श्रीवेंकटाध्वरि सूरि कृत राघवयादवीयम् ।अनुलोम-विलोम महाकाव्य सामान्य परिचय । सम्पूर्ण 60 श्लोक हिन्दी अर्थ सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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          राघवयादवीयम् एक संस्कृत स्त्रोत्र है। यह कांचीपुरम के १७वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि द्वारा रचित एक अद्भुत ग्रन्थहै।

इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है। पूरे ग्रन्थ में केवल ३० श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा। इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी ३० श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं ६० श्लोक। पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है राघवयादवीयम् जिनके सम्पूर्ण श्लोकों का हिन्दी अनुवाद आगे दिया जा रहा है ।

॥  राघवयादवीयम्  ॥


  वन्देऽहं    देवं   तं    श्रीतं   रन्तारं   कालं   भासा  यः।
        रामः रामाधीः आप्यागः लीलाम् आर अयोध्ये वासे ॥ १॥

     मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के संधान में मलय और सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा अयोध्या वापस लौट दीर्घ काल तक सीता संग वैभव विलास संग वास किया।

सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी मारामोराः।
    यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

     मैं भगवान श्रीकृष्ण - तपस्वी व त्यागी, रूक्मिणी तथा गोपियों संग क्रीड़ारत, गोपियों के पूज्य - के चरणों में प्रणाम करता हूं जिनके ह्रदय में मां लक्ष्मी विराजमान हैं तथा जो शुभ्र आभूषणों से मंडित हैं।

साकेताख्या ज्यायामासीत् या विप्रादीप्ता आर्याधारा।
      पूः   आजीत  अदेवाद्याविश्वासा अग्र्या सावाशारावा ॥ २॥

    पृथ्वी पर साकेत, यानि अयोध्या, नामक एक शहर था जो वेदों में निपुण ब्राह्मणों तथा वणिको के लिए प्रसिद्द था एवं अजा के पुत्र दशरथ का धाम था जहाँ होने वाले यज्ञों में अर्पण को स्वीकार करने के लिए देवता भी सदा आतुर रहते थे और यह विश्व के सर्वोत्तम शहरों में एक था।

वाराशावासाग्र्या        साश्वाविद्यावादेताजीरा    पूः।
      राधार्यप्ता दीप्रा विद्यासीमा या ज्याख्याता के सा ॥ २॥

    समुद्र के मध्य में अवस्थित, विश्व के स्मरणीय शहरों में एक, द्वारका शहर था जहाँ अनगिनत हाथी-घोड़े थे, जो अनेकों विद्वानों के वाद-विवाद की प्रतियोगिता स्थली थी, जहाँ राधास्वामी श्रीकृष्ण का निवास था, एवं आध्यात्मिक ज्ञान का प्रसिद्द केंद्र था।

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधा असौ घन्वापिका।
       सारसारवपीना         सरागाकारसुभूररिभूः    ॥ ३॥

   सर्वकामनापूरक, भवन-बहुल, वैभवशाली धनिकों का निवास, सारस पक्षियों के कूँ-कूँ से गुंजायमान, गहरे कुओं से भरा, स्वर्णिम यह अयोध्या शहर था।

 भूरिभूसुरकागारासना                      पीवरसारसा।
       का अपि व अनघसौध असौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

    मकानों में निर्मित पूजा वेदी के चंहुओर ब्राह्मणों का जमावड़ा इस बड़े कमलों वाले नगर, द्वारका, में है। निर्मल भवनों वाले इस नगर में ऊंचे आम्रवृक्षों के ऊपर सूर्य की छटा निखर रही है।

रामधाम समानेनम् आगोरोधनम् आस ताम्।
नामहाम् अक्षररसं ताराभाः तु न वेद या ॥ ४॥

    राम की अलौकिक आभा - जो सूर्यतुल्य है, जिससे समस्त पापों का नाश होता है – से पूरा नगर प्रकाशित था। उत्सवों में कमी ना रखने वाला यह नगर, अनन्त सुखों का श्रोत तथा तारों की आभा से अनभिज्ञ था (ऊंचे भवन व वृक्षों के कारण)।

यादवेनः   तु    भाराता  संररक्ष  महामनाः।
        तां सः मानधरः गोमान् अनेमासमधामराः ॥ ४॥

    यादवों के सूर्य, सबों को प्रकाश देने वाले, विनम्र, दयालु, गऊओं के स्वामी, अतुल शक्तिशाली के श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका की रक्षा भलीभांति की जाती थी।

    यन् गाधेयः योगी रागी वैताने सौम्ये    सौख्ये    असौ।
          तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमान् आम अश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

    गाधीपुत्र गाधेय, यानी ऋषि विश्वामित्र, एक निर्विघ्न, सुखी, आनददायक यज्ञ करने को इक्षुक थे पर आसुरी शक्तियों से आक्रान्त थे; उन्होंने शांत, शीतल, गरिमामय त्राता राम का संरक्षण प्राप्त किया था।

तं त्राता हा श्रीमान् आम अभीतं स्फीतं शीतं ख्यातं।
      सौख्ये सौम्ये असौ नेता वै गीरागी यः योधे गायन ॥ ५॥

    नारद मुनि – दैदीप्यमान, अपनी संगीत से योद्धाओं में शक्ति संचारक, त्राता, सद्गुणों से भरपूर, ब्राहमणों के नेतृत्वकर्ता के रूप में विख्यात – ने विश्व के कल्याण के लिए गायन करते हुए श्रीकृष्ण से याचना की जिनकी ख्याति में वृद्धि एक दयावान, शांत परोपकार को इक्षुक, के रूप में दिनोदिन हो रही थी।

मारमं सुकुमाराभं रसाज आप नृताश्रितं।
       काविरामदलाप गोसम अवामतरा  नते ॥ ६॥

   लक्ष्मीपति नारायण के सुन्दर सलोने, तेजस्वी मानव अवतार राम का वरण, रसाजा (भूमिपुत्री) - धरातुल्य धैर्यशील, निज वाणी से असीम आनन्द प्रदाता, सुधि सत्यवादी सीता – ने किया था।

तेन रातम् अवाम अस गोपालात् अमराविक।
       तं   श्रित नृपजा  सारभं  रामा   कुसुमं   रमा ॥ ६॥

      नारद द्वारा लाए गए, देवताओं के रक्षक, निज पति के रूप में प्राप्त, सत्यवादी कृष्ण, के द्वारा प्रेषित, तत्वतः (वास्तव में) उज्जवल पारिजात पुष्प को नृपजा (नरेश-पुत्री) रमा (रुक्मिणी) ने प्राप्त किया।

रामनामा सदा खेदभावे दयावान् अतापीनतेजाः रिपौ आनते।
       कादिमोदासहाता स्वभासा रसामे सुगः रेणुकागात्रजे  भूरुमे ॥ ७॥

   श्री राम - दुःखियों के प्रति सदैव दयालु, सूर्य की तरह तेजस्वी मगर सहज प्राप्य, देवताओं के सुख में विघ्न डालने वाले राक्षसों के विनाशक - अपने बैरी - समस्त भूमि के विजेता, भ्रमणशील रेणुका-पुत्र परशुराम - को पराजित कर अपने तेज-प्रताप से शीतल शांत किया था।

मेरुभूजेत्रगा काणुरे गोसुमे सा अरसा भास्वता हा सदा मोदिका।
     तेन वा पारिजातेन पीता नवा यादवे अभात् अखेदा समानामर ॥ ७॥

    अपराजेय मेरु (सुमेरु) पर्वत से भी सुन्दर रैवतक पर्वत पर निवास करते समय रुक्मिणी को स्वर्णिम चमकीले पारिजात पुष्पों की प्राप्ति उपरांत धरती के अन्य पुष्प कम सुगन्धित, अप्रिय लगने लगे। उन्हें कृष्ण की संगत में ओजस्वी, नवकलेवर, दैवीय रूप प्राप्त करने की अनुभूति होने लगी।

    सारसासमधात   अक्षिभूम्ना  धामसु  सीतया।
           साधु असौ इह रेमे क्षेमे अरम् आसुरसारहा ॥ ८॥

   समस्त आसुरी सेना के विनाशक, सौम्यता के विपरीत प्रभावशाली नेत्रधारी रक्षक राम अपने अयोध्या निवास में सीता संग सानंद रह रहे है थे।

  हारसारसुमा     रम्यक्षेमेर   इह  विसाध्वसा।
        य अतसीसुमधाम्ना भूक्षिता धाम ससार सा ॥ ८॥

    अपने गले में मोतियों के हार जैसे पारिजात पुष्पों को धारण किए हुए, प्रसन्नता व परोपकार की अधिष्ठात्री, निर्भीक रुक्मिणी, आतशी पुष्पधारी कृष्ण संग निज गृह को प्रस्थान कर गयी।

  सागसा   भरताय   इभमाभाता  मन्युमत्तया ।
        स अत्र मध्यमय तापे पोताय अधिगता रसा ॥ ९॥

    पाप से परिपूर्ण कैकेयी पुत्र भरत के लिए क्रोधाग्नि से पागल तप रही थी। लक्ष्मी की कान्ति से उज्जवलित धरती (अयोध्या) को उस मध्यमा (मझली पत्नी) ने पापी विधि से भरत के लिए ले लिया।

सारतागधिया तापोपेता या मध्यमत्रसा।
       यात्तमन्युमता भामा भयेता रभसागसा ॥ ९॥

    सूक्ष्मकटि (पतले कमर वाली), अति विदुषी, सत्यभामा कृष्ण द्वारा उतावलेपन में भेदभावपूर्वक पारिजात पुष्प रुक्मिणी को देने से आहत होकर क्रोध और घृणा से भर गई।
तानवात् अपका उमाभा रामे काननद आस सा।
         या   लता   अवृद्धसेवाका  कैकेयी  महद  अहह ॥ १०॥

    क्षीणता के कारण, लता जैसी बनी, पीतवर्णी, समस्त आनन्दों से परे कैकेयी, राम के वनगमन का कारण बन, उनके अभिषेक को अस्वीकारते हुए, वृद्ध राजा की सेवा से विमुख हो गयी।

   हह    दाहमयी        केकैकावासेद्धवृतालया।
           सा सदाननका आमेरा भामा कोपदवानता ॥ १०॥

   सुमुखी (सुन्दर चहरे वाली) सत्यभामा, अत्यंत विचलित और अशांत होकर दावाग्नि (जंगल की आग) की तरह क्रोध से लाल हो अपने भवन, जो मयूरों का वास और क्रीडास्थल था, उनके कपाटों को बंद कर दिया ताकि सेविकाओं का प्रवेश अवरुद्ध हो जाए।

    वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरात्                अहो।
           भास्वरः स्थिरधीरः अपहारोराः वनगामी असौ ॥ ११॥

   विनम्र, आदरणीय, सत्य के त्याग से और वचन पालन ना करने से लज्जित होने वाले, पिता के सम्मान में अद्भुत राम – तेजोमय, मुक्ताहारधारी, वीर, साहसी - वन को प्रस्थान किए।

सौम्यगानवरारोहापरः    धीरः     स्स्थिरस्वभाः।
        हो दरात् अत्र आपितह्री सत्यासदनम् आर वा ॥ ११॥

   संगीत की धनी, यानि सत्यभामा, के प्रति समर्पित प्रभु (कृष्ण) – वीर, दृढ़चित्त – कदाचित भय व लज्जा से आक्रांत हो सत्यभामा के निवास पंहुचे।

या     नयानघधीतादा     रसायाः   तनया     दवे।
         सा गता हि वियाता ह्रीसतापा न किल ऊनाभा ॥ १२॥

    अपने शरणागतों को शास्त्रोचित सद्बुद्धि देने वाली, धरती पुत्री सीता, इस लज्जाजनक कार्य से आहत, अपनी कान्ति को बिना गँवाए, वन गमन का साहस कर गईं।

 भान् अलोकि न पाता सः ह्रीता या विहितागसा।
          वेदयानः   तया    सारदात   धीघनया    अनया ॥ १२॥

  तेजस्वी रक्षक कृष्ण - वैभवदाता, जिनका वाहन गरुड़ है – उनकी ओर, गूढ़ ज्ञान से परिपूर्ण सत्यभामा ने अपने को नीचा दिखाने से अपमानित, (रुक्मिणी को पुष्प देने से) देखा ही नहीं।

रागिराधुतिगर्वादारदाहः     महसा     हह।
              यान् अगात् भरद्वाजम् आयासी दमगाहिनः ॥ १३॥

    तामसी, उपद्रवी, दम्भी, अनियंत्रित शत्रुदल को अपने तेज से दहन करने वाले शूरवीर राम के निकट, भारद्वाज आदि संयमी ऋषि, थकान से क्लांत पँहुच याचना की।

 नो हि गाम् अदसीयामाजत् व आरभत गा; न या।
           हह    सा   आह    महोदारदार्वागतिधुरा     गिरा ॥ १३॥

    सत्यभामा, अदासी पुष्पधारी कृष्ण, के शब्दों पर ना तो ध्यान ही दी ना तो कुछ बोली जब तक कि कृष्ण ने पारिजात वृक्ष को लाने का संकल्प ना लिया।

यातुराजिदभाभारं    द्यां    व   मारुतगन्धगम्।
         सः अगम् आर पदं यक्षतुंगाभः अनघयात्रया ॥ १४॥

  असंख्य राक्षसों का नाश अपने तेजप्रताप से करनेवाले (राम), स्वर्गतुल्य सुगन्धित पवन संचारित स्थल (चित्रकूट) पर यक्षराज कुबेर तुल्य वैभव व आभा संग लिए पंहुचे।

यात्रया      घनभः   गातुं   क्षयदं  परमागसः।
         गन्धगं तरुम् आव द्यां रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

    मेघवर्ण के श्रीकृष्ण, सत्यभामा को घोर अन्याय से शांत करने हेतु, अप्सराओं से शोभायमान, रम्भा जैसी सुंदरियों से चमकते आँगन, स्वर्ग को गए ताकि वे सुगन्धित पारिजात वृक्ष तक पहुँच सकें।

दण्डकां    प्रदमो    राजाल्या हतामयकारिहा।
         सः समानवतानेनोभोग्याभः न तदा आस न ॥ १५॥

    दंडकवन में संयमी (राम) - स्वस्थ नरेशों के शत्रु (परशुराम) को पराजित करनेवाले, मानवयोनि वाले व्यक्तियों (मनुष्यों) को अपने निष्कलंक कीर्ति से आनन्दित करनेवाले - ने प्रवेश किया।

न सदातनभोग्याभः नो नेता वनम् आस सः।
         हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम्    ॥ १५॥

    सदा आनंददायी जननायक श्रीकृष्ण नन्दनवन को जा पहुंचे, जो इंद्र के अतिआनंद का श्रोत था – वही इन्द्र जो आकर्षक काया वाली अहिल्या का प्रेमी था, जिसने (छलपूर्वक) अहिल्या की सहमति पा ली थी।

सः अरम् आरत् अनज्ञाननः वेदेराकण्ठकुंभजम्।
तं द्रुसारपटः अनागाः नानादोषविराधहा ॥ १६॥

     वे राम शीघ्र ही महाज्ञानी - जिनकी वाणी वेद है, जिन्हें वेद कंठस्थ है - कुम्भज (मटके में जन्मने के कारण अगस्त्य ऋषि का एक अन्य नाम) के निकट जा पंहुचे। वे निर्मल वृक्ष वल्कल (छाल) परिधानधारी हैं, जो नाना दोष (पाप) वाले विराध के संहारक हैं।

हा धराविषदह   नानागानाटोपरसात्  द्रुतम्।
         जम्भकुण्ठकराः देवेनः अज्ञानदरम् आर सः ॥ १६॥

     हाय, वो इंद्र, पृथ्वी को जलप्रदान करने वाले, किन्नरों-गन्धर्वों के सुरीले संगीत रस का आनंद लेने वाले, देवाधिपति ने ज्यों ही जम्बासुर संहारक (कृष्ण) का आगमन सुना, वे अनजाने भय से ग्रसित हो गए।

सागमाकरपाता    हाकंकेनावनतः    हि   सः।
          न समानर्द मा अरामा लंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥

   वेदों में निपुण, सन्तों के रक्षक (राम) का गरुड़ (जटायु) ने झुक कर नमन किया जिनके प्रति अपूर्ण कामयाचना चुड़ैल, लंकेश की बहन (शूर्पणखा), को भी थी।

तं   रसासु अजराकालं  म आरामार्दनम् आस न।
         स  हितः अनवनाकेकं हाता अपारकम् आगसा ॥ १७॥

    वे (कृष्ण) - वृद्धावस्था व मृत्यु से परे - पारिजात वृक्ष के उन्मूलन की इच्छा से गए, तब इंद्र - स्वर्ग में रहते हुए भी कृष्ण के हितैषी – को अपार दुःख प्राप्त हुआ।

 तां सः गोरमदोश्रीदः विग्राम्   असदरः अतत।
          वैरम्  आस  पलाहारा   विनासा  रविवंशके ॥ १८॥

    पृथ्वी को प्रिय (विष्णु यानि राम) के दाहिनी भुजा व उन्हें गौरव देने वाले, निडर लक्ष्मण द्वारा नाक काटे जाने पर, उस माँसभक्षी नासाविहीन (शूर्पणखा) ने सूर्यवंशी (राम) के प्रति वैर पाल लिया।

      केशवं       विरसानाविः   आह   आलापसमारवैः।
               ततरोदसम् अग्राविदः अश्रीदः अमरगः असताम् ॥ १८॥

    उल्लास, जीवनीशक्ति और तेज के ह्रास होने का भान होने पर केशव (कृष्ण) से मित्रवत वाणी में इंद्र – जिसने उन्नत पर्वतों को परास्त कर महत्वहीन किया (उद्दंड उड़नशील पर्वतों के पंखों को इंद्र ने अपने वज्रायुध से काट दिया था), जिसने अमर देवों के नायक के रूप में दुष्ट असुरों को श्रीविहीन किया - ने धरा व नभ के रचयिता (कृष्ण) से कहा।

  गोद्युगोमः   स्वमायः  अभूत् अश्रीगखरसेनया।
          सह साहवधारः अविकलः अराजत् अरातिहा ॥ १९॥

    पृथ्वी व स्वर्ग के सुदूर कोने तक व्याप्त कीर्ति के स्वामी राम द्वारा खर की सेना को श्रीविहीन परास्त करने से, उनकी एक गौरवशाली, निडर, शत्रु संहारक के रूप में शालीन छवि चमक उठी।

   हा     अतिरादजरालोक   विरोधावहसाहस।
           यानसेरखग श्रीद भूयः म स्वम् अगः द्युगः ॥ १९॥

     हे (कृष्ण), सर्वकामनापूर्ति करने वाले देवों के गर्व का शमन करने वाले, जिनका वाहन वेदात्मा गरुड़ है, जो वैभव प्रदाता श्रीपति हैं, जिन्हें स्वयं कुछ ना चाहिए, आप इस दिव्य वृक्ष को धरती पर ना ले जाएँ।

     हतपापचये    हेयः   लंकेशः  अयम् असारधीः।
              रजिराविरतेरापः    हा  हा अहं ग्रहम् आर घः ॥ २०॥

    पापी राक्षसों का संहार करनेवाले (राम) पर आक्रमण का विचार, नीच, विकृत लंकेश – सदैव जिसके संग मदिरापान करनेवाले क्रूर राक्षसगण विद्यमान हैं – ने किया।

घोरम् आह ग्रहं हाहापः अरातेः रविराजिराः।
         धीरसामयशोके  अलं  यः  हेये  च  पपात हः ॥ २०॥

     व्यथाग्रसित हो, शत्रु के शक्ति को भूल, उन्हें (कृष्ण को) बंदी बनाने का आदेश गन्धर्वराज इंद्र – सूर्य की तरह शुभ्र स्वर्णाभूषण अलंकृत मगर कुत्सित बुद्धि से ग्रस्त - ने दे दिया

         ताटकेयलवादत्  एनोहारी   हारिगिर    आस  सः।
                  हा असहायजना सीता अनाप्तेना अदमनाः भुवि ॥ २१॥

    ताड़कापुत्र मारीच को काट मारने से प्रसिद्द, अपनी वाणी से पाप का नाश करने वाले, जिनका नाम मनभावन है, हाय, असहाय सीता अपने उस स्वामी राम के बिना व्याकुल हो गईं (मारीच द्वारा राम के स्वर में सीता को पुकारने से)।

विभुना मदनाप्तेन आत आसीनाजयहासहा।
         सः   सराः गिरिहारी ह नो देवालयके अटता ॥ २१॥

         प्रद्युम्न संग देवलोक में विचरण कर रहे कृष्ण को रोकने में, पुत्र जयंत के शत्रु प्रद्युम्न के अट्टहास को अपनी बाणवर्षा से काट कर शांत करनेवाले, अथाह संपत्ति के स्वामी, पर्वतों के आक्रमणकर्ता इंद्र, असमर्थ हो गए।

भारमा कुदशाकेन आशराधीकुहकेन हा।
          चारुधीवनपालोक्या वैदेही  महिता हृता ॥ २२ ॥

     लक्ष्मी जैसी तेजस्वी का, अंत समय आसन्न होने के कारण नीच दुष्ट छली नीच राक्षस (रावण) द्वारा, उच्च विचारों वाले वनदेवताओं के सामने ही उस सर्वपूजिता सीता का अपहरण कर लिया गया।

ताः हृताः हि  महीदेव ऐक्य अलोपन धीरुचा।
         हानकेह कुधीराशा नाकेशा अदकुमारभाः ॥ २२॥

     तब, एक ब्राह्मण की मैत्री से उस लुप्त अविनाशी, चिरस्थायी ज्ञान व तेज को पुनर्प्राप्त कर नाकेश (स्वर्गराज, इंद्र) – जिनकी इच्छा पलायन करने वाले देवताओं की रक्षा करने की थी – ने आकुल कुमार प्रद्युम्न का प्रताप हर लिया।

          हारितोयदभः       रामावियोगे     अनघवायुजः।
                   तं रुमामहितः अपेतामोदाः असारज्ञः आम यः ॥ २३॥

   मनोहारी, मेघवर्णीय (राम) – को सीता से वियोग के पश्चात संग मिला निर्विकार हनुमान का और सुग्रीव का जो अपनी पत्नी रुमा के श्रद्धेय थे, जो बाली द्वारा सताए जाने के कारण अपना सुख गवाँ विचारहीन, शक्तिहीन हो राम के शरणागत हो गए थे।

यः  अमराज्ञः  असादोमः अतापेतः हिममारुतम्।
         जः युवा घनगेयः विम् आर आभोदयतः अरिहा ॥ २३॥

    तब देवताओं से युद्ध का परित्याग कर चुके, अतुल्य साहसी (प्रद्युम्न), आकाश में संचारित शीतल पवन से पुनर्जीवित हो गुरुजनों का गुणगान अर्जन किया जब उनके द्वारा शत्रुओं को मार विजय प्राप्त किया गया।

   भानुभानुतभाः        वामा    सदामोदपरः     हतं।
            तं ह तामरसाभक्क्षः अतिराता अकृत वासविम् ॥ २४॥

    सूर्य से भी तेज में प्रशंसित, रमणीक पत्नी (सीता) को निरंतर अतुल आनंद प्रदाता, जिनके नयन कमल जैसे उज्जवल हैं – उन्होंने इंद्र के पुत्र बाली का संहार किया।

    विं      सः     वातकृतारातिक्षोभासारमताहतं।
             तं हरोपदमः दासम् आव आभातनुभानुभाः ॥ २४॥

     उस कृष्ण ने – जिनके तेज के समक्ष सूर्य भी गौण है – जिसने अपने उत्तेजित सेवक गरुड़ की रक्षा की, जिस गरुड़ ने अपने डैनों की फड़फड़ाहट मात्र से शत्रुओं की शक्ति और गर्व को क्षीण किया था – जिस (कृष्ण) ने कभी शिव को भी पराजित किया था।

  हंसजारुद्धबलजा    परोदारसुभा    अजनि।
           राजि रावण रक्षोरविघाताय रमा आर यम् ॥ २५॥

    हंसज, यानि सूर्यपुत्र सुग्रीव, के अपराजेय सैन्यबल की महती भूमिका ने राम के गौरव में वृद्धि कर रावण वध से विजयश्री दिलाई।

यं रमा आर   यताघ विरक्षोरणवराजिर।
          निजभा सुरद रोपजालबद्ध रुजासहम् ॥ २५॥

      उस कृष्ण के हिस्से निर्मल विजयश्री की ख्याति आई जो बाणों की वर्षा सहने में समर्थ हैं, जिनका तेज युद्धभूमि को असुर-विहीन करने से चमक रहा है, उनका स्वाभाविक तेज देवताओं पर विजय से दमक उठा।

        सागरातिगम्        आभातिनाकेशः        असुरमासहः।
               तं सः मारुतजं गोप्ता अभात् आसाद्य गतः अगजम् ॥ २६॥

   समुद्र लांघ कर सहयाद्री पर्वत तक जा समुद्र तट तक पहुंचने वाले की प्राप्ति दूत हनुमान के रूप में होने से, इंद्र से भी अधिक प्रतापी, असुरों की समृद्धि को असहनशील, उस रक्षक राम की कीर्ति में वृद्धि हो गई।

जं गतः गदी असादाभाप्ता गोजं तरुम् आस तं।
     हः समारसुशोकेन अतिभामागतिः आगस ॥ २६॥

    जो गदाधारी हैं, अपरिमित तेज के स्वामी हैं, वो कृष्ण – प्रद्युम्न को दिए कष्ट से अत्यधिक कुपित हो - स्वर्ग में उत्पन्न वृक्ष को झपट कर विजयी हुए।

वीरवानरसेनस्य त्रात अभात् अवता हि सः।
       तोयधो अरिगोयादसि अयतः नवसेतुना ॥ २७॥

    वीर वानर सेना के त्राता के रूप में विख्यात राम, उस सेतुसमुन्द्र पर चलने लगे, जो अथाह विस्तृत सागर के जीव-जंतुओं से भी रक्षा कर रहा था।

ना तु सेवनतः यस्य दयागः अरिवधायतः।
               स हि तावत् अभत त्रासी अनसेः अनवारवी ॥ २७॥

     जो व्यक्ति, प्रभु हरि की सेवा में रत, उनका यशगान करता है, वह प्रभु की दया प्राप्त कर शत्रुओं पर विजय पाता है। जो ऐसा नहीं करता है वह निहत्थे शत्रु से भी भयभीत होकर कान्तिविहीन हो जाता है।

हारिसाहसलंकेनासुभेदी महितः हि सः।
              चारुभूतनुजः रामः अरम् आराधयदार्तिहा ॥ २८॥

     चमत्कारिक रूप से साहसी उस राम द्वारा रावण के प्राण हरने पर देवताओं ने उनकी स्तुति की। वे रूपवती भूमिजा सीता के संग हैं, तथा शरणागतों का कष्ट निवारण करते हैं।

हा आर्तिदाय धराम् आर मोराः जः नुतभूः रुचा।
          सः हितः हि मदीभे सुनाके अलं सहसा अरिहा ॥ २८॥

  वे, प्रद्मुम्न को युद्ध के कष्टों से उबारने के पश्चात लक्ष्मी को निज वक्षस्थली रखने वाले, कीर्तियों के शरणस्थल जो प्रद्युम्न के हितैषी कृष्ण, ऐरावत वाले स्वर्गलोक को जीत कर पृथ्वी को वापस लौट आए।

नालिकेर सुभाकारागारा असौ सुरसापिका।
         रावणारिक्षमेरा पूः   आभेजे हि न न अमुना ॥ २९॥

     नारियल वृक्षों से आच्छादित, रंग-बिरंगे भवनों से निर्मित अयोध्या नगर, रावण को पराजित करने वाले राम का, अब समुचित निवास स्थल बन गया।

 ना अमुना नहि जेभेर पूः आमे अक्षरिणा वरा।
          का अपि सारसुसौरागा राकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

   अनेकों विजयी गजराजों वाली भूमि द्वारका नगर में धर्म के वाहक सताप्रिय कृष्ण, दिव्य वृक्ष पारिजात से दीप्तिमान, का प्रवेश क्रीड़ारत गोपियों संग हुआ।

सा अग्र्यतामरसागाराम् अक्षामा घनभा आर गौः।
        निजदे  अपरजिति  आस  श्रीः  रामे  सुगराजभा ॥ ३०॥

  अयोध्या का समृद्ध स्थल, तामरस (कमल) पर विराजमान राज्यलक्ष्मी का सर्वोत्तम निवास बना। सर्वस्व न्योछावर करानेवाले अजेय राम के प्रतापी शासन का उदय हुआ।

  भा   अजराग  सुमेरा  श्रीसत्याजिरपदे   अजनि।
          गौरभा अनघमा क्षामरागा स अरमत अग्र्यसा ॥ ३०॥

 श्रीसत्य (सत्यभामा) के आँगन में अवस्थित पारिजात में पुष्प प्रस्फुटित हुए। सत्यभामा, इस निर्मल संपत्ति को पा कृष्ण की प्रथम भार्या रुक्मिणी के प्रति इर्ष्याभाव का त्याग कर, कृष्ण संग सुखपूर्वक रहने लगी। 

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