व>बेल, मुष्टि > मुट्ठी आदि ।  

 (9)बलाघात -

(10) काव्यात्मकता

 काव्यसंसार का स्रष्टा कवि होता है और वह अपने काव्य विषय में पर्याप्त स्वच्छन्द होता है। काव्य में छन्द के अनुरोध पर प्राय: ह्रस्व को दीर्घ, दीर्घ को ह्रस्व तथा वर्णागम किये जाते रहते हैं। कहा भी गया है-

  'अपि माषं मषं कुर्यात् छन्दोभङ्गं न कारयेत्'  

  अर्थात् चाहे माष (उड़द) को मष करना पड़े, किन्तु छन्दभङ्ग नहीं करना चाहिए। इसका उदाहरण हिन्दी के कवियों में बहुलता से पाया जाता है। वीर > वीरा, कबीर > कबिरा, नदी > नदिया जैसे प्रयोग कवियों द्वारा इतनी बहुलता के साथ किये गये कि कालान्तर में ये परिवर्तित ध्वनियों के साथ भी भाषा में स्वीकार कर लिये गये।

(11) सादृश्य

 इसे मिथ्या सादृश्य भी कहते हैं। किसी प्रयोग को देखकर उसके मूल में गये बिना उसी के आधार पर दूसरा प्रयोग कर बैठना सादृश्य है। कुछ लोग स्रष्टा > सृष्टा जैसे शब्द गढ़ लेते हैं, जो सृष्टि के सादृश्य पर किया गया है। जबकि उन्हें नहीं मालूम कि सृष्टि और स्रष्टा में दो भिन्न-भिन्न प्रत्यय लगे हैं। इसी प्रकार 'अभि' उपसर्ग से अपरिचित लोग अभिज्ञ के 'अ' को असुर के 'अ' के समान निषेधार्थक मानकर जानकार के अर्थ में 'भिज्ञ' एवं मूर्ख के अर्थ में अभिज्ञ' प्रयोग कर बैठते हैं। संस्कृत में द्वादश के सादृश्य पर ही एकदश का एकादश हो जाना महत्त्वपूर्ण है। इसी प्रकार दण्डिन् से तृतीया विभक्ति एकवचन में दण्डिना तो युक्तियुक्त है किन्तु अग्नि से अग्लिना, वारि से वारिणा, शुचि से शुचिना वस्तुत: सादृश्य के कारण ही है।  इसी प्रकार अंग्रेजी में shall, 1 will में 'L' रहने से should एवं would में 'L' का रहना तो समाधेय है, किन्तु can में 'L' न रहते हुए भी Could में 'L' का आना सादृश्य के आधार पर ही व्याख्येय है। इस प्रकार सादृश्य भी ध्वनियों के परिवर्तन में पर्याप्त भूमिका निभाता है।

(12) भ्रामक व्युत्पत्ति

 कभी-कभी दूसरी भाषा के शब्दों को अपनी भाषा के अनुरूप बना लिया जाता है, तथा उसे व्याख्यायित करने के लिए भ्रामक व्युत्पत्तियों का भी अवलम्बन किया जाता है, जिससे ध्वनियों में परिवर्तन हो जाता है। मैक्समूलर > मोक्षमूलर, औरंगजेब> अवरङ्गजीव, इन्तिकाल'> अन्तकाल, प्रोग्राम पुरोगम, गो डाउन > गोदाम, एकेडमी अकादमी जैसे प्रयोग इसके प्रचलित उदाहरण हैं।

(ख) बाह्य कारण

बाह्यकारणों से भी ध्वनियों में परिवर्तन होता है। ये बाह्यकारण निम्नलिखित हैं 

(1) भौगोलिक प्रभाव 

    भौगोलिक कारक मनुष्य के वाग्यन्त्रों को प्रभावित करते हैं जिससे ध्वनियों का उच्चारण प्रभावित होता है और उनमें परिवर्तन हो जाता है। शीतप्रधान देशों की ध्वनियाँ संवृत की और और ग्रीष्म प्रधान देशों की ध्वनियाँ विवृति की ओर अग्रसर रहती हैं। फारसी भाषा में 'स' ध्वनि का उच्चारण 'ह' किया जाता है। इसी से सिन्धु > हिन्दु, |

(2) सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियाँ

    सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों की उन्नत एवं अवनत दशाओं में ध्वनिपरिवर्तन हो जाता है। उन्नति की अवस्था में भाषा के शुद्धरूप को प्रोत्साहन मिलता है, जैसे- गुप्तकाल में संस्कृत को प्रोत्साहन मिला। जबकि अवनतिकाल में भाषा के अपभ्रंश रूपों को प्रधानता मिलती हैं, जैसे राजपूतकाल में | प्राकृत तथा अपभ्रंश को बढ़ावा मिला। सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितिवश परिवर्तित कुछ शब्दों के उदाहरण हैं- यजमान > जजमान, पण्डित > पंडा, Orderly (आर्डर्ली) > अर्दली, वाराणसी> बनारस, बुद्ध>बुद्धू, लुंचित (केश) > लुच्चा, (दिगम्बर) नग्न > नंगा > नंगई (और 'नागा' भी) चर्मकार > चमार (शब्दार्थ को छोड़कर हिकारत की दृष्टि निन्दित अर्थ में प्रयुक्त) ।

(3) लिपि की अपूर्णता

 प्रत्येक भाषा की अपनी पृथक् ध्वनियाँ होती हैं। किसी भाषा में अन्य भाषाओं की ध्वनियों को पूरी तरह प्रकट नहीं किया जा सकता है। फलतः प्रत्येक भाषा की लिपि में दूसरी भाषाओं की लिपियों द्वारा अभिव्यक्त उन अन्यान्य ध्वनियों को प्रकट नहीं किया जा सकता। इसीलिए हिन्दी के 'राम' अंग्रेजी में 'रामा' (Rama) तथा बंगला का ' कोलकाता' अंग्रेजी में Calcutta तथा हिन्दी में कलकत्ता हो गया है। हिन्दी का स्टेशन गुरुमुखी में सटेशन हो जाता है तथा हिन्दी का प्रकाश फारसी में परकाश हो जाता है। उर्दू के प्रभाव के कारण आर्यसमाज>आर्यासमाज, प्रचार> परचार, इन्द्रजित्इ>न्दरजीत, सुरेन्द्र>सुरेन्दर या सुरिन्दर आदि। इसी प्रकार देवनागरी में टंकण की सुविधा के अनुरूप  समस्त अनुनासिक वर्णों के लिए (ं) अनुस्वार ही प्रचलित हो गया है।

(5) अन्य भाषाओं का प्रभाव

 अन्य भाषाओं के प्रभाव के कारण भी ध्वनियों में परिवर्तन देखा जाता है। फारसी एवं अरबी के प्रभाव के कारण ही हिन्दी में भी क़, ग़, ज़ ध्वनियों का प्रचलन हुआ है। विद्वानों की ऐसी धारणा है कि भारोपीय भाषाओं में टवर्गीय ध्वनियाँ नहीं थीं। इनका प्रचलन द्रविड़ परिवार की भाषाओं के सम्पर्क से ही संस्कृत आदि में हुआ। जैसे प्रकृत > प्रकट, संकृत>संकट, विकृत>विकट । इस प्रकार ध्वनियों में परिवर्तन के ये ही प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण कारण है।

ध्वनि परिवर्तन की दिशाएँ

    ध्वनि परिवर्तन मुख्यतः प्रयत्नलाघव के परिणामस्वरूप विभिन्न दिशाओं में होता है। प्राचीन भारतीय भाषाशास्त्रियों ने भी इस विषय पर विधिवत् विचार किया है। षड् वेदानों में से अन्यतम निरूक्त का तो विषय ही यही है, जैसा कि काशिकाकार वामन जयादित्य ने उधृत किया है

वर्णागमो वर्णविपर्ययश्च द्वौ चापरौ वर्णविकारनाशौ।

                                       धातोस्तदर्थातिशयेन योगस्तदुच्यते पञ्चविधं निरुक्तम् ।।  काशिका -6/3/109

  महाभाष्यकार पतञ्जलि ने भी वर्णव्यत्यय, वर्णनाश, वर्णोपजन एवं वर्णविकार इन चार ध्वनिपरिवर्तनों का सोदाहरण विवेचन किया है।

'वर्णव्यत्ययापायोपजनविकारेषु अर्थदर्शनात्' ।- महाभाष्य, नवाह्निक

संक्षेप में ध्वानपरिवर्तन की दिशाएँ निम्नलिखित हैं-

 1. आगम

 जब उच्चारण की सुविधा के लिए शब्दों में कोई ध्वनि जोड़ दी जाती है, तो उसे आगम कहते हैं। यह अतिरिक्त ध्वनि प्रायः स्वर होती है। आगम के स्थान की दृष्टि से इसके तीन रूप होते हैं।

(क) आदि स्वरागम

    इसे प्रागुपजन (Prothesis) भी कहते हैं। प्रायः संयुक्त व्यञ्जनों से आरम्भ होने वाले शब्दों के पूर्व किसी स्वर का आगम हो जाता है। इसे ही आदि स्वरागम कहते हैं। उदाहरणार्थ- संस्कृत शब्द 'स्त्री' का प्राकृत में 'इत्थी' हो जाता। इसी प्रकार स्तुति शब्द के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी 'अस्तुति' का प्रयोग किया है।

(ख) मध्य स्वरागम

 इसे स्वरभक्ति (Anaptyxis) भी कहते हैं।

(ग) अन्त्य स्वरागम

  जब उच्चारण की सुविधा के लिए अन्त में कोई स्वर जोड़ दिया जाता है, तब उसे अन्त्य स्वरागम कहते हैं, जैसे- महत्>महन्त, हनुमत्>हनुमन्त, ज्वलत् > ज्वलन्त आदि।

2. लोप

 जब दो संयुक्त ध्वनियों के उच्चारण में कठिनाई होने लगती है, तो उच्चारण की सुविधा को दृष्टि से कुछ ध्वनियाँ गायब हो जाती हैं, इसे ही लोप कहते हैं। यह लोप तीन प्रकार का होता है।

 (क) स्वर लोप

    कभी-कभी उच्चारण की सुविधा के लिए स्वर का लोप हा जाता है, जैसे अभ्यन्तर>भीतर, अगर >गर आदि।

(ख) व्यञ्जन लोप

     प्राय: संयुक्त व्यञ्जनों में से एक का सुविधा हेतु लोप हो जाता है, तद्यथा- ज्येष्ठ>जेठ, स्थाली >थाली, स्कन्ध >कन्धा दुग्ध>दूध, निम्ब> नीम आदि ।

 (ग) अक्षर लोप

 कभी-कभी प्रयत्नलाघव के फलस्वरूप एक अक्षर का ही लोप हो जाता है, उदाहरणार्थ- माता > माँ, व्यङग्य>व्यंग, भाण्डागार>भंडार, उपाध्याय>ओझा>झा आदि।

 3. वर्ण विपर्यय

 विपर्यय का अर्थ है उलटना। कभी-कभी शब्द के वर्णों का क्रम उच्चारण में उलट जाता है, इसे ही वर्णविपर्यय कहते हैं। यह विधा प्राचीनकाल से ही मान्य है तथा निरुक्त आदि ग्रन्थों में इसका विधिवत् विवेचन मिलता है। उदाहरणार्थ कृत् से कर्त एवं उसका विपर्यय करके तर्क बना है। इसी प्रकार खे शया: (आकाश में सोने वाली) अर्थ में ख,श का विपर्यय करके 'शाखा' बना है। हिंस से सिंह भी विपर्यय का ही उदाहरण है। पश्यति इति - पश्यकः कश्यपः। अर्थात् तत्त्व का द्रष्टा ऋषि कश्यप' है जो 'पश्यकः' का विपर्यय होकर बना हैतथा अंग्रेजी में वक्र>कर्व (curv) आदि ।

4. समीकरण

  जब दो विषम ध्वनियाँ एक दूसरे के समीप आ जाती हैं, तो उनमें से एक ध्वनि दूसरे को प्रभावित कर अपने सदृश बना लेती है। जब पूर्ववर्ती ध्वनि परवर्ती ध्वनि को अपने सदृश बनाती है तो उसे पुरोगामी समीकरण (Progressive Assimilation) कहते हैं। तद्यथा- विष् + नु विष्णु, पुष् + तः > पुष्ट: चक्र > चक्का, पत्र> पत्ता, वल्कल > वक्कल, तत् + लीन > तल्लीन । एतद्विपरीत जब परवर्ती ध्वनि, पूर्ववर्ती ध्वनि को अपने सदृश बनाती है, तो उसे पश्चगामी समीकरण (Regressive Assimilation) कहते हैं, जैसे- शर्करा > शक्कर,धर्म> धम्म (पालि), गल्प > गप्प आदि ।

 5. विषमीकरण

 जब दो समीपस्थ सम ध्वनियों के एक साथ उच्चारण में कठिनाई होती है, तो उनमें से एक ध्वनि विषम हो जाती है। यह उच्चारण की सुकरता (सुगमता) के लिए होता है। तद्यथा-कंकण>कंगन, प्रकट > प्रगट, काक>काग आदि।

6. महाप्राणीकरण

 उच्चारण की सुविधा के लिए कभी-कभी अल्पप्राण ध्वनियों में महाप्राण का व्यवहार होने लगता है, उदाहरणार्थ-गृह> घर, परशु>फरसा, वेष > भेष, शुष्क > सूखा, वाष्प > भाप इत्यादि ।

7. अल्पप्राणीकरण

 उच्चारण की सुविधा के लिए कभी-कभी महाप्राण ध्वनियों में अल्पप्राण का व्यवहार होने लगता है, जैसे- सिन्धु>हिन्दु, भगिनी > बहिन आदि।

8. घोषीकरण

 कभी-कभी मुख-सुख के लिए अघोष ध्वनियों को घोष कर दिया जाता है, तद्यथा-शाक > साग, काक>काग, शती>सदी नकद > नगद आदि ।

 9. अघोषीकरण

    कभी-कभी घोष ध्वनियाँ उच्चारण की सुविधा के लिए अघोष हो जाती हैं, जैसे- मदद>मदत, वाग्+पति>वाक्पति, तद् + पर > तत्पर आदि।

 10. अनुनासिकीकरण

  मुखसुख के लिए अनुनासिक रहित शब्दों को भी कभी-कभी अनुनासिक कर दिया जाता है- यथा- चन्द्र> चाँद, सर्प > साँप, अक्षि> आँख, श्वास> साँस, अश्रु>आँसू, उष्ट्र>ऊँट इत्यादि ।

11. ऊष्मीकरण

कुछ ध्वनियाँ यदा-कदा ऊष्म ध्वनियों में परिवर्तित हो जाती हैं, जैसे- ऑक्टो (Octo) > अष्ट। केन्तुम् वर्ग की भाषाओं की 'क्' ध्वनि शतम् वर्ग की भाषाओं में ऊष्म-स् या ह हो गई हैं।

12. सन्धि कार्य

 कुछ शब्दों में बीच की व्यञ्जन ध्वनियों का लोप होने से अनेक स्वर ध्वनियाँ निकट स्थित हो जाती हैं तथा ऐसी दशा में उनमें सन्धिकार्य होकर ध्वनियों का रूप परिवर्तित हो जाता है, जैसे- अवतार>अ उतार>औतार, नयन > न इन > नैन । उपल>ओला इत्यादि ।

   मुखसुख के लिए कभी-कभी दीर्घ स्वर ह्रस्व तथा ह्रस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। यथा- वानर > बन्दर, आराम> अराम, आभीर>अहीर, आलाप>अलाप, प्रियतम > पीतम, अद्य>आज, पुत्र>पूत आदि ।

उपर्युक्त कारणों से ध्वनि परिवर्तित होती रहती है  तथा भाषा में नये-नये शब्दों का निर्माण और निर्वाण होता रहता है ।

आगे देखें>>>अक्षर ध्वनियाँ एवं भेद<<< 

और पढ़ें>>

लय(सुर या स्वर),   

बलाघात : अर्थ एवं प्रकार,  

अक्षर ध्वनियाँ एवं भेद,   

ध्वनि परिवर्तन के कारण और दिशाएँ,   

स्वर तथा व्यञ्जन ; अर्थ, एवं वर्गीकरण,  

भाषाशास्त्रियों के महाभाष्य सम्बन्धी मत का खण्डन,   

ध्वनि वर्गीकरण के सिद्धान्त एवं आधार,    

भाषाऔर बोली : अर्थ एवं भेद,   

वैदिक और लौकिक संस्कृत में भेद,   

भाषा विज्ञान एवं व्याकरण का सम्बन्ध,    

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भाषा उत्पत्ति के सिद्धान्त । वेदों का अपौरुषेयत्व एवं दिव्योत्पत्तिवाद

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