भाषा क्या है? भाषा की सही परिभाषा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   हम इस पोस्ट में चर्चा करेंगे कि भाषा क्या है और उसकी सही परिभाषा क्या हो सकती है ।

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भाषा की परिभाषा

 किसी भी वस्तु की निर्दोष परिभाषा देना कठिन कार्य है। भारतीय दर्शनशास्त्रियों का कहना है कि शुद्ध लक्षण या परिभाषा वह है, जिसमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति एवं असम्भव ये तीन प्रकार के दोष बिल्कुल न हों ।

'तदेव लक्षणं यदव्याप्ति-अतिव्याप्ति- असम्भव दोषत्रयशून्यम्'

इस दृष्टि से भाषा की निर्दुष्ट परिभाषा यह हो सकती है-

"जिसकी सहायता से मनुष्य पारस्परिक विचार विनिमय, सहयोग अथवा भावाभिव्यक्ति करते हैं, उस यादृच्छिक, रूढ़, ध्वनिसङ्केतों की प्रणाली को भाषा कहते हैं।"

अथवा

"उच्चरित ध्वनिसङ्केतों की सहायता से भाव या विचार की पूर्ण अभिव्यक्ति भाषा है।"

 (आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा- भाषा विज्ञान की भूमिका)। 

  दूसरी परिभाषा पहली परिभाषा में गतार्थ हो जाती है। भाषा की इस परिभाषा में चार बातें ध्यान देने वाली हैं -

1. भाषा ध्वनिसङ्केत (उच्चरित संकेत) है।

2. वह यादृच्छिक है।

3. वह रूढ़ है।

4. वह एक प्रकार की प्रणाली या व्यवस्था है।

इन चारों तथ्यों पर विचार करने से पूर्व कुछ प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिकों द्वारा दी गई भाषा की परिभाषाओं का उल्लेख करना अप्रासङ्गिक नहीं होगा।

 (1) प्रो. बी. ब्लॉक तथा जी. एल. ट्रैगर के अनुसार- 

A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a social group cooperates.

 - Outlines of linguistic Analysis: B. Bloch & G. L. Trager, P.5 

अर्थात् भाषा यादृच्छिक वाचिक ध्वनिसबूतों की वह पद्धति है, जिसके द्वारा मानव परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करता है।


(2) प्रो. हेनरी स्वीट के अनुसार-

Language may be defined as the expression of thought by means of speech sounds.                - The History of Language. Henry sweet 

   (अर्थात् ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।)

(3)   विभिन्न अर्थों में सङ्केतित शब्द समूह ही भाषा है, जिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरे के प्रति बहुत सरलता से प्रकट करते हैं।

भारतीय भाषाविज्ञान: आचार्य किशोरीदास वाजपेयी

(4) जिन ध्वनिचिह्नों द्वारा मनुष्य परस्पर विचारविनिमय करता है, उनको समष्टि रूप से भाषा कहते हैं। 

- सामान्य भाषा विज्ञान; डॉ. बाबूराम सक्सेना

 (5) भाषा उच्चारणावययों से उच्चरित अध्ययन विश्लेषणीय यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की यह व्यवस्था है, जिसके द्वारा एक समाज के लोग आपस में भावों और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।"

- भाषा विज्ञान; डॉ. भोलानाथ तिवारी 

(6) अर्थवान्, कण्ठोद्गीर्ण ध्वनिसमष्टि ही भाषा है ।                                               -  सुकुमार सेन 

(7) मनुष्य ध्वन्यात्मक शब्दों द्वारा अपना विचार प्रकट करता है। मानव मस्तिष्क सुकुमार सेन वस्तुत: विचार प्रकट करने के लिए ऐसे शब्दों का निरन्तर उपयोग करता है। इस प्रकार के कार्य-कलाप को ही भाषा को संज्ञा दी जाती है।                                                                    - ओत्तो येस्पर्सन

 (8) भाषा एक प्रकार का चिह्न है, चिह्न से तात्पर्य उन प्रतीकों से है, जिनके द्वारा मनुष्य अपना विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक भी कई प्रकार के होते हैं, जैसे- नैत्रग्राहा, श्रोत्रग्राह्य एवं स्पर्शग्राहा। वस्तुत: भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है।                                                      -वान्द्रेये

(9) ध्वन्यात्मक-शब्दों द्वारा हृद्गत भावों तथा विचारों का प्रकटीकरण ही भाषा है।                                                                                       - पी.डी. गुणे

 (10) भाषा यादृच्छिक ध्वनि संकेतों की वह व्यवस्था है, जिसके द्वारा सामाजिक समूह के सदस्य परस्पर सहयोग एवं  विचार-विनिमय करते हैं।

 -स्नुतेवाँ

    उपर्युक्त भाषा-परिभाषाओं में यह बात बताई गई है कि भाषा ध्वन्यात्मक होती है और विचारों को प्रकट करने का काम करती है। वांद्रेये भाषा की प्रतीकात्मकता पर बल देते हैं।  गुणे की परिभाषा में स्वीट की परिभाषा की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। ब्लॉख, ट्रेगर तथा स्त्रुतेवाँ ने भाषा की अन्तर्निहित नियमबद्धता को अपनी परिभाषा में समाहित करने का प्रयत्न किया है , किन्तु रूढ़ि की बात फिर भी रह जाती है। कुछ परिभाषाओं में अनावश्यक शब्द के कारण अत्यधिक विस्तार भी दिखाई पड़ता है। अतः भाषा की सर्वाङ्गीण तथा संक्षिप्त परिभाषा सबसे पहले दी गई है। जो मेरी दृष्टि में भाषा की सर्वाधिक उपयुक्त परिभाषा है।

   'भाषा' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है। सामान्य रूप से भाषा उन सभी माध्यमों कराती है, जिनसे भावाभिव्यञ्जन का काम लिया जाता है। जैसे-


क) पशु-पक्षियों की बोली भाषा है-

    भाषा शब्द का प्रयोग पशुओं या पक्षियों की बोली के लिए भी किया जाता है- कुत्ते की भाषा, बन्दरों की भाषा, तोता-मैना की भाषा गोस्वामी तुलसीदास ने भी लिखा है 

समुझे खग खग ही कै भाषा।- (रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड-62-9)

 पशुओं तथा पक्षियों की भाषा का अध्ययन करने वालों का कहना है कि प्रसन्नता के समय उनकी भाषा वह नहीं रहती जो क्रोध या कष्ट के समय रहती है। अर्थात् भाव या अभिप्राय के अनुसार पशु-पक्षियों की भाषा में भी भेद हो जाया करता है।


(ख) इङ्गित करना भी भाषा  है- 

   मनुष्य अपना अभिप्राय व्यक्त करने के लिए आँख, सिर, हाथ आदि अङ्गों का संचालन करता है। इन अङ्गों की चेष्टाओं द्वारा जो इङ्गित अर्थ व्यक्त होता है वह भी भाषा के कार्य को सम्पन्न करने में सक्षम होता है। इसे आङ्गिक, साङ्केतित या इङ्गित भाषा कहते हैं। अकेले आँख के भिन्न-भिन्न इशारों से चलना, बैठना, जाने का निर्देश, क्रोध या प्रेम आदि का भाव प्रकट हो जाता है। सिर को अलग-अलग ढंग से हिलाकर अपनी सहमति या असहमति का भाव हम व्यक्त कर देते हैं।

(ग) सङ्केत भी भाषा है- इसे चिह्नभाषा या सङ्केत भाषा कहते हैं (Sign language) -

 अर्थबोध के लिए मनुष्य कई प्रकार के चिह्न भी काम में लाता है। स्टेशन मास्टर, रेल-गार्ड, ड्राइवर, स्काउट, सैनिक, नाविक आदि झण्डे की सहायता से अपना सन्देश एक-दूसरे तक भेजते हैं। सड़क की लाल-हरी बत्तियाँ रुकने और जाने का निर्देश करती हैं। यातायात नियन्त्रक सिपाही अपने हाथों के माध्यम से अपना भाव वाहन चालक को बता देता है।

  इस प्रकार भावाभिव्यञ्जन या अर्थबोध के उपर्युक्त सभी साधन गौण या स्थूल रूप में ही भाषा की सीमा में आते हैं। इन साधनों में अपूर्णता एवं अस्पष्टता रहती है। ध्वनिसङ्केत की भाषा ही एकमात्र ऐसी भाषा है, जो वक्तव्य को पूर्णता और स्पष्टता से संप्रेषित करती है। भाषाविज्ञान में भाषा के इसी रूप का अध्ययन किया जाता है। भाषाविज्ञान का सम्बन्ध पशु-पक्षियों की बोली या चिह्नभाषा (सङ्केतभाषा) से नहीं है।

वाचिक भाषा का महत्त्व

   'भाषा' शब्द संस्कृत के ' भाष्' धातु (भाष्- व्यक्तायां वाचि [भ्वादिगण] धातुपाठ) से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है- 'व्यक्तवाणी'। स्पष्ट व पूर्ण अभिव्यन्जना को ही व्यक्तवाणी कहते हैं। उच्चरित या वाचिक भाषा द्वारा स्पष्ट तथा पूर्ण अभिव्यञ्जना की जा सकती है और यही व्यक्तवाणी कहलाती है। वाचिक भाषा में ही सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अर्थों के बोधक अनन्त ध्वनिसङ्केत है। इसीलिए भाषा शब्द मनुष्य की वाचिक भाषा के लिए ही अधिक सङ्गत (सुसङ्गत) है और भाषाविज्ञान में मुख्यतः वाचिक भाषा का ही अध्ययन होता है।

  भाषा की परिभाषा में प्रदत्त चार विशेषताओं को स्पष्टता से समझना आवश्यक है -

1. भाषा ध्वनिसङ्केत है—

   भाषा की परिभाषा में ध्वनिसङ्केत शब्द से भाषाभिव्यञ्जन के अन्य साधन इङ्गित और सङ्केतित साधन का ग्रहण नहीं होता । इङ्गित से विचार विनिमय जाता है किन्तु यह ध्वनि सङ्केत नहीं है। इसी प्रकार लाल-हरी झण्डी से भी अर्थ व्यक्त हो जाता है, किन्तु यह ध्वनिसङ्केत न होने से भाषा की सीमा में नहीं आती।

2. भाषा यादृच्छिक है- 

    भाषा यादृच्छिक सङ्केत है अर्थात् शब्द और अर्थ में कोई तर्कसङ्गत या युक्तिपूर्ण सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ पशुविशेष को कुत्ता या घोड़ा क्यों कहते हैं यह बता पाना असम्भव है। यदि इन ध्वनियों से बोधित होने वाले इन अर्थों में कोई नियत या युक्तिसङ्गत सम्बन्ध होता  तो सभी भाषाओं में इन वस्तुओं के लिए ये ही ध्वनियाँ प्रयुक्त होतीं, किन्तु विभिन्न भाषाओं में इनके वाचक विभिन्न शब्द हैं। उदाहरणार्थ- 

संस्कृत -   श्वा, अश्वः

हिन्दी -     कुत्ता, घोड़ा

अंग्रेजी-    डॉग, हॉर्स

रूसी -     सबाका, लोशज्

फ्रांसीसी- श्याँ,  शव्हाल्

जर्मन-      हुंद, प्फेर्द

     इन पशुओं और इनकी वाचक ध्वनियों में कोई सम्बन्ध नहीं है। ये ध्वनियाँ मनमाने ढंग से गढ़ ली गईं, समाज ने इन्हें स्वीकार कर लिया और ये उन पशुओं की बोधक बन गईं। अत: ध्वनिसङ्केत यदृच्छा से प्रसूत होता है। 

3. भाषा रूढ़ है- 

    भाषा के ध्वनिसङ्केत रूढ़ अर्थात् अर्थविशेष में प्रसिद्ध होते हैं।  यह प्रसिद्धि परम्परा से प्राप्त होती है। प्राणि विशेष के लिए 'गौ' शब्द का प्रयोग लोग पहले से ही करते आ रहे हैं। उस गौ शब्द को सुनकर आज का बालक भी इस पशु के लिए 'गौ' शब्द का प्रयोग करता है। वह यह नहीं जानता और न जानने का प्रयत्न ही करता है और न प्रयत्न करने पर सफल ही होगा कि इसे 'गौ' क्यों कहा गया ? तर्कहीन प्रयोगप्रवाह ही रूढ़ि है। किसी भी भाषा में जितने ध्वनिसङ्केत होते हैं, वे प्रायः रूढ़ ही रहते हैं।

 4. भाषा एक प्रकार की व्यवस्था (प्रणाली) है- 

    भाषा में अन्तर्निहित निमयबद्धता होती है। इसीलिए उसे प्रणाली या व्यवस्था कहा गया है। शब्द और अर्थ में यदृच्छा सम्बन्ध होता है तथा वह रूढ़ि या परम्परा से प्राप्त होता है, किन्तु भाषा के सफल प्रयोग के लिए उसके अन्तर्निहित नियमों का पालन अनिवार्य होता है,  जैसे- कोई यदि 'लड़का पढ़ती हैं तथा लड़की पढ़ता है' कहे तो व्याकरण से अनभिज्ञ व्यक्ति भी इसे नियमविरूद्ध या अशुद्ध वाक्य बतायेगा। कई भाषाओं में तो नियम के अज्ञान से अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। जैसे अंग्रेजी भाषा का नियम है- कर्त्ता पहले आता है, उसके बाद क्रिया और फिर कर्म। यथा Ram beats shyam. अब कोई गलती से इसे आगे-पीछे बोल दे-Shyam beats Ram. तो अर्थ का अनर्थ हो जायेगा। यह नियमबद्धता केवल वाक्य के स्तर पर ही नहीं होता बल्कि शब्दों की संरचना में भी होती है। प्रत्येक भाषा की नियम-व्यवस्था भी अलग-अलग होती है, और तत्तत् भाषा का प्रयोग उसी के नियमों के आधार पर होता है। पर ऐसा कभी नहीं होता कि किसी भाषा में नियमबद्धता ही न हों, अतः भाषा में अन्तर्निहित नियमबद्धता के कारण ही भाषा एक व्यवस्था या प्रणाली का नाम है।

आगे देखें--भाषा उत्पत्ति के सिद्धान्त । वेदों का अपौरुषेयत्व एवं दिव्योत्पत्तिवाद.


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