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भाषा और बोली, अर्थ एवं भेद

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         पिछली पोस्ट में हम सबने पढ़ा-  वैदिक और लौकिक संस्कृत में भेद । अब हम सब पढ़ेंगे--

भाषा और बोली, अर्थ एवं भेद

bhasha_vigyan
bhasha vigyan


मित्रों !
आज हम इस पोस्ट में समझ पाएंगे कि भाषा एवं बोली का अर्थ क्या है ? इन दोनों में अन्तर क्या है ? आदि
जैसा कि हम भाषा के बारे में>>>भाषा क्या है? भाषा की सही परिभाषा<<<< नामक पोस्ट में चर्चा कर चुके हैं ।

भाषा

  भाषा के वर्तमान एवं व्यवहृत रूपों में दो रूप-भाषा और बोली अधिक प्रचलित तथा हैं। भाषा का तात्पर्य यहाँ पर परिनिष्ठित भाषा से है, जिसे स्तरीय भाषा या (Standerd language) कहते हैं। इसे ही आदर्श भाषा या टकसाली भाषा भी कहा जाता है। भाषा, विस्तृत क्षेत्र में प्रयुक्त होती है तथा व्याकरण से नियन्त्रित होती है। साहित्यिक रचनाएँ प्रायः इसी भाषा में होती हैं। शासन, शिक्षा तथा शिक्षित वर्ग में इसका ही व्यवहार है। संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी और चीनी आदि भाषाएँ इसी श्रेणी में आती हैं।

 बोली

  बोली किसी परिनिष्ठित भाषा के अन्तर्गत स्थानभेद एवं प्रयोगभेद के आधार पर अपेक्षाकृत अल्पक्षेत्र में व्यवहृत भाषा है। इसे विभाषा, उपभाषा, तथा Dialect भी कहते हैं। बोली की सर्जना वस्तुत: स्थानीय भेद के कारण होती है, जो भौगोलिक दशाओं से प्रेरित होती है । एक परिनिष्ठित भाषा में यद्यपि अनेक बोलियाँ आती हैं, किन्तु इन बोलियों का रूप इतना भिन्न नहीं होता है कि परस्पर समझ में न आये। इस प्रकार बोधगम्यता रखते हुए स्थानीय भेद को बोली अथवा विभाषा (Dialect) कहते हैं। उदाहरणार्थ ब्रज, अवधी, कुमायूँनी, बुन्देली, भोजपुरी आदि हिन्दी भाषा की बोलियाँ हैं। कतिपय भाषाशास्त्री विभाषा और बोली को भिन्न-भिन्न मानते हैं। उनके अनुसार भाषा और बोली के बीच की एक कड़ी विभाषा है। अंग्रेजी का (Dialect) शब्द 'विभाषा' के लिए प्रयुक्त है, न कि 'बोली' के लिए। 'बोली' के लिए (Sub-dialect) शब्द का प्रयोग होना चाहिए। तदनुसार विभाषा और बोली का लक्षण स्पष्टतः इस प्रकार समझना चाहिए।

विभाषा (Dialect)

 विभाषा का क्षेत्र बोली की अपेक्षा विस्तृत होता है। यह एक प्रान्त या उपप्रान्त में प्रचलित होती है। साहित्यिक रचनाएँ भी इसमें प्राप्त होती हैं। जैसे हिन्दी भाषा के अन्तर्गत ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी आदि विभाषाओं में साहित्यिक कृतियाँ रची जा रही हैं तथा पहले भी रची गईं हैं। बोलियों में से ही कुछ बोलियाँ राजनीतिक, सांस्कृतिक आदि आधार पर अपना क्षेत्र बढ़ाकर साहित्यिक रचना द्वारा अपना स्थान बोली से उच्च करते हुए विभाषा का स्तर और गौरव हासिल कर लेती हैं। इसी प्रकार विभाषा भी राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक-स्तर वृद्धि करके भाषा पद पर अधिष्ठित हो सकती है, जैसे खड़ी बोली, मेरठ-बिजनौर क्षेत्र की विभाषा होते हुए राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत होने के कारण राष्ट्रभाषा के पद पर अधिष्ठित हुई है। इसी प्रकार विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं (विभाषाओं) ने अपने-अपने प्रान्त में गौरव का स्थान प्राप्त किया है।

बोली (Sub-Dialect)- 

 बोली का क्षेत्र भाषा की अपेक्षा अधिक न्यून तथा विभाषा की अपेक्षा अल्प न्यून होता है। इसका सम्बन्ध ग्रामों या जनपदों तक सीमित रहता है। इसमें व्यक्तिगत बोली की प्रधानता रहती है। घरेलू तथा देशज शब्दों की बहुलता बोली की अन्यतम विशेषता है। साहित्यिक रचना का इसमें अभाव होता है। एक विभाषा में स्थानीय भेदों के आधार पर अनेक बोलियाँ पाई जाती है। भाषाशास्त्रियों ने बोली की 4 (चार) विशेषताएँ बताई है।

1. यह डालेक्ट (Dialect) अर्थात् विभाषा का छोटा और स्थानीय रूप है।

2. बोली का साहित्यिक भाषा का स्वरूप नहीं होता।

3. व्याकरण की दृष्टि से बोली असाधु भाषा होती है।

4. इसे बोलने वालों में अधिकांश अशिक्षित तथा निम्नस्तर के व्यक्ति होते हैं। बोली के लिए फ्रांसीसी शब्द पाल्वा (Patois) प्रचलित है। 

  संक्षेप में बोली, विभाषा और भाषा का अन्तर यह कहा जा सकता है कि बोली स्थानीय भाषा है, इसका क्षेत्र जिला या कमिश्नरी तक सीमित है। विभाषा का क्षेत्र इससे बड़ा होता है। यह प्रायः प्रान्तीय के रूप में है। राजभाषा या राष्ट्रभाषा के लिए भाषा शब्द का प्रयोग है। भाषा और भाषा का मौलिक अन्तर बताना सम्भव नहीं है। ये भेद प्रधानतः व्यवहार क्षेत्र विस्तार और अविस्तार पर निर्भर है।

भाषा और बोली में भेद

  भाषा और बोली में सैद्धान्तिक भेद होते हुए भी दोनों के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना बहुत कठिन है। वस्तुतः ये केवल नाम हैं, जो शास्त्रीय विवेचन के लिए आवश्यक हैं। ग्रे महोदय इसे असम्भव कार्य बताते हैं, क्योंकि दोनों अपने सीमान्त क्षेत्र में एक दूसरे में विलीन प्रतीत होती है

1.)
"It is impossible to draw exact lines of demarcation between either dialects or languages, though at their frontiers they merge imperceptibly one into another. 
- Foundation of Language: L. H. Gray, P. 26

2.)
 To the linguist there is no real difference between a 'dialect and a "language' which can be shown to be related however remotely, to another language. By preference the term is restricted to a form of speech which does not differ sufficiently from another form of speech to be unintelligible to the speakers of the latter.
Selected writings of Edward sapir, p. 83

3.) 
  There is no intrinsic difference between language and dialect, the former being a dialect which, for some special reason, such as being speech form of the lecality which is the seat of the government, has aquired preeminence over the other dialects of the country. Actually there is no clear-cut reply to the question. Even a linguist shrinks from answering it and rightly.

- The story of Language by Mario pei; P. 26.

 इससे स्पष्ट है कि भाषा और बोली व्यावहारिक से अधिक सैद्धान्तिक नाम है। जब बोली ही किन्ही कारणों से प्रमुखता प्राप्त कर लेती है, तो भाषा कहलाने लगती है।  भाषा और बोली में मुख्यतः निम्नलिखित अन्तर उद्घाटित किये जा सकते हैं - 

1. क्षेत्र की व्यापकता

    भाषा का क्षेत्र व्यापक होता है और बोली का सीमित, अर्थात् भाषा का व्यवहार अधिक दूर तक होता है और बोली का व्यवहार अपेक्षाकृत कम दूर तक। 

2. एक भाषा के क्षेत्र में अनेक बोलियाँ होती है, किन्तु एक बोली के क्षेत्र में अनेक भाषाएँ नहीं हो सकतीं।

3. भाषा अङ्गी है, जबकि बोली अङ्ग ।

4. एक भाषा की विभिन्न बोलियों में बोधगम्यता होती है, जबकि विभिन्न भाषाओं में नहीं।

5. भाषा का प्रयोग शिक्षा शासन, साहित्यरचना आदि लिए है, जबकि बोली प्रयोग दैनिक व्यवहार लिए।

6. भाषा व्याकरणात्मक दृष्टि शुद्ध तथा परिष्कृत होती है जबकि बोली, व्याकरणात्मक दृष्टि से अपुष्ट ।

7. बोलियों में से ही कोई एक बोली विशेष महत्व प्राप्त करके भाषा बन जाती है ।

  वस्तुत: भाषा और बोली में कोई तात्त्विक अन्तर नहीं है। बोली ही अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त करके भाषा जाती है। पारस्परिक सम्पर्क की सुलभता और अधिकता, भाषा के निर्माण में सहायक होती है और सम्पर्क की दुर्लभता तथा अल्पता से बोलियों का भेद बढ़ता है। जहाँ प्राकृतिक अवरोधक उपस्थित है वहाँ सीमित सम्पर्कवश जनसमुदाय बोली की सीमा में घिरा रहता है, जबकि समतल एवं सुगम क्षेत्रों में भाषाएँ विस्तार पाती है। सामाजिक सम्पर्क से बोलियों की दीवारें टूटती है तथा भाषा के विकास और प्रसार को प्रोत्साहन मिलता है । धार्मिक कारणों से भी भाषा का विकास होता है । साहित्य भाषा के विकास को अत्यधिक प्रभावित करता है। जब किसी बोली में पर्याप्त साहित्यसर्जना हो जाती है, तो वह बोली, भाषा की सीमा आ जाती है। राजनीतिक सक्रियता के कारण भी भाषा का विस्तार होता है। पालि को वह गौरव कभी न मिल पाता यदि अशोक ने इसे अपने अभिलेखों की भाषा न बनाया होता। दैनिक आवश्यकताएँ भी भाषा के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। शिक्षा के प्रसार से भी बोलियों का भेद कम होता है और भाषा के विकास सहायता मिलती है। आज आर्थिक तथा वैज्ञानिक कारण बोलियों की सीमाएँ तोड़ने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चुके हैं। जहाँ भूमण्डलीकरण ने सम्पूर्ण विश्व को परस्पर हितबद्ध दिया है, वहीं विज्ञान ने तकनीकों के विस्तार द्वारा बोधगम्यता एवं भाषा की एकरूपता को बढ़ावा दिया है।

इस प्रकार बोलियाँ अनेक कारणों भाषा के रूप में परिणत हो जाती है। एक अन्तर्राष्ट्रीय भाषा का स्वप्न देखने वाले आधुनिक युग में परिस्थितियाँ बोलियों के प्रतिकूल हैं क्योंकि बोलियों की कई स्वाभाविक निर्बलताएँ हैं । बोलियों में पार्थक्य भावना, वर्गभावना को प्रश्रय देना तथा अभिव्यञ्जना की स्वल्पसीमा आदि दुर्बलताएँ हैं।

बृहत्तर व्यवहार के लिए अनुपयुक्त होते हुए भी बोली अपनी अकृत्रिमता एवं गतिशीलता के कारण महत्त्वपूर्ण है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से तो यह भाषा की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें भाषा के विकास के अध्ययन हेतु महत्त्वपूर्ण सामग्री अन्तर्निहित होती है।


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भागवत दर्शन: भाषा और बोली, अर्थ एवं भेद
भाषा और बोली, अर्थ एवं भेद
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