भाषा विज्ञान का दिव्योत्पत्तिवाद आप सभी पिछले पोस्ट "भाषा उत्पत्ति के सिद्धान्त । वेदों का अपौरुषेयत्व एवं दिव्योत्पत्तिवाद " में देख चुके हैं । अब हम भाषा उत्पत्ति के अन्य सिद्धान्तों की चर्चा करेंगे ।
भाषा उत्पत्ति के अन्य सिद्धान्त |
सङ्केत सिद्धान्त (Agreement Theory)
इसे 'निर्णयवाद', 'निर्णय सिद्धान्त',' स्वीकारवाद' आदि नामों से भी जाना जाता है। इसके प्रवर्तन का श्रेय प्रसिद्ध फ्रांसीसी विद्वान् 'रूसो' को प्राप्त है। इसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य पशुओं आदि के तुल्य सिर हिलाना आदि आङ्गिक सङ्केतों से अपना अभिप्राय प्रकट करता था। बाद में इन सङ्केतों से काम न चल पाने पर उन्होंने एक सभा करके वस्तुओं के नाम निर्णीत कर लिया, जिससे ध्वन्यात्मक सङ्केतों की उत्पत्ति हुई, जिससे भाषा का प्रादुर्भाव हुआ ।आचार्य भामह ने अपने ग्रन्थ 'काव्यालङ्कार' में उल्लेख किया है कि 'सृष्टि के प्रारम्भ में लोक-व्यवहार हेतु यह निर्णय किया गया था कि इतने वर्ण, इस क्रम से रखे जाने पर इस प्रकार के अर्थों का बोध करायेंगे।
इयन्त ईदृशा वर्णा ईदृगर्थाभिधायिनः ।
व्यवहाराय लोकस्य प्रागित्थं समयः कृतः ।।
(काव्यालङ्कार -6/13 )
यह मत अनेक न्यूनताओं से सम्बद्ध होने के कारण अग्राह्य है। प्रथमतः यह कि बिना भाषा के सभा का आयोजन कैसे हुआ? सभा में विचारविनिमय की भाषा क्या थी? सङ्केत शब्दों के निर्माण का आधार क्या था? आदि। द्वितीयतः यह कि यदि भाषा के बिना सभा का आयोजन, सङ्केत निर्माण एवं सङ्केतों की समाजिक सम्पुष्टि हो सकती है तो भाषा की आवश्यकता ही क्या थी? अतः यह सिद्धान्त असिद्ध हो जाता है।
इसके मूल प्रवर्तक 'प्लेटो' माने जाते है तथा इसे 'हेस' व 'मैक्समूलर'ने' व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति में प्रत्येक तत्त्व में एक विशेष ध्वनि या रणन है जिससे उस वस्तु की पहचान जुड़ी है। इसी रणन से अनुप्राणित होकर मानव मस्तिष्क में भी एक झङ्कार होता है। इसी झंकृति के आधार पर प्रत्येक वस्तु का नामकरण किया गया। उदाहरणार्थ- नदी की कल-कल अथवा ननद ध्वनि के कारण उसे 'नदी' कहा गया है। इसी प्रकार गो अश्व, पर्वत, मनुष्य आदि नाम रखे गये। इसी प्रकार लगभग 400-500 मूलशब्दों या मूल धातुओं का निर्माण किया गया। इन्हीं से बाद में नये शब्दों की रचना होती रही।
विचारपूर्ण आलोचना की कसौटी पर यह मत इतना दोषपूर्ण था कि स्वयं मैक्समूलर ने इसे बाद में छोड़ दिया। वस्तुत: इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि किस वस्तु को देखकर क्या ध्वनि मस्तिष्क में झंकृत होती है। यह सिद्धान्त शब्द एवं अर्थ में रहस्यात्मक स्वाभाविक सम्बन्ध मानता है। जबकि इनमें साङ्केतिक सम्बन्ध होता है। सीमित धातुओं को कल्पना और ध्वनि के आधार पर समका नामकरण पूर्णतः अवैज्ञानिक कल्पना है। अत: मत अग्राह्य है।
ध्वन्यनुकरण सिद्धान्त (Onomatopoic Theory or Bow-Bow Theory) -
इस मत के प्रमुख समर्थक हिटनी, पॉल, हर्डर आदि है। इस सिद्धान्त का अभिमत है कि प्राकृतिक वस्तुओं पशु-पक्षियों आदि की ध्वनियों के अनुकरण पर विभिन्न वस्तुओं के नाम रखे जाते हैं।तद्यथा काँव-काँव से 'काक', कू कू से 'कोकिल', झर-झर से 'निर्झर', दर-दर से 'दर्दुर' आदि। भाषा में ध्वनि साम्य के आधार पर अनेक शब्द मिलते हैं। तद्यथा- खाँसना, भौकना, थपथपाना, गुर्राना, रिरियाना, रंभाना, हिनहिनाना, खटखटाना आदि। इसी प्रकार दर्शनीयता के आधार पर भी कुछ शब्द बनते हैं, तद्यथा- चमाचम, जगमग, लकलक, चकमक आदि। ध्वनिमूलक कुछ नाम बच्चे भी रख लेते हैं, यथा- म्याऊँ, भों-भों में में आदि।आलोचना की कसौटी पर यह मत भी खरा नहीं उतरता है, क्योंकि विश्व की भाषाओं में ध्वन्यनुकरण वाले शब्दों की संख्या एक प्रतिशत भी नहीं है तथा कुछ भाषाओं में (यथा- उत्तरी अमेरिका की 'अथवस्कन' भाषा) ध्वन्यनुकरण शब्द हैं ही नहीं। इसके साथ-साथ यदि कौवा, कोयल, दर्दुर, निर्झर आदि ध्वन्यनुकरणात्मक शब्द हैं, तो उन्हें प्रत्येक भाषा में समान रूप से व्यवहत होना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं है। निष्कर्षतः यदि मनुष्य पशु-पक्षियों जैसे जीवों के शब्दों का अनुकरण करके भाषा बना सकता है, तो वह पशु-पक्षियों से भी निकृष्ट है।
आवेग सिद्धान्त (Interjectional Theory or Pooh Pooh Theory) -
इसे 'मनोभावाभिव्यञ्जकतावाद' भी कहते हैं। इसके अनुसार आदिकाल में मनुष्य ने अपने हर्ष, शोक, क्रोध, विस्मय, भय, घृणा आदि भावावेग को प्रकट करने वाले शब्दों का उच्चारण किया। जिनसे ही कालान्तर में भाषा की उत्पत्ति हुई। हर्ष में अहो, अहा, आहा, वाह आदि, शोक में आह, हाय आदि, घृणा में छि:, धिक, दुत् आदि शब्द इसी प्रकार के हैं। इन्हीं आवेग सूचक ध्वनियों के प्रयोग से प्रारम्भ में मनुष्य अपने मनोभाव प्रकट करता रहा तथा बाद में शनैः शनैः भाषण-शक्ति का विकास हुआ और भाषा का प्रारम्भ हुआ। यह सिद्धान्त भी भाषा की उत्पत्ति की यथार्थ व्याख्या प्रस्तुत नहीं करता है. क्योंकि ये आवेग-शब्द आवेगात्मकता को ही प्रकट करते हैं, सामान्य भावाभिव्यक्ति को नहीं। अत: इनका सम्बन्ध भाषा के मुख्य अङ्ग से नहीं है।आवेग ध्वनियाँ तो भाषा की अक्षमता को सूचित करती हैं कि ये भाव भाषा द्वारा व्यक्त नहीं किये जा सकते हैं। अतः इनसे भाषा की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। साथ ही ये आवेग ध्वनियाँ सभी भाषाओं में समान नहीं है। ये शब्द विचारपूर्वक प्रयुक्त नहीं होते हैं, अपितु आवेग की तीव्रता में अनायास निकल पड़ते ये उपयुक्त नहीं है।
श्रम ध्वनि सिद्धान्त (Yo-he-ho Theory)-
इसे 'श्रमापहारमूलकतावाद' भी कहते हैं। इसके प्रतिपादक न्वारे महोदय है। इस सिद्धान्त के अनुसार शारीरिक श्रम के समय मनुष्य के मुख से कुछ ध्वनियाँ अनायास निकल जाती है, जिन्हें 'श्रमध्वनि' कहते हैं । कपड़ा धोते समय धोबी 'हियो' या 'छियो' कहता है। इसी प्रकार बोझ वहन करते समय हो-हो, नाव चलाते समय 'हैया-हैया' आदि श्रमध्वनियाँ हैं। इसी प्रकार की श्रमध्वनियाँ भाषा की उत्पत्ति हेतु उत्तरदायी है । यह मत भाषा की उत्पत्ति के लिए सर्वथा असन्तोषजनक है है। निरर्थक होती हैं, जबकि भाषा सार्थक शब्दों का समुच्चय है। अतः यह पूर्णतः अग्राह्य है ।
इङ्गित सिद्धान्त (Gesture Theory) -
इसके प्रस्तावक डॉ. राये हैं तथा रिचार्ड एवं जोहान्सन ने इसे आगे बढ़ाया है। इस मत के अनुसार प्रारम्भिक मानव ने आङ्गिक चेष्टाओं का ही वाणी द्वारा अनुकरण किया और उससे भाषा बनी, तद्यथा पानी पीते समय होठों के मिलने और साँस खींचने पर 'पा' जैसे ध्वनि हुई। इसलिए 'पा' अर्थ पीना हुआ। इसी प्रकार पीने के समय 'सर' या 'सरब' ध्वनि को लेकर 'शरबत' शब्द बना । यह सिद्धान्त भी मूलतः सारहीन है, क्योंकि हाथ, पैर, ओष्ठ के आधार पर शब्द रचना की कल्पना निर्मूल है। अपि च इङ्गित सिद्धान्त पर बने शब्दों के संख्या भाषा में अत्यल्प हैं। अतः यह सिद्धान्त हास्यास्पद है।
सम्पर्क सिद्धान्त (Contact Theory) -
इसके प्रवर्तक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जी. रेवेज है। इस सिद्धान्त के अनुसार आदिम मानव ने पारस्परिक सामाजिक सम्पर्क के दौरान प्रारम्भ में भूख-प्यास आदि की अभिव्यक्ति हेतु इङ्गित एवं मौखिक अभिव्यक्ति क सहारा लिया होगा, जो प्रारम्भ में भावों के स्तर पर ही रहा होगा। बाद में वह विचारों के स्तर तक विकसित हुआ होगा। प्रारम्भिक शब्द निपात रूप में रहे होंगे। जिनसे बाद में छोटे-छोटे वाक्य बने होंगे। यथा 'माँ' का अर्थ रहा होगा- 'माँ दूध दो या पानी दो'। यह मत बाल मनोविज्ञान, जीव-मनोविज्ञान एवं आदिम प्राणिमनोविज्ञान पर अवलम्बित होने के कारण पूर्णत: तर्कहीन एवं अग्राह्य नहीं है, किन्तु यह आधुनिक विकसित भाषाओं की उत्पत्ति के रहस्य को सुलझाने में पूर्ण समर्थ नहीं है।
सङ्गीत सिद्धान्त (Sing-Song-Theory) -
इसे प्रेम सिद्धान्त' या Woo Woo-Theory भी कहते हैं। डार्विन, स्पेन्सर एवं येस्पर्सन इसे अंशतः स्वीकार करते हैं। इसके अनुसार भावुक एवं सङ्गीतप्रिय आदिमानव के रिक्त समय में गुनगुनाने से निःसृत निरर्थक ध्वनियों ने धीरे-धीरे वस्तुओं से सम्बद्ध होकर भाषा का रूप ग्रहण कर लिया । यह मत मात्र अनुमान पर अवलम्बित होने के कारण तथा प्रमाणों के अभाव में विद्वानों द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया।
प्रतीक सिद्धान्त (Symbolic Theory)-
इस सिद्धान्त के अनुसार संयोग से या अन्य किसी सामान्य सम्बन्ध से किसी शब्द का किसी अर्थ से सम्बन्ध हो जाता है और वह शब्द उस अर्थ का प्रतीक हो जाता है। ऐसे शब्दों को 'नर्सरी शब्द' कहा गया है। ये माता-पिता-भाई आदि से सम्बद्ध है। इनमें अधिकांश में प्रारम्भिक ध्वनि ओष्ट्य ध्वनि है। यथा
शब्द- मातृ, पितृ, भ्रातृ
संस्कृत - माता, पिता, भ्राता
हिन्दी- माता, पिता, भाई
अंग्रेजी - मदर, फाॅदर, ब्रदर
जर्मन - मुट्टेर, फाटेर, ब्रुडेर
फ्रेंच - मैर, पैर, फ्रैर
ग्रीक - मेटेर
लैटिन - माटेर
यह सिद्धान्त यद्यपि सत्य के सन्निकट है तथापि यह भाषा के प्रारम्भिक शब्दों की ही व्याख्या कर पाता है, जिसके कारण यह पूर्ण एवं सर्वाङ्गीण सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता।
11. समन्वय सिद्धान्त (Collective Theory)
इसके प्रतिपादक प्रसिद्ध भाषाशास्त्री हेनरी स्वीट हैं। इसके अनुसार उपर्युक्त में से प्रत्येक सिद्धान्त पृथक्-पृथक् नहीं, बल्कि समन्वित रूप से भाषा की उत्पत्ति व विकास को बहुत हद तक परिभाषित कर सकता है। तदनुसार भाषा का प्रारम्भ अनुरणनात्मक, भावाभिव्यञ्जक एवं प्रतीक शब्दों से हुआ। इसके बाद सादृश्यमूलक गौण एवं लाक्षणिक प्रयोग आरम्भ हुआ तथा शब्दों का अनेक अर्थों में प्रयोग होने लगा। प्रारम्भिक शब्दों की असीमित संख्या 'योग्यतम के अवशेष' नियमानुसार सीमित हो गयी । भाषा की उत्पत्ति को समझने के लिए अन्य कोई एक मत सर्वस्वीकार्य न होने से सबका समन्वय उपयुक्त माना गया है। किन्तु यह मत भी पूर्णत: निर्दोष नहीं है, क्योंकि इससे भी भाषा के सभी पहलुओं की व्याख्या सम्भव नहीं है। उदाहरणार्थ, एक वाक्य लीजिए-
'भाषा और विचार की उत्पत्ति का प्रश्न मानव समाज के विकास के प्रश्न के साथ अनिवार्य रूप से संयुक्त है।' इस छोटे से वाक्य में एक शब्द भी ऐसा नहीं है जो उपर्युक्त सिद्धान्त के समन्वित रूप से भी निष्पन्न किया जा सके। भाषा की असीम व्यापकता और गम्भीरता को देखते हुए ये सभी सिद्धान्त कल्पना-विलास प्रतीत होते हैं। अब तक कोई समुचित और सर्वस्वीकार्य समाधान नहीं मिलने के कारण आधुनिक भाषाविज्ञान ने इस समस्या पर विचार करना बन्द कर दिया है। 1866 ई० में स्थापित पेरिस की भाषाविज्ञान समिति (ला सोसिएते द लेंगिस्तीक) ने अपने अधिनियम में इस बात का स्पष्ट निर्देश कर दिया है कि समिति के तत्त्वावधान में भाषोत्पत्ति विषयक विचार नहीं हो सकता।' (लैंग्वेज: इट्स नेचर, डेवलपमेंट एंड ओरिजन ; ओत्तो येस्पर्सन; पृ. 96) आधुनिक भाषाविज्ञान का विषय है उपलब्ध भाषिक सामग्री का अध्ययन। उनका कहना है कि विज्ञान का काम अनुमान करना नहीं, प्रत्यक्ष सामग्री का उपयोग करना है। भाषोत्पत्ति की मीमांसा मानवविज्ञान या समाजविज्ञान अथवा दर्शनशास्त्र का विषय हो सकता है, भाषाविज्ञान का नहीं। अत: भाषाविज्ञान की अत्याधुनिक पुस्तकों में भाषोत्पत्ति-विषयक सिद्धान्तों की चर्चा नहीं की जाती।
अग्रिम पोस्ट में देखें - "भाषा विज्ञान एवं व्याकरण का सम्बन्ध"
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